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१३० श्री प्रवचन रत्नो-१
समयसार! पंचोत्तेर गाथा. ‘हवे पूछे छे के आत्मा ज्ञानस्वरूप अर्थात् ज्ञानी थयो एम कई रीते ओळखाय? आंही ज्ञानी तो थयो छे, एने पुद्गलकर्मना संयोगथी रागादि थाय, तेनो पण ‘जाणनार’ छे. एवो ज्ञानी कह्यो छे ने...! अनादिनो तो अज्ञानी हतो, आंही तो ज्ञानीपणुं कहेवुं छे ने..! सम्यग्ज्ञान थयुं छे, आत्मा परथी भिन्न छे अने वर्तमान पर्याय ज्ञाननी, अने रागथी भिन्न करीने, ए पर्यायने द्रव्यमां वाळी छे अने जेने अंतर सम्यग्ज्ञान थयुं छे- ज्ञाननीपर्यायमां पूरणज्ञेय ज्ञानमां जणाणुं छे, एने आंही ज्ञानी कहेवामां आवे छे. समजाणुं...?
एटले, आंही निर्विकल्प समाधिमां होय, त्यारे ज ज्ञानी कहेवाय, अने विकल्प ऊठे (ए ज्ञानी न कहेवाय) (श्रोताः) ज्ञानी, साधकने अधूरी दशा छे! (उत्तरः) छतांय एने राग होय ज नहीं, एम ए कहे छे, अबुद्धिपूर्वक होय, बुद्धिपूर्वक होय नहीं, एने ज्ञानी कहेवो-एम एणे कह्युं छे, (परंतु) एम नथी अहींया!
तेथी तो, पहेलो प्रश्न आ छे (शिष्यनो) के आत्मा ज्ञानस्वरूप-ज्ञानी थयो-धर्मी थयो एम केम ओळखाय? एनां चिन्ह शुं? एनां एंधाण शुं? एनुं लक्षण शुं? ‘तेनुं चिन्ह कहो’ तेनां लक्षण कहो, एम पूछे छे. अमृतचंद्र आचार्य कहे छे हो! ‘कथम् अयमात्मा ज्ञानिभूतो लक्ष्यत ईति चेत्’ – संस्कृत (मां) छे. ए जयचंद पंडितनुं नथी. झीणी वात छे!
‘ज्ञानी थयो थको’ केम ओळखाय? तेनुं लक्षण शुं? एटले, चोथागुण-स्थानथी ज्ञानी गणवामां आव्यो छे, ई वात पाठ सिद्ध करे छे.
ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी।। ७५।।
थाय छे खरा रागादि! ‘जाणदि सो हवदि णाणी’ शुं कीधुं समजाणुं? राग आदि थाय छे, निर्विकल्पमां ज पडयो छे तो एने जे ज्ञानी कहेवो एम नहीं. (ज्ञानीने) रागआदि थाय छे, पण ते रागनो ‘जाणनार’ रहे छे. राग मारो स्वभाव नथी. हुं एनाथी भिन्न छुं. एम ‘जाणनार’ रहे छे, अने राग होय छे.
तेथी... रागनो ‘जाणनार’ ने ‘रागनुंज्ञान’ छे ने ते आत्मानुं ज्ञान छे (ज्ञानीने) एम आव्युं ने...! (पाठमां) तो.. आंही तो राग छे बुद्धिपूर्वक! रुचिपूर्वक नहीं.
आहा... हा! धर्मी-सम्यग्द्रष्टि, एटले के ज्ञानी थाय, एने केम ओईखाय? तेनुं लक्षण शुं? एम पूछयुं छे. समजाणुं कांई...? आ तो फरीवार लीधुं छे.
परिणाम कर्म तणुं अने नोकर्मनुं परिणाम जे-ते नव करे जे, मात्र जाणे, ते ज आत्मा ज्ञानी छे. ७प.
आहा... हा! हवे, टीका!
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १३१
‘निश्चयथी’ - खरेखर ‘मोह’ एटले के पर तरफनी जरी रागनी दशा होय, पहेलुं ‘समुच्चय’ मोह लीधो छे, पण मिथ्यात्व न लेवुं. के पर तरफनो हजी भाव होय छे. ए ‘मोह’ समुच्चय कहीए चारित्रमोहनी वात छे. दर्शनमोहनी वात नथी आंही. ई अंदर परिणाममां पण तरफना वलणवाळो राग होय छे ए ‘मोह’ एना पेटाभेद, रागअने द्वेष अने सुख, दुःख - कलपना थाय छे सुख दुःअनी, ए ‘आदिरूपे’ अंतरंगमां उत्पन्न थतुं, जे कर्मनुं परिणाम’ -द्रव्यकर्मने भावकर्म बेय भेगां लीधां. जडकर्म जे छे ए द्रव्यकर्म छे अने एनां निमित्तथी थतां पर्यायमां मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख छे, ए अंतरंगपरिणाम ए कर्मना परिणाम छे, ए पुद्गना परिणाम छे! आहा... हा! आवी वातुं! अने, तमारो प्रश्न हतो के द्रव्यकर्म आमां क्यां आव्युं? पण द्रव्यकर्म-भावकर्म बेय आवी गयुं आमां.
आहा...! भगवान आत्म, ज्यां पोते रागथी तो भिन्न पडीने ने पर्यायने-ज्ञान पर्यायने, अंतरमां-सामान्यमां पर्यायने वाळी छे, एटले आमां विशेष पण आवी ग्युं ने सामान्य पण आवी गयुं. शुं कीधुं? राग नो आव्यो. रागथी भिन्न पडी अने ज्ञाननी पर्याय-विशेष जे छे ए विशेष- गुणनी विशेष ए पर्यायने, आम वाळी सामान्यमां, एटले विशेष नेसामान्य बेय आवी गयुं. राग भिन्न रही ग्यो!! आहा... हा! समजाय छे, झीणी वात छे भाई..?
विशेष जे ज्ञानपर्याय छे, एने रागथी तो भिन्न छे पर्याय! एथी रागथी तो भिन्न करीने ज्ञानपर्याय उपर लक्ष करी, ए पर्यायने वाळी ध्रुवमां!! उत्पाद थयेली पर्याय ज्ञाननी छे, एने- ध्रुवमां-वाळी! एटले के ध्रुव सामान्य छे, पर्यायने-विशेषने एमां वळी एटले विशेषने सामान्य बेय थई गयुं!
