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श्री प्रवचन रत्नो-१ १०३
(समयसार गाथा-६) एनो भावार्थनो बीजो पेरेग्राफ (छे). (कहे छे) ‘अहीं एम जाणवुं के जिनमतनुं कथन स्याद्वादरूप छे’ -आत्मा छे, ते ज्ञायकभाव त्रिकाळ छे. एटले के गुणस्थानना जे भेद छे- ए शुभ, अशुभ-पुण्य, पापना भेद, एमां छे नहीं, पर्यायमां छे.
आहा...! वस्तु जे छे ज्ञायकरस! चैतन्यरस! अस्ति-मौजुदगी चीज! वस्तु-वस्तु मौजुदगी चीज!! ए आत्मा ध्रुव छे. ए ज सम्यग्दर्शननो विषय छे, धरमनी पहेली सीडी प्राप्त करवा माटे ए ज्ञायकरस! चैतन्यरस (आत्मद्रव्य) जे परिणमन-पर्याय विनानी चीज!! हलचल नथी एमां! (ए ज समयग्दर्शननो विषय-ध्येय छे).
झीणी वात छे भाई...! पर्याय छे ई हलचलस्वरूप, बदले छे ने...! वस्तु ध्रुव छे, ए तो हलचल विनानी ध्रुव, एकरूप त्रिकाळ छे. शुद्ध सत्ता स्वरूप, एमां पर्यायना भेद पण नथी. ए सम्यग्दर्शननो विषय छे.
आहा.. हा! धरमनी पहेली सीडी! सम्यग्दर्शन पर्याय छे, एनो विषय- ध्येय, त्रिकाळी ज्ञायकभाव ज छे. ए ज समयग्दर्शननो विषय छे. ए अपेक्षाथी (एने) अशुद्ध द्रव्यार्थिक कहो, पर्याय कहो के व्यवहार कहो- ए त्रिकाळी चीजमां (आत्मद्रव्यमां) नथी.
(श्रोताः) ए शुभाशुभ बधुं पर्यायमां छे? (उत्तरः) पर्यायमां छे. (आत्म) वस्तुमां नथी, वस्तु तो त्रिकाळी एक, सद्रश, चैतन्यधन, चैतन्यना प्रकाशनुं पूर... एनुं नूर छे! आहा.. हा! अस्ति छे ने...! अस्ति छे. ने अस्ति!! ‘छे’ -छे ने...! मौजुदगी छे. कायमी-मौजुदगीमां शुं आव्युं?
कायमी-मौजुदगी तो ज्ञान-आनंद आदिनो रस! ध्रुव एकरूप त्रिकाळ (सद्रश चीज आत्मतत्त्व) आदि-अंत विनानी चीज! (जेनी) शरूआत नहीं, अंत नहीं. एटले कायम-धू्रवपणे बिराजमान प्रभु!! आहा.. हा! ए चीजने सत् कहीने, पर्यायने असत् कीधी अथवा पर्यायमां रागपणे ध्रुव परिणमतो नथी, एम कह्युं! एम केम कह्युं छे? के, ज्ञायकभाव जे ध्रुव छे ए पुण्य ने पाप (जे) अचेतन भाव छे जे दया-दान-व्रत-भक्ति आदिना विकल्प छे ए तो अचेतन छे अचेतननो अर्थः के जे ज्ञायकरस चिदानंद छे ते तेमां आवतो नथी, तेमज ज्ञायकनुं किरण (ज्ञानकिरण) जे छे ते-पण पुण्य-पापना भावमां आवतुं नथी. ते कारणे पुण्य-पापना भावने अचेतन ने जड कहेवामां आव्या छे. आ शरीर जड छे एमां तो रस, गंध, रंग, स्पर्श छे अने पुण्य-पापना भाव छे जे दया-दान-व्रत-भक्ति-काम-क्रोध (आदिभाव) एमां रंग, गंध आदि (जडनागुण) नहीं, पण तेमां चैतन्यना प्रकाशनुं किरण नथी ए अपेक्षाथी पुण्य-पापना भावने जड ने अचेतन कहेवामां आव्या छे. समजाणुं कांई...?
आहा... हा! तो कहे छे के अचेतनने जड कहीने एनो निषेध कर्यो के ए वस्तुमां छे नहीं. ए (भाव) ज्ञायकमां छे नहीं. तो ई पर्यायमां छे के नहीं? पर्यायमां छे. ए निर्णय करनारी तो पर्याय छे.
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१०४ श्री प्रवचन रत्नो-१
(जुओ)! शुं कहे छे? के त्रिकाळी (ज्ञायक) शुद्ध छे, ए ध्रुव-ज्ञायक ध्रुव! वज्रनो पिंड!! वज्र-वज्र जेम छे ने एम ज्ञान-आनंदनुं बिंब! ध्रुव छे. पर्यायनी हलचल विनानी ध्रुव चीज!!
पण... ए ‘आ’ छे. एनो निर्णय कोण करे छे? ए पर्याय ज एनो निर्णय करे छे. अनित्य नित्यनो निर्णय करे छे. आरे.. आरे! आ वात ज जुदी, आखी दुनियाथी जुदी छे!
(श्रोताः) अनित्य, नित्यनो निर्णय करे, तो ते पोते अनित्य छे! (नित्य-अनित्य) बंने जुदाजुदा छे?
(उत्तरः) ए नित्यानंद छे ध्रुव...! आदि-अंत विनानी वस्तु, सहज! सहज आत्मा-सहजात्म स्वरूप! ध्रुव! आमां तो एनो निर्णय थाय नहीं, निर्णय करवावाळी तो पर्याय छे ए अनित्य छे, पर्याय पलटती छे, हलचल (वाळी) छे. आहा... हा! ए पर्याय, एमां नथी. पण.. पर्याय निर्णय करे छे तो पर्याय, पर्यायमां छे, (छतां) एनाथी पृथक् करवुं छे-समजवुं छे.
आहा...! वीतरागनो मारग! जिनेश्वरदेवनो मूळ मारग सूक्ष्म छे! जगतने तो अत्यारे सांभळवा मळतो नथी. बहारनां-वत्र कर्या ने.. सेवा करो ने... देश सेवा करो ने... माणसनी सेवा करो नेे! क्यां खबर छे प्रभु! परनी सेवा एटले शुं? तेनो अर्थ शुं?
