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१२० श्री प्रवचन रत्नो-१
पंचोतेर गाथा. आंहीथी ‘पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी’ छे ने...? शुं कहे छे? कर्म अने नोकर्म ए पुद्गल छे. ए स्वतंत्रपणे व्यापक-कर्त्ता होवाथी, स्वतंत्रपणे व्यापक एटले कर्त्ता होवाथी ‘पुद्गलपरिणामनो कर्त्ता छे’ राग आदिनो कर्त्ता पुद्गल छे.
आहा...! आंही तो ए सिद्ध करवुं छे, नहितर तो रागादि छे ई आत्मानी पर्यायमां, आत्मानी पर्यायथी एटले षट्कारक परिणमनथी थाय छे. ए तो एने-पर्यायने सिद्ध करवी होय त्यारे... अने तेनाथी.. ए थवानुं छे एम ज्यारे सिद्ध करवुं छे, त्यारे पण विकार छे ई आत्मानी पर्यायमां थाय छे एटलुं सिद्ध करीने हवे,
आत्मा, ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव छे. ए वीतरागस्वरूप छे. ए... वीतरागस्वरूपनुं व्पापकपणे थईने व्याप्य राग, एनुं कार्य राग न होय! समजाणुं कांई..? जे बे वात कीधी ए राखीने आ वात छे. अहींयां हवे ए आत्मा वीतरागस्वरूप छे-जिनस्वरूप छे’ एटले? ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव स्वरूप छे!! तेनो व्यापक पोते थईने-प्रसरीने व्याप्य जे थाय, ते विकार न थाय! ई ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव ए कर्त्ता थईने अर्थात् व्यापक थईने कार्य थाय-ए जाणवा-देखवाना ने आनंदना परिणाम एमां थाय. समजाणुं कांई...?
आहा... हा! आवी वात छे. एटले आंही कहे छे के विकारी परिणाम जे थाय अने शरीरना पर्याय थाय, ए ‘पुद्गलपरिणामने पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी पुद्गलपरिणामनो कर्त्ता ते स्वतंत्रपणे करे (ते कर्त्ता) एम कहे छे अहींया कर्म पोते स्वतंत्र थईने विकारना परिणामनो कर्त्ता थाय छे!
आहा.. हा! अहीयां स्वभाव एनो जे आत्मानो (स्वभाव) ए तो जिनस्वरूपी- वीतरागस्वरूपी ज प्रभु छे. (ए) वीतरागस्वरूपी प्रभुना परिणाम तो वीतरागी थाय. आहा.. हा! एनी-स्वभावनी द्रष्टि राखीने, जे स्वभाव वीतरागपणे परिणमे-ए स्वभाव रागपणे न परिणमे.. एम सिद्ध करवुं छे. आहा... हा! तेथी ते पर्यायद्रष्टिमां जे राग आदि थाय छे ते स्वतंत्रपणे पुद्गलना-निमित्तना संबंधे थाय छे माटे पुद्गलकर्म ते कर्त्ता-व्यापक (अने) विकारीपरिणाम तेनुं कार्य एटले व्याप्य राग आदि!
आहा.. हा! आवुं छे! केटला प्रकारो पडे! अपेक्षा न समजे ने.. उपादाननी ज्यां वात आवे! आत्मा अशुद्ध उपादान पणे एटले व्यवहारपणे-पर्यायपणे-विकारपणे परिणमे छे पोते, कर्म तो निमित्त मात्र छे! कर्मने ए विकार थतां कर्म एनु अडतुं य नथी एम कर्मनो उदय छे ए रागने अडतो य नथी!
आहा... हा! त्यारे ते रागना परिणाम एनी पर्यायमां स्वतंत्र षट्कारकना परिणमनथी थाय एम एनाथी ज थाय एम सिद्ध करवुं छे, पण.. अहींया तो,..‘स्वभाव एवो नथी (आत्मानो)’!! आहा...! स्वभाव जे छे आत्मा जे छे ए जिनस्वरूपी-वीतरागस्वरूपी छे.
आहा... हा! जिनस्वरूपी प्रभु (आत्मा छे) एनां परिणाम सम्यग्दर्शनना पण वीतरागीपर्याय थाय.
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १२१
को’क कहे छेने.. सम्यग्दर्शन सराग! ए वस्तु बीजी अपेक्षा छे. (आंहीतो) वीतराग जिनस्वरूपी प्रभु (आत्मा) ए वीतरागस्वरूपी पर्याय वीतराग थाय, ए सम्यग्दर्शन पण वीतरागपर्याय छे अने आगळ जतां चारित्र थाय ए पण वीतरागीपर्याय छे!
आहा...हा! ए वीतराग स्वभावनुं कार्य, वीतरागस्वभाव व्यापक अने व्याप्य वीतरागीपर्याय छे - एटले भेद पाडीने. कथन करवुं एपण उपचारथी छे. ए अविकारी परिणाम तेना कर्ताने कर्म परिणाममां छे!! पण आत्मा एनो व्यापक एटले प्रसरीने थाय छे ए पण भेदनयनुं कथन छे. (तथा) विकारी परिणामनो कर्त्ता आत्मा अने विकारी परिणाम कार्य- ए पण उपचारथी कथन छे.