एटले, ओला वेदांती, एम कहे के विशेष छे ज नहीं. (आत्मा) एकलो कूटस्थ छे. तो कूटस्थनो निर्णय करनार कोण? आहाहा! समजाणुं कांई...?
वेदांत, सर्वव्यापकनो.. मोटो भाग अत्यारे छे ने..! पण ए ‘निश्चयाभासृ’ छे. केम... के वस्तु छे एकसमयमां त्रिकाळ! एनो निर्णय करनार ध्रुव क्यां छेल् एनो निर्णय करनार विशेष पर्याय छे. आहा... हा! ए अनित्य छे, पर्याय छे ई अनित्य छे, ए अनित्य छे ए नित्यने जाणे छे. ‘अनित्य छे ते नित्यनो निर्णय करे छे!’
आहा...हा...हा...! छे ने...? आहा..! एटले कहे छे के ‘खरेखर’ , आगळ ८७ गाथामां कहेशे. के मिथ्यात्वना बे भेद छे. आंही परिणाम मिथ्यात्वना! (अने) दर्शनमोहना रजकण. एवी रीते मिथ्यात्वना बे भेद, अव्रतना बे भेद, अज्ञानना बे भेद, क्रोधनादिना बे भेद, एम लेशे. त्यां तो फकत बेनी भिन्नता सिद्ध करवी छे.
आंही तो हवे रागनी भिन्नता करीने ज्ञान थयुं छे ते ज्ञान केवुं होय? एने आंही सिद्धि करवुं छे! समजाणुं कांई...? (समयसार) ८७ गाथा छे ने...! समजाणुं कांई..?
(समयसार गाथा ८७) ‘मिच्छतं पुणं दुविहं जीवमजीवं तहेव अणणाणं’ छे ने...! बे प्रकारना मिथ्यात्व, एक आत्माना परिणाम मिथ्यात्व (अने बीजुं) दर्शनमोह-जडना परिणाम मिथ्यात्व! जडना-अजीवना ने जीवना - एम बेय भिन्न पाडीने, भिन्न सिद्ध करवुं छे.
आंहीयां तो... भिन्न पडेलुं जेने ज्ञान थयुं छे, रागथी भिन्न पडेली ज्ञानपर्याय अने ए पर्यायने
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१३२ श्री प्रवचन रत्नो-१ जेणे, आम-सामान्यमां वाळी छे- जेने ज्ञान थयुं छे ए ज्ञाननुं लक्षण-एंधाण शुं? समजाणुं कांई?
आहा.. हा! गाथा बहु ऊंची छे! भाईए फरीवार लेवानुं कह्युं ते... ईनुं ई आवे एवुं कांई छे?!
छे तो चोथुं, पांचमुं, छठ्ठुं, सातमुं, एथी आंही आ प्रत्यक्षने सिद्ध करे छे. के राग आदि होय छे. अने ते संबंधीनुं ज्ञान, आंही ज्ञान करे छे. /ई छे तो पोतानुं ज्ञान, ए संबंधीनुं ए निमित्तथी कथन छे. छतां त्यां राग छे तेने ई जाणे छे, एटले के बुद्धिपूर्वक राग छे तेने ई जाणे छे–एटले के ख्यालमां आवे छे के राग छे एम. आ सद्भूत उपचारथी/ख्यालमां आवे छे के राग, छतां ज्ञानी, धर्मजीव, ए रागने ‘जाणनारो’ रहे छे.
केमके आत्मा ज्ञानस्वरूप छे एवुं ज्यां अंतर भान थयुं तेथी तेनी पर्यायमां ज्ञेय जे पूरणज्ञायक छे तेनुं ज्ञान थयुं. ए ज्ञाननीपर्यायना काळमां, राग जे होय छे एनुं पण ई स्वपरपंकाशक पर्याय होवाथी, ई ज्ञाननी पर्याय षट्कारकरूपे परिणमती उत्पन्न थाय छे! अरे... आवुं छे! झीणो मारग भाई...!
क्यां.. य.. रागथी पार ने एकसमयनी पर्यायथी पार... भिन्न अंदर? ७३ मां आव्युं ने...! अनुभूति भिन्न छे!
आहा.. हा! खरेखर तो अहींया ज्ञानी-भान थयुं आत्मानुं- जेने रागथी भिन्न पडी अने पर्यायने ज्ञायकत्रिकाळी! ज्ञायकस्वभाव! ध्रुव स्वभाव! त्रिकाळी एकरूप-ज्ञायकस्वभाव!! एनुं जेने वर्तमान पर्यायमां ते तरफ वाळीने ज्ञान थयुं छे तेने अहींया ज्ञानी कहेवामां आवे छे. आंही कोई आत्मा डरी जाय तो ज ज्ञानी छे, एम छे नहीं.
वस्तु ज एवी ई तो कहे छे अज्ञान छे, बारमा सुधी अज्ञान छे ने..! पण ई तो अजाणपणेओछुं ज्ञान छे एम छे, त्यां कोई विपरीणज्ञान छे एम नथी. समजाणुं कांई...? बारमा (गुणस्थान) सुधी अज्ञान कह्युं छे ई तो ओछुं ज्ञान छे एम कीधुं छे, विपरीत ज्ञान नथी.
आंही चोथे, सम्यग्दर्शन (थयुं) आंही तो ज्ञानी केम ओळखाय? एम प्रश्न कर्यो छे ने.. निर्विकल्पसमाधिमां रहेलो वीतराग केम ओळखाय एम नथी पूछयुं अहा...! जेने आत्मधरम! वस्तु शुद्ध चैतन्यधन! एवुं जेने रागथी भिन्न पडी अने पर्ययने अंतरमां वाळी छे. ए... पण पर्याय छे ने वाळुं छुं एवो भेद त्यां नथी पण समजाववामां शुं आवे? .. समजाणुं कांई...? पर्याय... जे परलक्षमां छे ए पर्यायतो त्यां रही गई, पछीती पर्याय द्रव्यमांथी थाय ने द्रव्य तरफ ढळे ए समय एक ज छे! आहा.. आरे... आरे... आवी वातुं छे.! वीतराग मारग बापा, अलौकिक छे भाई...!