(विश्वमां) परद्रव्य छे के नहीं? छे. (छे तो) तेनी पर्याय, वर्तमानमां शुं नथी? पर्याय विनानुं शुं द्रव्य छे? (पर्याय तो छे) तो पछी तेनुं पर्यायनुं कार्य तो ए द्रव्य करे छे. (शुं) तुं बीजानुं कार्य करे छे?
‘हुं बीजानी सेवा करी शकुं छुं’? -एम माने छे, तो ते मान्यता छे ते ज मिथ्यात्व, भ्रम ने अज्ञान छे.
आहा...! अहींया तो प्रभु कहे छे त्रिलोकनाथ! सर्वज्ञ जिनेश्वरदेवने वीतरागदेव परमात्मा अनंत तीर्थंकरो!! वर्तमान बिराजे छे, वर्तमानमां वीस तीर्थंकर प्रभु महाविदेहमां बिराजे छे. तेमनी वाणी ‘आ’ छे. कुंदकुंदाचार्य त्यां गया हता, आठ दिवस रह्या हता.
त्यांथी आवीने ‘आ’ -आ भगवाननो संदेश छे एम जगतने ‘जाहेर करे छे आडतिया थईने, ‘माल’- तो प्रभुनो छे! (सीमंधरप्रभुनो) छे समजाणुं कांई...?
आहा.. हा.! भगवान आत्मा, चैतन्य ज्ञायकरस ज छे! अस्ति, मौजुदगी चीज! एतो पर्याय विनानी चीज छे. एमां कोई अशुद्धता (नथी) जे अशुद्धद्रव्यार्थिक कहेवामां आवेल छे. अशुद्धद्रव्यार्थिक (कह्युं छे पण) द्रव्य अशुद्ध थतुं नथी, पण द्रव्यनी पलटती पर्याय अशुद्ध थाय छे, तेथी तेने अशुद्धद्रव्यार्थिक कहे छे. (खरेखर) तो अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयना विषयथी पर्याय कहे छे, पर्याय छे ते व्यवहार छे (अने) त्रिकाळी चीज निश्चय छे!
आमां वात.. कयां समजवी...! ए कारणे कह्युं ने... पर्यायनो निषेध कर्यो छे ने...! के ज्ञायकमां पर्याय छे नहीं. अने ज्ञायकभाव, शुभ-अशुभपणे थयो ज नथी. केम के ज्ञायकरस! चैतन्यरस! चैतन्य-चैतन्य प्रकारनो पुंज प्रभु! ए पुण्य-पापना भाव जे अचेतन छे, एमां अंधारा छे, एमां प्रकाशनो अंश नथी, ए (भावो) अंधारा छे. जे चैतन्यप्रकाशनो पुंज! जे चैतन्य तत्त्व, ए अंधारास्वरूप थयो ज नथी. समजाणुं कांई...?
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १०प
आहा...! अने ए ज्ञायकभाव, शुभ-अशुभभावे थई जाय तो ज्ञायकरस अचेतन-जड थई जाय! अचेतन थई जाय!! आहा.. हा..! आ दया-दान-व्रत-भक्तिना भाव पण अचेतन जड छे, केम के ए विकल्प छे-राग छे.
ए रीते चैतन्य जे स्वभाव छे, ज्ञायक चैतन्य स्वभाव प्रभु! ए शुभाशुभ विकल्परूपे थाय तो, ज्ञायकचैतन्य अंधारा स्वरूप जड थई जाय.
आहा.. हा! आवी वात छे! ए अशुद्धता, पर्यायमां जे अशुद्धता छे, ए द्रव्यार्थिक नयनो विषय नथी, एतो अशुद्ध द्रव्यार्थिक नयनो विषय छे. अशुद्धद्रव्यार्थिक नयने कह्युं तो द्रव्यनी अशुद्धपर्याय छे. ए अपेक्षाए अशुद्ध द्रव्यार्थिक कह्युं, एने ज पर्यायार्थिक कहीने, एने ज व्यवहार कह्यो, ए व्यवहार जूठो-एवुं कह्युं!!
आहा.. हा! जुओ! ए अहींयां कहे छे. ‘आहीं एम पण जाणवुं के जिनमतनुं कथन स्याद्वादरूप छे’ -वीतराग त्रिलोकनाथनुं कथन- अभिप्रय स्याद्वादरूप छे. स्याद्=स्यात् (स्यात्) एटले अपेक्षाए कथन करवुं ते. स्वद्वाद=स्यात् नाम अपेक्षाए, वाद नाम कथन करवुं. एनुं नाम स्याद्वाद छे. ए जिनमतनुं कथन छे.
‘तेथी अशुद्धनयने’ - ते ई पर्यायमां शुभाशुभभाव छे. चेतन शुभाशुभपणे थयो नथी, एम कह्युं (तो) ए अशुद्धनयनो विषय ज छे नहीं, एवुं छे नहीं. ‘सर्वथा असत्यार्थ न मानवो’ (अर्थात्) जेम त्रिकाळी शुद्ध स्वभाव, ज्ञायकभाव, ध्रुवप्रभु (आत्म द्रव्य) ए शुभाशुभ भावपणे थयो नथी, पण शुभाशुभभाव पर्यायमां छे. (पर्यायमां) छे एनो निषेध करे-नथी ज सर्वथा-एम माने तो तो वस्तुनो निषेध थई जाय. आहा...! समजाणुं कांई..?
(कहे छे के) ‘अशुद्धनयने सर्वथा असत्यार्थ न मानवो’ - त्यां तो (गाथामां) ए कह्युं के अशुद्ध छे ए जूठुं छे, अशुद्धता असत्यार्थ छे- जुठुं छे. (ए) कई अपेक्षाए? ए तो त्रिकाळी चैतन्यज्योत जे ध्रुवधातु! चैतन्य धातु! चैतन्यपणुं ज जेणे धारी राख्युं छे एवो (चेतनआत्मा छे) एनी अपेक्षाए, राग-पुण्य, पाप छे, तेने अशुद्ध कहीने, अचेतन कहीने, द्रव्यमां नथी, एम कह्युं. पण, राग पर्यायमां छे (सर्वथा) नथी ज एम नहीं तेथी ‘अशुद्धनयने सर्वथा असत्यार्थ न मानवो’ आहा.. हा! समजाणुं कांई...?
