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श्री प्रवचन रत्नो-१ ९१
आहा.. हा! ‘अशुद्धता परद्रव्यना संयोगथी आवे छे. भावार्थ छे, शुं कहे छे? जुओ! जे आ आत्मा छे ने! आत्मा वस्तु, ते तो शुद्ध चैतन्य आनंदघन छे. अतीन्द्रिय आनंद ने ज्ञाननी अतीन्द्रियप आनंदनी मूर्ति छे. एनी पर्यायमां-अवस्थामां-हालतमां-वर्तमान दशामां अशुद्धता परद्रव्यना संयोगथी आवे छे.
ए अशुद्धता नाम पर्यायना भेद, परद्रव्यना संयोगथी एनी (पर्याय) नी पोतानी योग्यताथी थाय छे. ए अशुद्धता- विकार अथवा पुण्य-पापना भाव, पोतानी चीज जे द्रव्य छे एनी पर्यायमां मलिनता, परद्रव्यना संयोगथी आवे छे. ए अशुद्धता परद्रव्यने लईने थती नथी, पण अन्यद्रव्य निमित्त (तरीके) होय छे.
शुं कहे छे? वस्तु छे सच्चिदानंद-ज्ञाननंद ध्रुव वस्तु आत्मा, नित्य ध्रुव वस्तु! ए कांई पुण्य- पापना मेलने अन्यद्रव्योथी अशुद्ध थतो नथी. समजाणुं कांई...? बापु, धरम शुं चीज छे! सुक्ष्म धणुं छे!!
आहा.. ए ज्ञायकद्रव्य जे वस्तु छे, वस्तु आत्मा! ज्ञानस्वरूप, ज्ञायकभाव, ए अन्यद्रव्योना भाव जे भेद, पुण्य-पाप ए रूपे कदी थतो नथी. समजाणुं...? मात्र परद्रव्यना निमित्तथी अवस्था मलिन थई जाय छे. पर-कर्मनुं निमित्त, एना संबंधे, आत्मानी अवस्थामां-पर्यायमां-हालतमां मलिनता थई जाय छे, वस्तुमां मलिनता नथी. वस्तु तो त्रिकाळ निर्मळानंद छे.
आहा.. हा! ‘द्रव्यद्रष्टिथी द्रव्य तो जे छे ते ज छे’ - वस्तु जे छे वस्तु!! सच्चिदानंद प्रभु! शुद्ध अखंड आत्मद्रव्य, ए तो जे छे ते ज छे. एमां कंईपण फेरफार थतो नथी. पर्यायमां फेरफार (देखाय छे) ई संयोगजनित मलिनता ए वस्तुमां छे नहीं. दशामां, पर्यायमां भेद छे, वस्तुमां भेद नथी. वस्तु आ ने पर्याय (आ)! (श्रोताः) ए मलिनता थाय छे ते पर्यायमां ज छे? (उत्तरः) मलिनता पर्यायमां छे, वस्तुमां नहीं. वस्तु तो एकरूप द्रव्य छे आहा..! वस्तु तो छे ते, ते ज छे.
आहा..! पर्यायमां-अवस्थामां मलिनता छे तो मलिनता चाली जाय छे, वस्तुमां मलिनता होय तो, वस्तु (द्रव्य) चाल्युं जाय (नाश) थाय. वस्तु अशुद्ध थई जाय? थाय तो, मलिनतानो नाश करवानुं आवे तो तो ए वस्तु ज नाश थई जाय. झीणी वात छे भाई! तत्त्व झीणुं!!
आहा.. हा...! ‘द्रव्यद्रष्टिथी... द्रव्य नाम वस्तु! त्रिकाळ शुद्ध द्रष्टिथी देखो, तो द्रव्य जे छे ते ज छे, जे तत्त्व छे ते एवुं ने एवुं अनादि-अनंत छे, अने पर्यायद्रष्टिथी... देखो तो मलिन ज देखाय छे. वर्तमान एनी दशा... एनी हालत... एनी पर्याय जुओ तो मलिन छे, पर्यायद्रष्टिथी देखो तो मलिन छे. द्रव्यद्रष्टिथी देखो तो निर्मळ छे. आहा.. हा!
हवे, आवुं समजवुं?! अहा.. मारग अनादि ख्यालमां नहीं (तेथी..) जन्म-मरण करी करी चोराशीनां अवतार....!
(कहे छे) ए.. पर्यायद्रष्टिथी जुओ तो मलिन देखाय छे-ए रीते आत्मानो स्वभाव ज्ञायकभाव मात्र छे, ज्ञायकस्वरूप-जाणनार, जाणनार, जाणनार, जाणनार, एवो, ज्ञायकस्वभावी ज त्रिकाळी
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९२ श्री प्रवचन रत्नो-१ आत्मा छे, ए मलिन थयो नथी.
आहा...! ‘अने तेनी अवस्था पुद्गलकर्मना निमित्तथी रागादिरूप मलिन छे’ वर्तमान एनी दशा, त्रिकाळ द्रव्यने छोडीने वर्तमान अवस्थामां, पुद्गलकर्मना निमित्तथी, रागद्वेषादि मलिन छे, ते पर्याय छे, ए तो अवस्था छे!
आहा...! (जेम) मनुष्यपणुं, मनुष्यपणुं ज कायम छे. बाळ-युवान-वृद्धावस्था ए तो पर्यायना भेद छे. मनुष्यपणुं तो मनुष्यपणे कायम छे, एम ज सोनुं सोनापणे कायम छे पण सोनानी अवस्था कुंडळ-कडां आदि पर्याय छे, ए अवस्था छे, ते भेद छे, ते वस्तुमां नथी. (वस्तु अभेद छे)!
आहा...! (जेम) मनुष्यपणुं, मनुष्यपणुं ज कायम छे. बाळ-युवान-वृद्धावस्था ए तो पर्यायना भेद छे. मनुष्यपणुं तो मनुष्यपणे कायम छे. एम ज सोनुं सोनापणे कायम छे पण सोनानी अवस्था कुंडल-कडां आदि पर्याय छे, ए अवस्था छे, ते भेद छे, ते वस्तुमां नथी. (वस्तु अभेद छे)!
