Pravach Ratno Part 1-Gujarati (Devanagari transliteration). Date: 03-01-1979; Pravachan: 159.

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श्री प्रवचन रत्नो-१ ११प

गाथा–७प प्रवचन क्रमांक–१प९ दिनांक ३–१–७९

‘हवे पूछे छे’ जुओ! शिष्यनी शैली! शिष्ये आवुं सांभळ्‌युं त्यारे पूछे छे’ के आत्मा ज्ञानस्वरूप अर्थात् ज्ञानी थयो एम कई रीते ओळखाय? जणाय शी रीते? एनां लक्षण शुं? एनां चिन्ह शुं? एनां एंधाण शुं?

आहा... हा! एनां (ज्ञानीनां) लक्षण, चिन्ह, एंधाण शुं? एम शिष्यनो प्रश्न छे, अने उत्तर देवामां आवे छे.

आहा... हा! चोथे गुणस्थानेथी जगतनो साक्षी थाय छे. टीकाः ‘निश्चयथी मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख आदिरूपे अंतरंगमां उत्पन्न थतुं जे कर्मनुं परिणाम’ -आ (कह्युं) छे ई कर्म, जडकर्मना परिणाम छे एम ए लोको कहे छे. आंही तो निश्चयथी अंदर जे मोहना परिणाम थाय (भावकर्म छे)

(श्रोताः) जडकर्मना ए (लोको) कहे छे? (उत्तरः) हा, ई करम-करम ए जडना लेवा. अरे! बापु तुं अरे भाई! (श्रोताः) भावकर्मनी वात छे? (उत्तरः) अंदरमां थतो जे मोह - मिथ्यात्व न लेवुं अहींयां (परंतु) परतरफनो सावधानीनो भाव लेवो. ‘राग, द्वेष, सुख, दुःख आदिरूपे अंतरंगमां उत्पन्न थतुं मोह एटले मिथ्यात्व न लेवुं परतरफनी जरी सावधानी थाय छे अस्थिरतानी (ज्ञानीने) एनो ज्ञानी साक्षी छे.

आहा... हा! ‘निश्चयथी मोह, राग एटले पर तरफना परिणाम-एनो विस्तार... राग, द्वेष, सुख, दुःख आदिरूपे अंतरंगमां उत्पन्न थतुं जे कर्मनुं परिणाम....

आहा...! लोको कंईक! कंईक! पोतानी कल्पनाथी... अर्थ करे! वस्तुस्थिति कांईक रही जाय छे!! (श्रोताः) एने - भावकर्मने जड किधां? (उत्तरः) भावकर्मने जड लेवां (समजवां) ‘जे कर्मनुं परिणाम’ कह्युं छे ने...! अने नोकर्म शरीरादि एम.

(श्रोताः) मारे तो एम कहेवुं छे के भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म-बधां कीधां छे ने? (उत्तरः) नोकर्म पछी आवशे, आमां आवी ग्युं ने...! बधुं आवी ग्युं! द्रव्यकर्मने कर्मना परिणाम ए बधुं कर्ममां जाय छे. ए भावकर्मनुं परिणाम छे- ए जडनुं परिणाम छे ई जडमां जाय छे, एथी कर्म य आवी ग्युं ने आ ए आवी गयुं!

आहा.. हा.. हा! भगवान आत्मा ज्यारथी जगतनो साक्षी थाय छे, एम कहेवुं छे ने... !! हवे, कर्म (मां) भावकर्म, नोकर्म (द्रव्यकर्म) त्रणेय आवी गयां एमां कर्म छे ने कर्मना निमित्तथी थतां मोहादिन परिणाम छे- ए बेयनो ई (ज्ञानी) साक्षी छे!

आहाहाहा! झीणुं छे भाई! अंतरंग मारग अलौकिक छे! आहा..! एमां आ समयसार!! आहा...! आ वात थई’ ती त्यां सनावदमां! (ते कहे) आ कर्म छे जड छे अजीव लेवा अहीं परिणाम जीवना न लेवा.

(अहीं कहे छे) आंही तो जीवना परिणाम छे ई कर्मना ज परिणाम छे! जीव तो आत्मा


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११६ श्री प्रवचन रत्नो-१ ज्ञायकस्वरूप छे एना ए परिणाम नथी. आहा... हा! गाथा-७प एणे अर्थ कर्यो छे त्यां सनावदवाळाए....