हवे, कहे छे केः ‘कारणके स्याद्वाद प्रमाणे शुद्धता अने अशुद्धता, बन्ने वस्तुना धर्म छे’ - शुं कीधुं? कंथचित् नयथी जे परमार्थनयनुं कथन छे प्रभुनुं, ए शुद्ध जे वस्तुनुं सत्त्व छे वस्तुनुं सत्व छे- वस्तुनो कस छे, तेमज पुण्य-पापना (भाव) पर्यायमां, पण वस्तुनो कस छे, पर्यायमां, पण वस्तुनो कस छे, पर्यायमां (छे) ते पण सत्त्व छे.
आहा.. हा! दरेक शब्द अजाण्या बधा..! एनां भणतरमांनो’ आवे, वेपारमां नो’ आवे ने अत्यारे तो संप्रदायमां य नथी आ (तत्त्वनी वात)
आहा.. हा! शुं कीधुं? ‘स्याद्वाद प्रमाणे’ -अपेक्षाथी, वस्तुने सिद्ध करवा माटे, शुद्धता त्रिकाळी अने अशुद्धता वर्तमान-बन्ने वस्तुनां धर्म छे. धर्म नाम ए (भाव) वस्तुए धारी राखेली चीज
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१०६ श्री प्रवचन रत्नो-१ छे. धर्म एटले अहीं सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रना परिणाम एनी वात नथी. परंतु वस्तुए धारी राखेल भाव, ए घरम अहीं (समजवुं)
जेम वस्तु त्रिकाळी भगवान (ज्ञायकभाव) एणे धारी राखेली चीज छे, एम ज पुण्य-पाप पर्यायमां धारी राखेली चीज छे. पुण्य-पाप अस्ति छे, पुण्य-पाप नथी ज, एवुं छे नहीं, समजाणुं कांई....?
झीणी वात छे आ बधी...! कोई दि’ क्यां’य सांभळ्युं नथी! सत्य शुं छे? संप्रदायमां तो अत्यारे गोटा ऊठया छे बधा- आ करो न... आ करो... वत्र करो-तप करो, धर्म थशे! परंतु करवुं- करवुं ए तो बधो विकल्प ने राग छे.
रागना तत्त्वने, ज्ञानना-चैतन्यने सोंपवुं मिथ्यात्व छे. पण, वस्तु छे खरी, अशुद्धता छे खरी. पर्यायमां अशुद्धता न होय तो तो पर्याय शृद्ध ज छे, तो छे ज (शुद्ध) एने धरम करवो, ए तो रहेतुं नथी. आहा...! ‘मारे धरम करवो छे’ - एवो प्रश्न ऊठे-थाय छे. तो तेमां शुं आव्युं? के ई पर्यायमां धरम छे नहीं, पर्यायमां अधर्म छे, तो अधर्मनो नाश करीने धर्म करवो छे. एनो अर्थ ए छे के पर्यायमां अधर्म छे.
आहा... हा! आ तो, लोजिकथी प्रभुनो मारग! आवो कह्यो छे, अत्यारे अजाण्यो थई ग्यो छे!! आहा. हा! ‘बन्ने वस्तुनां धर्म छे’ - धर्मनो अर्थ छे के वस्तुए टकावी राखेली चीज छे. वस्तु जे भगवान आत्मा, त्रिकाळी ध्रुव टकावी राखेल छे एम ज पर्याये अशुद्धता टकावी राखेल छे. समजाणुं कांई...?
आहा...! ‘अने वस्तुधर्म छे ते वस्तुनुं सत्त्व छे’ - शुं कह्युं? समजाणुं...? वस्तु जे प्रभु! ज्ञायकभाव जे त्रिकाळ! ए पण वस्तुनो धर्म छे, वस्तुए धारी राखेली. टकावी राखेली चीज छे. एनी पर्यायमां मलिनता छे ए पण वस्तुनुं सत्त्व छे. (ए कांई) असत् नथी. पर्यायमां मलिनता-अशुद्धता छे. ए सत्त्व छे, सत्त्वनाम ‘छे’ - एक अंश छे ते पण सत्त्व छे.
आहा... हा! ‘अने वस्तुधर्म छे ते वस्तुनुं सत्त्व छे’ - सत्त्व एटले शुं? शुद्धत्रिकाळीवस्तु ए वस्तुनुं सत्त्व छे, आ त्रिकाळी (सत्त्व छे) अने शुभभाव-अशुभभाव (एटले के) दया, दान, काम- क्रोधनां भाव वर्तमान पर्यायमां (छे), एनां अस्तित्वमां, एनां सत्ना सत्त्वमां अर्थात् पर्यायना सत्त्वमां एटले के पोतानामां छे.
आहा... हा! अंतर शुं के आ अंतर छे केः ‘अशुद्धता परद्रव्यना संयोगथी थाय छे ए ज फेर छे’ - एटलो फेर छे. शुभने अशुभ भाव-अशुद्ध (भाव), वस्तुनी पर्यायमां, सत्त्वनाम एनी चीज छे. पर्याय पण एनी चीज छे. पण शुभाशुभभाव ई अशुद्धताना भाव, संयोगना लक्षथी उत्पन्न माटे संयोगजनित अशुद्ध कहेवामां आवे छे. आहा.. हा’ ‘अने अशुद्धता परद्रव्यना संयोगथी थाय छे’ अशुद्धनय तो ‘हेय’ कहेल छे अहींयां! ए पुण्य-पापना भाव छोडवालायक कह्या छे. जेमने धर्म प्रगट करवो छे - सम्यग्दर्शन - धरमनी पहेली सीडी!! एमने ज्ञायकभाव त्रिकाळ जे छे ते ज आदरणीय छे,
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १०७ अने शुभ-अशुभ भाव, एमने हेय छे- छोडवा लायक छे, एम कहेल छे. समजाणुं कांई...?
हवे, एनी एक पंकित समजवी कठण छे!! आ तो, सिद्धांत वात छे! आ कोई कथा-वार्ता नथी. (आ तो) भागवत...! भगवत् कथा छे. (लोको) भागवतकथा कहे छे ने...! नियमसारमां आवे छे ने...! आ ज भागवत कथा छे-भागवत्कथा-भगवान आत्मानी (कथा), भगवान त्रिलोकनाथे कहेल छे. प्रभु! तारुं स्वरूप तो भगवत्स्वरूप छे त्रिकाळ प्रभु छे!!
