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८० श्री प्रवचन रत्नो-१
‘समयसार’ छठ्ठी गाथानो भावार्थ. छठ्ठीगाथा थई गई. आ भावर्थ छे. शुं कहेवा मागे छे? के आ वस्तु जे छे आत्मा! ते द्रव्य तरीके शुद्ध छे. वस्तुना.. स्वभाव तरीके वस्तु (आत्मद्रव्य) पोते शुद्ध छे. पवित्र छे, निर्मळ छे. अतीन्द्रिय आनंद स्वरूप छे, एनी द्रष्टि करतां... एनी द्रष्टि करतां एटले एनो आदर करतां, एने ए ‘शुद्ध छे’ एवुं ज्ञानमां-ख्यालमां आवे! वस्तु (आत्मद्रव्य) तो शुद्ध छे, ए त्रिकाळ शुद्ध चैतन्यघन-आनंदकंद छे. मलिनता तो, एकसमयनी पर्यायमां देखाय छे, वस्तु मलिन नथी. वस्तु (आत्मवस्तु) निर्मळ, शुद्ध, पूर्ण, अखंड, अभेद एकरूप वस्तु त्रिकाळ छे!! एतो, शुद्ध छे, पवित्र छे, अखंड छे!!
पण कोने? एने... जाणे... एने! जेना ज्ञानमां आवी वस्तु आवी नथी- ए चैतन्यप्रभु छे. पूर्णानंद छे-पण, जेना ख्यालमां आवी नथी, एने तो छे ज नहीं.
एने भले, वस्तु (आत्मा) छे पण, ‘ए शुद्ध छे’ एम तो एने (ज्ञानमां ख्यालमां) छे नहीं, केमके द्रष्टिमां जेने राग ने पुण्य ने दया, दानना विकल्प, जेनी द्रष्टिमां वर्ते छे, एने वस्तु (आत्मा) शुद्ध छे ते तेना श्रद्धा-ज्ञानमां आव्युं नथी, एना श्रद्धा-ज्ञानमां तो अशुद्धता आवी छे- पर्याय आवी छे. अने ए अशुद्धता पर्यायमां एने आवी छे ते यथार्थ छे ‘यथार्थ छे’ एटले अशुद्धपणुं (पर्यायमां) छे, पर्यायद्रष्टिए अशुद्धपणुं छे.
पण, ए वास्तविक चीज नथी. वास्तविक चीज तो, त्रिकाळी शुद्ध ज्ञायक चैतन्यमूर्ति छे! ए सत्य छे!!
एनी (पर्यायद्रष्टिनी) अपेक्षाए पर्याय हती खरी-छे खरी, पण त्रिकाळी आत्मानी अपेक्षाए ते वस्तुने (पर्यायने) गौण करीने, नथी एम कहेवामां आव्युं, पण पर्याय छे-राग छे-अस्ति छे ई. नथी एम नहीं.
पण, ते पर्याय उपर द्रष्टि करवाथी मिथ्यात्व थाय छे अने भ्रमण ऊभुं रहे छे, माटे ‘पर्याय नथी’ एम निषेध कर्यो, ए पर्याय होवा छतां-रागादि होवा छतां, ए पर्यायद्रष्टिनो निषेध करी, ते चीज मारामां नथी, एम निषेध कर्यो.
आहा.. हा! वस्तु ज्ञायक! चैतन्यप्रभु! सच्चिदानंद स्वरूप एनुं छे, आहा..! तेनी द्रष्टि करतां, एनी द्रष्टिमां - आवी द्रष्टि करी (शुद्ध द्रव्यनी) त्यारे चीज आवी ख्यालमां, एने माटे ‘शुद्ध’ ने पवित्र छे.
आहा...! जेने ख्यालमां ज वस्तु आवी नथी एने ‘शुद्ध’ छे ए क्यांथी आव्युं? समजाणुं कांई? झीणी वात छे, आ तो मुख्य वात छे.. सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथे कहेली अने जोयेली अने जगतने देखाडवा माटे आ वात छे!
आहा...! प्रभु! तुं कोण छो? तने.. तें देख्यो नथी! तुं जे नथी, तेने तें देखी.
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ८१
आहा.. हा! पर्यायमां राग अने पुण्यने पापना भाव, के जे ए वस्तुमां (आत्मामां) नथी, एने तें देखीने मान्युं (के शुभाशुभ मारामां छे) ए तो, परिभ्रमणनुं कारण छे.
ए परिभ्रमणनो अंत... एटले के जेमां परिभ्रमणने परिभ्रमणनो भाव नथी एवी चीज तुं छो प्रभु! पूर्णानंदनो नाथ! सच्चिदानंद!! सत्=सत्... चिद्.. आनंद=सच्चिदानंद (एटले) ज्ञान ने आनंद प्रभु आत्मा (छे). पण, एनी द्रष्टि करे एने ए ज्ञान-आनंद छे. एनी द्रष्टि न करे-वस्तु द्रष्टिमां आवी नथी, तो एने तो ए सच्चिदानंद ध्रुव छे ज नहीं. आहा.. हा! आकरुं काम बापु!
तेथी, अहीं भावार्थमां कहे छे के ‘अशुद्धपणुं परद्रव्यना संयोगथी आवे छे’ वस्तुमां नथी (आत्माद्रव्यमां नथी) समजाणुं कांई...?
वस्तु जे त्रिकाळी चैतन्य ध्रुव, सच्चिदानंद स्वरूप जे शुद्ध छे, अखंड!! एमां मलिनता नथी. पण जे पर्यायमां मलिनता थाय छे, ए अशुद्धपणुं परद्रव्यना संयोगथी आवे छे. संयोगी चीजना लक्षे ते ‘संयोगीभाव’ उत्पन्न थाय छे.
स्वभावभावनी द्रष्टिए, स्व, भाव तेने द्रष्टिमां आवे छे, अने संयोगीभावना लक्षे तेने संयोगीभाव लक्षमां आवे छे- अशुद्धता तेने द्रष्टिमां आवे छे, ए (अशुद्धता) परद्रव्यना संयोगथी आवे छे? आहा! झीणी वात बहु बापु! मारग वीतरागनो छे ने...! बापा...!