अरे! कंईक-कंईक अर्थ पोतानी कल्पनाथी करे ने... समयसारने फेरवी नाखे! आहा..! समयसार एटले बापु! शुं चीज छे!! अहींयां तो (कहे छे) भगवान आत्मामां अज्ञानथी उत्पन्न थयेलुं छे ने अज्ञानस्वरूप रागादि जे छे, तेनाथी ज्ञानस्वरूप थयो थको- वस्तु तो वस्तु ज्ञानस्वरूप छे, पण ज्ञानस्वरूप पर्यायमां थयो थको, एनाथी निवर्ते छे अने पोते स्वयं ज्ञानरूप, ज्ञानस्वरूप पर्यायमां थाय छे. समजाणुं कांई...?

आवी वात छे! आहा... हा! आफ्रिकामां मळे एवुं नथी क्यांय, काल कहेता’ ता भाग्यशाळी ने मळे... एम काल कहेता’ ता!

वात साची छे. भगवाननी धारा... ‘आ’ भगवान सर्वज्ञे कहेलुं तत्त्व छे भाई! आहा.. हा! ‘जे कर्मनुं परिणाम छे’ - भावकर्मने द्रव्यकर्म बेय आवी गयां एमां. ‘अने स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द... जोयुं? ‘शब्द’ आव्यो! बंध, संस्थान, स्थूलता, सूक्ष्मता आदिरूपे बहार उत्पन्न थतुं? जोयुं? बहार उत्पन्न थतुं (कह्युं). ‘जे नोकर्मनुं परिणाम’ आहा...! ‘ते बधुंय पुद्गलपरिणाम छे’ आंही वांधो छे. विकार छे ई बधा पुद्गलपरिणाम छे एम कहेवुं छे.

आहा.. हा! भगवान विज्ञानघनना ‘आ’ परिणाम कयां छे? अज्ञानपणे मान्यां हतां त्यां सुधी एनां हतां. मान्या’ ता ई, छतां ई (पोताना) मान्यां पण ई कांई स्वरूपमां नथी. आहा.. हा... हा! ई तो मान्यता ऊभी करी हती.

आहा.. हा! ए अज्ञानपणानुं स्वरूप विज्ञानघन भगवानमां (एटले के) ज्ञानस्वभावने पकडयो, अनादिथी रागने पकडयो’ तो, एथी भगवान ज्ञान-स्वभाव रही ग्यो तो! ए ज्ञानस्वभावने पकडयो अने रागस्वभावने छोडी दीधो.

आवो मारग छे बापा! वाद-विवादे आमां पार आवे एवुं नथी. अगियारमी गाथामां कह्युं छे ने...! ‘जिनवाणीमां पण निमित्तनो-व्यवहारनो उपदेश शुद्ध नयनो हस्तावलंब (सहायक) जाणीने बहु कर्यो छे पण एनुं फळ संसार ज छे’ आवुं, आवुं व्रत करवां व्रत पाळवां ने (विकारभाव) टाळवा एवी वातुं आवे ने बधी... आ जोईने चालवुं, विचारीने बोलवुं ने... आहा...! एवा कथनो जिनवाणीमां आवे पण एनुं फळ संसार छे.

आहा.. हा! ‘ते बधुंय पुद्गल परिणाम छे’ ए दया-दान, व्रत परिणाम आवे! पण ए बधां पुद्गलपरिणाम छे. आंही तो कर्ता-कर्म प्रवृत्तिनो निषेघ करवो छे ने अज्ञानपणानो!!

आहा..! ‘ए राग मारुं कार्य छे ने एनो शुं कर्ता छुं’ - ए तो अज्ञानभाव छे. स्वरूप छे ज्ञानस्वरूप भगवान ज्ञान! ई शुं करे? ई तो जाणवा-देखवानुं करे! ए (पण) भेदथी कथन छे. (श्रोताः) ज्ञान करे ए पण नहीं? (उत्तरः) रागने करे, ए आत्मा नहीं आहा..! जडने करे, ई चैतन्य क्यां रह्यो? राग तो अजीव छे, जीव नथी.


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श्री प्रवचन रत्नो-१ ११७

आहा... हा! पण... माणसने आकरुं पडे ने....!! (कहे छे केः) ‘परमार्थे जेम घडाने अने माटीने जोयुं? माटीने ‘ज’ व्याप्य-व्यापकभावनो सद्भाव होवाथी’ - माटी व्यापक छे, धडो तेनुं व्याप्य छे. माटी कर्त्ता छे, धडो तेनुं कार्य छे. आहा.. (शुं ते) कुंभारनुं कार्य छे? ‘घडाने अने माटीने व्याप्य-व्यापकनो सद्भाव होवाथी’ - धडो छे ने ते व्याप्य छे, माटी छे ते व्यापक छे.