पण, तारी पर्यायमां भूल छे- पुण्य-पापना भाव छे, ते छे. शुद्धता छे, पर्यायमां अशुद्धता छे ई अशुद्धता द्रव्ये करी छे (द्रव्य, द्रवे छे ने.. !) छे भले, पर्यायनी क्रिया पण आ पर्याय पण राखेल छे, अशुद्धता पर्यायमां छे. फकत फेर एटलो!! त्रिकळी जे स्वतःस्वाभाविक वस्तु छे अने पुण्य- पापना भाव संयोगजनित-संयोग (ना लक्षे) थाय छे. आहा.. हा! छे? (अशुद्धता परद्रव्यना संयोगथी थाय छे ए ज फेर छे)
आहा.. हा! ‘अशुद्धनयने अहीं हेय कह्यो छे कारण के अशुद्धनयनो विषय संसार छे. - ए पुण्य-पापना भाव, संसार छे-दुःख छे.. आ दुकान-धंधामां रहेवुं आखो दि’ एकला पापभाव छे.
(श्रोताः) पण रहेवुं केवी रीते? धंधो न करीए तो रहेवुं केवी रीत? पैसा शी रीते आवे? (उत्तरः) कोण कहे छे के करे, ए तो जड छे, जडनी चीज आववानी हशे तो आवशे ज. (लोकमां कहेवत छे ने के) ‘दाने दाने पे लिखा हे खानेवालेका नाम’ खावावाळानुं परमाणुमां नाम छे. दाणे-दाणे नाम छे. भाई...! सांभळ्युं छे तेम खाने वालेका नाम- दाणे-दाणे खावावाळानी म्होरछाप छे.
म्होरछापनो अर्थ (छे के) जे परमाणु आववाना छे ते आवशे ज अने नहीं आववावाळा नहीं आवे!
तारा लाख प्रयत्न करवा छतां नहीं आवे, अने आववावाळा छे ते एने कारणे आवे छे, एने कारणे रोकाय छे, तारा कारणे नहीं. जे परमाणु आवे छे ते तारा हाथनी वात छे नहीं.
(श्रोताः) परमाणुंमां भले एम होय, अमारे तो रूपियानी वात छे! (उत्तरः) धूळेय... ए पण एम ज छे. रूपिया पण जड-परमाणुं छे. एक-एक परमाणुं ज्यां जवावाळा छे त्यां जशे ज, ज्यां रहेवावाळा छे त्यां रहेशे, ताराथी ते रहेशे?! परनी सत्ता ए तो छे (तारी सत्ताथी एमां कांई फेरफार थाय) ए वात त्रणकाळमां साची छे नहीं... आहा.. हा!
वात बहु छे! (सूक्ष्म!) बापु! अरे, चोराशीना अवतार बापु! भाई, धणांय रखडीने पडया छे. भगवान तो एम कहे छे के ‘तारुं एटलुं दुःख ते भोगव्युं, ए दुःख जोनारने रोवुं आव्युं! ते तो (दुःख) सहन कर्या! पण एटलां.. एटलां दुःख छे चोराशीना अवतारमां... नरकने कीडा, कागडां, कंथवा आहा.. हा!
एवा तो प्रभु! अनंत भव तें कर्या छे. अनंतकाळनो छे ने तुं! अनादि छो.. नवो छो कांई...? आहा.. हा! ए... परिभ्रमणनुं दुःख तेनो नाश करवो होय तो प्रभु! तारो (आत्मा) अंतर आनंदनो नाथ छे, तारुं शरण त्यां छे, तारो रक्षक त्यां छे, तारुं सर्वस्व त्यां ज्ञायकमां छे. त्यां शरण लेवा
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१०८ श्री प्रवचन रत्नो-१ माटे जा, अस्ति छे तेने उपादेय कर, तो परिभ्रमणनो अंत आवशे.
जुओ...! पुण्य ने पापना भाव हेय ने छोडवालायक कहेवामां आव्या, पण ए ‘छे’ तो छोडवालायक कह्या ने...! तो ते ‘छे’ के नथी? के छे ज नहीं? तो कह्युं ने..’ अशुद्धनयनो विषय संसार छे.’
आहा.. हा! त्रणलोकनो नाथ! चैतन्य प्रभु ज्ञायक! चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु! ए सिवाय, पुण्यने पापना भाव जे थाय छे ते संसार छे. ‘संसरण इति संसारः’ जेमां संसरण - परिभ्रमण ज छे जेनाथी उत्पन्न थाय, एनुं नाम संसार छे. पुण्यने पापना, बन्ने (प्रकारना) भाव, संसरण ईति संसार छे, ए वर्तमान संसार छे अने भविष्यमां परिभ्रमणनां बीजडां छे! आवी वात सांभळतां....
आहा... हा! आंही तो कहे छे प्रभु! तुं जाणक्शक्तिनुं तत्त्व छो! ए रागनुं ने परनुं केम करी शके? ए रागने पुण्य-पापना कर्ता माने छे ए तारो संसार छे. ए बीज छे!! आहा.. हा! छे? .. अशुद्ध नयनो विषय संसार छे’ - ए पुण्य-पाप भाव ज संसार छे. आहा... हा! ‘अने संसारमां आत्मा कलेश भोगवे छे’
(श्रोताः) ए तो (आत्मा) शुद्ध छे! (उत्तरः) एवो शुद्ध तो आत्मा छे (वर्तमान पर्याय अशुद्ध छे).
(जुओ ने...!) पैसा थया पांच-पचास लाख, छोकरां थयां सात, आठ, दस! बब्बे लाखनी पेदाशवाळा, एमां सुख भर्यां छे? कलेश छे प्रभु! ए शुभ-अशुभ भावथी वर्तमान कलेश भोगवे छे अने भविष्यमां कलेशनुं कारण छे आहा... हा!
आहा.. हा! हवे, कहे छे के ‘ज्यारे पोते परद्रव्यथी भिन्न थाय त्यारे संसार मटे अने त्यारे कलेश मटे’ - हवे सवळी, धरमनी वात करे छे. हवे अहींथी सवळी वात आवे छे, धरमनी वात करे छे, के पुण्यने पापना शुभ-अशुभ भाव ए संसार छे, कलेश छे, दुःख छे, अने भविष्यमां संसार परिभ्रमणना ते (भाव) कारण छे. ‘ज्यारे ते पोते परद्रव्यथी भिन्न थाय छे’ - ए पुण्य-पापना भावथी त्रिकाळ हुं भिन्न छुं, मारी चीज तो एनाथी जुदी-भिन्न छे. हुं तो ज्ञायक चैतन्यरसथी भरचक्क भरेल, अतीन्द्रिय आनंदथी भरपुर भरेल तत्त्व छुं! अने राग जे परद्रव्य छे एने भिन्न करुं छुं, तो संसारथी छुटकारो छे.