आहा...! वीतरागस्वरूप छे प्रभु, जो ते वीतरागस्वरूप न होय तो, वीतरागता अने सर्वज्ञता क्यांथी आवशे? शुं ते कांई बहारथी आवे तेवुं छे?
आहा.... हा! वीतरागस्वरूपे प्रभु आत्मा छे. पण, एने आ राग जे देखाय छे, ते संयोगजनितपर्याय-अशुद्ध-मलिन छे. जोयुं? ‘अशुद्धपणुं परद्रव्यना संयोगथी आवे छे’ छे? पर्यायमां अवस्थामां राग छे ज नहीं, एम नथी. राग पण छे. अने ते अपेक्षाए सत्य सत्य एटले ‘छे एम’ . ‘नथी ज’ एम नहीं-असत् छे एम नहीं.
(श्रोताः) राग भ्रमणाथी उत्पन्न कर्यो छे? (उतरः) हें? भ्रमणा छे, पोते राग उत्पन्न कर्यो ए ज भ्रमणा छे. स्वरूपमां राग नथी, संयोगने लक्षे उत्पन्न कर्यो ए ज मिथ्यात्व ने भ्रम छे. आहा..! पण, ‘भ्रम’ पण छे, भ्रम नथी एम नहीं. पर्यायमां, ए अशुद्धतानी अवस्था छे तेथी ‘भ्रम’ पण छे. आ हुं छुं, तो ए ‘भ्रम’ पण छे अने ‘छे’ ई अपेक्षाए ‘भ्रम’ सत्य छे. परंतु ‘छे’ ए अपेक्षाए! भले, ते त्रिकाळ नथी माटे असत् छे, पण वर्तमानमां छे. ते बिलकुल नथी ज एम कोई कहे तो ए वस्तुनी पर्यायने ज जाणतो नथी; द्रव्यने तो जाणतो नथी परंतु तेनी पर्यायने य ते जाणतो नथी.
आहा... हा!’ अशुद्धपणुं परद्रव्यना संयोगथी आवे छे’ संयोग एटले संबंध! संयोग (अशुद्धपणुं) करावतुं नथी. परद्रव्यनो संयोग, अशुद्धपणुं करतुं नथी, पण परद्रव्यना संयोगे पोते अशुद्धपणुं ऊभुं करे छे. समजाणुं कंई....? आवी वात छे बापु! बहु झीणी वात छे!!
अनंतकाळमां एणे आत्मा शुं चीज छे, ते वास्तविक जाणवानो प्रयत्न ज कर्यो नथी, बाकी बधा प्रयत्नो करी-करीने मरी ग्यो बहारथी...
(कहे छे) ‘त्यां मूळद्रव्य तो अन्य रूप थतुं ज नथी’ एटले शुं कहे छे? अशुद्धता परद्रव्यना संबंधे
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८२ श्री प्रवचन रत्नो-१ आवे छे अर्थात् परनो संबंध कर्यो छे माटे, हो? पण, परने लईने अशुद्धता-विकार थाय छे, एम नथी.
हवे, कहे छे. केः ‘मूळद्रव्य तो अन्यद्रव्यरूप थतुं ज नथी’ एटले के (मूळ द्रव्य) विकाररूप थतुं ज नथी. अन्यद्रव्य=राग, ए खरेखर वस्तु नथी अन्यद्रव्य छे. ए रूपे मूळद्रव्य थतुं नथी.
आहा... हा! अंदर भगवान आत्मामां, जे कंई पुण्यने पापनो भाव थाय, ते निश्चयथी अन्यद्रव्य छे. तो, स्वद्रव्य ते अन्यद्रव्यरूपे थतुं नथी. आहा.. हा! वस्तु छे ते विकारपणे थती ज नथी त्रणकाळमां!!
आहा.. हा! ‘ते मूळ द्रव्य तो..’ मूळद्रव्य कह्युं छे ने...! (पहेला तो) उत्पन्न थयेली दशा कीधी, संयोगना संबंधे उत्पन्न थयेलो अशुद्ध भाव छे,’ पण मूळद्रव्य जे छे, एतो अन्यद्रव्यरूप- मलिनतारूपे थयुं ज नथी. अन्य द्रव्यना संयोगे थतो ‘भाव’ , ए खरेखर तो अन्यद्रव्य छे. वस्तुनुं स्वरूप नथी. आहा.. हा! आवुं समजवुं हवे!
आहा... हा! ‘मूळ द्रव्य’ -जे मूळचीज छे. सत् अनादि-अनंत, वस्तु तरीके द्रव्य तरीके, पदार्थ तरीके, सत्त्व तरीके जे छे, ए अनेरा तत्त्वपणे थतुं नथी. अनेरा तत्त्व नाम ए रागरूपे थतुं नथी. ए परद्रव्य छे-ए अनेरुं तत्त्व छे. दया, दान, व्रत, भक्तिना भाव, ए विकल्प छे, राग छे, ए अनेरुं तत्त्व छे. ए जीव तत्त्व नथी, त्यां मूळद्रव्य तो अन्यद्रव्यरूप एटले अन्यतत्त्वरूप थतुं ज नथी.
आहा.. हा! ‘मात्र परद्रव्यना निमित्तथी अवस्था मलिन थई जाय छे’ निमित्तथी एटले? निमित्तथी थतुं नथी. निमित्त छे तेना लक्षे थयेली छे मलिन अवस्था, तेथी निमित्तथी एम कीधुं छे, कथन छे. ‘मात्र परद्रव्यना निमित्तथी अवस्था मलिन थई जाय छे. (एटले) अवस्थामां मलिनता छे-पर्यायमां मलिनता छे, वस्तु (तो) निर्मळानंद प्रभु छे!
आहा.. हा! वीतरागमूर्ति प्रभु चैतन्य तो अनादि-अनंत, वस्तु छे. एना पर्यायमां, परद्रव्यना निमित्ते, अवस्था एटले के दशा-हालत मलिन थई जाय छे. वस्तु नहीं. आहा.. हा! एनी वर्तमानदशा मलिन थई जाय छे.
(कहे छे के) ‘द्रव्यद्रष्टिथी तो द्रव्य जे छे तेज छे’ -द्रव्यद्रष्टिथी हो? द्रव्यने जे द्रष्टि देखे, ते द्रष्टिथी जोईए तो द्रव्य जे छे ते ज छे. एतो जे छे ते ज छे! आहा... हा! भाई, भाव झीणा छे! भाषा सादी छे, कंई बहु एवी नथी.
