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श्री प्रवचन रत्नो-१ ६९
(कहे छे के) ‘वळी दाह्यना, बळवायोग्य पदार्थना आकारे थवाथी अग्निने दहन-बाळनार कहेवाय छे’ - अग्नि, बळवायोग्य पदार्थने आकारे थवाथी, ते अग्निने ‘बाळनार’ एम कहेवामां आवे छे, जाणे के परने बाळतो होय! एम कहेवामां आवे, कहेवामां आवे! तोपण दाह्यकृत अशुद्धता तेने नथी’ - जे अग्नि, बळवालायक (पदार्थ) रूपे थई, तेथी ते बळवालायक पदार्थने कारणे, अग्नि ए (ना आकारे थई, एम नथी.
ए अग्नि, पोते ज पोताना स्वभावथी, पोताने प्रकाशती अने परने प्रकाशती (ते) पोते ज परिणमे छे अग्निरूपे, अग्निरूपे ए बाळे छे एने आकारे ए (अग्नि) थयो, माटे एटली पराधीनता (अग्निने) थई, एम नथी. (त्यां तो) अग्नि, पोते ज पोते पोताना आकारे परिणमेली छे.
‘ज्ञेयाकार थयो, ए ज्ञानाकार पोतानो छे.’ आवुं छे! छे ने? (श्रोताः) हा, जी. ‘तो पण दाह्यकृत अशुद्धता तेने नथी’ तेवी रीते ज्ञेयाकार थवाथी ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी’ - ज्ञायक, जेनो जाणक स्वभाव (एटले के) पोताने जाणवुं. अने ई बीजी चीजना आकारे ज्ञान परिणम्युं-ज्ञेयाकार थयेल ज्ञान, ते ज्ञायकभावने ज्ञायकपणुं प्रसिद्ध छे (एटले) ‘जाणनार’ छे एवुं प्रसिद्ध छे. ‘तोपण ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी.’ ‘जाणनार’ जणावायोग्यने आकारे थयुं ज्ञान, छतां तेने जणावायोग्यने कारणे, ई (ज्ञाननी) पर्याय थई, एम नथी.
आहा.. हा! ए तो ज्ञानाकाररूपे परिणमन ज पोतानुं (ज्ञायकनुं) ए जातनुं छे. (एमां) परनुं जाणवुं छे अने परने जाणवानो पर्याय थयो ई (ज्ञानपर्याय) पोतानो, पोताथी थयो छे, परवस्तु छे ई रागादि तेथी अहींयां राग ने परनुं ज्ञान थयुं, एम नथी.
आहा.. हा! त्यां सुधी तो आव्युं’ तुं! (कहे छे) ‘कारण के ज्ञेयाकार अवस्थामां’ - ‘जे ज्ञान छे’ ज्ञेय जणाय ए जणावालायक पदार्थ, ते पदार्थने आकारे, अवस्थामां-ए ज्ञेयाकार अवस्थामां, ज्ञायकपणे जे जणायो, ए तो ज्ञायकपणे जणायो छे, परपणे जणायो छे, एम छे नहीं..! आहा.. हा! जाणवाना प्रकाश काळे, ज्ञेयने-रागने जाणतां छतां, ए रागने आकारे ज्ञान थयुं एम नथी. एने कारणे (ए आकार) नथी. ए पोतानो स्वपरप्रकाश स्वभाव छे, स्वने प्रकाशे छे ने रागने प्रकाशे छे, ए स्वनीप्रकाशशक्तिने कारणे प्रकाशे छे!! ए रागने कारणे परने प्रकाशे छे (के) ज्ञेयाकार. ज्ञेयने कारणे अशुद्धता- पराधीनता थई एम नथी. आहा..! आवुं छे!
न्यायनुं तत्त्व झीणुं बहुं! आहा.. हा! छे? (कहे छे केः) ‘ज्ञेयाकार अवस्थामां ज्ञायकपणे जणायो’ जोयुं? त्यां रागनुं ज्ञान थयुं एम कहेवुं ते व्यवहार छे. ए रागसंबंधीनुं ज्ञान (कहेवाय ते) ज्ञाननुं ज्ञान अहींयां पोतानुं थयुं छे आहा... हा!