(श्रोताः) अहींया तो परद्रव्यथी भिन्न कह्युं छे!! (उत्तरः) स्वद्रव्यथी तो भिन्न छे अनादिथी (अज्ञानी) हवे, परद्रव्यथी भिन्न करवो छे! (अनादिथी अज्ञानी) स्वद्रव्यथी भिन्न थईने, राग-द्वेषने पोतानां माने छे, ए ज संसार छे, कलेश छे, दुःख छे नरक-निगोदनां कारण छे.
आहा...हा! ‘ज्यारे स्वयं परद्रव्यथी भिन्न थाय छे त्यारे संसार मटे छे’ आहा...! ए शुभ के अशुभ भाव- आ कमावुं-रळवुं, स्त्री परिवार-कुटुंबना पोषणना भाव, ए तो पाप छे. तो ए कलेश छे, दुःख छे अने भविष्यमां पण कलेशना-दुःखनां कारण छे. अने शुभभाव पण वर्तमान दुःख छे दया-दान-व्रत-भक्ति आदिना जे विकल्प, शुभ भाव छे ए राग छे दुःख छे, वर्तमान कलेश छे. भविष्यमां कलेशनुं कारण छे.
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १०९
आहा... हा! आनाथी भिन्न पडीने-जे शुभ-अशुभ भाव (छे) तो कलेश छे, संसार छे अरे रे! दुःख छे. मारी चीज ए नहीं. एवा परद्रव्यने भिन्न करीने-आहा... हा! ए पुण्य-पापना भाव साथे चैतन्यनी एकत्वबुद्धि-राग साथे एकत्वबृद्धि (छे) ए एकत्वने छोडवुं अने पृथक करवुं- भेदज्ञान करवुं (एटले के) पुण्य ने पापना भाव मलिन छे, दुःख छे ए पोतानथी भिन्न छे-एम भिन्न करीने पोतानो (स्वयंनो) अनुभव करवो, ए संसारनो नाश करवानो उपाय छे, कीजो कोई. पाय छे नहीं.
आहा... हा! अत्यारे तो एवुं (चाल्युं छे के) देश सेवा करो! भूख्यांने अनाज आपो! तरस्यांने पाणी आपो! बिमारने दवा आपो मकान न होय तो मकान-धर आपो! (तेथी) धरम थशे...!!
अरे! भगवान, (परनुं) कोण करे? प्रभु! परद्रव्यनी क्रिया कोण करे? भाई, ए परद्रव्यनी क्रिया एनाथी थाय छे, ताराथी नहीं. परद्रव्यनी-परमाणुनी पर्याय एनाथी (स्वयं) थाय छे. ताराथी आ (तारी) आंगळी य हलती नथी. (छतां) तारी सत्तामां तुं गरबड करे छे के परनुं कांई करी शकुं छुं, करी शकतो नथी, मात्र तुं माने छे, परनी सत्तामां तारी गरबड (मिथ्यामान्यता) बिलकुल चाले नहीं.
आहा.. हा! अरे...! अहीं आवे तो सांभळवुं मुश्केल पडे एवुं छे!! एक तो सांभळवुं मळे नहीं, सांभळवुं कठण पडे! वस्तु आवे नहीं हाथ!! आहा.. हा!
आहा..! अनंतकाळथी परिभ्रमण करी-करीने.. ए दुःखी छे. अत्यारे तो सांभळीए छीए, ए भ्रमणा! बापा! आवुं छे. बोलतां-बोलतां हार्टफेल! आहा..! आ मृत्युना प्रसंगो अनंतवार आवी गया छे ए बधा पुण्य-पापना भावनी कर्त्ताबुद्धिने लईने. आकरी वात छे प्रभु! आ तो परिभ्रमण कर्यां!! (कारण के) परद्रव्यनी क्रिया में करी (मिथ्या मान्यता होवा छतां) परद्रव्य तो एमां छे नहीं, शुभाशुभ भाव छे नहीं अने पुण्य-पापना भावथी पण (आत्मद्रव्य) निवृत्त छे.
आहा.. हा! हवे, आ रीते समजशे नहीं तो एनो संसार रहेशे. समजाणुं कांई...? आहा..! जिनेश्वरदेव, त्रणलोकना नाथ! आम फरमावे छे आहा.! एनी ‘आ’ वाणी छे!
आहा..! ‘ए परद्रव्यथी भिन्न थाय त्यारे संसार मटे छे’ अने त्यारे कलेश मटे छे -शुभ- अशुभ भाव ए कलेश छे, दुःख छे, संसार छे. एनाथी भिन्न पडीने, पोताना चैतन्य- आनंदस्वरूप भगवान, त्रिकाळ मौजुदगी चीज छे. कायमनी चीज छे (शाश्वत छे) एनुं शरण लेवाथी संसार मटी जाय छे, दुःख छूटी जाय छे.
(कहे छे के) ‘ए रीते दुःख मटाडवानो शुद्धनयनो उपदेश प्रधान छे’ - शुं कहे छे? के ई शुद्धनयनो विषय, आनंदरूप त्रिकाळी (ज्ञायक) ने कह्यो, पुण्य-पाप असत्य कह्या- शुद्धनयना विषयने आदरवा माटे (उपादेय करवा माटे) मुख्यपणे (उपदेश छे). शुद्धनयनो विषय ध्रुव छे, एनो आदर करवा शुद्धनयने सत्य कह्यो अने पुण्य-पापना भावनी पर्याय अशुद्ध छे, ए शुद्धभावनी अपेक्षाए असत् छे-स्वभावनी अपेक्षाए एने ‘नथी’ एम कह्युं समजाणुं कांई..?
ए रीते शुद्धनयनो उपदेश मुख्य छे- प्रधान छे. आहा.. हा! त्रिकाळज्ञायक भाव ज छे, एनुं शरण ले! ए ज ध्येय छे!! एना विना ज रखडे छे. चैतन्य भगवान आनंदनो नाथ! ज्ञायकध्रुव (ए एक ज शरणरूप छे)
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११० श्री प्रवचन रत्नो-१
आहा...! ओला तेर बोल छे ने..! ‘आत्मधर्म’ गुजरातीमां आव्युं’ तु ‘धूंव धामना धणी, ध्यानना’ आ बोल छे ने..! ध्रुव धामना ध्येयना ध्याननी धखती धुणी धगश ने धीरजथी धखाववी ते धर्मनो धारक धर्मी धन्य छे. बधा ‘ध.. धा..’ छे.
