Pravachan Ratnakar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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८० [ समयसार प्रवचन

पूर्णानंदनो नाथ स्वभावथी एकत्वपणे छे, रागथी विभक्त छे. तेने तुं स्वसंवेदनज्ञाननी पर्याय द्वारा जाण. ‘स्वसंवेदनज्ञानेन परीक्ष्य’ एम कह्युं एनो अर्थ ए छे के जे द्रव्यस्वभाव छे तेने स्वसंवेदनज्ञानथी अनुभव करी परीक्षा वडे प्रमाण करजे, अमे कहीए छीए एटलामात्रथी नहीं.

आ तो त्रिलोकनाथ सर्वज्ञदेवनो पंथ छे. सो ईंद्रोना पूज्नीय वीतराग सर्वज्ञदेवनी दिव्यध्वनिमां आ एकत्वविभक्त आत्मानुं स्वरूप आव्युं हतुं. ए अमे प्रत्यक्ष अनुभवीने कहीए छीए. अमारा आत्मामां (पर्यायमां) एनो साक्षात्कार थयो छे. आत्मा आवो ज छे एम अमे जाण्युं छे. भगवाने कह्युं छे माटे कहीए छीए एम नहीं, पण स्वसंवेदन-अनुभवथी आत्माने अमे जाण्यो छे. ए अमे तने बतावीए छीए, माटे तुं अनुभव करीने प्रमाण करजे, स्वीकार करजे.

पूर्णानंदनो नाथ अभेद वस्तु छे. एनो स्वीकार ते पर्याय छे. पर्याय तेनो स्वीकार करे छे के आ निज परमात्मा छे. समयसार गाथा ३२०मां (आचार्य जयसेननी टीकामां) आवे छे के पर्याय एम जाणे छे के- ‘सकळनिरावरण अखंड एक प्रत्यक्षप्रतिभासमय अविनश्वर शुद्ध पारिणामिकपरमभावलक्षण निज परमात्मद्रव्य ते ज हुं छुं.’ आम वस्तुनो यथार्थ स्वीकार तेना स्वसंवेदनज्ञान वडे ज थाय छे.

वळी कहे छे के जो कोई ठेकाणे चूकी जाउं तो छळ न ग्रहण करवुं. अनुभवमां तो चूक नथी. पण भाषामां, छंदमां के व्याकरणमां क्यांक ओछुं-वत्तुं आवी जाय तो छलं ण घेत्तव्वं– छळ ग्रहण न करीश. अमे जे कहेवा मागीए छीए ते भावने ध्यानमां राखी बराबर पकडजे, शब्दने न पकडीश. वस्तुनो निर्णय करवामां स्वसंवेदन प्रधान छे, तेथी भगवान पूर्णानंदनो नाथ स्वसंवेदनमां आवे ए रीते तुं प्रमाण करजे.

* टीका उपरनुं प्रवचन *

आचार्य कहे छे के जे कांई मारा आत्मानो निजवैभव छे ते सर्वथी हुुं आ एकत्वविभक्त आत्माने दर्शावीश. आ बैरां-छोकरां, पैसा-मकान, धन-दोलत ए आत्मानो वैभव नथी. अंदर पुण्य-पापना विकारी भाव थाय ए पण आत्मानो वैभव नथी. त्रिकाळ ध्रुव ज्ञायकना अवलंबने मारी निर्मळ पर्यायमां मने जे वीतरागता प्रगट थई छे ए मारो निजवैभव छे. ते मारा अनुभवना सर्व वैभवथी हुं आ स्वभावथी एकत्व अने विभावथी विभक्त एवो भगवान आत्मा दर्शावीश एवो में व्यवसाय कर्यो छे, उद्यम कर्यो छे, निश्चय कर्यो छे.