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७० श्री प्रवचन रत्नो-१
(श्रोताः) पोतानुं ज्ञान कहेवुं ए भेद थयो ने? (उत्तरः) भेद छे ने..! एटलुं कर्त्ता-कर्मपणुं सिद्ध करवुं छे ने..! केम के आंही तो कर्ता पर्यायने सिद्ध करवी छे. स्वने जाणनारुं ज्ञानने परनुं जाणनारुं ज्ञान, ए स्व-परप्रकाशक ज्ञान, ते आ ज्ञायकनुं कार्य छे, कर्म छे, ने आत्मा तेनो कर्त्ता छे. अहा..! राग छे.. एनुं ज्ञान आंही थयुं माटे राग कर्ता छे ने ज्ञेयाकार-रागने आकारे ज्ञान थयुं ते रागनुं कार्य छे, एम नथी! झीणी वात छे बापु! बहु.. आहा.. हा!
आहा.. हा.! आचार्ये एम कह्युं हतुं ने..! मारो अने परनो मोह हणावा माटे हुं कहीश’ ए अमृतचंद्राचार्ये एमांथी काढयुं, ज्यां पोते काढयुं त्रीजा श्लोकमां. के हुं आ टीका करुं छुं तेमां मारी शुद्धता थजो, केमके अनादिनी मने अशुद्धता छे, मुनि छुं-आचार्य छुं पण हजी अशुद्धतानो अंश अनादिनो छे ए आ टीकाना काळमां-पाठ एवो छे के टीकाथी.. -पण, एनो अर्थ ए छे के टीकाना काळमां मारुं लक्ष ध्रुव ध्येय उपर छे, एनां जोरमां अशुद्धता टळजो,! , एम आचार्य पोते कहे छे, के ‘हुं जे आ समयसार कहीश, ए मारा भाव अने द्रव्यश्रुतिथी कहीश’ अने भाववचन अने द्रव्यवचनथी कहीश. आहा..! सामाना (सांभळनाराना) द्रव्यवचन अने द्रव्यश्रुति नथी कीधी. (जो के) सामामां तो अनंत सिद्धने स्थाप्या छे, ए स्थाप्या छे एटले के जे स्थापे छे, तेने स्थाप्या छे- एम कहेवामां आवे छे.
आहा.. हा! अहींयां तो कहे छे जे आ ‘वंदितु सव्वसिद्धे’ -सर्व सिद्धोने स्थाप्या छे में मारी पर्यायमां, एनुं नाम ‘वंदितुं सव्वसिद्धे’! केमके ध्येय जे-साध्य जे आत्मा!! एना ध्येयना स्थाने सिद्ध छे, माटे सिद्धने हुं नमस्कार करुं छुं, एटले के सिद्धने हुं मारी पर्यायमां स्थापु छुं. ए मारी पर्याय, पोते सिद्धपणाने पामशे! अने पर्याय, सिद्ध एवी मारी थई, ते तरफ जशे ज माटे हुं एने वंदन करुं छुं, माटे में मारी पर्यायमां एने स्थाप्या छे!
आहा..? अने श्रोताओ पण.. बधा श्रोताओ एम नहीं (परंतु) जे श्रोताओ! जेमणे पोतानी ज्ञाननी पर्यायमां अनंता सिद्धने स्थाप्या एम में कह्युं पण ए (श्रोता पोते) स्थापे ज्यारे, एनी एकसमयनी अल्पज्ञ अवस्था, एने एणे (श्रोताए) ज्ञेय करीने सांभळ्युं, सांभळीने पर्यायमां लीन थई (पर्यायने एकाग्र करीने) सिद्धने ए स्थापे, एटले के रागथी पृथक थईने, ज्ञाननी पर्यायमां स्थापे (अर्थात्) एनुं लक्ष, जेम ‘अरिहंतना द्रव्यगुणपर्यायनो जाणनारो पोताने जाणे’ - एम कह्युं, एम अनंता सिद्धोने जेणे (पोतानी) पर्यायमां स्थाप्या, एने अनंता सिद्धोने पर्यायमां जाण्या!!
