भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव भरतक्षेत्रमां बे हजार वर्ष पूर्व थई गया. तेओ सदेहे महाविदेहमां सीमंधर भगवानना समोसरणमां गया हता. महाविदेहमां सीमंधरनाथ अरिहंतपदे विराजे छे. तेमनो पांचसो धनुष्यनो देह अने क्रोडपूर्वनुं आयुष्य छे. त्यां भगवाननी वाणी हंमेशा छूटे छे. त्यां सं. ४९मां कुंदकुंदाचार्य साक्षात् गया हता, आठ दिवस रह्या हता. त्यां भगवाननी वाणी सांभळीने भरतमां पधार्या. अहीं आवीने आ शास्त्रो बनाव्यां. तेमां समयसारनी रचना करतां तेओ कहे छे के हुं एकत्वविभक्त आत्मा बतावीश. परथी पृथक् अने स्वथी एकत्व एवो भगवान आत्मा मारा निजवैभवथी बतावीश.
अंदर आत्मा सत् चिदानंद प्रभु सिद्ध समान बिराजे छे. समयसार नाटकमां आवे छेः-
आत्मा चैतन्यरूप आनंदघन छे. आत्मा शरीर, मन, वाणीथी तो भिन्न छे, पण पर्यायमां दया, दान, भक्ति आदिना विकल्प ऊठे छे एनाथी पण भिन्न छे अने पोताना स्वभावथी अभिन्न छे. एवा आत्मामां अंतर्निमग्न थतां जे अनुभव प्रगट थाय ते सम्यग्दर्शनादि धर्म छे. आचार्यदेव कहे छे के परथी भिन्न आत्मानो मने अनुभव थयो छे. आनंदनो मने स्वाद आव्यो छे. आत्मा अनाकुळ शांत आनंदरसनो पिंड तेमां निमग्न थतां मने अतीन्द्रिय आनंदनुं संवेदन थयुं छे. आवा मारा निजवैभवथी हुं एकत्वविभक्त आत्मा बतावुं छुं. ते तुं रागथी पृथक् थई पोताना आनंदघनस्वरूपनो अनुभव करीने प्रमाण करजे. तो धर्म थशे. समजाणुं कांई?
अरे! अनंतकाळथी चोरासीना अवतार करतां करतां नवमी ग्रैवेयकना भव पण अनंत कर्या. अनंतवार नग्न दिगंबर मुनि थयो. बार बार महिनाना उपवास आदि क्रियाकांड करीने नवमी ग्रैवेयक गयो. परंतु अंतर अनुभवपूर्वक वस्तुतत्त्वने प्रमाण कर्युं नहीं. रागनी क्रियाथी मारी चीज भिन्न छे एवुं भान कर्युं नहीं. तेथी आनंदनो स्वाद आव्यो नहीं. भवचक्र ऊभुं ज रह्युं.
सवारमां प्रश्न ऊठयो हतो केे बारमा गुणस्थान सुधी अशुद्धनय छे. तो अशुद्धनयना स्थानमां शुद्धोपयोगरूप धर्म क्यांथी आव्यो? शुद्धनयनी पूर्णता केवळज्ञान थतां थाय छे. आ संबंधमां श्री प्रवचनसारमांनी गाथा १८ नी जयसेन आचार्यनी टीकामां त्रण बोलथी खुलासो आवे छे.