आहा...! कहे छे, ए परिणाम जे कर्मनुं छे, पुण्य ने पाप, दया ने दान, व्रतने भक्ति आदिना परिणाम थयां. पण ए परिणाम कर्मनुं परिणाम छे, जीवनुं नहीं. केमके जीव जे छे ए अनंतगुणनो पिंड स्वभाव शुद्ध छे, तो जे अनंतगुण छे ए शुद्ध छे, तो शुद्धना परिणाम शुद्ध होय- एम आंही सिद्ध करवुं छे ने...! पर्यायमां अशुद्धता छे ई पछी सिद्ध करशे... समजाणुं कांई...? एनामां-पर्यायमां अशुद्धि पछी सिद्ध करशे.
आहा...! आंही तो जे वस्तु छे ए शुद्ध छे, अनंत, अनंत, अनंत गुणनो पिंड सागर प्रभु!
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १३३ ए बधा-अनंतगुणो शुद्ध छे अने तेथी तेनुं परिणमन पण शुद्ध छे. आहा...! ए गुणनुं परिणमन कोई विकृत छे एम होई शके नहीं.
एथी विकृत जे छे ए निमित्तने आधीन थईने थाय छे. एनुं ज ए होवा छतां अज्ञानी ई मारां छे एम माने छे. अने ज्ञानी निमित्तने आधीन थयेल होवा छतां, एने तेनामां राखीने, पोते तेनुं ज्ञान/एनी हयाति छे माटे करे छे एमेय नहीं. तेनुं ज्ञान एनी ज्ञाननी पर्यायमां–स्वनुं अने परनुं ज्ञान पोताथी पोतामां थयुं छे... तेने ते जाणे छे!
आहा...! रागने जाणे छे एम कहेशे.. पण खरेखर तो एने आम जाणे छे. (श्रोताः) एना थयेला ज्ञानने जाणे छे! (उत्तरः) ज्ञानने जाणे छे. (श्रोताः) अटपटुं छे! (उत्तरः) समजाय एटलुं समजवुं बापु! आ तो वीतराग त्रिलोकनाथ! तीर्थंकर देव! जिनेश्वरनी साक्षात् वाणी छे!!
(कहे छे केः) ‘निश्चयथी-खरेखर मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख आदिरूपे अंतरंगमां-’ अंतरंगमां (कह्युं) जोयुं? ई कहेता ‘ता ने काल... के खंडवामां सनावदनो भाई छे, ई कहे आ परिणाम छे ई जडना लेवां, जीवना विकारी परिणाम नो’ लेवा... कीधुं एम नहीं, एम नथी! आहा... हा... हा! आ तो ‘अंतरंग उत्पन्न थतुं’ (कह्युं छे) ए जीवना परिणाम विकारी छे, मोह, राग, द्वेष, सुख, दुःख आदि, ए कर्मनुं परिणाम छे. जीवनुं नहीं, ए जीवना परिणाम नहीं.
(श्रोताः) जीव तो शुद्ध परिणमे! (उत्तरः) जीव तो शुद्ध छे माटे एना शुद्ध परिणाम होय. ए आंही सिद्ध करवुं छे. कर्त्ताकर्म, सिद्ध करवुं छे ने...! तो आत्मा कर्त्ता थईने कर्म थाय, ए तो शुद्ध थाय. कारण शुद्ध! एनां गुणो शुद्ध, पवित्र, आनंदकंद छे ए तो. (आत्मा) तो अनंत-अनंत गुणोनो पार नथी, एवो भंडार छे! छतां अनंत गुणमां एक्केय गुण अनंता- अनंता-अनंता- अनंता-अनंता... गुणमांथी एक्केय गुण रागपणे थाय एवो कोई गुण ज नथी.
(श्रोताः) गुण रागपणे थाय तो मटे ज नहीं! (उत्तरः) मटे ज नहीं, गुण कोई रागपणे थाय तो, ई मटे ज नहीं. अशुद्ध जो द्रव्य थाय तो कोई दि ‘मटे नहीं. पर्यायनी अशुद्धता होय तो मटे छे. ध्रुव (आत्मद्रव्य) अशुद्ध होय तो (अशुद्धता) मटे ज नहीं, तो तो (आत्मा) अशुद्ध कायम रहे!
आहा...हा! धीमे.. थी... समजवानी वात छे बापु आ तो! वीतराग मारग छे भाई...! परमेश्वर त्रिलोकनाथ! जिनेश्वरनी वाणी सीधी छे ‘आ’! संतो द्वारा, बहार आवी छे.
आहा..! ए कर्मनुं परिणाम कीधुं, कोने? जीवमां थतां ज्ञानीने राग-दया-दान-व्रत-भक्ति- परमात्मानी स्तुति, ए बधां राग अंतरंगकर्मना परिणाम छे. आ.. हा.. हा.. !
आंही द्रव्यकर्म, भावकर्म बेय भेगुं! ई तो भाईए प्रश्न कर्यो’ तो ने पहेलां (के) जीव, द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्मथी रहित छे, तो पछी आमां भावकर्म-नोकर्मथी रहित आव्युं, द्रव्यकर्म क्यां आव्युं? पण... ई द्रव्यकर्म ज अहीं भावकर्मपणे परिणमे छे एम लेवुं छे आंही, एटले द्रव्य, भाव, नोकर्म त्रणेय आवी गयां. आहा... हा..! अरे... रे! आवी वात! लोकोने मळवी मुश्केल पडे! समजवी तो... आहाहा भगवान आत्मा, रागथी भिन्न पडी अने पर्यायने द्रव्यमां वाळी छे! जेनी ज्ञाननी पर्यायमां, आखुं-पूरण ज्ञेयनु ज्ञान थयुं छे, ए ज्ञानीने ज्ञाननुं लक्षण शुं होय? एम पूछयुं छे.