आहा... हा...! आवुं समजवुं बापु! (कहे छे के) ‘द्रव्यद्रष्टिथी जोवामां आवे, तो ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं ज छे’ वस्तु... वस्तु... वस्तु त्रिकाळी वस्तु-द्रव्य-तत्त्व, द्रव्यद्रष्टिथी जुओ तो तो द्रव्य जे छे ते ज छे. ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं ज छे. ‘ते कांई जडपणे थयुं नथी’ आहा...! ज्ञायकभाव जे जाणन्स्वभाव! ते तो ज्ञायक स्वभावे त्रिकाळ छे. अने ए पुण्य-पाप भाव जे जड छे, ते-रूप (ज्ञायकभाव) थयो नथी. पुण्यने पाप, दया ने दान, व्रत-भक्ति, काम-क्रोधना भाव, तेमां ज्ञायकभावनो अंश नथी. तेमां ज्ञायकभाव तो नथी ज, पण ज्ञायकभावनो अंश - किरण (एटले) निर्मळपर्याय पण तेमां नथी. शेमां नथी? पुण्य-पाप आदि भावमां. शुभ-अशुभ भाव जे छे, मलिन छे, ए जड छे.
आहा.. हा! (आ) शरीर जड छे, ए तो वर्ण, रस, गंधए, स्पर्शवाळा जड छे अने पुण्य- पापना भाव जड छे (एतो) एमां चैतन्यना प्रकाशनो अभाव छे, ते अपेक्षाए ते जड छे. आहा... हा! ‘जड थयो नथी’ (ज्ञायकभाव) ‘अहीं द्रव्यद्रष्टिने प्रधान करी कह्युं छे’ -आ गाथामां वस्तुनी द्रष्टि बताववी छे. तेने, वस्तु शुद्ध छे, ए द्रष्टिए बताववो छे. वस्तुनी द्रष्टि कराववी छे (तेथी) सम्यग्दर्शन थाय छे, सत्यदर्शन थाय छे - आवी चीज (आत्मवस्तु) छे, आवी द्रष्टि कराववा, द्रव्यद्रष्टिने प्रधान-मुख्य करी कह्युं छे. जे प्रमत्त-अप्रमत्तना भेद छे’ - गुणस्थान चौद छे. ए ‘भेद छे ते तो परद्रव्यना संयोगजनित पर्याय छे’ शुभ-अशुभ भाव पर्यायमां, कर्मना संयोगना निमित्तथी, पोताना उपादाननी योग्यताथी, उत्पन्न थाय छे पण, छे ए जड! ए कारण प्रमत्त- अप्रमत्तना भेद छे, ए परद्रव्यना संयोगजनित पर्याय छे.
जेम, शुभाशुभ भाव परद्रव्य जनित विकारी-जड कह्या, तेम, प्रमत्त-अप्रमत्तना भेद पण- पहेले गुणस्थानथी छ सुधी प्रमत्त, सातमेथी चौद सुधी अप्रमत्त, भेद छे ए संयोगजनितनी अपेक्षाए भेद छे. वस्तुमां (त्रिकाळी) मां भेद नथी.
आवी चीज छे! (व्याख्यान) हिन्दीमां करीए... तो पण भाव तो जे छे! अत्यारे तो चालतुं नथी. अत्यारे तो... गरबड बधे छे. दया करो ने... व्रत करो ने... भक्ति करो ने.... पूजा करो ने तेथी धर्म थई जशे, धूळमांय धरम नहीं थाय भाई...! तने खबर नथी.
आहा....! ए विकारीभाव, पर्यायद्रष्टिमां संयोगजनित भेद छे. ए वस्तुमां छे नहीं. अने, वस्तुनी द्रष्टि थया विना... सम्यग्दर्शन थतुं नथी. आहा.. हा..! समजाणुं कांई...?
अहींयां द्रव्यद्रष्टिने प्रधान करीने कहुं छे. जे प्रमत्त-अप्रमत्तना भेद छे ए परद्रव्यना
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ९३ संयोगजनित पर्याय छे. अशुद्धता द्रव्यद्रष्टिमां गौण छे, ए अशुद्धता (जे छे ते) वस्तु द्रष्टि कराववा माटे, ए अशुद्धता पेटामां-गौण करीने- ‘एमां छे नहीं’-ए पर्यायमां पण छे नहीं, गौण करीने (कह्युं) छे.
पर्याय (सर्वथा) छे नहीं एवुं छे नहि, पण ए (अशुद्ध) पर्यायने, गौण करीने अर्थात् एनी मुख्यता लक्षमां न लईने, त्रिकाळ द्रव्यने लक्ष्मां, मुख्य लेवाने माटे, जे कारणथी सम्यग्दर्शन थाय छे-धर्मनी पहेली सीडी! ते कारण अशुद्धताने गौण करीने - द्रव्यद्रष्टिमां ए गौण छे!!
आहा...! वस्तु जे चैतन्यप्रभु नित्यानंद चैतन्यध्रुव छे ए आत्मद्रव्यनी द्रष्टिमां, ए पर्यायना भेदो-गुणस्थान भेदो-पुण्य, पाप आदि-प्रमत्त अप्रमत्तना भेदो, ए बधुं गौण छे, व्यवहार छे. त्रिकाळ ज्ञायक भाव ते मुख्य छे.
अने, प्रमत्त-अप्रमत्तना भेद छे ते गौण छे, त्रिकाळज्ञायक भाव छे ते ‘निश्चय’ छे अने पर्यायना भेद ते ‘व्यवहार’ छे.
भाई...! आवुं झीणुं छे! अहा.. ए तो दरकार करी नथी कोई दि’ संसारना पाप! आखो दि’ करे, अने एमां कांईक धरम सांभळवा जाय तो कलाक! मळे एवुं-दया करो ने.. व्रत करो ने... भक्ति करो ने... अपवास करो ने... पूजा करो ने.. धर्म थशे!!
अरे! ए तो मिथ्यात्व छे. आहा.. हा.! वस्तु, जे द्रष्टि छे (अनादि पर्याय) नी, त्रिकाळी जे कायमी, असली चीज (आत्मवस्तु) छे एनी द्रष्टि कराववा माटे, द्रव्यद्रष्टिनी मुख्यताथी, ए पर्याय गौण छे.
त्रिकाळ छे ए निश्चय छे अने पर्याय छे ते व्यवहार छे. त्रिकाळ छे ते सत्यार्थ छे अने पर्याय, अपेक्षाए अभूतार्थ छे. त्रिकाळ सत्यार्थ छे तो ए अपेक्षाए पर्याय असत्यार्थ छे. त्रिकाळ वास्तविक छे तो भेद उपचार छे. वस्तु एवी झीणी छे बापु! अहीं सुधी तो आव्युं’ तुं काल, आवी गयुं हतुं ने? आ तो फरीने लीधुं. आहा.... हा..! द्रव्यद्रष्टि शुद्ध छे. वस्तु जे त्रिकाळी सच्चिदानंद, ध्रुव! ध्रुव! जेमां पलटो- अवस्था पण नथी. आवी चीज छे ए शुद्ध छे!