आहा.. हा! एम द्रव्यकर्म अने परनो कर्त्ता (आत्मा), उपचारथी पण नथी, तेम कर्म, शरीर के आत्माने विकारी परिणामनो उपचारथी पण कर्त्ता नथी. पण अहींया स्वभावनी द्रष्टिथी कथन करवुं छे! आहा... हा! भगवान आत्माना अनंतगुणो छे तेमां कोई गुण विकार पणे परिणमे एवो (कोई) गुण नथी. एथी ए स्वभावीवस्तु, स्वभावना परिणामपणे परिणमे अने ए कार्यव्याप्य छे एम कहेवाय, पण विकारपरिणामनुं कार्य आत्मानुं छे स्वभावद्रष्टिए एम नथी. आहा... हा! हवे! आटली बधी अपेक्षाओ!!
आहा... हा! आंही ‘पद्गलद्रव्य स्वतंत्रपणे व्यापक एटले कर्ता थईने, स्वतंत्र ए कर्त्ता छे. तो ए स्वतंत्रपणे कर्त्ता थईने पुद्गलपरिणामनो एटले के राग-द्वेष अने पुण्य-पापना भावनो कर्त्ता छे, आ द्रष्टिए... आहाहा! समजाणुं कांई...?
‘अने पुद्गलपरिणाम ते व्यापक वडे’ - ए रागने, द्वेषने पुण्य-पापना भाव, ए पुद्गलपरिणामने ‘ते व्यापक वडे’ एटले कर्मना व्यापक वडे ‘स्वयं व्यपातुं’ (एटले) स्वयं थतुं- स्वयं कार्य थतुं होवाथी ते पुद्गलपरिणाम ते पुद्गलनुं कार्य छे!
आहाहाहा...! आवी वात छे! कई अपेक्षाए कथन छे ए जाणवुं जोईए. अपेक्षा जाण्या विना... करमथी विकार थाय, करमथी विकार थाय! भई, परद्रव्यथी थाय? एम त्रणकाळमां न होय.
पर्याय तो स्वतंत्र ते समयनी पोताथी थाय छे, पण ते जीवनो स्वभाव नथी तेथी जीवना स्वभावनी ज्यां द्रष्टि थई त्यारे ते विकारना परिणामनुं कार्य ते स्वभाव नथी. त्यारे तेना कार्यनो कर्त्ता कर्म छे एम कह्युं. जोयुं...? भेद पाडी नाख्यो, परथी एने जूदुं पाडी नाख्युं!!
(श्रोताः) आत्मा कर्ता छे के ज्ञाता? (उत्तरः) ज्ञाता छे ने..! पण परिणमन तरीके भले कर्त्ता कहो! कर्त्ता (कह्यो) पण करवालायक छे एवी बुद्धिपणे कर्त्ता नथी. आहा... हा! केटली... अपेक्षा!
(ज्ञानीने कर्त्ता कहे छे) सुडतालीस नयमां एम कह्युं के परिणमे छे ते ज्ञानी कर्त्ता छे, एनो अधिष्ठाता छे एम कर्त्ता कह्यो! कई अपेक्षाए? आ प्रवचनसार, नयअधिकार (मां कह्युं) ए ज्ञानपरिणाम एनुं छे एटलुं बताववा कर्त्ता, ते परिणमे (छे) ते कर्त्ता एम कह्युं! पण... अहींयां तो स्वभावनी द्रष्टिमांएनुं परिणमन स्वभावनुं होय छे. एनुं परिणमन विकृत छे ए कर्मनुं कार्य छे एम कहीने स्वभावना परिणमनथी एने जूदुं पाडी नाख्युं छे!
आवुं... अने हवे आटलुं बधुं!! बीजी वात होय तो... (समजाय!) आ वस्तु ज एवी छे!
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१२२ श्री प्रवचन रत्नो-१ पण मेळ थावो जोईए ने! एमने एम कहे-कथन करे तो शी रीते मेळ थाय...!
आहा.. हा! अहींयां तो भगवान एम कहे छे के.. निश्चय स्वभावनी द्रष्टिए भगवान आत्मानो स्वभाव तो वीतराग छे ने! आकषाय स्वभाव छे ने! एटले स्व-भाव दरेक गुण शुद्ध छे ने! ए शुद्ध व्यापक थईने विकारीपर्याय (एनुं) व्याप्य थाय एम छे नहीं.
एटलुं सिद्ध करवा ए विकारीपरिणामनुं व्यापक कर्म छे अने विकारी परिणाम तेनुं व्याप्य छे, व्याप्य नाम कार्य छे. एवुं छे हवे क्यां! हजीतो पुद्गल कहेशे, हजी तो पुद्गलपरिणामने पुद्गल कहेशे.
(जुओ! आगळ टीकामां) ‘पुद्गलने अने आत्माने ज्ञेयज्ञायकसंबंध छे’ (आम कह्युं) आहाहाहा! ए पुद्गल ज छे! जीवद्रव्य नहीं!! भगवाननी भक्तिनो, स्तुतिनो जे राग छे एनो कर्त्ता कर्म छे एम आंही कहे छे. आवुं छे!
(श्रोताः) (रागनो) कर्त्ता कर्म छे एमां ज्ञान नथी! (उत्तरः) ज्ञानसहित क्यां पण परिणमे छे? एमां अनंता-अनंता गुणो छे, कोई गुण विकारपणे परिणमे एवो (कोई) गुण नथी (आत्मामां) ए तो पर्यायमां थाय छे माटे परना लक्षे थयेली छे माटे पर व्यापक ने ते तेनुं व्याप्य!! आहा... हा! भगवान आत्मा! निर्मळ अनंतगुण व्यापक एटले कर्ता अने विकारीपर्याय व्याप्य एटले कार्य, एम बंधबेसतुं नथी!!