आहा.. हा! एकसमयनी ज्ञाननी पर्याये अनंता सिद्धोने जाण्या!! ई तो एक अरिहंतने जाण्या कहो के अनंत अरिहंतने जाण्या कहो-एम एक सिद्धने जाण्या कहो के अनंत सिद्धने जाण्या कहो, बधुं एक ज छे. ए अनंता सिद्ध जे अल्पज्ञ अवस्थामां जाण्या, अनंत जे सर्वज्ञो छे एने स्थाप्या आंही मारामां, ए तो मारी वात रही (आचार्ये कह्युं पण) में परमां स्थाप्या (कह्युं) पण ए स्थापे त्यारे (में) परमां स्थाप्या एम व्यवहार कहेवामां आवे छे.
आहा... हा! एनी अल्पज्ञ दशामां, अनंता सर्वज्ञोने ‘वंदितुं’ – वंदे छे एटले के स्थापे छे आहा.. हा! ए अनंता सिद्धोने जे पर्याय जाणे-स्थापे ए पर्याय, विवेक करीने द्रव्य तरफ ढळ्या विना रहे नहीं, आहा.. हा! आवी वातुं छे! घणी गंभीर!! गाथामां जेम जेम ऊंडुं जाशे ने... एनां
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ७१ तळियां झीणां बहु!
एवा श्रोताओ जे छे के जेणे पर्यायमां अनंता सिद्धोने पोतामां पोते पोताथी स्थाप्या छे. ‘में स्थाप्या छे’ - (एम) आचार्ये कह्युं, ए तो निमित्तथी (कथन) छे.
आहा.. हा! एवा श्रोताओने, सिद्धपणुं पोतानुं स्वरूप छे, तेनी द्रष्टि थाय छे. अने ते (स्वरूप) श्रुतकेवळी अने केवळीए कहेलुं छे. तो ई (पोतामां सिद्धोने स्थापनार श्रोता) पण श्रुतकेवळी थशे ज, श्रुतकेवळी एटले समकिती! जेणे अनंता सिद्धोने पोतानी अल्पज्ञ पर्यायमां स्थाप्या छे..!! अरे, बापु! ए कंई वात छे!
आहा..! जेनो पर्याय अल्पज्ञ-एक समयनो (अनुभवमां) भले असंख्य समय थाय-अनंता सिद्धोनुं ज्ञान करे अने पर्यायमां स्थापे के राखे! (एटले के) जेनी पर्यायमां अनंता सिद्धो रहे आहा.. हा! एवुं जेणे पोते कर्युं, एवा श्रोता (अहींयां) लीधा छे. आहा.. हा.. हा..! बाकी तो आम... अनंतवार भगवान (अरिहंतदेव) पासे गयो ने वात- (दिव्यध्वनिमां) सांभळ्युं छे, अनंतवार गयो! आम अनंतवार भगवान पासे तो सांभळ्युं छे! पण, जे श्रोता, पोतानी एकसमयनी अल्पज्ञअवस्था होवा छतां.. अनंता सर्वज्ञो-सिद्धोने अल्पज्ञमां स्थापे छे-राखे छे, एनुं लक्ष अने द्रष्टि (निज) द्रव्य उपर जशे. अने तेना लक्षे सांभळशे ए सांभळतां, तेनी अशुद्धता टळी जशे. ए लक्षने कारणे, सांभळवाना कारणे नहीं. समजाणुं कांई..?
(टीकाकार आचार्यदेव कहे छे) अने मारो मोह पण टळी जशे, मारो मोह अनादिनो छे, त्रीजा श्लोकमां (कळशमां) एम कह्युं के मारामां मोह-अनादिनां कलुषित परिणाम मारामां छे. (अविरतम् अनुभाव्य–व्याप्ति–कल्माषिताया] आहा.. हा! आचार्य छे! संत छे!!
आहा.. हा.! एक बाजु एम कहेवुं के सम्यग्द्रष्टिने राग छे ज नहीं, दुःख छे ज नहीं-ई तो कई अपेक्षाए?