आहा... हा! एने अनंत, अनंत काळ थया, तत्त्व शुं छे? मूळ-कायमी चीज शुं छे? ते, ‘द्रव्यद्रष्टिथी तो द्रव्य जे छे ते ज छे!! एमां मलिनता य नथी, संसारे य जे छे ते ज छो?! नथी, ए छे ते ज छे अनादिनी!! द्रव्यद्रष्टिथी तो द्रव्य’ एटले वस्तु! , द्रव्य एटले आ पैसो नहीं हो?! आहा...! भगवान आत्मा, वस्तु छे ने...! छे ने... !! ए भूतकाळमां नहोती एम छे? ए तो पहेलेथी ज छे अनादि छे, अने वर्तमान छे अने अनादि छे ते भविष्यमां छे. ‘छे’ ते तो त्रिकाळ छे.’ छे छे ने छे’ आवो जे (आत्मा) ‘द्रव्यद्रष्टिए जे छे ते ज छे-जे छे ते ज छे. ‘पर्यायद्रष्टिथी जोवामां आवे’ - जोवामां आवे! जोयुं? पर्यायद्रष्टिथी आम जोवामां आवे... ‘तो मलिन ज देखाय छे’ - छे मलिन, ए देखाय छे. पर्यायथी जोईए तो मलिन छे एम देखाय छे.
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ८३
आंही परनी दया पाळवी के परनी हिंसा (आत्मा) करी शके छे, ए वात तो छे ज नहीं कारणके ए वात (स्वरूपमां ज) नथी, ए करी शकतो नथी, (कर्त्तापणुं) ए तत्त्वमां ज नथी, एनी वात शुं करवी?
एनामां ई करी शके छे-पर्यायद्रष्टि अने द्रव्यद्रष्टि, ए (बे) वात करे छे. समजाणुं कांई....? मलिनपर्याय करी शके छे अज्ञानभावे पर्यायद्रष्टिए पण एथी परनुं कांई करी शके छे, ए तो वात आंही लीधी ज नथी, कारण के पर तो परपणे छे अने (आत्मा) शुं करी शके?
तारामां हवे बे वात छे. जो पर्यायद्रष्टिए जोईए तो तारामां मलिनता छे, ए पण बराबर छे, द्रव्यद्रष्टिए जोईए तो ते जे छे ते ज छे, ए पण बराबर छे. (बेय) बराबर छे तो, जे त्रिकाळी चीज छे ते द्रष्टिमां लेवा.. ए मलिनता जे पर्यायमां छे, ते छे छतां तेने गौण करीने, ते नथी एम कहीने एने त्रिकाळी जे छे अने मुख्य करीने-निश्चय करीने, सत्य कहीने एनो आश्रय लेवराव्यो छे. आहा.. हा! हवे, आवो उपदेश छे!! पर्यायद्रष्टिथी जोवामां आवे तो मलिन देखाय छे.
‘ए रीते आत्मानो स्वभाव ज्ञायकपणुं मात्र छे’ जोयुं? द्रव्य जे छे ते ज छे, तो ‘द्रव्य’ शुं छे ई? आत्मानुं हवे लेवुं छे ने द्रव्य!! बाकी (विश्वमां) बीजां द्रव्य तो छे, पण आंही ‘द्रव्य’ जे छे ते शुं? ‘एनो स्वभाव ज्ञायकपणुं मात्र छे. ‘द्रव्य’ आहा..! जाणक्स्वभाव! ध्रुवमात्र प्रभु! ए आत्मा छे. अनादि-अनंत ए वस्तु छे. (तेने) द्रव्यथी कहो के ज्ञायकपणाथी कहो, ए बधी एक चीज छे. पण ‘द्रव्य’ कह्युं छे तो सामान्य थई गयुं अमारे एमां ‘आत्मा’ कहेवो छे. त्यारे तेने कह्युं के ए आत्मानो स्वभाव ‘ज्ञायकपणुं मात्र’ छे. (विश्वमां) द्रव्य तो छ ए छे, ए तो बधा द्रव्योनी सामान्य वात कही. पण, ‘आ द्रव्य छे’ ए वस्तु शुं छे? तो कहे छे के (विश्वमां) द्रव्य तो परमाणु पण छे, आकाश पण छे. पण आ ज्ञायकमात्र द्रव्य छे. ज्ञायकप्रभु! जाणक्-स्वभावस्वरूप ते द्रव्य छे. (विश्वमां) द्रव्य तो परमाणु छे ने आकाश पण छे ए कांई ज्ञायक स्वभाव स्वरूप नथी, ए तो जडस्वरूप छे.
‘आ रीते आत्मानो स्वभाव’ ज्यारे द्रव्य जे छे ते ज छे, (एम कह्युं) तो ए तो ‘ज्ञायकपणुं मात्र’ छे. आहा.. हा! जाणक्... स्वभावनी मूर्ति... प्रभु... आत्मा छे. जाणक्स्वभावनी पूतळी पोते छे. एकलो ज्ञायकभाव! ए द्रव्य!! समजाणुं कांई...? मारग बहु अलौकिक छे बापा! एक तो आवुं सत्य छे, तेवुं सांभळवा मळे नहीं, ते के दि’ विचारे... अने वास्तविक छे जे करवा जेवुं ते केदि’ करे?! ए द्रव्य! आत्मानो स्वभाव, कायमी द्रव्य लेवुं छे ने...! कहे छे के द्रव्यनो स्वभाव ज्ञायकपणुं मात्र! बिलकुल, रागने पुण्यने संसार ने उदयभाव एमां बिलकुल छे नहीं. ए तो ज्ञायक मात्र प्रभु ध्रुव, जाणक्स्वभावनो कंदप्रभु! जाणक्स्वभावनुं वज्रबिंब!! ए तो ‘ज्ञायकमात्र’ प्रभु छे.
‘जेनी द्रष्टि करतां समयग्दर्शन थाय’ ए ज्ञायकनी द्रष्टि करतां सम्यग्दर्शन थाय छे, कारण के सम्यक् नाम सत्यदर्शन!! ए ज्ञायक त्रिकाळी सत् छे, एनुं दर्शन करतां सम्यग्दर्शन थाय. समजाणुं कांई...?