को ‘भाई! आवी बधी अपेक्षाओ ने आ बधुं!! (श्रोताः) अनुभवथी जणाय! (उत्तरः) अनुभवथी... वात साची! आ...हा...! ‘स्वयं व्यपातुं होवाथी’ एटले स्वयं थतुं--स्वयं कार्य थतुं-कर्मने लईने पुण्य-पापना भाव, भक्ति आदिना भाव, भगवाननी स्तुति आदिना भाव-ए कर्म व्यापक थईने व्यपातुं एटले थतुं कार्य होवाथी ते पुद्गलनुं कार्य छे. आहा...हा...हा...हा..! भाई, आवी गंभीर वस्तु छे बापु!
आहा... हा! ‘तेथी पुद्गलद्रव्य वडे कर्त्ता थईने’ जोयुं...? पुद्गलकर्म वडे कर्त्ता थईने ए ‘कर्मपणे करवामां आवतुं जे समस्त कर्मनोकर्म रूप पुद्गलपरिणाम जोयुं...? ए कर्मना परिणामने नोकर्मना परिणाम जे शरीरादिना, भाषादिना ए पुद्गलपरिणाम तेने जे आत्मा, पुद्गलपरिणामने अने आत्माने घट अने कुंभारनी जेम आ दाखलो’ ये एवो!!
‘पुद्गलपरिणामने अने आत्माने’ (एटले के) जे रागना ने द्वेषना परिणामने अने आत्माने ‘घट अने कुंभारनी जेम’ कुंभारव्यापक अने घट एनुं व्याप्य नथी! आहाहाहा! हवे! आ धडो कुंभारथी करातो, कुंभारथी नथी थतो, माटीथी थाय छे. बापु! परद्रव्यने शुं संबंध छे? परद्रव्य निमित्त मात्र हो! पण एथी करीने एनुं कार्य केम करे? आहाहा!
घट ने कुंभारनी जेम. एटले? राग-द्वेषना परिणाम अने आत्माने, घट ने कुंभारनी जेम ‘व्याप्यव्यापकभावना अभावने लीधे’ आहाहाहा! शुं टीका! ओहोहोहोहो!! गंभीर!
शुं कह्युं? के दया-दान-व्रतादिना-भक्तिना जे (परिणाम), भगवाननी स्तुतिना जे परिणाम छे, ए परिणामने अने आत्माने घट ने कुंभारनी जेम. घट व्याप्य अने कुंभार व्यापक एम नथी तेथी ते परिणाम व्याप्य अने आत्मा व्यापक एम नथी. घट-कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकभावना अभावने लीधे
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १२३ आहा... हा! कुंभार व्यापक थईने-प्रसरीने घटनुं कार्य करे एनो अभाव छे एम आत्मा व्यापक थईने प्रसरीने ए विकारना परिणाम करे एनो अभाव छे.
बहुं! आवुं आकरुं छे! (श्रोताः) स्वभाव एनो एवो छे! (उत्तरः) स्वभावनी वात कीधी ने....! वस्तुस्वभाव छे ने एनी द्रष्टि थई छे, स्वभाव छे एनी द्रष्टि थई छे तो स्वभावना परिणमनमां विकारीपरिणाम न होय-ए आंही वात लेवी छे. आम आगळ तो कहेशे मिथ्यात्व ने अव्रत ने प्रमादना परिणाम जीवना छे, अने जडना जे छे बेय जुदां पडी जाय छे. गाथामां छे.
आहा... हा! अहींयां तो.... वस्तुनो स्वभाव, चैतन्यमूर्ति भगवान (आत्मद्रव्य) रागना परिणामथी भिन्न प्रभुनो स्वभाव! एवुं ज्यां अंतर ज्ञान थयुं ते ज्ञानीने राग तेनुं व्याप्य ने आत्मा तेनो व्यापक नथी. कोनी पेठे? घटने कुंभारनी पेठे! कुंभार व्यापक अने घट तेनुं व्पाप्य-कार्य नथी, एम आत्मा व्यापक थाय अने विकारी परिणाम व्याप्य एम नथी.
आहा... हा.! आवो.... मारग! वस्तुनुं स्वरूप आवुं छे!! (कहे छे) ‘पुद्गलपरिणामने अने आत्माने घट अने कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकना अभावने लीधे कर्ता-कर्मपणानी असिद्धि होवाथी’ घटनो कर्त्ता कुंभार एनी असिद्धि होवाथी, तेम विकारीपरिणामनो कर्त्ता आत्मा एनी असिद्धि होवाथी आहा... हा... हा!
‘परमार्थे करतो नथी, - घटने जेम कुंभार परमार्थे करतो नथी, एम विकारीपरिणामने आत्मा स्वभावथी परमार्थे करतो नथी! आहाहा... हा!
भाषा तो सादी छे! पण बापु, भाव तो जे छे ए छे! भाव... शुं थाय...? ‘परंतु मात्र पुद्गलपरिणामना ज्ञानने’ आहाहाहा! एटले? जे राग आदि भक्ति आदि, स्तुति आदि ना विकल्प जे थाय, तेना ज्ञानने पुद्गलपरिणामना ज्ञानने, एपण निमित्तथी कथन छे. एटले जे परिणाम थया, तेना ज्ञानने-तेनुं जाणवुं-तेना ते समये ज्ञाननी पर्याय, षट्कारकरूपे परिणमती ज्ञाननी पर्याय ऊभी थाय छे, ते परिणामना ज्ञानने - आम परिणामना ज्ञानने भाषा आम छे पण खरेखर तो ते ज्ञाननी पर्याय पोताथी षट्काररूपे परिणमे छे अ जेने रागना परिणामनुं ज्ञान, एवी पण अपेक्षा नथी. भाई...!
