शुद्धोपयोगरूप धर्म पर्यायमां प्रगट थाय छे.
भले हजी न हो, पण ज्यां पूर्णानंद शुद्धने ध्येय बनावी पर्याय प्रगटी त्यां शुद्धोपयोगरूप धर्म होय छे.
पर्यायमां शुद्धोपयोगरूप धर्म प्रगट थाय छे. बारमा गुणस्थानथी नीचे अशुद्धनयनुं स्थान छे तोपण शुद्ध नुं आलंबन, शुद्धनुं ध्येय, अने शुद्धनुं साधकपणुं होवाथी शुद्धोपयोगरूप वीतरागी पर्याय प्रगट थाय छे-अर्थात् त्यां होय छे. सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र ए वीतरागी पर्याय छे अने ए ज धर्म छे. वीतरागी पर्यायनुं नाम जैनधर्म छे धर्म कोई वाडो के संप्रदाय नथी. वस्तुनुं स्वरूप ज आवुं छे. अरे! अनंतकाळमां सम्यग्दर्शन अने एनुं ध्येय शुं ते लक्षमां लीधुं नथी.
आचार्य देव कहे छे शुद्ध चैतन्यघन आ माने द्रष्टिमां लई तेने ध्येय अने साधन बनावतां अमने शुद्धोपयोगरूप धर्म थयो छे. पर्यायमां निराकुळ शांति अने आनंद जे प्रगटयां छे ते अमारो निजवैभव छे. एवा मारा निजवैभवथी हुं आत्मा बतावुं छुं ते तुं अनुभव करीने प्रमाण करजे.
वळी ते केवो छे? तो कहे छे-निरंतर-झरतो- आस्वादमां आवतो, सुंदर जे आनंद तेनी छापवाळुं जे प्रचुरसंवेदनस्वरूप स्वसंवेदन, तेनाथी जेनो जन्म छे. आचार्य कहे छे-अहा! आत्मा अनाकुळ आनंदरसथी भरेलो छे. तेमां एकाग्र थतां सुंदर आनंदनो स्वाद आवे छे. जेम डुंगरमांथी पाणी झरे तेम आत्मामां एकाग्र थतां अतीन्द्रिय आनंद झरे छे. आबाल-गोपाळ सर्वमां अंदर पूर्णानंदनो नाथ भगवान आत्मा बिराजे छे. तेनी द्रष्टि करतां पर्यायमां आनंद झरे छे. तेनुं नाम धर्म छे.
अज्ञानी जीवो मोसंबी वगेरेनो स्वाद लईए छीए एम कहे छे ने? ए स्वाद तो जड छे. जडनो स्वाद तो आत्मामां आवतो ज नथी, पण तेना उपर लक्ष करीने रागनो स्वाद ले छे. ए अधर्मनो स्वाद छे. अज्ञानी शब्द, रस, गंध, वर्ण, स्पर्शनुं लक्ष करीने विषयने हुं भोगवुं छुं एम माने छे, पण ए परने भोगवतो ज नथी. ते काळे रागने उत्पन्न करे छे अने रागने भोगवे छे. विषयोनो आनंद तो रागरूप छे अने रागनो अनुभव ते झेरनो अनुभव छे कुंदकुंदाचार्य मोक्ष अधिकारमां (गाथा ३०६)