(कहे छे) ‘अने तेनी अवस्था, पुद्गल कर्मना निमित्तथी रागादिरूप मलिन छे’ ते पर्याय छे. पहेली साधारण वात करी’ती पछी, द्रव्य (ने) ज्ञायकभाव तरीके बतावीने, ए वस्तु (आत्मतत्त्व) ज्ञायकभावमय द्रव्य छे. (एम कह्युं) अने एनी पर्यायमां,
‘तेनी अवस्था पुद्गल कर्मना निमित्तथी’ (एम कह्युं तो) निमित्तथी एटले एनाथी एम नहीं.
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८४ श्री प्रवचन रत्नो-१ निमित्त छे पण एनाथी थयुं नथी. फकत, स्वभावथी नथी थयुं, एथी ते ‘निमित्तथी’ थयुं छे एम कहेवामां आवे छे.
आहा.. हा! ‘पुद्गल कर्मना निमित्तथी रागादिरूप...’ राग-द्वेष, विषय-कषायना भाव, ए बधां मलिन छे. ए तो पर्याय छे. ए वस्तु नथी कांई! मलिन जे कांई पुण्यने पापना भाव देखाय छे, ए तो पर्याय छे. द्रव्य-ज्ञायक छे ते, आ मलिनपर्यायमां आव्युं नथी, तेम मलिनपर्याय, पर्याय छे ते ज्ञायकभावमां गई नथी. एनुं ‘होवापणुं’ पर्यायनुं पर्यायमां रहेलुं छे, अने ज्ञायकभावनुं ‘होवापणुं’ पोताना ज्ञायकपणाने पोताने लईने ज्ञायकभावमां रहेलुं छे. बेय ‘होवापणे’ तो छे.
आम आकाशना फूल नथी, एनी जेम अशुद्धता नथी, एम नथी, पण ई (अशुद्धता) पर्यायमां छे. आहा.. हा! वस्तुमां (द्रव्यमां) नथी. आहा..! आवुं ज्यां! वाणियाने धंधा आडे, नवराश न मळे! भाई!
आहा... हा! आ वस्तु तो जुओ! आ? प्रभु जे चैतन्य द्रव्य छे, ए ज्ञायकरूपे द्रव्य छे, एम कह्युं (जगतमां) द्रव्य तो बीजांय छे परमाणु आदि, आ तो, चैतन्यज्योत! ज्ञायकभाव! ज्ञायकभाव ध्रुव! ज्ञायकमात्रभाव, ए रीते प्रभु (आत्मा) छे अने एनी अवस्थामां संयोगजनित मलिनता पण छे. (छतां) पण ए मलिनता ज्ञायकभावमां गई नथी, ‘ज्ञायक भाव मलिनपणे थयो नथी’
आहा... हा! ‘पर्यायनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो’ जोयुं? पर्याय छे, एम सिद्ध कर्युं छे. पर्यायनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो मलिन देखाय छे’ आहा.. हा! वर्तमान रागने पुण्य, पापना भाव, संयोगजनित जे छे ई छे. ए पर्यायद्रष्टिए जोवामां आवे... तो ए छे.’ मलिन ज देखाय छे’ आहा.. हा!
हवे, आव्युं जुओ!! ‘द्रव्यद्रष्टिथी जोवामां आवे तो...’ जोवामां आवे एम. ओलामां (मलिनतामां) पर्यायद्रष्टिथी जोवामां आवे तो.. (कह्युं) वर्तमान पर्यायथी जोवामां आवे तो मलिनता ज्ञानीनेय देखाय छे पर्यायमां, तेथी (आचार्यदेवे) कह्युं ने के ‘मारो मोह ने परना मोहना नाश माटे’ पर्यायमां मोह छे, ई भले आंही (साधकने) रागनो अंश छे पण ‘छे’ - अस्ति छे. पर्यायथी जोईए तो मलिनतानुं अस्तित्व छे. वस्तुथी जोईए तो वस्तुमां ए छे नहीं. आहा.. हा! भाषा तो सादी छे, भाव तो जे छे ते छे!! आहा.. मूळ विना-वरविना अत्यारे जान जोडी दीधी! दुल्हो नहीं ने जोडी दीधी. के आत्मा, कोण द्रव्य छे? एनां ज्ञान ने भान विना... बधुं करो व्रतने, तपने, भक्तिने, मंदिरो.. ने.. आहा.. हा!
अहींयां कहे छे (के) द्रव्य जे छे ए तो ज्ञायकभाव छे. पर्यायथी जुओ तो मलिनता छे. ‘द्रव्यद्रष्टिथी जोवामां आवे’ एने.. द्रव्य जे ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं ज छे. ए मलिन थयुं ज नथी, वस्तु मलिन थई ज नथी!
आहा...! केम... बेसे? आ मलिन पर्याय छे ते... मलिन पर्याय, पर्याय तो मलिन छे ने पर्याय द्रव्यनी छे तो द्रव्य मलिन नथी थयुं? एम कहे छे. छापामां आवे छे, ई कहे छे तो द्रव्य पण अशुद्ध थयुं छे.
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ८प
अरे, भगवान नवमी गाथामां आवे छे ने प्रचवनसारनी. अशुभभाव वखते द्रव्य अशुभ, छे, अशुभभावमां तन्मय छे अने शुद्धभाव वखते द्रव्य शुद्ध छे, शुद्धभावमां तन्मय छे पर्याय, ए तो पर्यायनी वात छे. बीजानी छे ने एनी कहेवाय एम नथी. (श्रोता) ए रीते द्रव्य अशुद्ध थई जाय? (उत्तर) पण शुद्ध त्रिकाळी छे, ए शुद्ध ज छे. द्रव्य कोई दि’ अशुद्ध थाय ज नहीं त्रणकाळमां- त्रणकाळमां एम नथी. भगवान (आत्मद्रव्य) तो ज्ञायकरूपे त्रिकाळ रह्यो छे. शुभपणे, अशुभपणे ने शुद्धपणे परिणमे, ए पर्याय परिणमे छे. ए शुभनी पर्याय कांई द्रव्यमां गरी गई नथी. आहा.. हा! समजाय छे कांई.. ?