अनंतानुबंधी अने मिथ्यात्वनी अपेक्षाए सम्यग्द्रष्टिने राग अने दुःख नथी. (परंतु) आहा...! अहींयां तो आचार्य पोते कहे छे, अरे! कुंदकुंदाचार्य! आ गाथाना अर्थनी टीकां करतां (अमृतचंद्राचार्य) पोते कहे छे के मारामां मोह छे. ए मोह क्यारनो छे? अनादिनो छे. पहेली गाथामां कह्युं छे के मारो मोह अनादिनो छे. आहा.. हा! ए ज वात त्रीजा कळशमां अमृतचंद्रचार्ये लीधी छे. ए मोह मारामां, अस्थिरतानो हो? सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र तो छे, मुनि छे ने! आनंदनो अनुभव छे. तेनी साथे थोडो राग, अनादिनो छे. गयो छे ने थयो छे, एम नथी. आहा... हा... हा! आवी रीते श्री कुंदकुंदाचार्यनी गाथानी टीका करनार श्रीअमृतचंद्राचार्य कहेछे, के श्री कुंदकुंदाचार्य आम कहेवा मागे छे. पण प्रभु! तमे क्यां एमना ज्ञानमां-हृदयमां वया ग्या!! तमे? के भई.. जेम वस्तुनी स्थिति छे एम अमे कहीए छीए.
आहा.. हा! पोतानो भगवान अरिहंतना द्रव्य-गुण-पर्यायने जाणे!! ए जाणनारो (पोताना) आत्माने जाणे-एम कह्युं.
तो, आ तो अनंता सिद्धना पर्यायने जे जाणे एटले के स्थापे. आहा.. हा! एने सम्यग्दर्शन, स्वना
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७२ श्री प्रवचन रत्नो-१ लक्षे, थया विना रहे नहीं. अने ते श्रुतकेवळी एटले समकिती. -श्रुतकेवळी एटले बार अंग ने चौद पूर्वना विशेष ज्ञानवाळो एनुं कांई नहीं-ए श्रुतकेवळी थाय, अने पछी केवळी थशे! आहा.. हा.. हा! गजब वात छे ने..!!
ल्यो! आ सिद्धांत कहेवाय, एक-एक श्लोकनो पार आवे नहीं, एनी गंभीरता! संतोनी! दिगंबर मुनिओ!! एनी वाणी! ए वाणीमां गंभीरता न ऊंडपनो.. पार न मळे!!
ए अहींयां कहे छे, के ज्यारे आत्माने अमे ‘ज्ञायक’ कह्यो अने ज्ञायकपणे’ ‘ज्ञायक’ जणायो, तो ‘जाणनारने तो जाण्यो’ पण ‘जाणनार’ छे एम कहेवाय छे तो परने पण जाणे छे एम थयुं! .. के परने जाणे छे भले एम कह्युं; पण खरेखर तो पर छे एने जाणे छे, एम नथी.
पर-रागादि छे, तेने (जाणनारो) जाणे छे, ए रागने लईने जाणे छे एम नथी! पण ई ज्ञाननी पर्यायनुं स्व–परप्रकाशक सामर्थ्य ज एवुं छे पोते, पोताने जाणे छे, ज्ञायक भावपर्यायनी वात छे हो! द्रव्यने तो जाणे छे. आहा.. हा! गजब वात छे!! वस्तुस्वरूपचिदानंदप्रभु! ‘ज्ञायकपणे ते जणायो’ लक्षमां आव्यो, द्रष्टिमां आव्यो. पण एने ‘जाणनारो’ कहीए छीए ते स्व-परप्रकाशक, तो परनो ‘जाणनारो’ एम आव्युं? के स्वने जाण्यो अने परनुं जाणवुं पण एमां आव्युं?! त्यारे कहे छे ‘परनुं जाणवुं एमां नथी आव्युं’ परसंबंधीनुं ज्ञान पोतानुं पोताथी (पोताने) थयुं छे. ते आकारे ते ‘ज्ञायकनुं ज्ञान’ ज्ञानना पर्याये, ज्ञानने जाण्युं, ए जाणवाना पर्यायने एणे जाण्यो. (अर्थात् पर-रागने एणे जाण्यो नथी) आहा.. हा! समजाणुं कांई...? आकरुं काम बहु बापु! मारग एवो छे वीतराग सर्वज्ञनो! सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी, आराध्य आराध्य प्रभाव आणी;
अनाथ एकांत सनाथ थाशे, एना विना कोई न बाह्य स्हाशे. (श्रीमद्राजचंद्र) आहा.. हा! मुनि महाराज कहे छे मारा अने तारा मोहना नाश माटे, ओहोहो! ‘कोलकरार!’ एटलो बधो प्रभु! पोताना मोहना नाश माटे तो भले तमे कहो, पण.. श्रोताने माटे! पर कह्या ने...! अनंता सिद्धोने एमणे परना पर्यायमां स्थाप्या छे. मोहना नाश माटे. में स्थाप्या छे ए तो (मुनिमहाराजे पोते) वात करी छे. आहा... हा! एकसयमनी अल्पज्ञ पर्यायमां अनंता सिद्धोने स्थाप्या छे.