आहा.. हा! ‘व्याप्यव्यापकभावनो (व्याप्यव्यापकपणानो) सद्भाव होवाथी’ माटी ते कर्त्ता छे, धडो ते तेनुं कार्य छे. व्यापक माटी ते कर्त्ता छे, धडो तेनुं कार्य छे अत्यारे (अहीं) एटलुं सिद्ध करवुं छे.

नहितर तो... घडानी पर्याय (पोताना) षट्काररूपे परिणमे छे. आहा..! आकरी वात बापा! पण... समजाववुं छे परथी भिन्न पाडीने... एटले आ रीते कह्युं छे. बाकी माटी छे ई, ई घडानी पर्यायने करे, ई पर्यायने अशुद्धनय (कही छे) प्रवचनसारमां लीधुं छे ने भाई...! माटी शुद्धनय ने माटीनी पर्यायो थाय, ते अशुद्ध (नय) व्यवहार, व्यवहारनय छे ने...!

आहा... हा! एम द्रव्य छे जे आखी वस्तु ते शुद्ध छे, पर्यायना भेदो पाडवा ते अशुद्ध छे. भले! निर्मळ पर्यायनो भेदो पाडो! आहा...! राग छे ने... ए ‘मेचक’ कह्युं छे ने...! आहा...! ‘मेचक’ एटले राग एम कह्युं नथी पण भेद छे ए ज मेल छे मेचक छे एम कथन करवामां व्यवहारथी एम आवे छे ने कळशटीकामां आवे छे.

आहा... हा! ‘परमार्थे ते कांई वस्तु नथी व्यवहारे भले कुंभार कर्त्ता अने धडो कर्म एम कहेवामां आवे पण जेम घडाने... अने माटीने ‘ज’ - घडाने अने माटीने ज (एटले) माटी व्यापक छे, धडो तेनुं व्याप्य-कार्य छे. माटी कर्त्ता छे अने धडो तेनुं कार्य छे. आहा...! आंही एटलुं परथी भिन्न पाडवुं छे ने... !

ओहोहोहोहो! गंभीरता! समयसारनो एक-एक ‘लोक! एक-एक टीका! बापु! (जेनुं बीजुं) द्रस्टांत नहीं!!

(श्रोताः) साहेब! ‘परमार्थे’ केम कीधुं? (उत्तरः) कीधुं ने...! व्यवहारे कहेवाय छे ने वात आवी गई. व्यवहारे कहेवाय आ धडो कार्यने कुंभार कर्ता (परमार्थे) ए नहीं. ए तो कथनमात्र छे. आ तो (अहीं कह्युं ते) परमार्थ छे.

(श्रोताः) परमार्थे छे (एटले ते साची वात छे? (उत्तरः) हा, परमार्थे कहे ते सत्य छे. धडो कुंभारे कर्यो ई वात असत्य छे. रोटली लोटे करी ई बराबर छे, पण रोटली स्त्री ए करी, तावडीए करी, अग्निए करी ई असत् छे. आ शरीरना परिणाम जे आम-आम थाय छे, ए शरीरपरमाणुए कर्यां ए कर्ता-कर्म खरुं, पण ए परिणाम जीवे कर्यां एवो व्यवहार छे ए कथन जूठुं छे!

आहा... हा! भाषानी पर्याय जीव बोले छे एम कहेवुं ई तो कथनमात्र छे. पण भाषानी पर्याय एनुं कार्य तेनी भाषावर्गणा कर्ता छे ई भाषानी पर्याय तेनुं कार्य छे ई परमार्थ छे. आहा... हा... हा! ‘में टीका करी नथी हो?! आचार्य अमृतचंद्राचार्य कहे छे, ‘में टीका करी नथी हो! हुं तो साक्षी छउं...!! हुंतो ज्ञानस्वरूपमां गुप्त छुं आवे छे ने....! प्रभु (ज्ञायक) गुप्त छे. ते टीका करवा कयां जाय?! (श्रोताः) ई एमां व्यापे तो करी शके! (उत्तरः) व्यापेेतो... व्यापे ज नहीं पछी करी शके (नी वात ज कयां छे!)


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११८ श्री प्रवचन रत्नो-१ व्यापक तो द्रव्य छे ने व्याप्य तो तेनी पर्याय-कार्य छे, व्याप्य-व्यापकमां बीजो व्यापक आवे क्यांथी त्यां?!

