समयसार गाथा-६२ ] [ १प७ आदि तो कयांय दूर रही गयां. ए तो प्रत्यक्ष पुद्गल-परवस्तु छे. अहीं तो कहे छे के-जे वडे तीर्थंकर गोत्र बंधाय ए सोलहकारण भावनानो भाव पण राग छे अने ते पुद्गलनी साथे संबंध राखे छे, अजीवरूप छे, अने तेना फळमां पण अजीव मळे छे.
अरेरे! आवुं सांभळवाय मळे नहि तेने एनी प्रतीति तो कयांथी थाय? एनां तो मनुष्यपणां चाल्यां जाय छे. ए कयां जशे? आ संस्कार अंदर न पडया तो ८४ना अवतारमां एना कयां उतारा थशे? भाई! भगवान आत्मा तो अनादि-अनंत नित्य रहेवानो छे. आ राग मारो अने रागथी मने लाभ थशे एवी मिथ्याश्रद्धानो त्याग न कर्यो तो ए कयां जशे? कयांक जशे तो खरो ज. अने मिथ्यात्वनुं फळ तो नरक, निगोदादि ज कहेलुं छे. भाई! आवो अवसर प्राप्त थवो महा कठण छे.
अहीं कहे छे के राग चाहे तो दया, दान, भक्तिनो हो के पंचमहाव्रतनो हो, एनुं ऊपजवुं अने व्यय थवुं पुद्गलनी साथे संबंध राखे छे. प्रभु! तारुं चैतन्यघर तपासवा माटे आ वात करे छे. तारुं घर तुं जो, एमां तने रागादिनां उत्पत्ति-व्यय नहीं जणाय. तने तारो नाथ चैतन्यदेव अतीन्द्रिय आनंदनां उत्पत्ति-व्यय साथे जणाशे. अहा! कुंदकुंदाचार्य आदि दिगंबर संतो अपार करुणा करी मार्ग बतावे छे. तेओ ऊंचेथी पोकारीने कहे छे के-प्रभु! तारी प्रसिद्धि तो अतीन्द्रिय ज्ञान अने आनंदनी पर्यायथी थाय छे. तारी प्रसिद्धि रागथी केम होय? केमके रागनी प्रसिद्धि छे ए तो पुद्गलनी प्रसिद्धि छे. गजब वात! आ समयसार ए तो जगतचक्षु-अजोडचक्षु छे. अने आ टीकानुं नाम आत्मख्याति छे ने! अभेद एक शुद्ध द्रव्यस्वभाव उपर द्रष्टि करतां जे अतीन्द्रिय आनंद-शांतिनी पर्याय प्रगट थाय ते तारी प्रसिद्धि एटले आत्मख्याति छे. अहो! पंचम आराना संतोए जगतनी दरकार छोडीने, सत्य आ ज छे-एम सत्यना डंका वगाडया छे.
एक कविए कह्युं छे के-
प्रभु! तारी प्रभुता तो त्यारे कहीए के ज्यारे निर्मळ पर्यायनां उत्पत्ति-व्यय थाय. रागनी उत्पत्ति अने रागनो व्यय ए तारी प्रभुता नथी. राग छे ए तो रोग छे. तेने हरी ले ए तारी खरी प्रभुता छे. अहाहा! शुभाशुभ राग ए तो पुद्गलनो विस्तार छे, पुद्गलनी प्रसिद्धि छे. एमां आत्मानी प्रसिद्धि नथी. अहो! अमृतचंद्राचार्यदेवे टीकामां एकलां अमृत रेडयां छे. शुं टीकानी गंभीरता अने शुं तेनो मर्म!
जेनी पर्यायमां अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख अने अनंतवीर्य खीली नीकळ्यां छे ते परमात्मा छे. जेम गुलाब हजार पांखडीए खीली ऊठे छे तेम आ