(सांभळनार श्रोतानी) ए पर्याय, अंदर झूकीने (आत्म) द्रव्य तरफ ज जाय. एटली ए पर्यायमां (ताकात) छे के तेणे अनंत सर्वज्ञने राख्या, ए पर्याय, सर्वज्ञस्वभावी प्रभु (आत्मद्रव्य) एनी उपर ज, एनुं लक्ष जाय. जेणे, एकसमयनी पर्यायमां, अनंता सर्वज्ञोने, स्थाप्या.. राख्या.. आदर्या सत्कार कर्यो... स्वीकार कर्यो अने ते एकसमयनी पर्यायमां, अनंता सर्वज्ञने जाण्या.. ते समयनी पर्यायने जाणीने, ए जाणे छे ने..!
आहा.. हा! तेनो आत्मा ज्ञायकपणे ते जणाणो! पण ई ‘ज्ञायक’ छे एटले के ‘जाणनारो’ छे एम कह्युं, तो तेमां परने ‘जाणे छे’ एवुं जे आवे छे तो (ते तो) परने आकारे ज्ञान थयुं, ते परने लईने थयुं एम नथी. धर्मीने पण हजी राग आवे ने रागनुं ज्ञान थाय स. सार बारमी गाथामां कह्युं छे ने...
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ७३ (व्यवहार) जाणेलो प्रयोजनवान भाषा तो चारेकोर एक, अविरोध वातने सिद्ध करे छे.
आहा. हा! ए... ‘ज्ञायकपणामां’ जे राग-व्यवहार आव्यो ते जणाणो ते राग छे तेने जाणे छे, ते राग छे माटे अहींयां रागनुं ज्ञान, ज्ञेयाकारे ज्ञान थयुं एम नथी. आहा.. हा! आवो मारग एटले साधारण माणस बिचारो शुं करे? वीतराग! सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथ! त्रणलोक जेणे जाण्या, ए परमेश्वरनुं आ बधुं कथन छे. एक सिद्धनुं कहोके अनंता सिद्धनुं कहो, एक तीर्थंकर नुं कहो के अनंता संतोनुं कहो!!
आहा.. हा! अने मुनि तो छे, एनी पर्यायमां त्रण कषायनो अभाव छे जिनदशा जेमने प्रगटी छे!! एने मुनि कहीए. ए मुनि कहे छे के ‘हुं आ समयसार ने कहीश’ आ ‘कहीश’ (कीधुं) तो विकल्प छे ने...! (मुनिमहाराज कहे छे) विकल्प छे पण मारुं जोर त्यां नथी. (में कहीश एम कह्युं) तो हुं त्यां ‘स्वभाव’ तरफना जोरमां, लक्षनी वात त्यां करीश, मारुं जोर तो त्यां छे. गजब छे ने...!! तेथी अशुद्धता टळी जशे, एम सांभळनारने पण अनंता सिद्धोने पोते ज्यां पर्यायमां अनंता सिद्धोने जेणे स्थाप्यां, तेणे सांभळतां... स्वलक्षे सांभळे छे, अमारी पूरण वात आवशे, एथी अमने अने तमने स्वलक्षथी मोह टळशे. ई अस्थिरता (अमारी) एमां टळी जशे अने श्रुतकेवळी थशे एटले समकिती थशे ज. श्रुत केवळीए कहेलुं छे, ई (अनुभवीने) श्रुतकेवळी पोते थशे ज एटले समकिती थशे ज. पछी केवळी थशे. आहा.. हा! (भाई!) आ गाथानो आवो अर्थ छे. पार पडे तेवुं नथी, दिगंबर संतो एटले केवळीना केडायतो! बाकी बधाए कल्पनानी वातुं करी छे सौंए, आहा...! आमांतो एक-एक शब्दनी पाछळ केटली गंभीरता छे, भाई!