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१३४ श्री प्रवचन रत्नो-१
आहा...हा! तो... कहे छे के सांभळ प्रभु! ए कर्म जड छे. अने एनां निमित्तथी थयेलां उपादान/अशुद्धउपादानथी पर्यायमां-आत्मामां छे, पण आंही अशुद्धउपादाननुं कार्य, कर्मना निमित्तथी थतां, कर्ममां नाखी देवुं छे.
अने आंही शुद्ध उपादान भगवान आत्मा! एमां तो शुद्ध-वीतरागी परिणाम होय. आहाहा.. हा! एनो य कर्ता कहेशे ई उपचारथी छे. तो... विकारनो, परिणामनो कर्ता तो उपचारथी पण नहीं.. समजाणुं कांई...?
आहा.. हा! आ तो... गंभीर वाणी छे प्रभु!! ए कर्म परिणाम कीधुं. (हवे, कहे छे) ‘अने स्पर्श-आ शरीरमां छे. स्पर्श, रस, गंध, रंग अने शब्दवाणी, बंध- अंदर, संस्थान, स्थूलता, सुक्ष्मता एटले परमाणुओ, आदिरूपे बहार उत्पन्न थतुं- कर्मरूपे पर्याय जे थाय, शरीररूपे पर्याय जे थाय, मनना परमाणुंरूपे पर्याय थाय, वाणीना-शब्दरूपे परमाणुरूपे पर्याय थाय, ए बधुं बहार उत्पन्न थतुं/ ओलुं अंतरंग परिणाममां, आ बहारमां- जे नोकर्मनुं परिणाम, शरीर आदि, वाणीना पर्याय, ‘ते बधुं य पुद्गलपरिणाम छे’ - बेय! पहेलां कर्मना परिणाम कीधां ने आ नोकर्मना परिणाम, ए पुद्गलनापरिणाम छे. आत्माना नही!
आही..! ज्ञाननी व्याख्या छे ने आंही..! अहा.. आहा.. हा! ज्ञानी तो ज्ञानस्वभावने जाण्यो छे ते रागथी तो भिन्न जाण्यो छे, भिन्न जाण्युं छे एटले रागनो परिणाम ते जीवना परिणाम छे एम आंही नथी.
आहा... हा! ए बहार थतुं नोकर्मनुं परिणाम ‘ते बधुंय’ एटले कर्मपरिणम अने नोकर्मनुं परिणाम ‘ते बधुं य पुद्गलपरिणाम छे’ पुद्गलना परिणाम छे, जडना परिणाम छे! आहा.. हा!
(कहे छे) ‘परमार्थे-खरेखर,’ निश्चयथी लीधुं’ तुं ने पहेलुं एनां प्रश्न, परनां छे एम, एम ‘परमार्थे, जेम घडाने अने माटीने ज व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी’ शुं कहे छे? माटी छे ते पोते कर्ता छे -व्यापक छे अने धडो छे ते तेनुं व्याप्य छे -कर्म छे-तेनुं कार्य छे. समजाणुं कांई...? माटी छे ए व्यापक छे-प्रसरे छे, /एम आंही अत्यारे तो एम कहेवुं छे ने, बाकधी तो पर्याय पर्यायथी थाय छे.
तो माटी व्यापक छे एटले कर्ता छे एटले के बदलनार छे एवी जे माटी ई व्याक छे, अने घडो तेनुं व्यापय-कार्य-कर्म एनी दशा छे, धडो ए माटीनी दशा छे, ए कुंभारनी दशा नहीं, कुंभारनुं कार्य नहीं. आहा.. हा! समजाय छे?
काल आव्युं ‘तुं ए ज आवे, एवुं कांई छे! आहाहा.. आहा.. हा! ‘जेम घडाने अने माटीने व्याप्य/देखो व्याप्य पहेलुं लीधुं छे. व्याप्य- व्यापकभावनो’ देखो! धडो छे ते व्याप्य छे/ ए शब्द पहेलो लीधो छे. धडो व्याप्य छे व्याप्य एटले कार्य, कार्य एटले के पर्याय छे. कोनी...? माटीनी, व्यापक एटले माटी. माटी कर्त्ता अने माटी व्यापक, एनो धडो व्याप्य, अने कार्य एनुं छे ई माटीनुं! धडो ई माटीनुं कार्य छे, घडो ई कुंभारनुं कार्य नथी.
आहा... हा! आवो मारग छे!
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १३प
(श्रोताः) पण कुंभार परिणाम करतो देखाय छे ने...! (उत्तरः) कुंभारना परिणामनो ते ए कर्ता. घडना परिणामनो कर्ता, ए क्यांथी आवे? पर्यायने अडतो य नथी ने कुंभार तो ई घडानी पर्यायने अडतो य नथी! एक बीजामां तो अभाव छे! आहाहा...! आहा.. !! ई तो खरेखर तो कर्मनो उदय छे एने राग अडतो नथी, तेम राग उदयने अडतो नथी. एम राग स्वभावने य अडतो नथी माटे विभावनी उत्पत्ति कर्मथी थई छे एम कीधुं छे. बाकी तो कर्मनो उदय थ्योने आंही राग थ्यो एवुं कांई नथी, राग छे ते उदय-जडना उदयने अडतो नथी.
छतां... स्वभावनुं ए कार्य नथी, माटे ते विभावनुं कार्य, ए कर्मनुं कार्य छे एम कहीने कर्मना परिणाम कीधां छे! आहा.. हा! समजाणुं कांई...?
छे ने सामे पुस्तक? आ सांभळवानुं मळ्युं! काले कहेवाय गयुं हतुं ने..! फरीथी लीधुं. ‘आ’ आहा... हा! आ शरीरनी जे चेष्टाओ ने शरीरनी जे आकृति छे, ए बधां परमाणुओनां परिणाम छे. नोकर्म जे शरीर छे तेनां परिणाम छे. आहा..! आ सुंदरता देखाय ने आकर्षित देखाय, ई बधां परिणाम-पर्याय-कार्य, ते शरीरना रजकणो छे तेनुं ए कार्य छे. (श्रोताः) पुद्गलना परिणाम छे! (उत्तरः) हा, एनुं कार्य छे, ई एने आकर्षे छे! सुंदर छे शरीरने आ छे, आ छे.. रूपाळुं छे, सुंदर छे ने नमणुं छे! पण ए तो जडनी पर्याय छे ने प्रभु! ए तो पुदगल-जड-नोकर्मनी पर्याय छे. आहा.. हा! अने राग द्वेष दया-दान-व्रत-भक्तिना परिणाम, ए कर्मना परिणाम छे! के पर्यायमां उत्पन्न थयेलां, गुणमां ने द्रव्यमां ए नथी. तो ए पर्यायमां उत्पन्न थाय छे, ते निमित्तने आधीन थयेलां छे ते निमित्तना छे एम कहेवामां आव्युं छे. आहा..! शुद्ध उपादानने आधीन थयेलां ए नथी.
