धर्म ए तो आत्म-अनुभवनी चीज छे, भाई! कोई जीव प्रभावनामां करोडो रूपिया खर्चे, लाखोनां मंदिरो बंधावे माटे तेने धर्म थई जाय एम नथी. ते काळे राग मंद करे तो शुभभाव थतां पुण्यबंध थाय, पण धर्म न थाय. मंदिर बनवानी क्रिया तो परमाणुथी बने छे, ते आत्मा करी शकतो नथी. हा, आत्मा आ करी शके के -पुण्य-पापथी भिन्न पडी अंतर अनुभव वडे अनाकुळ शांति अने आनंद उत्पन्न करी शके, अने ए ज निश्चयधर्म छे. व्यवहार करतां करतां निश्चय थशे ए वात पण जूठ्ठी छे. अरे! आवुं सांभळवा पण न मळे ते अंदर अनुभव क्यारे करे? धर्म बहु दुर्लभ चीज छे, भाई! क्रियाकांड तो अनंतवार कर्या तेथी ए तो सुलभ छे, पण रागथी भिन्न पडी चैतन्यमूर्ति आनंदस्वरूपमां आरूढ थवुं महा दुर्लभ छे.
हवे कहे छे- जो क्यांयअक्षर, मात्रा, अलंकार, युक्ति आदि प्रकरणोमां चूकी जाउं तो छल (दोष) ग्रहण करवामां सावधान न थवुं. शास्त्रसमूद्रनां प्रकरण बहु छे माटे अहीं स्वसंवेदनरूप अर्थ प्रधान छे; तेथी अर्थनी परीक्षा करवी.
अमे तो स्वानुभवनी वात बतावीए छीए. तेमां कोई व्याकरणना शब्दादिमां भूल थई जाय अने तुं व्याकरणनो निष्णात हो, अने तारा लक्षमां आवी जाय के आ भूल छे तो तुं त्यां रोकाईश नहीं. शास्त्रना बहिर्लक्षी ज्ञान अने पंडिताई साथे अनुभवने कांई संबंध नथी. शास्त्रनी पंडिताई जुदी चीज छे अने स्वसंवेदनज्ञान जुदी चीज छे. आ भूल छे, भूल छे एम पंडिताईना गर्वथी अटकी जईश तो तारुं बूरुं थशे. अहीं तो भगवान आत्मा अनादिकाळथी जे पुण्य-पापनुं ज वेदन करे छे ते मिथ्यात्वभाव छे तेना स्थाने स्वसंवेदन करी स्वरूपनो अनुभव करवो तेनी मुख्यता अने प्रधानता छे. बनारसीदासे समयसार नाटकमां कह्युं छे-
अहा! वस्तु आत्मा जे अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ छे तेनो विचार करी ध्यावतां मन अनेक विकल्पोना कोलाहलथी विश्राम पामे, शांत थई जाय अने त्यारे अतीन्द्रिय आनंदना रसनो स्वाद आवे तेने आत्म-अनुभव कहे छे, ते सम्यग्दर्शन छे, धर्म छे. आवा अनुभवथी वस्तुनो निश्चय करवानी प्रधानता छे, शास्त्रना बहिर्लक्षी ज्ञाननुं अहीं काम नथी.
अहो! आचार्य अमृतचंद्रे टीकामां अमृत रेलाव्यां छे. आवी अनुभव-अमृतनी अद्भुत वात सांभळे नहीं, स्वाध्याय करे नहीं, अने धर्म थशे एम मानी बाह्य