पर्याय, मलिन ने भेद ए अशुद्धता छे. तेने गौण करीने, व्यवहार करीने, असत्यार्थ करीने ‘छे नही’ एवुं कहेवामां आवेल छे. समजाणुं कांई...?
आहा...! आ त्रिकाळी भगवान आत्मा, एक समयमां ध्रुव.. ध्रुव.. ध्रुव, चिदानंद प्रभु वस्तु छे. एनी जे द्रष्टि, जे छे ते शुद्ध छे. द्रव्यद्रष्टि शुद्ध छे. ते तो, त्रिकाळी चीज छे (द्रव्यप्रभु!) सत्यार्थ छे, भूतार्थ छे, छती चीज छे, त्रिकाळी! एनी द्रष्टि शुद्ध छे. संयोगननित अशुद्धपर्यायनी द्रष्टि तो अशुद्ध छे. (ए तो) पर्याय छे ने व्यवहार छे. समजाणुं...?
आहा... हा! द्रव्यद्रष्टि शुद्ध छे. वस्तु छे... एनी द्रष्टि कराववा... ए द्रव्यद्रष्टि ज शुद्ध छे. पर्यायद्रष्टि करवी, तो पर्याय तो अशुद्ध छे संयोगजनित (छे) एने (ए पर्यायने) गौण करीने-व्यवहार
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९४ श्री प्रवचन रत्नो-१ करीने अने वस्तुने (द्रव्य) ने मुख्य करीने-निश्चय कहीने, एनी (द्रव्यनी) द्रष्टि करावी छे.
आहा.. हा..! दिगंबर संतोनी वाणी गंभीर बहु! धणी गंभीर बापु!! आवी चीज बीजे क्यांय नथी. श्वेतांबर ने स्थानकवासीमां ने अन्यमतमां, क्यांय आवुं (वस्तु स्वरूपनुं निरूपण-वात) छे नहीं, आवी चीज (अलौकिक) !
तो, कहे छे के ‘द्रव्यद्रष्टि शुद्ध छे’ -त्रिकाळीवस्तुनी द्रष्टि शुद्ध छे अने त्रिकाळीद्रष्टि निश्चय छे, ए त्रिकाळी द्रव्य जे छे ए ज निश्चय छे. अने तेनी द्रष्टि ते निश्चय छे.
आहा...! ‘भूतार्थ छे’ त्रिकाळी चीज छे ई भूत (नाम) छतो पदार्थ छे. पर्याय तो, प्रगटती क्षणिक अवस्था, संयगोजनित, भेद, अभूत मलिनता छे. आ तो... स्वाभाविक वस्तु छे त्रिकाळी! जेने संयोगनी कंईपण अपेक्षा नथी, संयोगना अभावनी पण अपेक्षा नथी. (ए तो निरपेक्ष छे) आहा.. हा.. !
समजाय एटलुं समजो बापु! आ तो, परमात्मा-जिनेश्वरदेव-तीर्थंकर त्रिलोकना नाथ!! एनी आ वाणी छे. अत्यारे तो बधी गरबड थई गई छे बधे! ज्यां जुओ त्यां आ करो ने... अपवास करो ने... एमां जरी शुभ विकल्प छे तो ते पण अशुद्ध छे.
आहो.. हा..! ए अशुद्धता परद्रव्यना संयोगे उत्पन्न थाय छे, ए स्वाभाविक चीज नथी, स्वाभाविक चीज तो जे त्रिकाळी चीज छे ए स्वाभाविक छे-सहज छे. एनी द्रष्टि,... द्रव्य शुद्ध छे. तो एनी द्रष्टि पण शुद्ध छे.
आहा...! ‘द्रव्य अभेद छे’ हवे पर्याय अभेद थई गई. द्रव्य, निश्चय छे तो पर्यायने पण निश्चय कहेवामां आवे छे, वस्तु भूतार्थ छे, भूत नाम छती, छती-हयाति-त्रिकाळमौजुद चीज (आत्मवस्तु) छे, पर्याय छे एनो क्षणिक विकार-अशुद्धता, ए तो संयोगथी (संयोगजनित) उत्पन्न थाय छे.
‘आ’ वस्तु सत्य छे, भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे (एटले) सत्य, सत्य, कायमी चीज सत्य पदार्थ छे, आहा.. हा.! “आ ज सम्यग्दर्शननो विषय” समजाणुं कांई...?
अभ्यास न मळे! कांई खबर न मळे! जगतना पापना अभ्यास बधां! आखो दि’ धंधा!! आ दुकाने बेसीने धराक साचववा ने माल ने... नोकरी होय तो बे-पांच हजारनो पगार मळे! पाप एकलुं आखो दि’!! धरम तो नथी पण पुण्ये य नथी!
आहा.. हा! आहींयां तो धरम.. अनंतो धारे! पर्यायद्रष्टिने, मलिनताने-भेद-अशुद्धताने, द्रव्यद्रष्टिमां गौण करीने... (ते धरम प्रगटाववा) त्रिकाळीनी द्रष्टि कराववा माटे-ते सत्यद्रष्टि छे केम के वस्तु सत्य छे, त्रिकाळी मौजुद चीज छे (आवी) मौजुद चीज भगवान त्रिकाळी ध्रुव (आत्मद्रव्य), एनी द्रष्टि करवी ए निश्चय सम्यग्दर्शन छे. एनुं नाम धरमनी पहेली सीडी छे! चारित्र तो क्यांय रही गयुं, ए तो बहु आकरी वात छे! समजाणुं कांई..?
आहा...! ‘परमार्थ छे’ परमपदार्थ, परमार्थ ए वस्तु परमार्थ! आ दुनियानो (कहेवाय) छे ते परमार्थ ने ए वस्तु नहीं. ए बधुं मिथ्या छे. कोईनुं, कोई कांई करी शकतुं नथी (तो बीजानुं भलुं कर्युं
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ९प तेने परमार्थ कहे छे ए मिथ्या छे) परमपदार्थ-परमार्थ तो प्रभु (आत्मा) पोते छे, त्रिकाळी परमपदार्थ परमार्थ छे एनी द्रष्टि करवाथी, जनम-मरणना अंत लावनारुं समयग्दर्शन थाय छे. समजाणुं कांई...?
आहा...हा! ‘माटे आत्मा ज्ञायक ज छे’ (कहे छे) वस्ते छे ए तो, त्रिकाळी ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञायक.. ज्ञानरस... ज्ञानस्वभाव.. ज्ञायक.. स्वभाव!! सर्वज्ञ स्वभाव!! ज्ञायक भाव ए तो त्रिकाळी ज्ञायक-स्वरूप छे.