ए कहे छे के भले! अमे ‘ज्ञायक’ कहीए छीए, अने ‘ज्ञायक’ ने जाण्यो!! अने ‘जाणनारे’ पण जाण्यो!! हवे ई ‘जाणनारो’ छे तो परनो “जाणनारो”छे ई भेगुं आव्युं’ स्व-परप्रकाशक छे ने?!
तो, परनो ‘जाणनारो’ छे माटे परने जाणे छे (एटले के) पर छे तेने आकारे ज्ञान अहींयां थयुं! (तो,) पर छे ते स्वरूपे ज्ञान थयुं तो...., एटली तो ज्ञेयकृत अशुद्धता आवी के नहीं? अहा..! एटली ज्ञेयकृत-प्रमेयकृत पराधीनता आवी के नहीं?
ना, एतो, रागना ज्ञानकाळे के शरीरना ज्ञानकाळे ज्ञान-ज्ञायकपणानी पर्यायपणे ज जणायो छे, तेणे (साधके) रागनी पर्याय तरीके न रागथी ज्ञान थयुं छे, एम जाण्युं नथी. आहा.. हा! को ‘भाई! बीजे छे आवी वातुं?! अरे, प्रभु! तने खबर नथी, भाई! आहा..! तारुं द्रव्य ने तारी पर्याय, एनुं सामर्थ्य केवुं छे!!
आहा.. हा! अहीं तो कहेछे के राग ने शरीरने के जे कंई देखाय, ते काळे तेने आकारे ज्ञान थयुं, माटे एने कारणे थयुं एम नथी. अमारो ज्ञाननो स्वभाव ज एवो छे के स्वने जाणतां, परनुं जाणवानो पर्याय मारो पोताथी पोतानो थयो छे, एने अमे जाणीए छीए. आहा.. हा!
अरे, प्रभुनी वाणी तो जुओ! आहा..! एवा संतोनी साक्षात् मळे एवी वाणी! आहा.. हा! गजब वातु छे ने...!
(कहे छे के) ए ‘ज्ञेयाकार अवस्थामां ज्ञायकपणे जणायो-ज्ञाननी पर्याय तरीके ए जणायो छे.
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७४ श्री प्रवचन रत्नो-१ ए परनी पर्याय तरीके जणायो, एम छे.. नहीं. आहा.. हा! छे ने सामे पुस्तक छे! भाई! मारग बहु झीणो बापु! जेने अनंत संसारनो अंत अने अनंत गुणनी पर्याय आदि अनंत प्रगटे. बापु! ए मारगडा कोई अलौकिक छे ए ज्ञानाकार अवस्थामां ए होय. रागने जाणवानी अवस्थामां ज्ञायकपूर्ण जे जणायो छे. ए ज्ञायकनी पर्यायपणे जे जणायो छे अन्यनी पर्यायपणे ते जणायो छे एम छे नहीं.
आहा...! ‘ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी’ एटले? रागनी ए वखते शरीरनी क्रिया ते वखते थाय, ते रीते ज्ञान पोते परिणमे-जाणे, छतां ते ज्ञेयकृतनी अशुद्धता-पराधीनता ज्ञानना परिणमनने नथी. आहा.. हा! जे ज्ञाननुं परिणमन थयुं, ते ज्ञेयाकार अवस्थामां ज्ञायकपणे थयुं छे ‘ते जाणनारो जणायो छे’ पण जणाय एवी चीज जणाती नथी. जे जणाय छे ए चीज (राग-शरीरादि) एमां जणाई नथी. ‘जाणनारो जणायो छे त्यां’ गूढ वातुं छे भाई! अलौकिक चेतनस्वरूप ज अलौकिक छे बापु!
