अहाहा! भेदज्ञानप्रकाशथी स्पष्ट देखवामां आवे छे एवी अंतरंगमां चकचकाट करती ज्ञानरूपी प्रकाशनी मूर्ति असंख्य प्रकारना शुभाशुभ विकल्पो साथे एकरूप जेवी मानवामां आवतां ढंकाई गई छे, रागनी एकत्वबुद्धि आडे ए नजरमां आवती नथी.
रागना विकल्पो अने परलक्षी ज्ञान ए ज जाणे मारी चीज छे एवी मान्यताने आडे ज्ञायक प्रकाशमान चैतन्यज्योति ढंकाई गई छे. पोतामां अनात्मज्ञपणुं होवाथी अर्थात् पोताने आत्माना ज्ञाननो अभाव होवाथी अंदर प्रकाशमान चैतन्यचमत्कार वस्तु पडी छे तेने कदीय जाणी के अनुभवी नथी. पोते आत्मानुं एकपणुं नहीं जाणतो होवाथी तथा आत्माने जाणनारा संतो-ज्ञानीओनी संगति-सेवा नहीं करी होवाथी भिन्न आत्मानुं एकपणुं कदी सांभळ्युं नथी, परिचयमां आव्युं नथी अने तेथी अनुभवमां पण आव्युं नथी. आत्मज्ञ संतोए रागथी अने परलक्षी ज्ञानथी भिन्न आत्मानुं एकपणुं कह्युं, पण ते एणे मान्युं नहीं तेथी तेमनी संगति-सेवा करी नहीं एम कह्युं छे. गुरुए जेवो आत्मा कह्यो तेवो मान्यो नहीं, परंतु बाह्य प्रवृत्तिमां जीव रोकाई गयो. दया, दान, व्रत, तप, भक्ति ईत्यादिना शुभरागमां धर्म मानीने रोकाई गयो.
भाई! लोको माने छे तेनाथी मार्ग तद्न जुदो छे. सम्यग्दर्शन अने तेनो विषय जेनाथी जन्म-मरणनो अंत आवे ए वात तद्न जुदी छे. दिगंबर संतोए अने केवळीओए ते कही छे, तेणे सांभळी पण छे, परंतु मानी नथी तेथी संगति- सेवा कर्यां नहीं एम कहे छे. सांभळवा तो मळ्युं छे केमके समोसरणमां अनंत वार गयो छे. समोसरणमां एटले त्रणलोकना नाथ देवाधिदेव अरिहंत परमात्मानी धर्मसभामां, ज्यां ईन्द्रो अने एकावतारी पुरुषो, वाघ अने सिंह आदि बेठा होय छे त्यां अनंत वार गयो छे. पण केवळी आगळ रही गयो कोरो, केमके केवळी भगवाने जेवो शुद्धात्मा भिन्न बताव्यो तेवो मान्यो नहीं. भगवाननी दिव्यध्वनिनो सार जे शुद्धात्मा ते अभिप्रायमां लीधो नहीं. मात्र द्रव्यक्रियानो अभिप्राय पकडी द्रव्यसंयम पाळवामां मग्न थयो. एवो द्रव्यसंयम पाळी अनंतवार नवमी ग्रैवेयकनो देव थयो. छ-ढाळामां आवे छे ने केः-
द्रव्यसंयम पाळवानो भाव तो शुभभाव हतो, तेथी स्वर्गनो ऋद्धिधारी देव थयो पण त्यांथी पाछो पटकायो. बाह्य संयम भले पाळ्यो, पण आत्मज्ञान विना जरापण सुख पाम्यो नहीं, भवभ्रमणथी छूटयो नहीं.