आहा...हा..! आवी भाषा.. ने आवुं बधुं बापु! मारग झीणो बहु! आहा.. छे? ए कारणे.. आत्मा ज्ञायक ज छे ए.. क! जाणक्स्वभाव मात्र!! कायमी त्रिकाळी ज्ञायकस्वभाव मात्र!! जाणक्स्वभाव मात्र आत्मा छे. एमां कोई मलिनता के भेद छे नहीं.
आहा...हा...! ‘तेमां भेद नथी’ - ई प्रमत्त- अप्रमत्त अने पुण्य-पापना भाव, ए वस्तुना स्वरूपमां छे नहीं... भेद नथी, आहा...! तेथी ते प्रमत्त-अप्रमत्त नथी. ए कारणे, ए गुणस्थानना भेद जे प्रमत्त-अप्रमत्तना भेद- जेम सीडी चडीए ने पगथियां होय छे ने - तो ई भेद छे (एम) चौदगुणस्थान पर्यायमां, ते एमां (ज्ञायकमां) छे नहीं..
आहा...! ‘ज्ञायक, एवुं नाम पण तेने ज्ञेयने जाणवाथी आपवामां आवे छे’ आहा.. हा! ‘जाणवावाळो’..‘जाणवावाळोह (जाणनार, जाणनार) एवुं कहेवामां आवे छे तो ए ‘जातनारो’ परने जाणे छे माटे ‘जाणनारो’ छे?
कहे के ना. ए तो परने जाणवा काळे पोतानी ज्ञाननी विकास शक्ति प्रगट थई ए पोताथी थई छे परनुं जाणवुं ने स्वनुं जाणवुं! ए पर्यायमां, (ज्ञान) पर्यायना विकासमां व्यक्त-प्रगट थई, ए पोतानाथी (पोताना स्वभावथी) थई छे, परथी नहीं. आहा.. हा! समजाणुं कांई...?
‘ज्ञायक’ नाम पण एने ज्ञेयने जाणवाथी देवामां आवे छे’ केम...? ‘ज्ञेयनुं प्रतिबिंब जेम झळके छे ज्ञाननी पर्यायमां’ एम ए पर्यायमां- पर्यायनी वात चाले छे-एनी (साधकनी) पर्यायमां राग जाणवामां आवे छे. शरीर छे ए जाणवामां आवे छे, ‘ज्ञाननी पर्यायमां एनी (स्व-परज्ञेय) नी ‘झलक नाम जाणवामां आवे छे’ .
‘आहा..! ज्ञेयनुं प्रतिबिंब ज्यारे झळके छे ज्ञाननी पर्यायमां’ स्वपर प्रकाशक पर्यायनुं सामर्थ्य छे ते विकसित थयुं, एमां (विकसितज्ञान-पर्यायमां) शरीरादि, रागने देखवामां- जाणवामां आवे छे. ए तो ज्ञानमां एवो अनुभव थाय छे ज्ञानमां आवो अनुभव थाय छे के हुं तो ज्ञाननी पर्याय छुं ‘तो पण ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी’ . शुं कहे छे? त्रिकाळी ज्ञायकभाव तो शुद्ध छे पण एनुं ज्ञान थयुं पर्यायमां तो ज्ञान एनुं (त्रिकाळी) नुं थयुं ए ज्ञाननी पर्यायमां, ‘स्व’ तो जाणवामां आव्यो, पण ए ज्ञाननी पर्यायमां-अवस्थामा्रं पर जाणवामां आव्युं तो? पर जाणवामां आव्युं तो ए ज्ञेयकृत-परकृत-अशुद्धता एमां आवी? पराधीनता एमां आवी (के नहीं) ?
एवुं छे नहीं. ए परज्ञेयकृत भाव, जे जाणवामां आव्यो ते तो पोतानी (ज्ञान) पर्यायनो भाव छे. ए ज्ञानपर्याय पोतानो ज्ञानपर्याय भाव छे. ए ज्ञेयकृतथी (ज्ञान) थयुं छे एवुं छे नहीं.
आरे...! आवी वातुं हवे!! भाषा तो सादी छे पण हवे भाव तो जे प्रमाणे होय ते प्रमाणे होय
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९६ श्री प्रवचन रत्नो-१ ने...!
आहा..! शुं कह्युं? के जे ‘जाणवावाळो’ एम कहेवामां आव्युं, तो ‘जाणवावाळा’ ए पोताने तो जाण्यो!
पण, ए परने जाणवाकाळे, पर जेवी चीज छे तेवुं अहींयां ज्ञान होय छे. तो परने कारणे एवी पर्याय थई छे?
एम छे नहीं. ए परना जाणवाकाळे पण पर्याय पोतानी ज्ञाननी छे, पोतनी शक्तिनो विकास थयो छे, स्व पर प्रकाशनो विकास थयो छे. प्रगट थई छे ते पोतानी पर्याय छे. पोताथी प्रगट थई छे, परथी (प्रगट) थई नथी. समजाणुं?
आहा...! आवो उपदेश सांभळवो... कांई सांभळ्युं न होय, द्रव्य शुं ने पर्याय शुं? अभेद शुं ने भेद शुं?
आहा.. हा.! अनादि काळथी अज्ञान! भवनां कर्या छे परिभ्रमण! आहा..! कागडा, कूतरां, कंथवाना भव तो थयां अनंतवार!
अने, आंही (मनुष्यभवमां) नहि समजे तो मरीने त्यां अ.. व.. त.. र.. शे! आहा... हा! भले, अहींयां करोडोपति हो-मांसने दारू आदि खापांपीतां न होय पण भान नथी वस्तुनुं ने माया- कपट-लोभ आदिना भाव कर्या होय तत्त्वनुं ज्ञान नथी ए पशुमां जशे!! पुण्यनां य ठेकाणां नथी! धरम तो कठण पण मनुष्यपणुं मळवुं कठण थई जशे!
आ चीज! जेवी छे तेवी, तारी चीज छे, तने समजणमां-ज्ञानमां न आवे त्यां सुधी परिभ्रमणनां भाव छे!
आहा...हा! ‘ज्ञानमां तेवुं ज अनुभवाय छे’ ज्ञानमां एवो अनुभव आवे छे. -तो ए रागने शरीर (आदि) ने जाण्या (तो खरेखर) तो ई ज्ञाननी पर्याय जाणवामां आवी छे. ए रागनुं ज्ञान थयुं माटे रागने जाण्यो (अथवा) रागथी ज्ञान थयुं ए तो छे नहीं. ए ज्ञानपर्याये पोते पोताने जाणी! ए पर्याये पर (ज्ञेय) ने जाण्युं के परना कारणे (ज्ञाने) परने जाण्युं, परनुं ज्ञान थयुं एम छे नहीं. पोतानामां ई स्वपर प्रकाशकनो प्रकाश १थयो, विकास थयो, प्रगटता थई ए रागथी प्रगटता थई नथी. शरीरने जाण्युं तो शरीरथी ए जाणवानी पर्याय उत्पन्न थई एवुं छे नहीं. आहा.. हा..! समजाणुं कांई..?