आहा... हा! पण आंही एने जे समजाववुं छे! एटले कहे छे ‘पुद्गलपरिणामना ज्ञानने’ - एटले के जे कांई दया-दान-व्रत-भक्ति-स्तुतिनो विकल्प थयो, ते काळे अहीं ज्ञान पोते पोताना स्वपरप्रकाशमां पोताथी पोते परिणमे छे ते रागना परिणामना ज्ञाननुं- ‘ज्ञानना परिणामने करतो आत्मा’ आहा.. हा! छे...? ‘रागना परिणामना ज्ञानने कर्मपणे करतो’ - ए पण उपचारथी छे.
भाई....! एमां (कळशटीकामां) कळश छे ने...! तेमां नाख्युं छे. ‘ज्ञाननी पर्यायनो कर्त्ता आत्माने कर्म ज्ञान, ए उपचारथी छे. भेद छे ने....? आहा...! एमां छे भाई! कळशटीकामां छे. परनो तो उपचारथीये कर्त्ता नथी, रागनो आत्मा उपचारथी पण कर्त्ता नथी, स्वभावद्रष्टिए! पण ‘रागनुं जे ज्ञान’ कहेवामां आवे छे, ए पण अपेक्षित! समजाववा माटे (कहेवाय छे) खरेखर तो ए वखते ज्ञाननी
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१२४ श्री प्रवचन रत्नो-१ पर्याय स्वपरप्रकाशकपणे स्वतः परिणमनस्वभाव छे. तेथी षट्कारकपणे ते ज्ञानपरिणाम परिणमे छे, ते ज्ञानपरिणामने ‘पुद्गलपरिणामना ज्ञानने’ एम कीधुं छे. समजाणुं कांई....?
बहु गंभीर वस्तु छे बापु! आहा... हा! ‘परंतु (मात्र) पुद्गलपरिणामना ज्ञानने आत्माना कर्मपणे- आत्मा ते ज्ञानना कर्मपणे परिणमे छे! ज्ञाननुं कार्य ते पणे परिणमे छे! रागनुं कार्य तेपणे परिणमतो नथी. आहा... हा! समजाय छे?
भाषा तो बहु सादी! पण भाव तो छे ई छे ने भाई...!! आहा... हा! आहींतो... प्रभुनी प्रभुतानुं वर्णन छे. पामरता जे थाय छे ई प्रभुतानुं कार्य नथी! एम कीधुं.
आहा....! प्रभुत्वगुणनो धरनार! भगवान (आत्मा), अनंतगुणना प्रभुत्वथी भरेलो प्रभु! ए पोते रागना परिणामने व्यापक थईने - कर्त्ता थईने करे ए केम बने? केम के एनां द्रव्यमां नथी, एनां गुणमां नथी! समजाणुं कांई?
आहा. हा! ‘ए पुद्गलपरिणामना ज्ञानने’ - आवी रीते! आवी भाषा!! खरेखर तो ज्ञान जे छे ए पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान छे एम कहेवुं ए व्यवहार छे! ए ज्ञाननो पर्याय ते काळे षट्कारकपणे स्वतंत्र स्वयं परिणमे छे के जेने परनी अपेक्षा तो नथी पण द्रव्य-गुणनी अपेक्षा नथी!!
अरे! आवुं तत्त्व! एने लोको कंईक-कंई द्रष्टिए विपरीत, पींखी नाखे छे पोतानी द्रष्टिए एने...! आहा...!
आहा... हा. ! कळशमां लीधुं छे हो! पछीनो कळश आवशे ने! पोताना ज्ञानना परिणामने करे, ए पण उपचारथी छे, भेद छे ने...! एटलो! ‘परिणाम, परिणामने करे छे’ ए थयार्थ छे.
आहा... हा! शुं कीधुं ई? ‘रागनुं ज्ञान’ एतो निमित्तथी कथन छे. अने ए ज्ञानना परिणामने आत्मा करे, ए उपचार (कथन) छे. बाकी ज्ञानपरिणामने परिणाम षट्कारकरूपे परिणमीने करे छे ए निश्चय छे. जुओ! पंडितजी? समजमें आता है? आहा...! शुं वात छे! भाषा तो सादी छे! भगवान, तारी महत्तानी शी वातुं!!
आहा... हा! प्रभुत्त्वगुणथी भरेलो भगवान! ए पामर (एवा) रागना परिणाममां केम व्यापे? आवुं तत्त्व!! ए रागना परिणामनुं ज्ञान ते आत्मानुं कार्य ए पण भेदथी कथन छे.
“परिणामे परिणामनो कर्त्ता-कार्य-परिणाम कारण ने परिणाम कार्य, ए निश्चय!! कर्त्ता कहो, कारण कहो (एकार्थ छे)
(श्रोताः) तो ज स्वतंत्रता रहे ने! (उत्तरः) स्वतंत्रता ज छे. दरेक समयनो पर्याय, सत् छे तेने हेतुं न होय! आहा... हा! ‘छे’ एने हेतु शुं? ‘छे’ ई पोताथी ‘छे’ ने परथी छे एम कहेवुं? ए राग थयो एनुं जे ज्ञान थयुं एम कहेवुं ई व्यवहार छे, अने ई ज्ञानना परिणामने आत्मा करे छे एम कहेवुं ई व्यवहार छे! आहाहाहाहा!