आवुं स्वरूप छे भाई...! तारुं स्वरूप ज एवुं छे प्रभु! तने खबर नथी! आहा.. हा! “अने तने द्रष्टि करवा माटे अवकाश छे” केम? एतो ज्ञायकपणे रह्यो ज छे, एमां मलिनता क्यां छे? (नथी) तेथी, द्रष्टि करवा माटे तने अवकाश छे. एतो, ज्ञायकपणे प्रभु (शुद्ध) तो त्रिकाळ रहेलो छे!! आहा..! माटे द्रष्टिनो विषय छे ए तो ‘एवो ने एवो’ रहेलो छे (तेथी तो) रह्यो छे माटे द्रष्टि करी शकीश तुं आहा.. हा..! (द्रष्टिनो विषय द्रव्य) मलिन थई ग्यो होय ने... शुद्धता नामे य न होय तो तो मुश्केली!
पण, ई तो पर्यायमां मलिन छे. (द्रव्य तो एवुं ने एवुं रहेलुं) पहेली वातमां-पहेलामां पहेलां समयग्दर्शननां ज ठेकाणां नथी. ए वस्तु ज ज्यां नथी-जेनी भूमिका-सम्यग्दर्शननी, धरमनी भूमिका शरू थाय छे ए वस्तु ज ज्यां नथी एने तो आ बधां व्रतने तप करे उपसर्ग परिषह सहन करे ने.. ए बधुं थोथां छे, संसार खाते छे प्रभु!!
आहा.. हा! ‘द्रव्यद्रष्टिथी जोवामां आवे...’ ए तो, द्रव्य तो, ज्ञायकभावे छे. ए द्रष्टिथी जोवामां आवे.. तो ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं ज तेने नजरे पडशे! आहा.. हा! समजाणुं? शुं कह्युं? के जे आत्मा छे ए ज्ञायकभाव-जाणक्स्वभाव भाव ए तो त्रिकाळ छे. एनी वर्तमान दशामां मलिनता छे ई तो दशामां-पर्यायमां छे, वस्तु छे ए तो ज्ञायक भावे त्रिकाळ रहेली छे. ए ज्ञायकभाव कोई दि’ मलिन थयो नथी, ज्ञायकभाव कोई दि’ अपूर्ण रह्यो नथी. ज्ञायकभाव कोई दि’ परपणे थईने अशुद्धता एने लागु पडे एम थयुं ज नथी. ए ज्ञायकभाव त्रिकाळ छे एने आवरण नथी. आहा.. हा! ए तो, ज्ञायकप्रभु छे वस्तु छे ने...! चैतन्य वस्तु छे ने...! जाणक्स्वभाव... जाणक्स्व भाव.. जाणक्स्वभाव, एवी नित्यानंद प्रभु ध्रुव (वस्तु) अणउत्पन्न ने अविनाशी एवी चीज छे ने... !!
तो..... तने अवकाश छे. केमके ज्ञायकभाव, ज्ञायकपणे रहेलो छे. तो, तेनी द्रष्टि करवाने अवकाश छे तने. तो ते ज्ञायकनी द्रष्टि करवी एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
आहा..! ए मलिन थई ग्यो होय ने एने ज्ञायकपणे मानवो होय, तो तो एने अवकाश, सम्यगदर्शननो न रहे!
आहा.. हा! पण प्रभु (आत्मा)! तो अंदर चैतनय स्वरूप नित्यानंद प्रभु! ए तो ज्ञायकपणे-जाणक्पणे-तत्त्वपणे त्रिकाळ छे. एनी वर्तमान अवस्था-हालत-पर्याय एमां मलिनपणुं आ पुण्य-पापनुं देखाय छे. (छतां) ए पुण्य पापना मलिनतापणे ज्ञायकत्रिकाळ थयो ज नथी कोई दि’ आहा... हा! केमके ए मलिनतानी पर्यायनो एमां प्रवेश नथी. केमके मलिनपर्यायने ए ज्ञायकभाव छे
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८६ श्री प्रवचन रत्नो-१ ते अडतो य नथी. आ ते कंई वात!! आकरी वात छे बापु!
ए ज्ञायकपणुं, द्रव्यद्रष्टिथी जोवामां आवे तो, ‘ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं ज छे’ शुं कह्युं? ‘ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं छे.’ जोयुं? एनो स्वभाव जाणवा-पणुं छे, ई सत् प्रभु ई आत्मा सत्! सच्चिदानंद!! चिद् नाम ज्ञान ने आनंदनुं सत्=सच्चिदानंद! ए तो त्रिकाळी ज्ञानने आनंद स्वरूपे ज बिराजमान छे.
आहा.. हा! द्रव्यद्रष्टिथी जोवामां आवे तो, कायम रहेलुं तत्त्व छे. वर्तमान दशामां मलिनता छे एने न जोवामां आवे अने कायम रहेली चीज जे छे वस्तुज्ञायक-ध्रुव एने जोवामां आवे, तो तो ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं ज छे.. ‘भाव’ लेवो छे ने..! सत्पणुं सत्पणुं? सत् प्रभु, तेनुं सत्पणुं जे ज्ञायकपणुं छे आहा..! सत्... ‘छे’ -एवो जे भगवान आत्मा एनुं ज्ञायकपणुं ते एनुं सत्त्व एनो ‘भाव’ छे- आ पुण्य, पापना भाव थाय, दया-दान-व्रत-भक्ति, काम-क्रोध ना भावो (जे थाय) ए एनुं (आत्मद्रव्यनुं) सत्त्व नथी, ए सत्नुं सत्त्व नथी, सत्नो ए कस नथी.
आहा.. हा! सत् प्रभु (आत्मद्रव्य) छे एनो कस (सत्त्व) तो ज्ञायकपणुं ज छे. आरे.. आरे! आवी वातु हवे! नवराश न मळे, तत्त्व समजवानी! बपु, आ करवुं पडशे भाई..! ए निवृत्तिस्वरूप ज पडयुं छे.