आहा.. हा ‘तो पण ज्ञेयकृत अशुद्धता एने नथी’ -केमके जेवुं, ज्ञानमां प्रतिभासित थयुं (झळकयुं-प्रतिभास्युं) एवुं ज शरीर ने राग छे तेवुं ज पोतानी (ज्ञान) पर्यायमां (झळकयुं) -स्वज्ञेय (तो) जाणवामां आव्युं ए पर्यायमां परनुं जाणवुं आव्युं (अर्थात्) ) ए प्रतिभासित थयुं ‘एवो ज्ञायकनो अनुभव करवाथी ज्ञायक ज छे’ एतो जाणवानी पर्याय, ज्ञायकनी छे, ए रागनी पर्याय नथी.
आ... रे! आवी वातुं हवे! पाठ खूब सारो छे भाई? छठ्ठी गाथा!! आ.. तो भावार्थ छे, टीका तो चाली. आ तो ओगणीसमी वार चाले छे, अढार वार तो समयसार पुरेपुरुं सभामां चाली गयुं, पहेली (गाथा) थी ठेठ आखिर सुधी अढार वार (व्याख्यान) थयां आ ओगणीसमी वार चाले छे.
वस्तु गहन!! क्यारे य सांभळ्युं नहीं... विचारमां आव्युं नहीं शुं चीज छे? अने एनी दशामां
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ९७ शुं चाले छे?
तो पहेलां तो आ कह्युंः के वस्तु छे त्रिकाळी (आत्मद्रव्य) शुद्ध, एनी द्रष्टि करवी शुद्ध छे. अने पर्यायमां अशुद्धता आवे छे ए संयोगजनित छे माटे मलिनता ने भेद होय छे.
आहा...! हवे, आंही जे पर्याय थई ए बीजी वात छे. छतां ए पर्याय, द्रव्यमां नथी. ‘स्वज्ञेयने जाण्यो, परज्ञेयने जाण्या’ तो पर्याय, स्वपर प्रकाशक ए पोतानी, पोताथी थई छे. छतां ए पर्याय, द्रव्यमां छे नहीं. पर्याय भिन्न छे.
आहा..हा..! आवुं मुंबईवाळाने क्यां.. नवराश मळे! आवुं समजवानी! धंधा.. आखो दि’ पाप! सवारे ऊठे के आ करो ने.. आ करोने..!! धंधा..धंधा..धंधा पापना! आहा..हा.! धरम तो नहीं पण पुण्ये य न मळे. जो बे-चार कलाक सत् सांभळवामां आवतुं होय, तो पुण्ये य बंधाय, पण धरम नहीं. धरम तो..., ए पुण्यभावना रागभावथी भिन्न भगवान (आत्मा) छे, एनी नजर एक ज्ञायकभाव पर छे- एनी द्रष्टि करवी एटले के द्रष्टिमां ए ‘ज्ञायक’ लेवो! जे द्रष्टिमां, पर्याय आदि राग आदि छे, ए द्रष्टिमां ज्ञायक त्रिकाळी लेवो एनुं नाम सम्यग्दर्शन छे. आहाहा...!
(कहे छे) ‘कारण के जेवुं ज्ञेय ज्ञानमां प्रतिभासित थयुं’- पर्यायनी अहीं वात छे हो!! ‘तेवो ज्ञायकनो अनुभव करतां ज्ञायक ज छे’ - ए ‘जाणे’ ई पर्याय ज्ञायकनी छे पोतानी, (एटले के) स्वनुं जाणवुं-परनुं जाणवुं, ए पर्याय ज्ञायकनी ज छे, अथवा ‘ज्ञायक ज जाणवामां आव्यो’ पर्यायमां, ‘पर जाणवामां आव्युं एवुं छे नहीं’ (एटले के परने जाणतो ज नथी ने...!)
आहा...हा.! पोतानो, ज्ञायक चैतन्य प्रभु! नित्यानंद ध्रुव!! एनुं जे ज्ञान सम्यक्, द्रष्टि (सम्यक्) थईने-आश्रय लईने थयुं, ए ज्ञाननी पर्यायमां, आ राग आदि, शरीर आदि, बाह्य चीज (जे) जाणवामां आवे छे ए कहे छे, परना कारणथी जाणवामां आवे छे, एवुं नथी. (परंतु) ए पर्यायनो स्वभाव स्वपरप्रकाशक प्रगट थईने, पर्याय, पोतानी ज पर्याय छे एवुं जाणे छे.
एवुं छे!! भाई, मारग बहु सूक्ष्म भाई! अत्यारे संप्रदायमां तो गोटा ऊठया छे बधा! एनुं शुं करवुं?! एने बिचाराने खबर नथी. अरे..! आ चीज जे अंदर रही जाय छे आखी सच्चिदानंद प्रभु! नित्यानंद! सहजात्म स्वरूप! सहज् स्वभावी! जेमां पलटन-पर्याय, ए पण नथी, एवो स्वभाव (ते) वस्तु छे!!
तो...., पर उपरथी द्रष्टि ऊठावीने, अंदर त्रिकाळीमां द्रष्टि लगाववी, ए द्रष्टि शुद्ध छे ने वस्तु (आत्मा) शुद्ध छे!!
अने.... द्रष्टि शुद्ध थई... अने स्वनुं ज्ञान थयुं, ए ज्ञाननी पर्यायमां, पर्यायनो स्वपर प्रकाशक स्वभाव होवाथी, पर जाणवामां आव्युं, तो परना कारणथी परनुं ज्ञान थयुं. अहींया (ज्ञानपर्याय)मां एवुं नथी. ए तो पोताना स्वपर प्रकाश सामार्थ्यथी पोतानां ज्ञाननो विकास थयो छे. आहा..! आवी वात छे!!
अरे..! जनम-मरणना अंत लाव्या नहीं. अत्यारे तो सांभळ्यु जाय नहीं तेवुं छे! जुवान- जुवान माणस हार्टफेईल! आ बेठां बेठां, वात करतां हार्टफेईल. दीकरीयुंने हार्टफेईल!! आहा.. हा! क्यां..य
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९८ श्री प्रवचन रत्नो-१ रखडवा ढोरमां-पशुमां.. ने! तेनां बंगलां ने पैसा बधां पडां रहे अहींयां!
आहा.. हा! प्रभु! तारे ऊगरवाना आरा होय तो.. ए ऊगरवानो आरो कहेवा छे ने... तो ई चैतन्यद्रव्य छे!!