आहा...हा! शुद्ध जे ज्ञाता-द्रष्टा, अनंत गुणनो पिंड पवित्र प्रभु! एने आधीन थयेलां तो शुद्ध होय एवी... अशुद्धताना परिणाम जे छे अशुद्धनिश्चयनये तेने आंही व्यवहार कहीने, तेने निमित्त आधीन थयेलां कहीने, परमां नाखी दीधा छे.
आहा.. हा! भाई.. आवुं छे! आहा.. हा! आ तो ओगाळवा जेवुं छे बापु! आ तो.. अनंतकाळमां एणे कर्युं नथी, अरे.. रे! आवो मनुष्यभव अनंतकाळे मळे, एनी किंमतुं करीने करवा जेवुं तो ‘आ’ छे आहा..! बाकी तो बधी अज्ञानदशा!! कर्ताकर्म माने बहारमां रखडशे. आहा..!
आहा.. हा! ‘परमार्थे, जेम घडाने अने माटीने ज’ -धडो ते व्याप्य एटले काम छे, कार्य छे. माटी कारण छे ते व्यापक छे. ए कार्य-कारण भवनो ‘सद्भाव होवाथी’ -धडो ते कार्य छे ने माटी ते कारण छे. ए सद्भाव होवाथी ‘कर्ताकर्मपणुं छे’ - माटी कर्ता ने धडो तेनुं कार्य, कुंभार कर्ताने धडो तेनुं कार्य, एम नथी. आवी वातुं हवे! बेसारवी! रोटली थाय छे आ रोटली, ए रोटलीना परिणाम, जे लोट छे तेना छे. ए वेलणुं छे, तेनाथी ए रोटलीना परिणाम थया नथी. कारण के वेलणुं छे ते लोटने अडतुं’ य नथी.
केमके लोटना परमाणुओ वेलणांना परमाणुओ-बेय वच्चे अभाव छे. अभाव छे तेथी तेने अडता नथी. आहा.. हा! तेथी ते रोटलीना परिणाम, रोटली पर्याय छे ने...! ए परिणामनो कर्ता लोट, आ (रोटली) लोटना परमाणुओ छे. आ स्त्री कर्ता नहीं. तावडी कर्ता नहीं, अग्नि कर्ता नहीं, वेलणुं कर्ता नहीं..
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१३६ श्री प्रवचन रत्नो-१
आहा... हा! आवी वात! आवी छे! वीतराग मारग बापा! आ तो सर्वज्ञमां छे, बीजे क्यांय छे नहीं. वीतराग सर्वज्ञ सिवाय, अन्यमतमां ए वातनी गंधे’ य नथी! आहा...! (अत्यारे तो) जेना मतमां छे, ई ऊपज्या छे एने य खबर नथी, के शुं छे ‘आ मार्ग’!
आहा...! ‘घडाने अने माटीने व्याप्य-व्यापकभावनो व्यापय-व्यापकपणानो एम लीधुं छे सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे.
‘तेने-पुद्गलपरिणामने’-एटले दया-दान-पुण्य-पाप-व्रत-भक्ति आदि रागादिना परिणाम... ने अने शरीरना परिणामने. ‘अने पुद्गलने ज व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी’ आहा.. हा!
जेम माटीने अने घडाने कर्ताकर्मपणुं छे एम राग-द्वेषना, पुण्य-पापना भावने अने ‘पुद्गलने कर्ताकर्मपणुं छे’ -पुद्गलकर्ता अने रागद्वेष एनुं कार्य! पुद्गल व्यापक अने पुण्य-पापना, दया-दानना, व्रत-भक्तिना विकल्प ए व्याप्य, ए एनुं पुद्गलनुं कार्य छे!!
आहा. हा... हा..! आंही तो रागथी भिन्न पडयुं एवुं जे ज्ञान, ए ज्ञानीनुं लक्षण शुं? एम पूछयुं छे ने...! आहा..! धर्मी जे थयो-सम्यग्द्रष्टि थयो, एनुं शुं लक्षण ज्ञाननुं? आने ज्ञान थयुं, एनुं एंधाण शुं?
के जे रागादिना परिणाम थाय अने शरीरना परिणाम थाय-ए बधां पुद्गलना परिणाम छे तेने ज्ञानी ज्ञानमां रहीने रागने अडया विना ‘स्वपरप्रकाशकपणे परिणमे छे, ते ज्ञाननुं परिणाम ते ज्ञानीनुं कार्य छे, ज्ञानीनुं राग कार्य छे’ -एम नथी. आहा.. हा!
आहा...! ‘तेम पुद्गलपरिणामने’ एटले पुण्य-पापना भावने अने शरीरना परिणामने- बेयने पुद्गलपरिणाम कह्या छे. ‘अने पुद्गलने’ (एटले) कर्मना परमाणुने अने आ शरीरना परमाणुने ‘व्याप्यव्यापकभावनो सद्भाव होवाथी कर्ताकर्मपणुं छे’ -पुद्गल-कर्म जे जड छे ते कर्ता छे अने दया-दान-रागादि भक्तिना परिणाम ते कर्तानुं कार्य छे. (श्रोताः) राग-द्वेष आदिने रूपी कह्या छे?! (उत्तरः) रूपी शुं? जड कह्या छे, ए तो ‘पुद्गल’ आंही कहेशे. आंही हजी तो पुद्गलपरिणाम कीधां, पछी तो ‘पुद्गल’ कहेशे.