आहा..! एकसमयनी पर्यायमां सर्वज्ञने स्थापीने गजब काम कर्यां छे ने! उपाडी लीधा छे!! जेणे स्थाप्या पोतानी पर्यायमां अनंता सिद्धोने, एने संसारथी उपाडी लीधा छे, एने ज हो? एकला श्रोता तरीकेने नहीं.
आहा.. हा! जेणे... अनंता... सिद्धोने... पोतानी... पर्यायमां स्थाप्यां अने जेने ज्ञाननुं- ज्ञायकनुं ज्ञान थयुं ते ज्ञान, राग ने परने जाणे तेथी तेने ज्ञेयकृत-प्रमेयकृत अशुद्धता न थई (कारण के) ए तो ज्ञायकनी पर्याय थई, एने ए जाणे छे. ए रागने जाणवा काळे रागआकारे ज्ञान थयुं, ए रागने कारणे ज्ञान ते आकारे थयुं एम नथी. ते काळे ज्ञान ज पोताना ज्ञानाकारे थवानो पर्यायनो स्वभाव छे ते रीते थयुं. ‘तो ते वखते राग जणायो नथी’ ‘जाणनारो’ जाणनारनी पर्याय तेने ते जाणे छे. समजाणुं कांई...?
आहा... हा! ‘ते’ .... ‘ज्ञानाकार अवस्थामां ज्ञायकपणे जणायो’ ‘ते’ ..... ‘स्वरूप प्रकाशननी (स्वरूपने जाणवानी) अवस्थामां पण पोते जणायो छे’ शुं कीधुं ई?
के, आ ज्ञायकप्रभु! पोताने ज्ञायक तरीके ज्यां जाण्यो! सम्यग्दर्शन-ज्ञानमां जणायो, ए वखते जे ज्ञानमां, रागादि पर (पदार्थ) जणाय, ए काळे पण तेणे ते रागने (परने) जाण्यो छे एम नहीं. (परंतु) रागसंबंधीनुं पोतानुं ज्ञान, पोताथी थयुं छे तेने ते जाणे छे, ‘ज्ञेयाकार अवस्थाना काळमां, पण (साधक) पोतानी अवस्थाने जाणे छे. अने स्वरूप-प्रकाशननी अवस्थामां पण (पोते जणायो छे) बेय वात लीधीने....!!
शुं कीधुं? ‘ज्ञेयाकार अवस्थामां ज्ञायकपणे जणायो... ‘ते’ ‘स्वरूप प्रकाशननी अवस्थामां पण पोते जणाणो छे’ आहा.... हा! स्वरूपप्रकाशननी अवस्थामां पण, ते ‘ज्ञेयाकार ज्ञानना’ काळे पण, ज्ञायकनी पर्यायमां, ‘जाणनारो छे’ तेनी पर्याय जणाणी छे, अने स्वरूप प्रकाशननी अवस्थामां पण ‘जाणनारो छे’ तेनी पर्याय जणाणी छे. द्रष्टांत आपे छे. ‘दीवानी जेम’; कर्ता-कर्मनुं अनन्यपणुं होवाथी... ज्ञायक ज छे.
आहा...! पोते जाणनारो माटे पोते ‘कर्ता’ , पोताने जाण्यो माटे पोते ‘कर्म’ , आ पर्यायनी वात छे हो!! ‘जाणनार’ ने जाण्यो अने पर्यायने जाणी-ए जाणवानुं पर्यायनुं कार्य, कर्ता ज्ञायक, एनुं ते
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ७प कार्य छे. ए राग-व्यवहार जाण्यो माटे व्यवहारकर्ता अने जाणवानी पर्याय कार्य एम नथी. आहाहाहा! केटलुं समाडयुं छे!!
अज्ञानी कहे के में पंदर दिवसमां (समयसार) वांची नाख्युं! बापा, भाई! तारो प्रभु (आत्मा) कोण छे? (केवो छे) ऐने जाणवा माटे आवी वाणी! भाई, अरे! अनंतकाळना परिभ्रमणना अंत आवे, एनो साचो प्रयत्न तें कर्यो नथी. ऊंधो प्रयत्न करी ने मान्युं छे के अमे कंईक करीए छीए, धर्म करीए छीए, हेरान थईने चारगतिमां रखडे छे!