आहा... हा! ए त्रिकाळी ज्ञायकभाव! ध्रुवभाव! स्वभाव भाव, कायमी भाव! असली भाव! नित्यभाव!! (एवो आत्मस्वभाव) एनी द्रष्टि करवाथी एटले एमां प्रवेश करवाथी (एकाग्र थवाथी) समयग्दर्शन थाय छे! ए समयग्दर्शनथी भवनो अंत थशे, ए अंत करवावाळुं छे बाकी, कोई दया-दान-व्रत-भक्ति (ना भाव) ए तो संसार छे.
आहा..हा..! ‘कारण के जेवुं ज्ञेयपर ज्ञानमां प्रतिभासित थयुं’ ‘प्रतिभासित’ एटले? जेवुं ज्ञेय छे एवुं अहीं ज्ञान थयुं. ‘तेवो ज्ञायकनो अनुभव करतां ज्ञायक ज छे’ – ए तो ज्ञायकनी पर्याय छे, अने ज्ञायकथी उत्पन्न थई छे. ‘परथी नहीं, परनी नही’ .
आहा..हा! ‘आ हुं जाणनारो छुं ते हुं ज छुं’ जुओ! शुं कहे छे? ए ज्ञाननी पर्यायमां, राग- शरीर आदि जाणवामां आव्युं, तो जे ‘जाणवानी पर्याय छे ते तो हुं छुं’ छे? .. ‘आ जणनारो छुं ते हुं ज छुं’ - ए जाणवावाळी जे चीज-पर्याय ते हुं छुं. ए रागने जाणवावाळी पर्याय, राग छे एव्रुं तो छे नहीं. आहा.. हा! क्यां... लई जवो छे...! आवो मारग! एनी खबरुं विना, चोराशीमां रखडी मरे छे... कागडां ने कूतरां ने सिंह, वाध, वरूना अवतार!! वाणिया मरीने त्यां जाशे धणां! धरमनी खबर न मळे! साचो सत्समागम बे-चार कलाक जोईए तेनी खबर न मळे!! पापनो असत्समागम... आ धंधो! असत्समागमे छे. अने ते दि’ (सांभळवा) आ मळे तो सत्समागम छे!!
अहीं कहे छे के... पर जे जाणवामां आव्या, ए हुं छुं, ए मारी (ज्ञान) पर्याय छे, माराथी उत्पन्न थई छे. रागनुं ज्ञान, शरीरनुं ज्ञान- ए ज्ञान, शरीर के रागने कारणे थयुं नथी, मारी पर्यायना सामर्थ्यथी ए ज्ञान थयुं छे. हुं त्रिकाळी तो ज्ञायक ज छुं पण... एनी जे (ज्ञान) पर्याये ज्ञायकने जाण्यो, परने जाण्या, ए तो मारी पर्याय छे. हुं तो जाणवावाळापणे परिणमुं छुं, राग (वाळापणे) परिणमुं छुं एम नथी. (अर्थात्) रागनुं ज्ञान थयुं, आ शरीरनुं ज्ञान थयुं ए रागपरिणमन थईने आव्युं छे, ए रागना कारणथी परने-पर्यायने जाणवानी (ज्ञान) पर्याय आवी छे, एवुं छे नहीं.
आहा..! बापु! मारगडा जुदा भाई! अरेरे...! सत्य सांभळवामांय आवे नहीं-ए सत्य शुं चीज छे!! एनी प्राप्ति महादुर्लभ छे!!
अहींया कहे छे के ‘आ हुं जाणनारो छुं ते हुं ज छुं’-राग अने शरीर आदिनी क्रिया जे थाय छे जडनी, तेनुं अहींया ज्ञान थाय छे, ते तो हुं ज छुं. ए ज्ञाननी पर्याय मारी छे. माराथी उत्पन्न थई छे. परथी उत्पन्न थई नथी.
आहा...हा! ‘अन्य कोई नथी’-आवो, पोताने पोतानो अभेदरूप अनुभव थयो! एवो भगवान स्वरूप चैतन्य प्रभु! पोताने पोतानुं ज्ञान थयुं, परना ज्ञानमां पण पोतानुं ज्ञान थयुं’-एवो पोताने पोतानो अभेदरूप अनुभव थयो, त्यारे जाणनक्रियानो कर्त्ता स्वयं (आत्मा) छे. शुं कीधुं? जाणक्स्वरूप जे भगवान आत्मा त्रिकाळ छे, एनी जाणनशील पर्याय, ए समये जे रागने, शरीरने,
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ९९ परने जाणे छे ए पर्याय (थई) ए पर्यायनो कर्त्ता आत्मा छे. आहा.. हा! छे? .. ए जाणनक्रियानो कर्त्ता एम कह्युं अहींयां आहा.. हा! पर्याय छे ने! क्रिया छे ने पर्याय!! त्रिकाळीज्ञायक चैतन्य हुं छुं एवुं जे ज्ञान थयुं अने जे ज्ञेय थयुं, ए ज्ञाननुं लक्ष, शरीरादि पर उपर जाय छे, तो एनुं एने ज्ञान थाय छे- तो एनुं ज्ञान थयुं, तो ई ज्ञाननी पर्याय मारी ज्ञानकृत छे- ए जाणवानी क्रियानो कर्त्ता स्वयं (ज्ञायक) ज छे. ए रागनुं ज्ञान थयुं तो राग कर्त्ता ने जाणवान्रुं कार्य-ज्ञानपर्याय, एवुं कर्त्ता-कर्म छे नहीं. आवो वीतरागनो मारग!!
आहा..हा! ‘ए जाणवानी क्रियानो कर्त्ता स्वयं ज छे’-स्वने जाणवुं ने परने जाणवुं-ए जाणवानी क्रियानो कर्त्ता तो स्वयं आत्मा छे. ए जाणवानी क्रिया (मां) परनुं जाणवुं थयुं तो पर कर्त्ता छे अने आ ज्ञाननी क्रिया कार्य छे, एवुं छे नहीं. ‘अने जेने जाण्युं ते कर्म पण स्वयं (पोते) ज छे’ आहा.. हा! ए ‘कर्त्ता’ पण पोते ज छे पोतानी ज्ञाननी पर्यायनो अने ‘कर्म’ पण स्वयं ज छे, कार्य थयुं ई स्वयंपर्यय छे पोतानी.
आहा..! ‘आवो एक ज्ञायकपणामात्र पोते शुद्ध छे’-एवो ज एक ज्ञायकस्वभाव स्वयं शुद्ध छे. आ तो... त्रिलोकनाथ! सर्वज्ञ परमात्मा जिनेश्वरनी वाणी छे! आहा...! प्रभु! तुं कोण? शुं छे? अने केटला काळथी छे? ‘हुं तो ज्ञायक छुं’ केटला काळथी छो? हुं तो त्रिकाळ छुं तो एमां कोई पर्यायना भेद छे के नहीं? (एटले के) जे परना जाणवावाळी पर्याय छे, अशुद्ध छे, राग छे ए एमां छे के नहीं?’ ना. (अभेदमां भेद नथी)!