आहा.. जीवद्रव्य जुदो! पर्याय निर्मळ थई ते जुदुं! रागादिभाव जुदां! ए पुद्गल छे, एवी वातुं बापा! वीतराग.. भाग्यशाळीने तो काने पडे तेवी वात छे! बापा!! आ.. वस्तुस्थिति छे बापा! (श्रोताः) बीजे क्यांय नथी... (उत्तरः) साची वात छे बापा!
आहा.. हा! ‘पुद्गलद्रव्य स्वतंत्र (पणे)’ ए कर्म जे पुद्गल छे, शरीर जे पुद्गल छे ए स्वतंत्रपणे व्यापक होवाथी - ए कर्म पुद्गल छे ने शरीरना परमणु पुद्गल छे-बेय स्वतंत्रपणे व्यापक होवाथी, पुद्गलपरिणामना कर्ता छे’ आत्मामां ज्ञानीने जे राग-द्वेष थाय, ए ज्ञानीने थतां नथी, ए पुद्गल परिणाम छे ते पुद्गलथी थयेलां छे! आहाहा! छे? ए पुद्गल स्वतंत्रपणे-कर्ता लेवुं छे.. ने!
कर्त्ता एने कहीए के जे स्वतंत्रपणे करे (ते कर्ता) तो कर्मना पुद्गल, स्वतंत्रपणे पुण्य-पापने दाय-दान, व्रत-भक्तिना परिणाम करे छे, आहा.. हा! समजाणुं कांई...?
अरे! देह छूटी जशे, एकलो चाल्यो जशे. आ वात साची नहीं समजे सम्यग्ज्ञान नहीं थाय ते
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १३७ क्यां रहेशे भविष्यमां!! चोराशीना अवतारमां, अजाण्या धरे, अजाण्या क्षेत्रे अवतरशे!!
माटे कहे छे के ‘एकवार जाण, तुं तारा आत्माने’ आहा.. हा.. हा! भगवान आत्मा, शुद्धगुण संपन्न प्रभु छे ने भाई..! ए शुद्धगुण संपन्ननुं विकारी कार्य शी रीते होय? विकारी कार्य जे छे ए व्यवहारनेय ने अशुद्धनये छे ने एनामां...! ए व्यहारनयनो विषय जे छे ए कर्मथी थयो छे एम आंही सिद्ध करवुं छे. आत्माना शुद्धगुणोथी विकार शी रीते थाय?
एटले ‘पुद्गल स्वतंत्रपणे’ (करे छे) एम कीधुं पाछुं. कर्मना पुद्गलो स्वतंत्रपणे कर्ता थईने ए दया-दान ने भक्ति-व्रतना (आदि) भाव थाय छे! समजाणुं कांई...? कर्ता सिद्ध करवुं छे ने...! आ स्वतंत्रपणे करे ते कर्त्ता अने कर्त्तानुं इष्ट ते कर्म! कर्तानुं इष्ट-प्रिय ते तेनुं कार्य!! तो कर्म, कर्ता स्वतंत्रपणे छे, तेनुं पुण्य-पापना भाव विकार तेनुं इष्ट कार्य छे.
आहा.. हा! आत्माने पुण्य-पापना भाव इष्ट नथी. धर्मीने पुण्य-पाप इष्ट नथी. एथी धर्मीने ते इष्टकार्य जे कर्मनुं तेनो ते ‘जाणनार’ कहेवो, ए पण व्यवहारथी छे. (धर्मी-ज्ञानी) एनां ज्ञाननां परिणामने ते जाणे छे, रागने नहीं. आहा... हा.! आवुं स्वरूप छे!
थोडुं पण एने सत्य होवुं जोईए ने बापु! परमात्मा त्रिलोकनाथ, जिनेश्वरदेव, परमेश्वरनुं आ वचन छे!!
आहा.. हा! ईंद्रो ने गणधरोनी समक्षमां, भगवान बिराजे छे, ते वाणी आ रीते करी रह्या छे! आहा..! कुंदकुंदाचार्य (त्यां) गया, ‘आ’ बधुं सांभळ्युं, ज्ञानी तो हता, विशेष स्पष्ट थयुं!! आवीने ‘आ’ शास्त्र बनाव्यां! आहा...! भगवाननो ‘आ’ संदेश छे. त्रणलोकना नाथ, तीर्थंकरदेव, सर्वज्ञप्रभु! एनो ‘आ’ संदेश छे.. के जे कोई धर्मी अने ज्ञानी थाय, तेने जे रागना परिणाम थाय, ते रागना परिणामनो कर्त्ता, पुद्गल छे! अने ते पण.. आत्मानी कंई पण अपेक्षा राख्या विना, पुद्गल स्वतंत्रपणे कर्त्ता थईने, ते भगवाननी स्तुतिनो भाव, भक्तिनो भाव, रागनो भाव स्वतंत्रपणे करे छे. समजाणुं कांई...?
आहा..! ए’ पुद्गलपरिणाम!! (कहे छे केः) ‘पुद्गलद्रव्य स्वतंत्रपणे व्यापक होवाथी पुद्गलपरिणामनो कर्ता छे स्वतंत्र कीधो ने...! ‘अने पुद्गलपरिणाम ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातुं होवाथी आहा.. हा!
ए दया-दान-व्रतना-भक्तिना, भगवाननी भक्तिनो, जे स्तुतिनो जे राग, ए पुद्गल परिणाम ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातुं होवाथी - ए पुद्गल परिणाम-रागभाव व्यापक एवो जे एनाथी स्वयं व्यपातुं होवाथी स्वयं कार्य थतुं होवाथी-पुद्गलमां स्वयं कार्य थतुं होवाथी, आहा.. हा... हा आ काल तो आवी गयुं छे.
शुं कह्युं..? के ज्ञानी.. धर्मी.. एने कहीए, के जेने रागादिना परिणाम, दया-दान-भक्ति (आदिना) आवे ते परिणामने स्वतंत्रपणे कर्म कर्ता होवाथी, (एटले) ते पुण्य-पापना भावकर्मनुं कार्य कर्मनुं छे ए धर्मीनुं कार्य नहीं, ए सम्यग्द्रष्टि जीवनुं ए कार्य नहीं. आहा.. हा.
