आ लोकमां सर्व मिथ्याद्रष्टि जीवो-एकेन्द्रियथी मांडीने पंचेन्द्रिय सुधीना जीवोसंसाररूपी चक्र पर चढी पांच परावर्तनरूप भ्रमण करे छे. अनादिथी पुण्य- पापरूपी भावकर्ममां भींसाई रह्या छे. अनंत परावर्तनमां आ शरीरादिना पुद्गलो अनेकवार संयोगमां आवी गया छे. दरेक क्षेत्रे अनंतवार जन्मीने मरी चूक्यो छे. दरेक काळमां अनंत जन्म-मरण कर्यां छे. एवी रीते दरेक भवमां अनंतवार परिभ्रमण कर्युं छे. एवी रीते शुभाशुभ भाव पण अनंतवार जीव करी चूक्यो छे. आ पांच परावर्तनरूप भ्रमणमां तेने मोहकर्मना उदयरूप पिशाच-भूतडुं धोंसरे जोडे छे. ऊलटी मान्यतारूप भूतडाए तेने रागनी एकतारूप संसारना धोंसरे जोडी दीधो छे. बायडीनुं करवुं, छोकरानुं करवुं, देशनुं करवुं, शरीरनुं करवुं एम मिथ्यात्व वडे, पोतानो छतो स्वभाव नहीं जाणवाथी, रागना एकत्वरूप धोंसरे जोडायो छे. तेथी ते विषयोनी तृष्णाना दाहथी पीडित थई रह्यो छे. तृष्णाना दाहनी बळतराथी बळी रह्यो छे. आ सांभळवुं, जोवुं, सूंघवुं, चाखवुं, स्पर्शवुं एवा पंचेन्द्रियोना विषयोनी तृष्णारूप अग्निथी अंदर बळी रह्यो छे. ते दाहनो ईलाज ईन्द्रियोना विषयो-रूप आदि विषयो- छे एम जाणी पोताना उपयोगने ते तरफ जोडे छे. ते पंचेन्द्रियोना विषयोने घेरो घाले छे. ते विषयोने जाणवा अने भोगववामां मग्न बने छे. तथा परस्पर उपदेश पण विषयोनो ज करे छे. आपणे आ करवुं जोईए, आम कर्या विना कांई चाले? आपणे हजु संसारी छीए. एम एकबीजा परस्पर रागनो ज उपदेश करे छे. परंतु कोइ अंतरस्वभावमां जवानी वात करतुं नथी. विषयभोगनी अने रागनी कथा मांहोमांहे अज्ञानी जीवो करे छे. एक जीव कहे अने बीजो सांभळी कहे के -‘हा बराबर छे.’ आम विषयोनी ईच्छा अने विषयोने भोगववुं एवी काम अने भोगनी कथा तो जीवोए अनंतवार सांभळी छे, परिचयमां लीधी छे अने अनुभवी छे तेथी सुलभ छे.
पण परद्रव्योथी भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप पोताना आत्मानुं ज्ञान कदी थयुं नथी. चैतन्यचमत्कार वस्तु पोते आत्मा छे एनुं ज्ञान पोते अनंतकाळमां कर्युं नथी; अने जेमने ए ज्ञान थयुं हतुं एवा पुरुषोनी सेवा कदी करी नथी. एटले के संतोए कह्युं ते सांभळ्युं पण अंदरमां मान्युं नथी. मान्युं नहीं तेथी खरेखर सांभळ्युं ज नथी. आ रीते निज परमात्मस्वरूप आत्मानी कथा न कदी सांभळी, न परिचय कर्यो के न तेनो अनुभव कर्याे. तेथी चैतन्यचमत्कारस्वरूप भगवान आत्मानी प्राप्ति सुलभ नथी. राजपाट अने देवपद एवुं तो अनंतवार मळ्युं, परंतु निज शुद्धात्मानी प्राप्ति थवी सुलभ नथी अर्थात् दुर्लभ छे.