आहा.. हा! ‘परमार्थे जेम घडाने अने माटीने’ .. आहा..! द्रष्टांते य केवुं आप्युं छे! ए अमृतचंद्राचार्ये आप्युं छे. ‘आम तो (मूळपाठ तो) कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणामं ‘ण करेइ’ आवे जो जाणदि सो हवदि णाणी’ ए सिद्ध कर्युं छे.

आहा...हा! ‘परमार्थे जेम घडाने अने माटीने ‘ज’ (संस्कृतटीकामां छे). ‘घटमृत्तिकायोरिव’ छे ने? घटमृत्तिकायोरिव व्याप्यव्यापकभाव सद्भावात्पुद्गलद्रव्येण कर्त्ता स्वतन्त्रव्यापकेन स्वयं’ आहा! जुओ ई कहे छे. ‘तेम पुद्गलपरिणामने...’ आहा! ओलुं (पहेलां कह्युं) कर्मनुं परिणाम ते कह्युं हतुं ने... बधुं पुद्गल परिणाम-रागादिने पुद्गलपरिणाम (कह्यां), शरीरने पुद्गलपरिणाम कह्यां ए.

‘तेम पुद्गलपरिणामने अने पुद्गलने ज व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे ‘आ हा.. हा... हा.. हा! ए राग पुद्गलना परिणाम अने एनो पुद्गल कर्त्ता छे!

त्यारे, ए ‘ना’ कहे के जुओ! उपादन-आत्माथी ज थाय छे ने निमित्तथी थतुं नथी ई तमारुं खोटुं पडे छे, ए बीजी वात छे बापु! ए वात तो सिद्ध राखीने छे.

आहा...! जे समये जे परिणाम जे द्रव्यना ते समये ते कार्यरूपे परिणमीने थाय, थवाना तेज थाय ए षट्कारकरूपे, ए वात सिद्ध राखीने हवे स्वभावनी द्रष्टि बताववी छे ने आंही तो...! ओली वाततो करी... के छए द्रव्य ज्ञेय छे, ए दर्शननो अधिकार छे (ज्ञेयअधिकार) प्रवचनसार छतां ते ते ज्ञेयना ते समयना ते ते परिणाम ते ज समयना क्रमबद्धमां थवाना ते थाय. आहा.. हा! भले निमित्त हो! पण ते ते समयना ते परिणाम थाय ते वात राखीने हवे, अहींयां पुद्गलकर्त्ता अने रागादिपरिणाम तेनुं कार्य - स्वभावनी द्रष्टि सिद्ध करवी छे. आहा.. हा! (अने) त्यां तो ज्ञेयपणुं - जगतना पदार्थ आवा छे एम सिद्ध कर्युं छे. आहा.. हा!

हवे, (विश्वना) ई पदार्थमां पण वास्तविक स्वरूप एनुं छे चैतन्यनुं (के) ई विज्ञानघन छे! ए विज्ञानघन व्यापक ने विज्ञानघननी पर्याय तेनुं व्याप्य-कार्य छे. आहा... हा... हा! पण राग- द्वेषना परिणाम (जे) दया-दान-व्रत-भक्तिनां परिणाम, अरे! भगवाननी भक्ति- स्तुतिना परिणाम आहा... हा! पुद्गलपरिणामने... राग, भक्ति भगवाननी जे स्तुतिनो राग, आहा... हा! ए पुद्गलपरिणामनो पुद्गलकर्ता छे, पुद्गल व्यापक थईने ई व्याप्य थयुं छे!!

(श्रोताः) पुद्गल एटले द्रव्यकर्म? (उत्तरः) द्रव्यकर्म, जड! आहा... हा! आ शरीर ने पुद्गलकर्म जड-बेय छे ने आंही तो. बेयनां परिणाम लीधां छे ने...! (श्रोताः) ई विकार भेगो छे? (उत्तरः) ई विकार पुद्गल ज छे! पुद्गलना परिणाम आहीं तो कह्या पण आगळ पुद्गल ज कहेशे, आमां ने आमां कहेशे, आगळ (टीकामां) समजाणुं...?

आ कहेशे... जुओ! ‘ज्ञानने अने पुद्गलने घट-कुंभारनी जेम’ त्यां पुद्गल कीधुं छे, आंही परिणाम लीधा छे त्यां पछी अने पुद्गल कीधां छे!

