अहीं एम पण जाणवुं के जिनमतनुं कथन स्याद्वादरूप छे तेथी अशुद्धनयने सर्वथा असत्यार्थ न मानवो; कारण के स्याद्वाद प्रमाणे शुद्धता अने अशुद्धता-बन्ने वस्तुना धर्म छे अने वस्तुधर्म छे ते वस्तुनुं सत्त्व छे; अशुद्धता परद्रव्यना संयोगथी थाय छे ए ज फेर छे. अशुद्धनयने अहीं हेय कह्यो छे कारण के अशुद्धनयनो विषय संसार छे अने संसारमां आत्मा कलेश भोगवे छे; ज्यारे पोते परद्रव्यथी भिन्न थाय त्यारे संसार मटे अने त्यारे कलेश मटे. ए रीते दुःख मटाडवाने शुद्धनयनो उपदेश प्रधान छे. अशुद्धनयने असत्यार्थ कहेवाथी एम न समजवुं के आकाशना फूलनी जेम ते वस्तुधर्म सर्वथा ज नथी. एम सर्वथा एकांत समजवाथी मिथ्यात्व आवे छे; माटे स्याद्वादनुं शरण लई शुद्धनयनुं आलंबन करवुं जोईए. स्वरूपनी प्राप्ति थया पछी शुद्धनयनुं पण आलंबन नथी रहेतुं. जे वस्तुस्वरूप छे ते छे- ए प्रमाणद्रष्टि छे. एनुं फळ वीतरागता छे. आ प्रमाणे निश्चय करवो योग्य छे.
अहीं, (ज्ञायकभाव) प्रमत्त-अप्रमत्त नथी एम कह्युं छे त्यां ‘प्रमत्त-अप्रमत्त’ एटले शुं? गुणस्थाननी परिपाटीमां छठ्ठा गुणस्थान सुधी तो प्रमत्त कहेवाय छे अने सातमाथी मांडीने अप्रमत्त कहेवाय छे. परंतु ए सर्व गुणस्थानो अशुद्धनयनी कथनीमां छे; शुद्धनयथी आत्मा ज्ञायक ज छे.
शिष्यनो प्रश्न छे के एवो शुद्धात्मा कोण छे के जेनुं स्वरूप जाणवुं जोईए? शिष्यने अंतरमां जिज्ञासा थई छे के परथी भिन्न अने स्वभावथी अभिन्न एवो शुद्धात्मा कोण छे जेने जाणवाथी जन्म-मरण मटे अने भवभ्रमण नाश थईने मोक्ष थाय. आवी अंतरनी चीज जाणवानो जेने प्रश्न थयो छे तेने उत्तररूपे गाथासूत्र कहे छे.
प्रवचन नंबर, १४–१७ तारीख १३–१२–७प थी १६–१२–७प
जे ज्ञायकभाव छे ते अप्रमत्त पण नथी अने प्रमत्त पण नथी, -ए रीते एने शुद्ध कहे छे; वळी जे ज्ञायकपणे जणायो ते तो ते ज छे, बीजो कोई नथी.
ज्ञायकभाव जे त्रिकाळ एकरूप स्वभावभावरूप छे तेने अहीं परम पारिणामिकभाव न कहेतां ज्ञायकभाव कह्यो तेनुं कारण ए छे के पारिणामिकभाव तो सर्व द्रव्योमां छे; ज्यारे जाणवुं, जाणवुं, जाणवुं, एवो जे सामान्य ज्ञायकभाव ते एक जीवद्रव्यमां ज छे. ते ज्ञायकभाव अप्रमत्त नथी के प्रमत्त पण नथी. अर्थात् चौदेय गुणस्थाननी पर्यायो एमां नथी.