‘ओलामां आवे छे ने...! “नजरनी आळसे रे, नीरख्या नहि में हरि” -मारी नयनने आळसे रे, नीरख्या नहि नयणे हरि!! ईतो ई पर्यायनी मलिनतानी समीपमां पडयो छे प्रभु ज्ञायक. आहा.. हा! पण एने जोवाने फुरसद न लीधी! जोनारने, जोवानुं नजरुं (करी) त्यां रोकाई गयो! पर्यायमां बहार जोवानुं (कर्युं) जेनी सत्तामां जोवाय छे, ते सत्ता जोवा नवरो न थयो! समजाणुं कांई...? आवो मारग छे!!
आहा.. हा! (लोको कहे छे के) आमां (अमारे) करवुं शुं? कांई सूझ पडती नथी. आगम प्रमाणे कहे के व्रत करवुं ने दया पाळो ने पैसा दानमां आपो.. मंदिर बनावो, एवुं कहो तो समजाय तो खरुं?
एमां समजवुं‘तुं शुं? ई तो राग छे अने रागपणे प्रभु (ज्ञायक) कोई दि’ थयो नथी. ए रागपणे पर्यायपणे, पर्याय थयेल छे. आहा.. हा! ए द्रव्य पोते रागपणे थाय तो तो थई रह्युं! द्रव्य अशुद्ध थई जाय एटले के द्रव्य ज पोते रह्युं नहीं आहा...? ए तो चीज छे ए छे.
आहा... हा! ज्ञायकपणे प्रभु आत्मा बिराजमान छे बधा आत्माओ अंदरमां, ज्ञायकपणुं छे ते छे अंदर!! आहा...? ‘छे’ तेनी द्रष्टि करवी छे ने...? प्रभु!!
आहा....? अमारी सामे जोईने तुं सांभळे छे ने जे राग थाय छे, ए तो पर्यायमां थाय छे, तारो ज्ञायकभाव छे, जे छे ते कोई दि’ रागपणे पर्याय पणे थयो ज नथी. समजाणुं कांई...?
(कहे छे) ‘कांई जडपणुं थयुं नथी’ एटले? शुभ-अशुभ भाव छे ए तो जड छे. दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजानो विकल्प जे ऊठे, एमां चैतन्यना ज्ञायकपणाना अंशनो पण अभाव छे. आखा ज्ञायकपणानो तो अभाव छे एमां शुं कीधुं ई? जे दया, दान, व्रत, भक्ति आदिना परिणाममां ज्ञायकपणाना तो ‘अभाव’ छे पण तेना एक अंशनो पण एमां अभाव छे. जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चारित्रनी
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ८७ पर्याय, एमां जे भगवान जणाणो, एवी पर्यायनो पण रागमां अभाव छे, ज्ञायकनो तो रागमां अभाव छे ज.
आहा... हा! अरे! आवी वात क्यां मळे भाई? ! (कहेछे केः) ‘जडपणुं थयुं नथी’ एटले? जे कंई शुभभाव के अशुभभाव थाय, एमां चैतन्यनो-ज्ञायकभावनो तो अभाव छे, पण ज्ञायकभावनी जे पर्याय, श्रद्धाज्ञानने आनंदनी थाय निर्मळ एनो एमां (रागमां) अभाव छे, तेथी जडपणुं छे. दया, दान, व्रत, भक्ति, पूजा, भगवाननुं स्मरण, जात्राना भाव (थाय) ए बधो राग छे, तेथी जड छे. भगवान चैतन्य (आत्मा) ज्ञायकपणे छे वस्तु जे ज्ञायकपणे छे, ते तो रागपणे रागरूपे थई नथी, ए रागमां आवी नथी, पण ज्ञायकभावना श्रद्धाज्ञाननां किरण जे सांचा फूटयां, ए किरणनो पण रागमां अभाव छे.
आहा... हा! माटे, कहे छे के जे भावे पंचमहाव्रतना भाव, भगवाननुं स्मरण कहेवाय, ए भावोने भगवाने जड कीधा छे. आहा... हा.. हा.. हा! ए जड (भावथी) चेतनने-ज्ञायकनुं ज्ञायकपणुं प्रगटे? ज्ञायकपणुं नहोतुं के प्रगटे? ज्ञायकपणुं तो छे ज. ज्ञायकपणाना स्वभावनो सत्कारने प्रतीत ने अनुभव थयो, एनुं (कारण तो) चैतन्यचमत्कृत ज छे, कहे छे. ए रागना क्रियाकांडना परिणामथी प्रभुने प्रगटे. आहा...! आवुं भारे आकरुं काम बापा!
आहा...! चैतन्य ज्ञायकपणे तो कायम रहेलो प्रभु द्रव्य छे. पण, एने माननारी जे द्रष्टि छे- एने जाणनारुं जे ज्ञान छे, एने (ज) जाणनारुं हो? एवा ज्ञाननो अंश पण ए शुभ रागमां नथी. आहाहा! एथी ते रागने शुभाशुभने जड कहेवामां आवे छे.
(कहे छे) ‘अहीं द्रव्यद्रष्टिने प्रधान करी कह्युं छे’ पर्याय नथी, एम नहीं, पर्याय ‘छे’ पण अहींया द्रव्यद्रष्टिने, द्रव्यनी द्रष्टि कराववा, ज्ञायकपणानी द्रष्टि ए (ज) सत्य छे, सत्यनो स्वभाव छे तेनी द्रष्टि सत्य कराववा... द्रव्यद्रष्टिने मुख्य करीने कह्युं छे, मुख्य-प्रधान करीने कह्युं छे. प्रधान (अर्थात्) मुख्य करीने कह्युं छे.
आहा... हा! (अनादि) पर्यायद्रष्टि, पण ज्यारे आ द्रव्यद्रष्टि थाय यथार्थ पछी, पर्यायने जुए तो मलिनता देखाय, ते ज्ञाननुं ज्ञेय छे. आहा... हा! समजाणुं कांई... अने (साधक) एने जाणे के आ परिणमन मारी पर्यायमां छे, मारा द्रव्यमां नथी. पुण्य-पापना भाव छे, मारे थाय छे, परिणमन करनार हुं कर्ता छुं, नयज्ञानथी (ज्ञानी यथार्थ जाणे छे)
पण, वस्तुद्रष्टिथी जोतां, ज्ञायकपणुं ते ज्ञायकपणुं रह्युं एने जुए, एने जाणे, माने पछी एनी पर्यायमां मलिनता छे तेनुं ज्ञान तेने साचुं थाय. आहा...! मारग, भाई आकरो छे! अपवास करी नाखे, चार-छ-आठ-दस, करी नाखे. शरीरना बळिया होई ई अपवास करे! ‘उपवास’ नहीं हो? ‘उपवास’ तो भगवान ज्ञायक भाव छे. तेमां-समीपमां जईने वसवुं पर्यायमां तेने (ज्ञायकभावने) आदरवो अने अतीन्द्रिय आनंदनी दशा प्रगट थाय, एने ‘उपवास’ कहे छे. बाकी बधा ‘अपवास’ छे.