एक बाजु एम कहेवुं के ‘पंचास्तिकायमां’ (कह्युं छे के) जेटला दया-दान-व्रत-भक्ति, काम- क्रोधनां
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१३८ श्री प्रवचन रत्नो-१ परिणाम थाय, ते षट्कारकपणे जीवनी पर्यायमां पर्यायथी थाय छे. त्यां अस्तिकाय एनुं स्वतंत्रपणुं सिद्ध करवुं छे -परथी भिन्नपणुं सिद्ध करवुं छे. ६२ गाथा. विकारना परिणाम षट्कारकपणे (ऊभा थाय छे) द्रव्यगुणनी अपेक्षा विना, निमित्तनी अपेक्षा पण नहीं, ए विकारना परिणाम षट्कारकपणे पर्यायमां स्वतंत्रपणे (उपन्न थाय छे) विकारपरिणाम कर्ता, विकारपरिणाम कार्य, विकार (पोते ज) साधन, विकार अपादान (संप्रदान) विकार एनाथी, पोते राख्युं, विकारना आधारे विकार ए षट्कारक, एवा षट्कारक छे ‘पंचास्तिकाय-६२ गाथा’
मोटी चर्चा, वर्णीजीनी हारे थई’ ती. बावीस वर्ष पहेलां, ईसरी. कीधुंः आ प्रमाणे छे, तो ते कहे नहीं, नहीं, नहीं, ए तो अभिन्ननी वात छे. अभिन्ननी एटले शुं कीधुं. ए विकारी परिणाम एक समयमां मिथ्यात्वना थाय छे ए पण राग-द्वेषना परिणाम (उत्पन्न थाय छे) ए षट्कारकनुं परिणमन पर्यायनुं पर्यायमां छे ए पर्यायने द्रव्यगुणनी अपेक्षा नथी, ए विकारने कर्मना निमित्तनी अपेक्षा नथी. आहा.. हा! एटलुं त्यां सिद्ध करवुं छे, एनामां छे. एक!
(बीजुं) ‘प्रवचनसारनी १०२ गाथामां’ ए विकारी परिणाम थाय, ते.. ते, ते समये तेनो उत्पन्न थवानो काळ छे, जीवमां जे समये जे कांई मिथ्यात्व-रागादि थाय, ते समये ते उत्पन्न थवानो ते जन्मक्षण छे, उत्पत्तिनो ते काळ छे, एम सिद्ध कर्युं छे. बे!
त्रीजुं, ए काळलब्धिने कारणे जीवने ते, ते प्रकारना राग ना परिणाम थाय, ते काळे ज थाय, ते काळलब्धि छे एम कीधुं छे. त्रण!
चोथुं ‘आ’ तेतो तेनुं अस्तित्व तेनामां छे एम सिद्ध कर्युं. हवे ज्ञानी जे थयो, ते ज्ञानी छे ते रागना परिणामथी भिन्न पडीने पोतानी ज्ञाननी पर्यायने ज्ञायकमां वाळीने.... आहा... हा! ए कांई ओछो पुरुषार्थ छे! (श्रोताः) अनंतो पुरुषार्थ छे! (उत्तरः) आहा.. हा! जेनी दशानी दिशा फरी गई, जेनी ज्ञानपर्यायनी दशानी दिशा फरी गई, अंदर गई!!!
आहाहा! एवा ज्ञानीने जे कंई राग एना परिणाममां देखाय छे-दया... दानना... भक्तिना.. व्रतना... स्तुतिना... पूजाना ए परिणामने, पुद्गलकर्म स्वतंत्रपणे व्यापक होवाथी, परनी एने कोई अपेक्षा नथी/नबळाई कर्मनी छे आत्मानी माटे आंही थया ए आंहीं अपेक्षा नथी. (ए परिणामने पुद्गलकर्म स्वतंत्रपणे करे छे)
आहा.. हा! ए पण आंही ज्ञानीथी वात लीधी छे, आंही कांई निर्विकल्प समाधिवाळो छे एनी आंही वात लीधी ज नथी, आंही गाथा! ‘कर्त्ता-कम’ मां ए बधो अधिकार छे कोई एम कहे छे निर्विकल्प समाधिमांथी खस्यो एटले ज्ञान नहीं अज्ञान!
भाई...! मारगडा अंदर जुदा!! आहा.. हा.. हा! आहा.. हा! ‘अने पुद्गलपरिणाम ते व्यापक वडे स्वयं व्यपातुं होवाथी’ -शुं कीधुं? पहेलुं कर्ता कह्युं के पुद्गलद्रव्य जे कर्म छे ते स्वतंत्र व्यापक थईने पुद्गलपरिणाम ऊभा थाय छे तो (हवे) कर्म सिद्ध करवुं छे. ‘अने पुद्गलपरिणाम ते व्यापक वडे’ एटले कर्मना-पुद्गलना प्रसरवा वडे-कर्ता वडे ‘स्वयं व्यपातुं होवाथी’ - ए राग आदि पुण्य-दया-दान आदिना भाव ए स्वयं पोते पोतानुं कार्य थयुं होवाथी-
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १३९ व्याप्यरूप थतुं होवाथी कर्म छे. आहा.. हा... हा! (श्रोताः) पुद्गलनुं कार्य कह्युं? (उत्तरः) ए पुद्गलनुं कार्य छे. भगवाननी स्तुति करवी कहे छे. पर छे ने...! एनो राग.. ए कर्मनुं कार्य छे! कर्म स्वतंत्रपणे करीने कर्ता थयेलो छे, ई एनी (जीवनी) नबळाई छे माटे थयेलो छे एम नथी.
अहींयां तो ज्ञानीने ज्ञाननी सबळाई छे. ‘जाणनार-देखनार’ ऊभो थयो छे एथी ते रागना परिणामने कर्मनुं कार्य गणी, रागनुं ज्ञान करनारो ज्ञानी छे एम कहेवुं ई पण व्यवहार छे (अने) ए ज्ञानना परिणामने करे छे एम कहेवुं हजी ए य व्यवहार छे. ‘ज्ञानपरिणाम ज्ञान करे छे’ ते निश्चय छे.