(श्रोताः) रागनुं ज्ञान थयुं ए पण व्यवहार छे? (उत्तरः) आंहीयां ज्ञानना परिणामने आत्मा
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १२प करे छे ए य व्यवहार छे!
‘परिणाम परिणामने करे छे’ रागनी अपेक्ष विना, द्रव्यगुणनी अपेक्षा विना! तेथी ते कळशमां लीधुं छे, एमां कळश छे ने.... ओगणपचास! व्याप्य-व्यापक छे ने... !
द्रव्यपरिणामी, पोताना परिणामनो कर्त्ता. व्याप्य परिणाम. द्रव्यत्रिकाळी व्यापक तेमां आवो भेद करवामां आवेे तो थाय, न करवामां आवे तो नथी थतो!
आहा... हा! जीवतत्त्वथी पुद्गलद्रव्यनुं तत्त्व तो भिन्न छे! भिन्न छे तेथी व्याप्यव्यापक सबंध नथी. भावार्थ आ छे के आत्मा पोताना परिणामनो उपचारथी कर्त्ता छे.
आहा... हा! रागनो कर्त्ता तो नही, पण रागसंबंधीनुं ज्ञान कहेवुं, ए निमित्ति छे अने ए ज्ञानना परिणामनो कर्त्ता आत्मा कहेवो, ए उपचार छे.
आहा... हा! कारण के परिणमन-पर्याय, षट्कारकथी स्वतंत्र परिणमे छे, स्वतंत्रपणे परिणमे ते कर्त्ता, एनो बीजो कोई कर्त्ता-कारण होय नहीं! समजाय छे कांई....? झीणुं छे बहुं!
आहा... हा! ए पहेलुं कीधुं न....! उपचार मात्रथी - पोताना ज्ञानना परिणामने करे ए उपचार. ए परिणाम द्रव्यथी करायेलो तेथी कर्त्ता, अन्यद्रव्यनो तो उपचारमात्रथी पण नथी.
रागना परिणामनुं आंही ज्ञान थयुं ए तो ज्ञाननुं ज्ञान छे! रागना परिणामनुं (ज्ञान) नथी, छतां ए समजाववुं छे तेथी आ राग थयो-भगवाननी स्तुतिनो आदिे. ते रागनुं ज्ञान थयुं, ए निमित्तनुं कथन छे, ज्ञान ज्ञानथी थयुं छे ए रागथी नथी (थयुं) द्रव्य–गुणथी नथी (थयुं)
आहा... हा! एवा ज्ञानपणे स्वतंत्रपणे षट्कारकपणे पर्याय परिणमे छे अने द्रव्य (ने) एनो कर्त्ता कहेवो-द्रव्यस्वभावने कर्त्ता कहेवो एपण उपचार ने व्यवहार छे.
आहाहा! समजाय एवुं छे हो! झीणुं छे माटे न समजाय एवुं नथी. समजाणुं? (कहे छे केः) ‘परंतु पुद्गलपरिणामना ज्ञानने’ भाषा छे भाई...! खरेखर तो ए परिणाम ज्ञान आत्माना य नथी. परिणाम परिणामना छे!! आहाहा... हा! पण... आंही समजाववुं छे एटले शी रीते समजाववुं?
‘रागनो कर्त्ता नथी’ एम समजाववुं छे. त्यारे. शुं, शेनो कर्त्ता छे? के रागसंबंधीनुं ज्ञान जे पोताथी पोतामां थयुं तेनो ते कर्त्ता कहेवामां आवे छे. ए पण भेदथी-व्यवहार (कथन) छे. गजब वात छे!! आवी वात, सर्वज्ञ सिवाय, संतो-वीतरागी संतो सिवाय क्यांय होय नहीं.
आहा... हा! पुद्गलपरिणामना ज्ञानने आत्माना कर्मपणे करता एवा पोताना आत्माने जाणे छे’ जोय्रुं? ए तो रागने जाणे छे एमे य नहीं’ रागना परिणामने आत्मा करतो, परिणामने जाणे छे, रागने जाणे छे एम नहीं. ‘व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान’ आवे छे ने...! ए अहीं लई लीधुं! पण आ तो बापा! एकेक अक्षर आतो सर्वज्ञनी वातो छे! सर्वज्ञना केडायतो-संतोनी वातुं बापा! आ कांई कथा नथी! वारता नथी!
(शुं कहे छे) ‘कर्मपणे करता एवा पोताना आत्माने जाणे छे? जोयुं? (एटले के) ई ओला परिणामने जाणे छे एम रागने जाणे छे एम नहीं. व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प ऊठयो! आहाहा! एनुं आंही ज्ञातापणे ज्ञान करे छे पर्यायमां. ए पण व्यवहारथी (कथन छे) अने परिणाम पोताना आत्माने
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१२६ श्री प्रवचन रत्नो-१ जाणे छे ए परिणाम पोताना छे, रागना नहीं ने रागथी थया नथी.
‘ए रागने जाणतो नथी ए परिणामने जाणे छे. समजाणुं कांई...? ‘एवा पोताना आत्माने जाणे छे’ - ई पर्यायने जाणे छे एम. आत्माने जाणे छे नहि के ए रागने जाणे छे.
आहा...! ‘ते आत्मा कर्मनोकर्मथी अत्यंत भिन्न’ - राग अने शरीरना परिणामथी अत्यंत भिन्न! ‘ज्ञानस्वरूप थयो थको’ - ज्ञानस्वरूप थयो थको -जाणवाना स्वभावपणे थयो थको भिन्न छे. समजाणुं?
आहाहाहा! ‘आ’ एनी मेळे वांचे तो, बराबर बेसे एवुं नथी. आहा...! कांईकनुं कांईक खतवी नाखे! एवीवात छे!