(अभेदनो अनुभव थयो) त्यारे अशुद्धता-भेद छे ज नहीं एवुं ज्ञान थयुं, तो ई थाननी पर्याय थई-ए पर्याय तो स्वने जाणे छे ने परने जाणे छे, तो ई पर्याय छे के नहीं अंदरमां? तो... अंदरमां नथी, पण पर्याय जाणवामां आवी ते मारामां छे. पर्यायमां, स्वनुं जाणवुं ने परनुं जाणवुं ए पर्यायमां छे. समजाणुं कांई...?
चैतन्य ज्ञाननो पूंज छे अंदर!! जेम धोकळा होय छे ने..! बोरा-बोरा! रू ना भरेला बोरा (धोकळा) होय छे ने पचीस-पचीस मणना!! (एम) आ (आत्मा) अनंत-अनंत गुणना ज्ञानना बोरा छे. एमांथी थोडा नमूनो बहार काढे छे. आ ‘आखा’ बोरा आवो छे, एम आ ज्ञायकचीज प्रभु (आत्मा) एनुं ज्ञान करवाथी, एना नमूनारूप ज्ञाननी पर्याय बशार आवे छे के.. आ ज्ञाननी पर्याय जे आवी, तो ‘आखुं’ स्वरूप ज्ञानमय छे!!
अने, जे (स्वानुभव)मां ज्ञाननी पर्याय-अवस्था थई, ए छे तो भेद-त्रिकाळनी अपेक्षाए- पण, (ज्ञानपर्याय)नो राग तरफनो झूकाव नथी. ‘रागनुं ज्ञान, परना झूकाव विना थयुं छे’ -ए कारण पर्याय जे थई, ते अभेद थई. केम के स्वना आश्रयथी थई-अभेद थई एम तेने कहेवामां आवे छे. पर्याय कांई द्रव्यमां घुसी जती नथी, पर्याय तो पर्यायमां रहे छे. भले! ज्ञायकनुं ज्ञान थयुं, ए रागनुं ज्ञान ते पोतानी पर्याय ज छे, पण ई पर्याय, त्रिकाळीमां घुसी जाय छे एवुं तो नथी. पर्याय, पर्यायमां रहे छे, द्रव्य, द्रव्यमां रहे छे!! छतां.. द्रव्यनुं ज्ञान पर्यायमां आवे छे. आ पूर्णानंद प्रभु छे एवुं ज्ञान पर्यायमां आवे छे, ए वस्तु (द्रव्य) पर्यायमां आवी जाय छे एवुं नथी. समजाणुं कांई...?
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१०० श्री प्रवचन रत्नो-१
हळवे.. हळवे तो भई कहेवाय छे, आ तो प्रभुनो मारग... छे, अनंत सर्वज्ञो, अनंत तीर्थकारो, आ वात करता आव्या छे. एणे (जीवो) ए अनंतवार सांभळी छे, पण एने रुचि नथी, एणे अंतरमां आश्रय करीने शरण लीधुं नथी एनुं आहा.. हा! शरण लीधुं नहीं!
अहींयां कह्युं ने...! ‘आवो एक ज्ञायकपणामात्र पोते शुद्ध छे’ त्रिकाळी!! आहा...! ‘आ शुद्धनयनो विषय छे’ शुं कीधुं? जे वस्तु छे त्रिकाळी, पण एनुं ज्ञान (जेने) थयुं एने शुद्ध छे. तो ई पर्याय (स्वानुभव) नी ज्ञाननी ज्ञई एने शुद्ध कहेवामां आवेल छे. अभेद थई गई ने...!! शुद्ध चैतन्यवस्तु पूर्ण छे एनुं ज्ञान थईने, स्वना आश्रये शुद्ध थई गई, ए अभेद कहेवामां आवी. एटले के शुद्ध कहेवामां आव्युं ए अपेक्षाए अभेद! बाकी, पर्याय छे ते तो व्यवहार नयनो विषय, चाहे तो केवळज्ञान हो! ते पण व्यवहारनयनो विषय छे!!
आवी फुरसद क्यां मळे! धंधा आडे.. एक अंधो होय पहेलां कारखानानो, बीजुं कर्यु ने त्रीजुं कारखानानुं कर्यु एमां नवराश क्यां छे? (आत्मतत्त्व समजवानी) आहा.. हा! प्रभु! तुं...
(श्रोताः) एमां रूपिया मळे, सुख छे ने एमां? (उत्तरः) धूळमांय एने मळतां नथी रूपिया क्यां’य! रूपिया तो रूपियामां रहे छे ने...! मळ्या छे एवी ममता मळे छे एने. कारण के पैसा तो पैसामां छे. शुं ते आत्मामां आवे छे? ‘मने मळ्या’ - एवी ममता एनी पासे आवी छे आहा.. हा! पैसा तो पैसामां रह्या छे.
आहा.. हा! आ पर्याय ज्ञाननी थई, तो एमां रही एम कहेवामां आवे छे. प्रभु! जे चैतन्यमूर्ति! चैतन्यना प्रकाशनुं पूर.. पूर!! ध्रुव पूर! त्रिकाळी, एनुं जेणे सेवन कर्यु, ए ज्ञाननी पर्याय अभेद थई, केम के एना आश्रयथी-एना अवलंबनथी अथवा ई स्वपर्यायथी ज थई छे.
आहा... हा! आकरुं काम बापु! अरे..! आ क्यां? नवराश न मळे! बाळ अवस्था रमतुंमां जाय, जुवानी बायडीना मोहमां जाय, वृद्धावस्था जाय ईन्द्रियोनी नबळाईमां, थई रह्युं!! जीवन पराधीन थई गयुं!! आहा.. हा! ‘एमां पहेलेथी काम न लीधुं तो पछी हारी जईश मनुष्यपणुं!” शास्त्रमां पण एवुं आवे छे, शरीरनी जरा-जीर्णता न आवे, शरीरनी ईन्द्रियो हीन न थाय, शरीरमां रोग न आवे ते पहेलां काम करी ले! पछी नहीं थाय (भावपाहूड गाथा. १३२) आ तो अष्टपाहूडमां छे आपणा दिगम्बरमां.
आहा...! वृद्धावस्था न आवे, रोग शरीरमां न देखाय, शरीरनी जीर्णता न थाय- करी ले काम आत्मानुं, पछी नहीं थई शके, चाल्यो जाईश जिंदगी खोईने...! निष्फळ!!