आहा... हा! ‘पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी’ आहाहाहा! ज्यां रागनो कर्त्ता कीधो! ६२


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श्री प्रवचन रत्नो-१ ११९ गाथा पंचास्तिकाय त्यां तो कार्य’ सिद्ध करवुं छे ने...! तो कहे छे के रागना परिणाम अने द्वेषना परिणामविकारी परिणाम, ई स्वतंत्र षट्कारकथी जीवनी पर्यायमां थाय छे. कर्मे य कर्त्ता नहीं ने एनां (जीवनां) द्रव्यगुणे य कर्त्ता नहीं. अ. चर्चा थई’ ती न ते दि’ वर्णीजी हारे, तेरनी साल! बावीस वरस थयां!

आकरुं काम!! आहा... हा! ए विकारी परिणाम तेनो कर्त्ता कर्मे य नहीं ने तेनो कर्त्ता द्रव्यगुणे य नहीं, आंही कहे छे के विकारीपरिणामनो कर्त्ता पुद्गल! ए ‘स्वभावनी द्रष्टि’ अहीं बताववी छे.

आहा...! परनुं कर्ताकर्मपणुं-विकारनुं (कर्ताकर्मपणुं) छूटीने... ज्ञान थवुं, ए स्वरूप जे छे ते विज्ञानघन छे एनुं ज्ञान थयुं त्यां, एना परिणाम (मां) विकारीकार्य छे नहीं, एथी विकारीपरिणामनो कर्त्ता पुद्गलने नाखी (कही) अने ए पुद्गलनुं कार्य छे, स्वतंत्रपणे पुद्गल करे छे एम कह्युं ‘कर्त्ता एने कहीए के स्वतंत्र पणे करे.

आहा... हा त्यारे राग जे था दया-दान-व्रत-भक्ति भगवाननी ने स्तुतिनो (राग) ए राग... पुद्गल स्वतंत्र थईने ए रागपरिणामने करे छे. (श्रोताः) जीव नथी करतो एम बताववुं छे! (उत्तरः) जीवस्वभाव नथी एम बताववुं छे. आहा... हा... हा हा

आवी वात आकरी पडे माणसने...! लोकोए... अरे! वाद-विवाद झघडा ऊभा करे! बापु! जेम छे एम छे भाई...! आंही तो, भगवाननी स्तुति छे ते राग छे अने राग.. पुद्गलव्यापक स्वतंत्रपणे थईने राग करे छे. आवुं छे! राड... नाखे एवुं छे!!

शुं कीधुं? ‘पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी’ -शरीरनो पुद्गलनो ने कर्म, बेय.. स्वतंत्र व्यापक होवाथी ‘पुद्गलपरिणामनो कर्त्ता छे’ एटले... के कर्म पोते स्वतंत्र रागनो कर्ता छे, शरीरनी पर्यायनो कर्ता, शरीरना परमाणुं स्वतंत्र छे!

आहा..! आ.. तो धीरा थईने विचारे तो बेसे! वात आवी छे! विद्वतानी चीज नथी ‘आ’.. आहा... हा! ए पुद्गल परिणाम स्वतंत्र व्यापक होवाथी पुद्गल, पुद्लपरिणामनो कर्ता छे. एटले के दया-दान-व्रतना परिणामनो पुद्गल स्वतंत्र थईने ते परिणामने करे छे!

(श्रोताः) निश्चये-परमार्थे कहे छे? (उतरः) परमार्थे, वस्तु छे ने ए. (श्रोताः) अशुद्धनिश्चयनयो! (उत्तरः) अशुद्धनिश्चयनये छे पण ए व्यवहार अने व्यवहारनो कर्ता कर्म छे परमार्थे आत्मा नहीं.

आहा.. हा! “आंही तो जगतनो साक्षी सिद्ध करवो छे ने हवे तो” ज्ञाता-द्रष्टा छे. ए एनां रागना परिणामनो कर्ता नथी. त्यरे पुद्गलस्वतंत्र थईने, द्रव्य पोते स्वतंत्र थईने रागने करे एवुं नथी. (आत्म) द्रव्य स्वतंत्र थईने तो निर्मळपरिणामने करे एम कहेवाय व्यवहारे!

आहा... हा! बाकी, द्रव्य निर्मळ परिणामने करे एय क्यां छे? ! आहा... हा! ‘अने पुद्गलपरिणाम ते व्यापक वडे स्वयं व्यापातुं होवाथी (व्याप्यरूप थतुं होवाथी) कर्म छे’

विशेष कहेशे... (प्रमाणवचन! गुरुदेव!!