श्रोताः ज्ञानपरिणामने जाणे छे ज्ञानी के आत्माने? (उत्तरः) ए ज्ञानपरिणामने जाणे छे ए आत्माना परिणाम छे एथी आत्माने जाणे छे. ‘आ तो रागने जाणतो नथी एम बताववा’ आत्मा पोताना परिणामने जाणे छे ते आत्मा, आत्माने’ जाणे छे एम कीधुं ए परिणाम थयाने एना ‘पोताना आत्माने जाणे छे’ आहा... हा!
केम के ते ज्ञानना परिणाम स्वज्ञेयने जाणे छे अने परज्ञेयने जाणे छे, एम न कहेतां ते परिणाम स्वने जाणे छे ने पर नाम परिणामने जाणे छे- एटले ‘आत्माने जाणे छे’ एम कीधुं छे.
“शुं कह्युं ई? ते परिणाम स्वज्ञेयने जाणे छे अने ते परिणाम परिणामने जाणे छे, एथी आत्माने जाणे छे एम कहेवामां आव्युं छे!!” आहाहा... हा! आकरुं छे! गाथा ज अलौकिक छे!! समजणमां आवे छे के नहीं?
आहा... हा! ‘अत्यंत भिन्न छे’ ल्यो! रागथी भिन्न पण रागनुं ज्ञान जे थयुं छे, ए ज्ञानपरिणामथी पण (आत्मद्रव्य) भिन्न छे! ‘एवो ज्ञानी थयो थको, आत्मा ते ज्ञानी छे’ आहाहा! समजाणुं कांई...?
टीका...! धणी गंभीर छे, धणी गंभीर!! बहु ऊंडी, ओहोहोहो!! ‘पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान’ -भाषा आवे छे! ‘आत्मानुं कर्म कई रीते छे’ - ए रागनुं थयेलुं ज्ञान- छे तो ज्ञाननुं ज्ञान-पण आंही एने समजाववुं छे ने...! ‘पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान’ एटले के दया-दान-व्रत-भक्ति-स्तुतिनो जे विकल्प ऊठयो, एनुं ज्ञान! आहाहा! एनुं ज्ञान एने आंही थाय छे ने! एटले ते छे तो पोताथी स्वपरप्रकाशक!!
पण, ‘आछे’ एम लोकालोकनुं ज्ञान कीधुं ने...! तो लोकालोकनुं ज्ञान नथी खरेखर तो ज्ञानज्ञाननुं छे! समजाणुं कांई...? आहा. हा... हा!
(श्रोताः) परप्रकाशकज्ञान केवळज्ञानमां एनुं छे ने...? (उत्तरः) परप्रकाशक ए पोतानो स्वभाव छे. ए परने लईने प्रकाशे छे एवुं केवळज्ञान नथी. (श्रोताः) परसंबंधीनुं केवी रीते कीधुं? (उत्तरः) ए परसंबधीनुं कीधुं ए पोताने, पोतानुं स्वतंत्र ज्ञान छे. सर्वज्ञ स्वरूपमां ‘आत्मज्ञ’ छे. शक्तिमां लीधुं छे ने भाई...! त्यां. सर्वज्ञ ई आत्मज्ञ छे’ ई परज्ञ नहीं. आहाहाहा! सर्वज्ञ स्वभाव ज स्वनो स्वतः
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १२७ छे. ए पर्यायमां सर्वज्ञपणुं आव्युं, सर्वज्ञ एटले परज्ञ छे एम नहीं, ए ‘आत्मज्ञ’ छे. ई आत्मज्ञ, सर्वज्ञने, आत्मज्ञ कहेवामां आवे छे. आहा... हा! हवे! आवी वातुं क्यां!!
आहा..! ‘पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान’ एटले के दया-दान-व्रत-भक्ति आदिना परिणाम-राग, एनुं आंही ज्ञान. ए तो ज्ञाननुं छे ने....! ज्ञान, राग परनुं नथी छतां ए तो परनुं ज्ञान थयुं एम एने समजावे छे.
‘ए (पुद्गल) परिणामनुं ज्ञान’ (कीधुं पण) ज्ञान परिणामनुं नथी. ज्ञान तो ज्ञाननुं छे. पण ए संबंधीनुं त्यां जाणवामां आव्युं तेथी लोकालोक जाणवामां आव्यो (तेम कीधुं पण) लोकालोकनुं (ज्ञान) नथी, ज्ञान ज्ञाननुं छे!
आहाहा! ‘पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान’ आत्मानुं कार्य कई रीते छे ते समजावे छे? आहा... हा.. हा! ‘परमार्थे पुद्गलपरिणामना ज्ञानने अने पुद्गलने घट अने कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकभावनो अभाव होवाथी’ आहाहाहाहा!
‘पुद्गलपरिणामना ज्ञानने’ एटले राग थयो जे तेना ज्ञानने अने पुद्गलने एटले रागने घट अने कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकभावनो अभाव छे!
आहा... हा! कुंभार व्यापक अने कट व्याप्य नथी. एम रागना ज्ञानथी आत्मा व्यापक छे. पण पुद्गलनुं-रागनुं-परिणामनुं ज्ञान, माटे राग व्यापक छे ने ज्ञानपरिणाम व्याप्य छे, एम नथी. राग कहो के कर्म कहो-कर्म व्यापक थईने आंही ज्ञान थयुं आत्माने एम नथी. आहाहाहा!
