अत एवैतदुपदर्श्यते–
यदि दर्शयेयं प्रमाणं स्खलेयं छलं न गृहीतव्यम्।। ५।।
हवे आचार्य कहे छे के, तेथी ज जीवोने ते भिन्न आत्मानुं एकत्व अमे दर्शावीए छीएः-
दर्शावुं तो करजो प्रमाण, न दोष ग्रह स्खलना यदि. प.
गाथार्थः– [तम्] ते [एकत्वविभक्तं] एकत्वविभक्त आत्माने [अहं] हुं [आत्मनः] आत्माना [स्वविभवेन] निज वैभव वडे [दर्शये] देखाडुं छुं; [यदि] जो हुं [दर्शयेयं] देखाडुं तो [प्रमाणं] प्रमाण (स्वीकार) करवुं अने [स्खलेयं] जो कोई ठेकाणे चूकी जाउं तो [छलं] छळ [न] न [गृहीतव्यम्] ग्रहण करवुं.
टीकाः– आचार्य कहे छे के जे कांई मारा आत्मानो निजवैभव छे ते सर्वथी हुं आ एकत्व-विभक्त आत्माने दर्शावीश एवो में व्यवसाय (उद्यम, निर्णय) कर्यो छे. केवो छे मारा आत्मानो निजविभव? आ लोकमां प्रगट समस्त वस्तुओनो प्रकाश करनार अने ‘स्यात्’ पदनी मुद्रावाळो जे शब्दब्रह्म-अर्हंतना परमागम-तेनी उपासनाथी जेनो जन्म छे. (‘स्यात्’ नो अर्थ ‘कथंचित्’ छे एटले के ‘कोई प्रकारथी कहेवुं’. परमागमने शब्दब्रह्म कह्यां तेनुं कारणः अर्हंतना परमागममां सामान्य धर्मो- वचनगोचर सर्व धर्मो-नां नाम आवे छे; अने वचनथी अगोचर जे कोई विशेष धर्मो छे तेमनुं