रागनी रुचि (पडी छे) ने, परने छोडीने (रोटला छोडीने) अपवास माने, ए तो माठोवास छे, भगवानज्ञायकभाव छे एने तो जोयो नथी! जेनुं महा अस्तित्व छे, जेनुं महाहोवापणुं छे, महान
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८८ श्री प्रवचन रत्नो-१ माहात्म्य जेनुं छे एने तो जोयो नथी, मान्या नथी.
आहा... हा! ‘द्रव्यद्रष्टिथी जोवामां आवे तो ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं ‘ज’ छे’ (प्रश्न) एकांत छे? (उत्तरः) हा, निश्चय द्रव्य छे ते सम्यक्एकांत छे. समजाणुं कांई...?
आहा.... हा! प्रभु अंदर बिराजमान! जेने केवळज्ञान थाय, ए पर्याय क्यांथी आवशे प्रभु? क्यांय बहारथी आवशे? ए अंदरमां शक्तिने स्वभाव पडयो छे ज्ञायकभाव, एमांथी आवशे. आहा...!
आहा...हा..हा! ‘ते ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं ज छे’ कांई जडपणुं थयुं नथी. एटले? ए शुभ-अशुभ भाव, पर्याय नवी (नवी) छे, ए अचेतन छे, ए -रूपे ज्ञायकभाव थयो नथी, ई तो आवी गयुं छे ने... टीकामां... ‘ज्ञायकभाव ते शुभाशुभभावपणे थयो नथी, एटले जडपणे थयो नथी. ए टीकामां पहेलां आवी गयुं छे.
आहा... हा! आ कांई कथा नथी- वार्ता नथी. आ... तो प्रभुनी ‘भागवत कथा’ छे. ‘आ’ -भगवत्स्वरूप प्रभु अंदर छे, एने पहोंची वळवा भेटो करवानी वातुं छे!
प्रभु! पामरने भेटीने पडयो छो! प्रभु, प्रभुतानी भेट करी ले एकवार! तो तारी पामरता नाश थई जशे!!
समाज आखाने आवो उपदेश? बापु, समाज आखाने आवो उपदेश? बापु, समाज ते आत्मा छे ने अंदर, प्रभु छे ने! आ शरीर तो माटीजड छे आ!! “जाणनारने जणावे छे” जाणनारने जणावे छे के तुं तो ज्ञायकपणे ज कायम रह्यो छो ने...!
(कहे छे) ‘जे प्रमत्त - अप्रमत्तना भेद छे’ ए गुणस्थानना - चौद गुणस्थान छे. ए बधुं तो अशुद्धनयने - व्यवहारनयनो विषय छे. ए वस्तुमां नथी. चौद गुणस्थान... हो? पहेलुं, बीजुं, त्रीजुं, चोथुं एम चौद गुणस्थान (शास्त्रमां) कह्या छे. ए अशुद्धनयनो विषय छे, ए अशुद्धनुं कहो के व्यवहारनो विषय कहो, त्रणेय एक छे. ‘जे प्रमत्तने अप्रमत्तना भेद छे’ पाठमां हतुं ने, तेमांथी लीधुं छे. पाठमां ‘णवि होदि अपमत्तो ण पमत्तो’ छे.
(श्रोताः) आचार्य, अप्रमत्त पहेलां कहे छे! (उत्तरः) ई तो सामान्य! प्रमत्त पहेलुं होय छे. पहेलेथी छ गुणस्थान प्रमत्त अने अप्रमत्त सातमाथी चौद (गुणस्थान). गुणस्थाननी धारा छे ने....! एटले तेने समजाववा प्रमत्त (अहीं) पहेलुं लीधुं छे. आहा...! ‘प्रमत्त-अप्रमत्तना भेद नथी’ -प्रभु, ज्ञायकभावे बिराजमान!! ए शुभाशुभपणे थयो नथी. शुभ-अशुभपणे थयो नथी माटे, प्रमत्त-अप्रमत्तना भेद ए वस्तुमां (ज्ञायक)मां नथी. समजाणुं कांई....?
आहा.. आवो (सूक्ष्म ज्ञायकभाव) वार्ता होय तो कांई समजाये य खरुं! राजा-राणीनी. राणीने राजा मनाववा ग्यो ने....! हें? जेवुं थातुं होय एवी वातुं करे तो समजाय ने....! घरे थातुं होय ने....!
अरे बापु! आ तो तारा घरमां थातुं नथी कोई दि’ पर्यायमां आवी वात छे आ तो!! भगवान आत्मा, सर्वज्ञ त्रिलोकनाथ पोकार करे छे के अमे जे सर्वज्ञ थयां, ए सर्वज्ञपणामांथी सर्वज्ञस्वभावमांथी सर्वज्ञ थया छीए. ए सर्वज्ञपणुं क्यांय बहारथी आव्युं नथी. एम तारो गुण ज
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ८९ सर्वज्ञस्वभाव छे. ए सर्वज्ञस्वभावी पोते ज छे. ए कोई दि’ रागपणे के अल्पज्ञपणे थयो ज नथी. आहा... हा... हा! तारुं जे सत्व छे. -ज्ञायकपणुं-ज्ञ’ पणुं-सर्वज्ञपणुं कोई दि’ अल्पज्ञपणे थयुं नथी. तो पछी रागपणे तो थाय क्यांथी?
आहा...! ‘ते तो परद्रव्यना संयोगजनित पर्याय छे’ शुभ-अशुभ भाव नथी अने प्रमत्त- अप्रमत्त ए बेय पर्याय नथी, माटे भेद नथी, तेथी ते भेद परद्रव्यना संयोगजनित छे. परद्रव्यना संयोगने लक्षे थयेलां छे.