‘परमार्थे पुद्गलपरिणामना ज्ञानने अने पुद्गलने’ आहा.. हा.. हा! ‘घट अने कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकभावनो अभाव होवाथी, कर्त्ताकर्मपणानी असिद्धि छे!
आहा...! कुंभार घटनो कर्त्ता नथी, एम रागना परिणामनो आत्मा कर्त्ता नथी. आहाहा.. आहा..! व्यवहार रत्नत्रयना रागनो कर्त्ता आत्मा नथी एम कहे छे. आहा.. हा! (श्रोताः) निश्चय छे? (उत्तरः) कंथचित ए व्यवहार छे. नियमसारमां कह्युं छे ने...! ई तो एम कहे छे व्यवहारथी परने जाणे छे अने व्यवहारथी स्वने न जाणे! पण व्यवहारथी स्वने न जाणे तन्मय थईने.
आवी वात छे बापु! समयसार तो समयसार छे! त्यां ई बीजी वात, छे ज नहीं. आहा..! ‘परमार्थे पुद्गलपरिणामना ज्ञानने अने पुद्गलने’ जोयुं...? रागने. ज्ञानने अने रागने ‘घट-कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकभावनो अभाव होवाथी’ आहा... हा! ‘कर्त्ताकर्मपणानी असिद्धि छे ‘-कर्म कर्त्ता अने ज्ञानना परिणाम तेनुं कार्य, एनो अभाव छे पुद्गलकर्म कर्त्ता-रागकर्त्ता अने रागनुं परिणाम तेनुं कार्य, एनो अभाव छे.
झीणो विषय छे आज धणो! आहाहा! आवुं छे! शांतिथी आ तो पकडाय एवुं छे. आहा... हा! ‘तेम आत्मपरिणामने अने आत्माने व्याप्यव्याक भावनो सद्भाव होवाथी’ जोयुं? आत्माना परिणामने एटले के ज्ञाननां परिणाम थयां तेने अने आत्माने, व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी - आत्मा व्यापक छे अने ज्ञानना, दर्शनना, आनंदना परिणाम जे थयां ते तेनुं व्याप्य
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१२८ श्री प्रवचन रत्नो-१ छे. तेनो सद्भाव छे. ‘कर्ताकर्मपणुं छे’ एटलुं छे’ एटलुं छे. आत्मा कर्त्ता अने ज्ञानना परिणामनुं कार्य एनुं व्याप्य, एटलुं छे! भेदथी.. आहाहा.. हा!
(कहे छे के) ‘आत्मद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी’ -भगवान आत्मा कर्त्ता एटले के स्वतंत्रपणे कर्त्ता होवाथी-स्वतंत्रपणे व्यापक एटले प्रसरतो होवाथी-कर्त्ता होवाथी, व्यापक एटले कर्त्ता ‘आत्मपरिणामनो एटले के पुद्गलपरिणामना ज्ञाननो कर्त्ता छे!
आहाहाहा! समजाववामां शुं आवे शैली! ‘आत्मद्रव्य स्वतंत्र व्यापक होवाथी’ आत्मपरिणामनो एटले वीतरागी परिणाम, ज्ञानना परिणाम, श्रद्धाना परिणाम, शांतिना परिणाम, आनंदना परिणाम-ज्ञानना परिणाम एटले आ बधां परिणाम कीधां ए एटले के ‘पुद्गलपरिणामना ज्ञाननो कर्त्ता छे’ - ए रागना ज्ञाननो आत्मा कर्त्ता छे. आहाहा! रागनो नहीं.
आहाहाहा! ‘अने पुद्गल परिणामनुं ज्ञान’ एटले रागनुं जे ज्ञान, समजाववुं छे ने...! ‘ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातुं होवाथी’ आहा.. हा! ‘कर्म छे - ते आत्मानुं कार्य छे. ‘पुद्गलपरिणामनुंज्ञान’ - एटले भगवाननी स्तुति आदिना रागनुं ज्ञान ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातुं होवाथी’ एटले ए आत्मा वडे स्वयं करातुं होवाथी व्यपातुं होवाथी एटले कार्य थतुं होवाथी ‘कर्म-कार्य छे!!
झीणुं भारे आव्युं भाई आज तो! (श्रोताः) फरीने लेवुं! (उत्तरः) हें? आवे छे ते शब्दो पुद्गलना! आहाहा! आवुं छे.
आहाहा! ‘वळी आ रीते ज्ञाता पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान करे छे’ भगवान आत्मा रागनुं ज्ञान करे छे. ‘तेथी एम पण नथी के पुद्गलपरिणाम ज्ञातानुं व्याप्य छे’ - ए रागनुं ज्ञान करे छे माटे राग ए पुद्गलपरिणाम एटले जे राग ए ज्ञातानुं व्याप्य एम नथी. आहा.. हा! फरीने ‘आ रीते ज्ञाता पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान करे छे तेथी एम पण नथी के पुद्गलकर्म, ज्ञातानुं व्याप्य छे’ - रागनुं ज्ञान करे छे माटे राग व्याप्य छे आत्मानुं एम नथी. रागनुं आंही ज्ञान करे छे माटे आत्मानुं व्याप्य-उत्पन्न थईने रागव्याप्य छे एम नथी. (अने) राग व्यापक-कर्मना परिणाम व्यापक छे ने ज्ञान व्याप्य छे, एम नथी.
