Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१२६ ] [ प्रवचन रत्नाकर भाग-३ सम्यग्द्रष्टि ते चोथुं गुणस्थान छे. अहा! परिणामने द्रव्यमां वाळतां ते असंयत सम्यग्द्रष्टिना परिणाम पण लक्षमां रहेता नथी. अविरत सम्यग्द्रष्टिपणुं-सम्यक्त्व पण पर्याय छे. अने पर्याय उपर लक्ष जतां तो राग ज थाय छे. तेथी अहीं कहे छे के असंयतसम्यग्द्रष्टिपणुं पण पुद्गलना परिणाम छे. अहाहा! परिणाम ज्यारे अंतरमां वळे छे त्यारे असंयत सम्यक्त्वना परिणाम पण अनुभूतिमां आवता नथी. एकमात्र अभेद वस्तु अनुभूतिमां आवे छे, जणाय छे.

संयतासंयत ते श्रावकनुं पांचमुं गुणस्थान, प्रमत्तसंयत ते छठ्ठुं गुणस्थान, अप्रमत्तसंयत ते सातमुं गुणस्थान, अपूर्वकरण ते आठमुं गुणस्थान छे. तेमां उपशम अने क्षपक बन्नेय लेवां. अनिवृत्तिकरण-उपशम अने क्षपक ते नवमुं गुणस्थान, सूक्ष्मसांपराय-उपशम अने क्षपक ते दशमुं गुणस्थान, उपशांतकषाय ते अगियारमुं गुणस्थान, क्षीणकषाय ते बारमुं गुणस्थान, सयोग केवळी ते तेरमुं अने अयोग केवळी ते चौदमुं गुणस्थान छे. आ गुणस्थानो छे ते मोह अने योगना भेदथी बने छे. आवा भेदलक्षणवाळा जे गुणस्थानो छे ते बधांय जीवने नथी. जीवद्रव्यमां भेद नथी अने द्रव्यनो अनुभव करतां तेमां पण भेद आवतो नथी. माटे भेद बधोय पुद्गलनो छे. भाई! आ तो अलौकिक अद्भुत मार्ग छे! बापु! भवसिंधुने तरवानो आ उपाय छे. ४८ना अवतार ए मोटो भवसिंधु छे. चैतन्यसिंधु भगवान आत्माने आश्रये जतां ए भवसिंधु तरी जवाय छे. पर्यायना आश्रये तराय एम नथी.

वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थान आदि जडपणुं तो जीवने नथी, पण शुभराग पण जीवने नथी केमके रागमां चैतन्यनो अभाव छे. अहीं तो विशेष कहे छे के भेदमां पण चैतन्यनो अभाव होवाथी भेद पण जीवने नथी. त्रिकाळी भगवान आत्मामां ते सघळा भेदो नथी. तथा आत्माना आश्रये प्रगट थती अनुभूतिमां पण ते भेदो आवता नथी. आवी वात छे, भाई. एक अक्षर फरतां आखी वात फरी जाय एम छे. बापु! आ तो वीतराग परमेश्वर त्रिलोकनाथनी दिव्यध्वनि छे. अनुभूतिनी जे पर्याय द्रव्य उपर ढळी छे ते अभेद एकरूप आत्माने ज जुए छे, एने अभेदमां भेद भासतो नथी. तेथी भेदने पुद्गलना परिणाम कह्या छे.

आ प्रमाणे उपरोक्त बधाय भावो पुद्गलद्रव्यना परिणाममय होवाथी जीवने नथी. जीव तो परमात्मस्वरूप चैतन्यशक्ति-स्वभावमात्र छे.

हवे आ ज अर्थनुं कळशरूप काव्य कहे छेः-

* कळश ३७ः श्लोकार्थ उपरनुं प्रवचन *

वर्ण–आद्याः जे रंग, गंध आदि बाह्य पदार्थो वा अथवा राग–मोह–आदयः वा राग-मोहादिक अभ्यंतर भावाः परिणामो छे ते सर्वे एव बधाय अस्य पुंसः