Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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समयसार गाथा प० थी पप ] [ १२३ पुद्गलना परिणाम छे अने तेथी अनुभूतिथी भिन्न छे. आत्मा अखंड, अभेद शुद्धचैतन्यघनवस्तु छे. वर्तमान पर्यायने ध्रुव तरफ ढाळतां अभेद वस्तु जणाय छे पण आ विशुद्धिस्थानना भेदो तेमां देखाता नथी. अहाहा! शुद्ध द्रव्यने ध्येय बनावतां जे निर्मळ ध्याननी वर्तमान पर्याय उदित थई एमां आ व्यवहाररत्नत्रयना शुभभाव देखाता नथी. शुभभाव ध्याननी अनुभूतिथी भिन्न रही जाय छे. माटे ते शुभराग जीवना नथी. तेथी ते लक्ष करवा योग्य नथी. वर्तमान अवस्था अंदर ध्रुव, अभेद चैतन्यसामान्य तरफ वळतां, भले ते अवस्थामां ‘आ ध्रुव, अभेद चैतन्यसामान्य छे’-एवो विकल्प नथी पण एवुं ज्ञान- श्रद्धाननुं निर्मळ परिणमन छे अने ते अनुभूति छे. ए अनुभूतिमां शुभभावना भेदो आवता नथी पण भिन्न रही जाय छे. तेथी शुभभाव जीवने नथी एम अहीं कह्युं छे.

२७. हवे जे चारित्रनी प्राप्ति छे, संयमलब्धिनां स्थान छे ते बधांय जीवने नथी एम कहे छे. चारित्रनी-संयमनी जे निर्मळ पर्यायो छे ते भेदरूप छे. ज्यारे आत्मा अखंड अभेद द्रव्य छे. तेथी अभेद द्रव्यस्वरूप जीवमां आ चारित्रना भेदो नथी एम कह्युं छे. अहीं निमित्त, राग अने भेदनुं पण लक्ष करवा योग्य नथी एम कहेवुं छे. अंदर पूर्ण परमात्मा चैतन्यदेव साक्षात् स्वस्वरूपे बिराजमान छे. तेना तरफ ढळतां, वर्तमान पर्यायने तेमां ढाळी एकाग्र करतां जे स्वानुभूति प्रगट थाय छे ते स्वानुभूतिमां संयमना भेदो आवता नथी, भिन्न रही जाय छे. कोईने लागे के आ तो एकांत छे, एकलुं निश्चय-निश्चय छे. पण बापु! निश्चय एटले ज सत्य अने व्यवहार तो उपचार छे. आ तो सम्यक् एकांत छे. वीतरागदेवे प्ररूपेलो मार्ग आवो ज छे. त्रिकाळी शुद्ध द्रव्यने ध्येय बनावी प्रगट थती ध्याननी दशामां ‘आ ध्यान अने आ ध्येय’ एवो भेद-विकल्प पण रहेतो नथी. द्रष्टिनो विषय जे शुद्ध आत्मा तेमां संयमलब्धिनां स्थानो नथी तथा शुद्ध आत्माने विषय करनारी द्रष्टि जे अनुभूति तेमां पण ते संयमलब्धिना भेदो जणाता नथी, भिन्न ज रही जाय छे. भाई! वीतरागनो मार्ग बहु झीणो छे. तेमां वादविवाद करे कांई पार पडे एम नथी. भगवान! अंदर भगवाननी पासे जवुं छे त्यां वादविवाद केवा?

अहीं संयमलब्धिनां स्थानोने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. तेमां क्षयोपशम चारित्र पण आवी गयुं. पर्याय तरफनुं लक्ष छोडाववा अने त्रिकाळी वस्तु छे त्यां लक्ष-पर्यायने ढाळवा अहीं संयमलब्धिना परिणामने पुद्गलना कह्या छे. अथवा बीजी रीते कहीए तो ते संयमनां- निर्मळ परिणामनां स्थानो उपर लक्ष जतां विकल्प थाय छे. माटे तेने पुद्गलना परिणाम कह्या छे. अंतर्मुख पुरुषार्थ वधवाथी क्रमे क्रमे संयमनी दशा वधे छे. परंतु अहीं कहे छे के ते दशा जीवने नथी. केम? कारण के जे अनुभूतिनी पर्याय द्रव्यमां ढळे छे तेमां ते दशा-स्थानो-भेदो रहेता नथी, एटले के अनुभवमां आवता नथी.