अथैतदसुलभत्वेन विभाव्यते
एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण
हवे ते एकत्वनी असुलभता बतावे छेः-
परथी जुदा एकत्वनी उपलब्धि केवळ
गाथार्थः– [सर्वस्य अपि] सर्व लोकने [कामभोगबन्धकथा] कामभोगसंबंधी बंधनी कथा तो [श्रुतपरिचितानुभूता] सांभळवामां आवी गई छे, परिचयमां आवी गई छे अने अनुभवमां पण आवी गई छे तेथी सुलभ छे; पण [विभक्तस्य] भिन्न आत्मानुं [एकत्वस्य उपलम्भः] एकपणुं होवुं कदी सांभळ्युं नथी, परिचयमां आव्युं नथी अने अनुभवमां आव्युं नथी तेथी [केवलं] एक ते [न सुलभः] सुलभ नथी.
टीकाः– आ समस्त जीवलोकने, कामभोगसंबंधी कथा एकपणाथी विरुद्ध होवाथी अत्यंत विसंवादी छे (आत्मानुं अत्यंत बूरुं करनारी छे) तोपण, पूर्वे अनंत वार परिचयमां आवी छे अने अनंत वार अनुभवमां पण आवी चूकी छे. केवो छे जीवलोक? जे संसाररूपी चक्रना मध्यमां स्थित छे, निरंतरपणे द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भव अने भावरूप अनंत परावर्तोने लीधे जेने भ्रमण प्राप्त थयुं छे, समस्त विश्वने एकछत्र राज्यथी वश करनार मोटुं मोहरूपी भूत जेनी पासे बळदनी जेम भार वहेवडावे छे, जोरथी फाटी नीकळेला तृष्णारूपी रोगना दाहथी जेने अंतरंगमां पीडा प्रगट थई छे, आकळो बनी बनीने मृगजळ जेवा विषयग्रामने (ईन्द्रियविषयोना समूहने) जे घेरो घाले छे अने जे परस्पर आचार्यपणुं पण करे छे (अर्थात् बीजाने कही ते प्रमाणे अंगीकार करावे छे). तेथी