(शुं कीधुं?) परद्रव्यना संयोगजनित (कह्या एटले) संयोगे-परद्रव्ये-निमित्ते उत्पन्न कराव्यां छे, एम नहीं. संयोगजनित एटले के संयोगना लक्षे उत्पन्न थयेलां छे.
आहा...हा...! हवे, आवो उपदेश! याद शी रीते रहे! कलाक आवुं सांभळे ने! बापु, तुं अनंत केवळज्ञाननो धणी छोने नाथ! त्रणकाळ, त्रणलोकने जाण नाथ! एवुं तारुं स्वरूप ने शक्ति पडी छे, अने आवी साधारण वात तुं न जाणी शके? एम न होय भाई! एम न होय! न समजाय एम न कहे बापु! ए तो ज्ञायकपणानो पिंड छे ने !! ए कहे के मने न समजाय, पर्यायमां न समजाय! (एम न कहे. बापु!)
आहा...! प्रमत्त-अप्रमत्तना भेद छे ए तो परद्रव्यना संयोगथी उत्पन्न थयेला पर्याय छे. ए अशुद्धता, पर्यायमां-अवस्थामां-हालतमां-बदलती हलचल दशामां ए अशुद्धता छे. (कदी) नहीं बदलती-स्थिर-ध्रुव वस्तुमां ते (अशुद्धता) नथी. ज्ञायकभाव, नहीं हलतो नहीं चलतो स्थिरध्रुव (छे). “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्” छे ने....! ध्रुव छे ते हलतो-चलतो नथी.
आहा... हा! ए (ध्रुव) त्रिकाळी वस्तु छे. एनी द्रष्टिनी अपेक्षाए, एनी द्रष्टिनी अपेक्षाए अशुद्धपणुं... ए संयोगजनित विकार छे, ते द्रव्यद्रष्टिमां गौण छे, मुख्य नहीं. पेटामां राख! खरुं. तळेटीमां राख! (शिखर उपर) चडतां-जतां ए तळेटी हारे नहीं आवे.
आहा...! ए द्रव्यद्रष्टिमां मलिनता ते गौण छे, अभाव छे एम नहीं हो? मलिनता नथी ज तो संसारेय नथी, दुःखे य नथी, विकारेय नथी! पण एम नथी. (ते मलिनता पर्यायमां) छे. पण द्रव्यद्रष्टि, वस्तु-ज्ञायकभाव एनी द्रष्टिनी मुख्यताए, ए अशुद्धताने गौण करीने- ‘नथी एम कहेवामां आव्युं छे. गौण करीने-पेटामां राखीने (कह्युं) छे. उपर स्वरूपमां जावुं छे (शिखरे पहोंचवुं छे) तळेटी हेठे रही गई छे, पण ई छे खरी!
एम रागथी भिन्न पडीने, स्वरूपनी द्रष्टि करवाथी अने तेमां स्थिर थवामां पर्यायने गौण करे त्यारे तेमां (द्रव्यमां) द्रष्टि स्थिर थाय! आहा...! छे? गौण करी, व्यवहार छे. बीजी भाषाए कहीए तो, द्रव्यद्रष्टिनी अपेक्षाए-वस्तु-ज्ञायक जे त्रिकाळ छे एनी द्रष्टिए ए (पर्याय) नी अशुद्धता छे ते व्यवहार छे. त्रिकाळीज्ञायक भाव ते निश्चय छे. आ गौण छे ने ओलुं मुख्य छे. आ व्यवहार छे, ओलो त्रिकाळी निश्चय छे.
अभूतार्थ छे ‘नथी’ एम कीधुं छे. अ+भूत=पर्याय नथी (एम कह्युं ए) गौण करीने. भगवान
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९० श्री प्रवचन रत्नो-१ ज्ञायक भाव त्रिकाळीने मुख्य करीने ‘छे’ एम निश्चय कह्यो अने गौण करीने -व्यवहार कहीने नथी एम कह्युं. बिलकुल पर्याय-अशुद्धता नथी ज एम नहीं. अने असत्यार्थ छे, जूठुं छे. अशुद्धता असत्यार्थ छे (कह्युं छतां) छे पर्यायमां (त्रिकाळीमां ते नथी.)
विशेष कहेशे......
ज्ञानमां आत्मा तन्यम छे, ज्ञेयमां तन्मय नथी तेथी ज्ञानमां पोतानो स्वपर प्रकाशक स्वभावज विस्तरे छे, तेमां परनो विस्तार नथी. (बोल नं. १३९)
विकाररूप परिणमवुं ज भासे छे. (बोल नं. १६०)
भावेन्द्रियनी ज्ञायकनी साथे एकता मानवी ते मिथ्यात्व छे. (बोल नं. १६२)
जाणवुं थयुं ते स्वज छे एटले के राग संबंधीनुं ज्ञान थयुं ते रागने लईने थयुं छे के ते रागनुं ज्ञान छे तेम नथी पण ज्ञाननुं ज ज्ञान छे. (बोल नं. २प३)
रागादिकने नहीं... केम के ज्ञान आत्माथी तन्मय होवाथी ज्ञान आत्माने प्रकाशे छे- प्रसिद्ध करे छे, रागादिने नहीं. (बोल नं. २७प)
कहेवुं ए तो व्यवहार छे. रागने जाणतां जे ज्ञेयाकारे जणायो ते आत्मा जणायो छे, राग जणायो नथी केम के तेने ज्ञेयकृत अशुद्धता नथी. (बोल नं. ३प२)
परज्ञेयोने ज्ञाननी पर्यायमां ज्ञेय बनावीने ते संबंधीनुं ज्ञान थवुं ते ज्ञाननो स्वतःसिद्ध स्वभावज छे. (बोल नं. ३६३)
चैतन्यना प्रकाशमां चैतन्यनो प्रकाश ज जाहेर थाय छे. आत्मानी नजीकमां नजीक-एक क्षेत्रे रागादि उत्पन्न थाय छे पण आत्मा तेने जाहेर करतो नथी. आत्मा तो पोताने अने राग तथा परने प्रकाशे एवी पोतानी शक्तिनी द्विरूपताने प्रकाशे छे एटले के पोताने ज जाहेर करे छे, पोताना चेतकपणाने ज जाहेर करे छे. (बोल नं. ३७३)