निष्फळ नहीं, धरमने माटे निष्फळ रखडवा माटे सफळ, दुःख भोगववा माटे सफळ!! आहा.. हा. हा. हा.! आवुं सत्यस्वरूप छे. (कहे छे) ‘आवो एक ज्ञायकपणामात्र पोते शुद्ध छे’ - ‘आ शुद्धनयनो विषय छे’ - शुद्धनयनो विषय तो त्रिकाळ (ज्ञायकभाव) छे, अहीं विषयने जाण्यो, त्यारे तेने शुद्ध कहेवामां आवे ने...! तो ते अपेक्षाए पर्यायने पण शुद्धनयनो विषय कहेवामां आवेल छे. छे तो (निश्चय) थी विषय त्रिकाळी शुद्ध!! पण एनो विषय करनारी पर्याय निर्मळ जे प्रगट थई, ए पण ए बाजु ढळी गयेली छे ने...! एटले एने पण एक न्याये - समयसार चौद गाथामां कह्युं छे ने... ‘आत्मा कहो के एने शुद्धनय कहो के अनुभूति
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १०१ कहो’ - ए अपेक्षाए, आने- पर्यायने शुद्धनय कहेवामां आवेल छे.
अहीं तो त्रिकाळीने शुद्धनयनो विषय कीधो छे. (कहे छे के) ‘अन्य परसंयोगजनित भेदो छे ते बधा भेदरूप अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयनो विषय छे’- जुओ..! हवे आव्युं! ‘ते बधा भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषय छे. आहा...हा..! ‘अन्य परसंयोगजनित भेदो छे’ ए भेद, प्रमत्त-अप्रमत्त. ते बधा भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषय छे’ - एम शा माटे कह्युं? (ए भेदो) द्रव्यनी पर्याय छे, ए अपेक्षाथी अशुद्ध द्रव्यार्थिक कहेल छे.
मलिन पर्याय, प्रमत्त-अप्रमत्तपणे परिणमे छे ने...! ए अपेक्षाए ‘द्रव्यनी पर्याय गणीने’ एने अशुद्धद्रव्यार्थिक कहेल छे. (छतां) ई अशुद्धद्रव्यार्थिकनी पर्याय पण शुद्धद्रव्यनी अपेक्षाए पर्यायार्थिक ज छे.
आ अशुद्ध (द्रव्यार्थिक) केम कही? के द्रव्य, पोते-पोतानी पर्याय छे अशुद्धरूपे परिणमे छे, ए कारणे एने अहीं अशुद्ध द्रव्यार्थिक कहेल छे. ए अशुद्ध द्रव्यार्थिक, शुद्धद्रव्यनी द्रष्टिमां पर्यायार्थिक ज छे ए तो पर्याय ज छे. प्रमत्त-अप्रमत्त पण अने एटला माटे व्यवहारनय ज छे.
आहा.. हा! शुं कीधुं? त्रिकाळी वस्तु जे चैतन्यशुद्ध भगवान (आत्मद्रव्य) ए शुद्धनयनो विषय अने पर्याय शुद्ध-अशुद्ध!! पण पर्याय (जे छे) मलिनर्यायना भेद संयोगजनित - चौदगुणस्थानना भेद कह्या छे ने...! ते तो अशुद्धद्रव्यार्थिक (कह्या). द्रव्य पोते भेदरूपे पर्यायमां अशुद्ध थयेल छे ए अपेक्षाए (-पर्यायद्रव्यनी गणीने) ए अशुद्ध द्रव्यार्थिक कह्युं पण ई अशुद्धद्रव्यार्थिक ए पर्यायार्थिक ज छे केम के पर्यायार्थिक छे ए ज व्यवहार छे आहा.. हा.. !
केटलुं याद राखे आमां?! एक कलाकमां!! आ तो बापु! जगतथी जुदी जात छे, बापु! धर्मनी जात!! सर्वज्ञ जिनेश्वरदेव त्रणलोकना नाथ परमेश्वर कहे छे. ए वातुं आखा जगतथी जुदी छे. आहा..! दुनियामां क्यांय मेळ खाय तेम नथी!!
आहा.. हा! शुं कह्युं? के बे भेद-एक त्रिकाळी द्रव्य वस्तु ज्ञायकभाव, ए शुद्धनयनो विषय- ध्येय! अने पर्यायना जे भेद छे, (चौद) गुणस्थान, शुभाशुभ भाव ए अशुद्ध (नयनो विषय) अशुद्ध द्रव्य! द्रव्य पोते (पर्यायमां) अशुद्धतापणे परिणम्युं छे-पर्याय तरीके हो?! एथी एने अशुद्धद्रव्यार्थिक कह्युं (एटले के) एनी पर्याय छे ने एम लेवुं-समजवुं.
अशुद्ध द्रव्यार्थिक (एटले के) अशुद्ध द्रव्य जेनुं प्रयोजन (ते) अशुद्ध द्रव्यार्थिक छे एने पर्यायाथिक कहे छे अने एने व्यवहार कहे छे.
एनां बधां पलाखां आकरां! अरे! अनंतकाळना अजाण्यो मारग बापु! वीतराग सर्वज्ञ परमेश्वर, एनी भाषामां, ए दिव्यध्वनिमां प्रभुनी वाणीमां ‘आ’ आव्युं छे. ए आचार्ये आ रीते गाथामां रचना करी छे. आहा.. हा!
एनो भावर्थ पंडिते-जयचंद पंडित थई ग्या छे. एवा आ (भावार्थ) भर्या छे. आहा.. हा! शुं कहेवा मागे छे. एनी स्पष्टता भावर्थमां लीधी छे. समजाणुं कांई...? ‘अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय पण शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टिमां पर्यायार्थिक ज छे तेथी व्यवहारनय ज छे’ आहा... हा! ए ज्ञायकभावमां, पर्यायना भेद-चौद गुणस्थानना भेद देखाय छे ए व्यवहारनय ज छे.
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१०२ श्री प्रवचन रत्नो-१ पर्याय (मात्र) व्यवहारनय छे.
द्रव्य, निश्चयनयनो विषय छे पण जेने निश्चय वस्तुनुं ज्ञान थाय छे एने भेदनुं-रागनुं ज्ञान, पोताने पोताना कारणे थाय छे, ‘एवो आशय जाणवो जोईए’.
‘अशुद्धद्रव्यार्थिकनय पण शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टिमां पर्यायार्थिक ज छे तेथी व्यवहारनय ज छे- एम आशय जाणवो’ .
‘छे’ व्यवहारनय ज छे एम आशय (जाणवो) समजवो जोईए. विशेष कहेशे...