ध्रुवधाम=पोतानुं ध्रुव स्थान- नित्यानंद प्रभु (आत्मा) पुण्य-पापनी पर्यायथी भिन्न, ए ध्रुवधाम.
धणी=एने ध्येय बनावी ध्यान=एनी एकाग्रता करी धखती धुणी=पर्यायनी एकाग्रतानी धखती धुणी. धगशने धीरजथी धखाववी=पोताना उग्र पुरुषार्थथीने धीरजथी धखाववी, अंदर एकाग्रता करवी.
ते धरमनो धारक धर्मी धन्य छे. तेर छे, तेर (बोल छे) आ तो, अमारी पासे होय ई आवे, बीजुं शुं आवे...! आप्या’ ता ने तमने एनो खुलासो छे.
अहीं कहे छे ‘शुद्धनयनो विषय मुख्य करीने- प्रधान करीने कह्यो छे’ त्रिकाळीआनंदनो नाथ प्रभु! छे ने...! आहा...! तेनुं रक्षण लई! तारुं शरण त्यां छे, तारु धाम त्यां छे, तारुं स्थान त्यां छे, तारी शक्ति त्यां छे, तारा गुण त्यां छे!!
अरे! आवुं क्यां सांभळे?! अरे.. रे! मनुष्यपणुं मळ्युं, पण एमने एम पचास-साठ वरस गाळे! पापमां ने पापमां, जगतमां एने क्यां जावुं भाई! आहीं तो (कहे छे) पुण्यनां पूर्वना उदय आवे कदाचित तो पण ते बंधननुं कारण दुःख ने कलेश छे.
आहा.. हा! एने दुःखथी छोडाववा ने त्रिकाळ (आत्मानी) द्रष्टि कराववा माटे एने शुद्धनयने प्रधान करीने-मुख्य करीने- ‘ते छे’ एवुं कह्युं छे. त्रिकाळी चीज! चिदानंदप्रभु भगवान (आत्मा ध्रुव छे) प्रभु, तारुं शरण पूर्ण छे त्यां जा. आ मलिनपर्याय छे तेनाथी हठी जा. तारे जो मुक्ति लेवी होय ने आनंद लेवो होय तो दुःखी तो थाय छे अनादिथी छे..?
कहे छे के ‘अशुद्ध नयने असत्यार्थ कहेवाथी’ -अशुद्धनय नाम पुण्य-पापना भाव, ‘ते नथी’ एम कह्युं. असत्यार्थ कह्या, अभूतार्थ कह्या, जूठा कह्या’ तो एम न समजवुं के आकाशना फूलनी जेम ते वस्तुधर्म सर्वथा ज नथी’ - आकाशमां फूल (ऊगता ज) नथी आकाशने फूल होय छे? (ना.) एम ज पुण्य-पापना परिणाम-अशुद्धता छे ज नहीं, एम छे नहीं. तारी पर्यायमां छे अने छे तो स्वरूपनी द्रष्टि करवाथी ते छूटी जाय छे, ते (अशुद्धता) दुःख छे दुःख!
आहा..! आंख विंचाय, तो खलास थई ग्युं! ए पैसाने शरीरने बधुं ज्यां - ज्यां छे त्यां त्यां ज रहेशे. तारा कारणथी परमां फेरफार थयो? ज्यां ज्यां परमाणु-पुद्द्गल, जेवी जेवी पर्यायमां छे त्यां त्यां (तेवी तेवी अवस्थामां) रहेशे. एमां फेरफार गमे ते तुं कर, पण ए चीज जे पर्याय जेवी छे त्यां तेवी रहेशे.
आहा..! आ आवुं आकरुं छे!
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १११
जे पर्याय ज्यां जे क्षेत्रे थाय, ज्यां ज्यां छे त्यां त्यां ते रहेशे. तारी कल्पनाथी एमां फेरफार थाय, काळ बदली जाय, पर्याय बदली जाय तुं बदली जा, तारी द्रष्टि जे पुण्य-पापने अशुद्ध (पर्याय) उपर छे एने छोडी दे तुं, ए तारा अधिकारनी वात छे. आवी वात भाई..!
कहे छे के ‘आकाशना फूलनी जेम ते वस्तुधर्म सर्वथा ज नथी, एम सर्वथा एकांत समजवाथी मिथ्यात्व आवे छे’ - आत्मानी पर्यायमां, मलिनता छे ज नहीं, एवुं मानवाथी आकाशना फूलनी जेम तो तो आकाशमां फूल नथी ने छे एम मानवाथी मिथ्यात्व थशे एम पर्यायमां अशुद्धता-मलिनता नथी एम मानवाथी मिथ्यात्व थशे. पर्यायमां, मलिनता-अशुद्धता (सर्वथा) नथी ज एम मानवुं मिथ्यात्व छे, अने अशुद्ध, एम मानवाथी धरम थशे, एवी मान्यता पण मिथ्यातव छे अने मारा शुद्धस्वभावमां अशुद्धता धुसी गई छे (प्रसरी गई छे) एवुं मानवुं पण मिथ्यात्व छे.
आहा... हा! आ आवो. उपदेश हवे! माणसो... सांभळनारा थोडां! पण.. हवे तो धणां.. जिज्ञासाथी लोको सांभळे छे. आ वखते जन्म-ज्यंति थई, पंदर हजार-वीसहजार माणसो!
वात तो आ छे अमारी बापु! प्रभु, तुं कोण छे!? क्यां छो? तुं छो, तो तारी पर्यायमां, पण तुं छो, पण पर्यायमां मलिनता छे. ए छोडवा माटे (एने) असत्यार्थ कहीने त्रिकाळनुं सत्यार्थनुं शरण लेवानुं कह्युं छे.
आहा...हा! ‘माटे स्याद्वादनुं शरण लई शुद्धनयनुं आलंबन करवुं जोईए अपेक्षाथी कह्युं हतुं के शुद्ध छे, त्रिकाळी द्रव्यमां मलिनता छे ज नहि, ए (अशुद्धता) पर्यायमां नथी एम कह्युं नहोतुं. अपेक्षाए कहे वस्तुमां (मलिनता) नथी.