आहा... हा..! आ समयसार!! (कहे छे) ‘व्याप्यरूप थतुं होवाथी आ रीते ज्ञाता-आत्मा पुद्गलपरिणामनुं एटले रागनुं ज्ञान करे छे तेथी ‘एम पण नथी’ रागनुं ज्ञान करे छे माटे पुद्गलपरिणाम आत्मानुं व्याप्य छे ज्ञान करे छे माटे राग आत्मानुं व्याप्य छे - रागनुं ज्ञान करे छे माटे राग, आत्मानुं कार्य-व्यापय छे एम नथी.
को ‘भाई...? आवुं झीणुं छे!! समयसार! समयसार!! आहा.. हा! ‘आ रीते आत्मा रागनुं ज्ञान करे छे तेथी, एम पण नथी के राग-द्वेष पुद्गलपरिणाम, ज्ञातानुं व्याप्य छे. आहाहा! ज्ञातानुं व्याप्य तो ज्ञानना परिणाम छे, रागनुं ज्ञान माटे ए ज्ञातानुं व्याप्य छे एम नथी.
आहा.. हा! (श्रोताः) राग तो पुद्गलपरिणाम छे! (उत्तरः) हें? ए वात पहेली क्यां हती? हवे टूंकुं करी नाखीने. पुंद्गलद्रव्य कही दीधुं. (श्रोताः) राग कर्म थयुं ने व्याप्य नहीं? (उत्तरः)
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १२९ रागनुं... नहीं, आंही रागनुं ज्ञान करे छे ने...! एम कीधुं ने...! रागनुं ज्ञान करे छे ने..! रागनुं ज्ञान करे छे, तो राग एनुं व्याप्य थयुं के नहीं? ना. आहाहाहा!
आहा.. हा! आवी वातुं छे बापु आकरी! एम पण नथी के पुद्गलपरिणाम ज्ञातानुं व्याप्य छे समजाणुं? हवे, पुद्गलपरिणाम कह्यां अत्यार सुधी, हवे, पुद्गलपरिणामने पुद्गल कहे छे. ‘भगवाननी भक्तिना भाव-स्तुतिना भाव पुद्गल’ छे’ आहाहाहा... हा! अभेद करी नाख्युं ने....? अभेद करी कहे छे. ‘कारण के पुद्गलने अने आत्माने’ - एटले के पुद्गलना परिणामने जे कह्युं हतुं ते पुद्गलने एम. ए पुद्गल कीधां ए पुद्गलने अने आत्माने ‘ज्ञेयज्ञायकसंबंधनो व्यवहार मात्र होवा छतां’ आहा... हा!
शुं कीधुं? रागने एटले पुद्गलने, अने आत्माने, ज्ञेय राग अने आत्मा ‘ज्ञायक’ छे, ‘एवो ज्ञेयज्ञायकनो संबंध व्यवहार मात्र होवा छतां’ आहा.. हा.. हा! ‘पण पुद्गलपरिणाम जेनुं निमित्त छे’ कोनुं? ज्ञाननुं. ज्ञान थाय छे ने तेनुं निमित्त एवुं जे ज्ञान (अर्थात्) पुद्गलपरिणाम जेनुं निमित्त छे एवुं जे ज्ञान’ आहाहाहा!
राग... ए पुद्गल! ए ज्ञानना परिणामने निमित्त छे. ‘एवुं जे ज्ञान ते ज ज्ञातानुं व्याप्य छे’-ते ज ज्ञातानुं कार्यने व्याप्य छे. आहा..! ते तेनी पर्याय छे, ते तेनुं कार्य छे, ते तेनुं व्याप्य छे!
आहा... हा! ‘माटे ते ज्ञान ज ज्ञातानुं कर्म छे’ ल्यो!! धणुं जमाव्युं हो? आहाहा! शुं कीधुं समजाणुं?
के, आत्मा ज्ञाता छे ने रागनुं ज्ञान छे माटे ते रागनुं-व्यापकपणुं ज्ञान पर्याय व्यापक थयुं ने...! रागनुं ज्ञान एम कीधुं ने... माटे राग, व्यापक थयो, आंही जाणवानुं थयुं ने...! पण... ज्ञाताना परिणाम ते व्याप्य ते आत्मानुं व्याप्य छे. ए पण भेदथी... छे.
बाकी तो, परिणाम जे ज्ञाताना छे, ते रागना नथी तेम द्रव्यगुणना नथी. आहा... हा! ‘ते परिणाम परिणामना छे’ छतां ज्ञातानुं ए व्याप्य छे एम कहेवुं ए व्यवहार छे आहा... हा... हा!
राग एनुं व्याप्य छे ए तो छे ज नहीं. ल्यो! ओहो...! बहु सरस! आहा... हा! टीका ते टीका छे ने!! अमृतचंद्राचार्य! आवुं! आहा...! वस्तुनी स्थिति एवी छे! वस्तुनी मर्यादा!! आहा...!
मर्यादा पुरुषोत्तम पुरुष आत्मा! ए पोताना ज्ञानपरिणामनो कर्त्ता!! रागनुं ज्ञान माटे, रागनुं व्याप्यज्ञान एम नहीं. ‘रागनुं ज्ञान’ एम कीधुं ने...! व्यवहार रत्नत्रय छे तेनुं ज्ञान कीधुं ने...! एटले के राग व्यापक अने ज्ञानपरिणाम व्याप्य एम नथी! आहा.. हा!
ए तो, ज्ञानपरिणाम व्याप्य अने आत्मा व्यापक! ए कीधुं ए सिद्ध कर्युं छे व्यवहारथी, ओलुं तो व्यवहारथी य नहीं.
आहा... हा... हा! ल्यो! विशेष कहेवाशे... (प्रमाणवचन गुरुदेव!)