आहा... हा! आवो छे बापु मारग! बहु ऊंडो मारग छे! आहा..! ऊंडो ने गंभीर!! आहाहा! (अज्ञानी कहे) व्यवहारथी निश्चय थाय, अरे बापु! आ शुं कहे छे? एवुं होय! निरूपण करे, जगतमां बधुं होय छे अनेक मत, संप्रदाय छे! ए होय छे एनुं कांई नहीं! आहा.. हा!
आंही तो... परमात्मा! त्रणलोकना नाथ! एनी वाणीमां आव्युं, ए संतो आडतिया थईने जगतने जाहेर करे छे! ‘माल’ भगवानना धरनो छे, तीर्थंकरदेव परमेश्वरनो, ई संतोए ए ‘मालने’ केटलो’ क लीधो छे अने ए अनुभवी थईने वात करे छे, पूरण तो सर्वज्ञ छे!
आहा... हा! ‘अने पुद्गलद्रव्य वडे स्वयं व्यपातुं थकुं’ जोयुं? ए विकारना परिणाम स्वयं कार्य कर्मनुं थाय छे. ओहोहो! चोवीस तीर्थंकरनी स्तुति करी छे ‘स्वयंभूस्तोत्र’ मां समंतभद्रआचार्ये, पण कहे छे के परनी स्तुति छे ते विकल्प छे. त्यां लख्युं छे पाछुं. आहा..! ए... रागना परिणामनुं व्याप्य थवाथी, व्यापक पुद्गलनुं ते कार्य छे. आहा...! अरे..! आ मारग एवो बापा शुं थाय? भाई...? समजाय छे ‘आ’ ए मुंबई-मुंबईमां क्यांय न मळे! तमारा वेपार धंधामां, पैसा- बैसामां! करोडपति कहेवाय, करोडोपतिने आ बधुं लांबुलपसींदर... करोडपति! लोको कहे, पति.. ने पण ए करोडनो ने...! जडनो.. ने! जडनो पति तो जड होय, भेंसनो धणी पाडो होय!! (श्रोताः) दुनियामां एने डाह्या कहे छे! (उत्तरः) दुनियामां गांडा बधा! तो एमां तो बोल बोला ज हाले ने...!
आहा... हा! ‘स्वयं व्यपातुं होवाथी’ व्याप्यरूप थतुं होवाथी कर्म छे’ ‘तेथी पुद्गलद्रव्य वडे कर्ता थईने’ , - ए कर्म वडे कर्ता थईने, शरीर वडे कर्ता थईने, ‘कर्मपणे करवामां आवतुं’ (अर्थात्) कार्यपणे जे करवामां आवतुं समस्त कर्मनोकर्मरूप पुद्गलपरिणाम’ -समस्त रागादिना परिणाम ई कर्मना अने शरीरना परिणाम ई नोकर्मना ए पुद्गलपरिणाम ‘तेने जे आत्ममा, - आहा...! तेने जे आत्मा! पुद्गलपरिणामने अने आत्माने’ आहा.. हा! बाकी बहेशे थोडुं ‘क, परमदि’ पाछा आववाना छे. काल तो आठम छे ने...! ए आववाना छे ने बधा, एना साटु बाकी छे ने काल!
आहा...! शुं कीधुं? ‘कर्मनोकर्मरूप पुद्गल परिणाम’ एटले रागना दयाना, भक्तिना, स्तुतिना परिणाम, ए कर्मना परिणाम, आत्माना नहीं. अने शरीरनी हालवा-चालवानी पर्याय, बोलवानी पर्याय एनो कर्ता परमाणुं एनां (शरीरना-नोकर्मना) ए पुदगलपरिणाम, तेने जे आत्मा पुद्गलपरिणामने अने आत्माने घट अने कुंभारनी जेम व्याप्यव्यपकभावनो अभाव (होवाथी)’ जोयुं? पहेला सद्भाव कह्यो पछे पाछुं अभाव कह्यो!
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१४० श्री प्रवचन रत्नो-१
जेम माटीने अने घडाने सद्भाव संबंध छे, एम आत्माने अने रागने कर्ताकर्मपणानो सद्भाव संबंध नथी. आहा.. हा!
ए वाते वाते फेर! आवो मारग! मनुष्यपणुं हाल्युं जशे! बापा! एनी स्थिति पूरी थशे के खलास! पछी तें शुं कर्युं? ए परिणाम तारा तारी हारे रहेशे! आहा..! आंही तो पांच, पचीस, पचास वरस छे धूळमां...! अनंतकाळ भविष्यमां छे! ई आ रागना परिणाम मारुं कार्य छे ने शुं कर्ता ए अज्ञानभाव छे!
केमके प्रभु (आत्मद्रव्य) शुद्ध छे, त्यां कर्ताकर्मपणुं क्यांथी आवे (विकारनुं) ? शुद्ध छे तो शुद्धनुं कार्य अशुद्धता होय शी रीते? ए अपेक्षाए अशुद्धनुं कार्य अशुद्धनिश्चनये कही, व्यवहार कहीने निमित्त पुद्गल छे ते पुद्गल राग करे छे एम कह्युं!
आहा.. हा! ‘घट अने कुंभारनी जेम’ ई पुद्गलपरिणामने अने आत्माने, ए दया-दान- व्रत-भक्ति-स्तुति आदिना परिणामने अने आत्माने, घट अने कुंभारनी जेम व्याप्यव्यापकभावनो अभाव होवाथी, आहा.. हा! ए व्याप्य नाम कार्य, जेम घट व्याप्य अने कुंभार व्यापक नथी, एम पुद्गलपरिणाम ए व्याप्य अने आत्मा व्यापक एम नथी.
ए.. पुद्गल व्यापक अने रागादि तेनुं व्याप्य छे. समजाणुं कांई..? आहा.. हा! हवे आवे छे! ‘कर्ताकर्मपणानी असिद्धि होवाथी’ -कर्ताकर्मपणानी असिद्धि, तो परमार्थे आत्मा करतो नथी. आहा.. हा! ए दया-दान ने भक्तिने स्तुतिना परिणामनो परमार्थे- साचीद्रष्टिथी आत्मा कर्ता नथी.
विशेष कहेवाशे... (प्रमाण वचन गुरुदेव!)