आहा...! ‘स्याद्वादनुं शरण लई’ - स्यादवाद एटले अपेक्षाए कथन करवुं ते. स्या्त= अपेक्षाए, वाद = कहेवुं अथवा जाणवुं. स्याद्वाद, तेनुं शरण लईने शुद्धनयनुं आलंबन करवुं जोईए’ -पुण्य-पाप मलितना पर्यायमां छे, एम जाणीने, एनी द्रष्टि छोडीने, त्रिकाळीनुं शरण लेवुं!! आहा... हा!
आमां... कंई दया पाळवी, व्रत पाळवां, पैसा देवा कोई मंदिर कराववुं के भई, पांच करोड रूपिया छे तेमांथी एक करोड धरममां! तारा पांचेय करोड दे तो, ए तो जड छे तेने धरम क्यां छे एमां? (श्रोताः) मंदिर थई ग्युं छे! (उत्तरः) हवे आपणे मंदिर थई ग्युं छे एम कहे छे. मंदिर नो’ तुं थयुं तो पण पहेलेथी कहेतां आवीए छीए!
बेंग्लोरमां बार लाखनुं मंदिर थयुं, अने आ सत्तरमी तारीखे आक्रिकामां (नैरोबीमां) पंदर लाखनुं मंदिर! खातमुहूर्त कर्युं.
पण ए तो पारकी चीज छे बापु! एनाथी बनवाना काळमां बने छे, कोई कहे छे के माराथी बने छे ते भ्रम छे. (श्रोताः) कडियाथी तो बनेल छे ने..! (उत्तरः) कडियाथी (पण) बनती नथी. ए तो बीजी चीज छे एने कोण बनावे? एनी ‘जन्मक्षण’ छे. प्रवचनसार १०२ गाथा.
‘जे द्रव्यनी जे समये जे पर्याय उत्पन्न थाय ते तेनी जन्मक्षण छे. जन्मक्षण नाम उत्पत्तिनो काळ छे, तेथी ते उत्पन्न थई छे, परथी बिलकुल (उत्पन्न) थई नथी, त्रणकाळ, त्रणलोकमां!
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११२ श्री प्रवचन रत्नो-१
आहा...! (जुओ!) आ हाथ हले छे आम-आम, ए समयनी एनी ‘जन्मक्षण’ छे- पर्यायनी एनी उत्पत्तिनो काळ छे, तेथी उत्पन्न थाय छे, आत्माथी बिलकुल नहीं.
अरे... आवी वात हवे सांभळवा मळे नहीं, कठण वात छे बापु! अने एनुं फळ, पण केवुं छे!! शुद्धनयनो आश्रय, चिदानंदनो आश्रय करतां, एनां फळमां पर्यायमां अतीन्द्रिय आनंद आदि अनंत अतीन्द्रिय आनंद छे!!
आहा..! ‘माटे स्याद्वादनुं शरण लईने’ - अपेक्षाथी (कह्युं) त्रिकाळी शुद्धद्रव्यमां अशुद्धता नथी, पर्यायमां अशुद्धता छे. आम बे प्रकारनुं ज्ञान करीने, अशुद्धतानुं शरण छोडी दई अने त्रिकाळशुद्ध आत्मद्रव्यनुं शरण ले...
पण... अशुद्धनुं साथे-साथे ज्यारे ज्ञान होय त्यारे आहा... हा! (समयसार) चौदमी गाथामां आव्युं छे ने... ! टीकाना भावार्थमां के ‘ना’ पाडीने तमे (के ‘अशुद्ध’ नथी!) पर्यायमां अशुद्धता नथी एम माने तो तो वेदांत थई जाय छे. एकांत! पर्यायने मानी नही - पर्यायने माने नहीं तो अनुभव कोनो? त्रिकाळनो निर्णय कोणे कर्यो? द्रव्ये कर्यो के पर्याये कर्यो?
आ त्रिकाळ आत्मा छे. निर्णय कोणे कर्यो? पर्यायन होय तो, पर्याय विना निर्णय करे कोण? नित्यनो निर्णय, अनित्य करे छे. - द्रव्य नित्य छे एनी पर्याय अनित्य छे ए पर्याय, नित्यनो निर्णय करे छे. पण... ए पर्यायनी द्रष्टि छोडाववा माटे, त्रिकाळी वस्तु सत्य छे अने अशुद्धता छे ते असत्य छे - एवी रीते नित्य (त्रिकाळ) ग्रहण करवा माटे (अशुद्धता-पर्यायने) असत्य कहेवामां आवेल छे. बिलकुल अशुद्धता पर्यायमां य छे ज नहीं तो तो अशुद्धता छोडवानो उपदेश केम करवामां आवे छे अने ‘धर्म करवो छे’ तो जो” अधर्म नहो, पर्यायमां अधर्म न हो तो धर्म करवो छे ए पण रहेतुं नथी. आहा.. हा!
केमके... पर्यायमां, अधर्मना स्थान धर्म लाववो छे. तो त्रिकाळी स्वभाव शुद्ध न होय तो आश्रयद्रष्टि विना धर्म थतो नथी अने (पर्यायमां) अशुद्धता न होय तो तो व्यय थईने शुद्धता प्रगट थती ज नथी.
अरे... आवी वातुं छे!! (कहे छे के) ‘माटे स्वद्वादनुं शरण लईने शुद्धनयनुं आलंबन करवुं जोईए’ - शुद्धनय एटले त्रिकाळीवस्तु (आत्मद्रव्य), स्वरूपनी प्राप्ति थया पछी, चैतन्यमूर्ति शुद्धज्ञान द्रष्टिमांप्रतीतिमां- अनुभवमां आव्यो. पण (अनुभवमां) आवीने जेम पूरणप्राप्ति सर्वज्ञ थया, केवळज्ञान थयुं एमने (तो) शुद्धनयनुं पण आलंबन रहेतुं नथी, (कारण) एमने तो स्व तरफ झूकवानुं रहेतुं नथी, ए तो पूरण थई गयुं आहा... हा! एतो वस्तुस्वरूपे जे छे ते छे, ए तो जेवुं द्रव्य, तेवी ज पर्यायपणे छे- पूर्ण थई गया, ‘एनुं फळ वीतरागता छे’ - प्रमाणनुं कथन!
आहा... हा! ‘आ प्रमाणे निश्चय करवो योग्य छे’ - केटलुं भर्युं छे. !! आ तो सामान्य भाषामां छे, चालती भाषामां (भावार्थ छे ने... !)
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ११३
(कहे छे केः) ‘अहीं, (ज्ञायकभावमां) प्रमत्त-अप्रमत्त नथी एम कह्युं छे त्यां ‘प्रमत्त- अपंमत्त’ एटले शुं? -शुं कहे छे? वस्तु जे ध्रुव चैतन्य ज्ञायक भाव, जे सम्यग्दर्शननो विषय, एतो प्रमत्त-अप्रमत्त-चौदगुणस्थानेय एमां छे नहीं. पर्यायनो भेद, एमां छे नहीं, एम कह्युं.
गुणस्थाननी परिपाटीमां छठ्ठा सुधी प्रमत्त अने सातमाथी लईने अप्रमत्त कहेवामां आवे छे, परंतु ए सर्व गुणस्थानो अशुद्धनयनी कथनीमां छे. आहा..! पहेलुं गुणस्थान, बीजुं, त्रीजुं, चोथुं, पांचमुं, छठ्ठुं, सातमुं, आठमुं, तेरमुं एम चौदेय गुणस्थान छे ए व्यवहारनयनुं कथन छे.
आहा... हा ‘परंतु ए सर्व गुणस्थानो अशुद्धनयनी कथनीमां छे’ शुद्धनयनथी आत्मा ज्ञायक ज छे’ -एकलो चैतन्यबिंब! प्रकाशनो पुंज! जाणवावाळो-जाणक्स्वरूप छे एमां ए भेद गुणस्थानना छे नहीं. आहा.. हा!
एम कहेवुं ए असद्भूत व्यवहारनय छे. वळी
लोकालोक छे माटे लोकालोकने जाणे छे एमेय नथी. ए
तो ज्ञाननी पर्यायनी ए सहज शक्ति छे के पोते
पोताथी ज षट्कारकरूप थईने लोकालोकने जाणती थकी
प्रगट थाय छे. आहा! केवलज्ञाननी पर्यायनां कर्ता,
कर्म, करण, संप्रदान, अपादान ने अधिकरण- एम
षट्कारक पर्याय पोते ज छे; परज्ञेय तो नहि, पण
द्रव्य-गुणेय नहि. अंदर शक्ति छे, पण प्रगट थवानुं
सामार्थ्य पर्यायनुं स्वतंत्र छे. केवलज्ञान खरेखर
लोकालोकने अडया विना, पोतानी सत्तामांज रहीने
पोते पोताथीज पोताने (पर्यायने) जाणे छे के जेमां
लोकालोक प्रकाशित थाय छे. आहा! पोतानी पर्यायने
जाणतां लोकालोक जणाई जाय छे.
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११४ श्री प्रवचन रत्नो-१
कथमात्मा ज्ञानीभूतो लक्ष्यत ईति चेत् –
करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी ।।
हवे पूछे छे के आत्मा ज्ञानस्वरूप अर्थात् ज्ञानी थयो ए कई रीते ओळखाय? तेनुं चिहृन (लक्षण) कहो, तेना उत्तररूप गाथा कहे छेः
ते नव करे जे, मात्र जाणे, ते ज आत्मा ज्ञानी छे.
गाथार्थः [यः] जे [आत्मा] आत्मा [एनम्] आ [कर्मणः परिणामं च] कर्मना परिणामने [तथा एव च] तेमज [नोकर्मणः परिणामं] नोकर्मना परिणामने [न करोति] करतो नथी परंतु [जानतति] जाणे छे [सः] ते [ज्ञानी] ज्ञानी [भवति]
टीकाः निश्चयथी मोह, राग, द्रेष, सुख, दुःख आदिरूपे अंतरंगमां उत्पन्न थतुं जे कर्मनुं परिणाम, अने स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान, स्थूलता, सूक्ष्मता आदिरूपे बहा उत्पन्न थतुं जे नोकर्मनुं परिणाम, ते बधुंय पुद्गल परिणाम छे. परमार्थे, जेम घडाने अने माटीने ज व्याप्यव्यापकभावनो (व्याप्यव्यापकपणानो) सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे तेम पुद्गलपरिणामने अने पुद्गलने ज व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे. पुद्गल द्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी पुद्गलपरिणामनो कर्ता छे अने पुद्गल परिणाम ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातुं होवाथी (व्याप्यरूप थतुं होवाथी) कर्म छे. तेथी पुद्गल द्रव्य वडे कर्ता थईने कर्मपणे करवामां आवतुं ज समस्त कर्मनोकर्मरूप पुद्गल परिणाम तेने जे आत्मा, पुद्गल परिणामने अने आत्माने घट अने कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापक भावना अभावने लीधे कर्ताकर्मपणानी असिद्धि होवाथी, परमार्थे करतो नथी, परंतु (मात्र) पुद्गल परिणामना ज्ञानने (आत्माना) कर्मपणे करता एवा पोताना आत्माने जाणे छे, ते आत्मा (कर्मनोकर्मथी) अत्यंत भिन्न ज्ञानस्वरूप थयो थको ज्ञानी छे. (पुद्गल परिणामनुं ज्ञान आत्मानुं कर्म कई रीते छे ते समजावे छेः) परमार्थे पुद्गल-परिणामना ज्ञानने अने पुद्गलने घट अने कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकभावनो अभाव होवाथी कर्ताकर्मपणानी असिद्धि छे अने जेम घडाने अने माटीने व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे तेम आत्मपरिणामने अने आत्माने व्याप्यव्यापकभावनो ससद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे. आत्मद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी आत्मपरिणामनो एटले के पुद्गलपरिणामना ज्ञाननो कर्ता छे अने पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातुं होवाथी (व्याप्यरूप थतुं होवाथी) कर्म छे. वळी आ रीते (ज्ञाता पुद्गल परिणामनुं ज्ञान करे छे तेथी) एम पण नथी के पुद्गलपरिणाम ज्ञातानुं व्याप्य छे; कारण के पुद्गलने अने आत्माने ज्ञेयज्ञायक संबंधनो व्यवहारमात्र होवा छतां पण पुद्गल परिणाम जेनुं निमित्त छे एवुं जे ज्ञान ते ज ज्ञातानुं व्याप्य छे. (माटे ते ज्ञान ज ज्ञातानुं कर्म छे)