आहा.. हा! आंही कहे छे, के भगवान आत्माने ज्यारे सर्वज्ञपणे स्थाप्यो ने ज्यारे सर्वज्ञस्वभावनुं भान थयुं, त्यारे तेणे स्व-ज्ञानने-जाणनारने तो जाण्यो, पण ते वखते परने जाण्युं छे ते वखते पण, जाणनारनी पर्यायने ज ए जाणे छे. ‘जाणनारनी पर्याय तरीके जणायो छे’ -ते वखते पण रागनी पर्याय तरीके जणायो, माटे जाणे छे एम नथी. आहा.. हा..!
आ तो पुस्तक सामे छे, क्या शब्दनो अर्थ थाय छे! आहा..! भगवान परमात्मा, एनी वाणी अने मुनिनी वाणीमां फेर नथी. मुनिओ आडतिया थईने आ सर्वज्ञनी वाणी ज कहे छे. भाई! तमे सांभळी नथी, ते वात! आहा.. हा..!
तुं कोण छो..? अने तुं कोण (कोने) जाणनारो छो? के हुं ज्ञायक छुं अने हुं मारी पर्यायने जाणनारो छुं. ए ज्ञाननी पर्याय ए मारुं कार्य छे- ‘कर्म’ छे अने ‘कर्ता’ हुं छुं.
खरेखर तो, पर्याय ‘कर्ता’ ने पर्याय ज ‘कर्म’ छे. पण, अहीं ज्ञायकभावने कर्ता तरीके सिद्ध करीने, ज्ञानपर्याय तेनुं कार्य छे-एम सिद्ध कर्युं छे. खरेखर तो, ते ज्ञाननी पर्याय तेनुं ‘कार्य’ छे अने ते वखतनो जे पर्याय छे ते ज ए पर्यायनो ‘कर्ता’ छे.
आखुं, द्रव्य छे ए तो ध्रुव छे ए तो ध्रुव छे, ए तो कर्ता छे नहीं, कर्ता कहेवो ए तो उपचार छे. अने ध्रुव छे ए तो परिणमतो नथी, बदलातो नथी. बदलनारी पर्याय जे ज्ञायकने जाणनारी थई, ए परने जाणवाकाळे पण, पोताना ज्ञानपणे परिणमी, माटे ते पोते ज ‘कर्ता’ ने पोते ज पोतानुं ‘कर्म’ छे. राग ‘कर्ता’ ने ज्ञाननी पर्याय तेनुं ‘कार्य’ छे एम नथी. आहा. हा..! जेना एक पदमांथी बहार नीकळवुं कठण पडे, एटली तो गंभीरता छे!!
आहा.. हा! बापु! प्रभु! तुं महाप्रभु छो भाई! तुं महाप्रभु छो.. ने तारी पर्याय पण महाप्रभुनी छे!! जे जणायो छे एनी ए पर्याय छे आहा.. हा! ए प्रभुनी पर्याय छे, ए रागनी नहीं आहा.. हा!
आ ज्ञानमां स्वने ज्यां जाण्यो, ते वखते आ परनुं जाणवुं त्यां थाय छे ने...! ए परनुं जाणवुं थयुं ई परने लईने जाणवुं थयुं एम नथी. ए जाणवानो पर्याय ज पोते, पोताना स्वपर प्रकाशक स्वभावनी परिणमवानी ताकातथी पोते परिणम्यो छे. तेथी ते पर्याय ‘कार्य’ छे ने ते ज पर्याय ‘कर्ता’ छे ने द्रव्य भले कर्ता कहेवामां आवे छे आहा.. हा!
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७६ श्री प्रवचन रत्नो-१
खरेखर, षट्कारकनुं परिणमन पर्यायमां छे, द्रव्यमां षट्कारकनी शक्ति छे, पण परिणमन नथी. समजाणुं कांई...?
तेथी ज... जे ज्ञाननी पर्याये पोताने जाण्यो, ते ज पर्याये, रागसंबंधीना पोताना ज्ञाननी पर्यायने तेणे जाणी. (साधकने) विकल्प जे ऊठे छे तेनुं जे ज्ञान थाय छे, ते ज्ञाननी पर्यायने, ज्ञानपर्याय पोते पोताथी जाणे छे अने ते (ज्ञानपर्याय) पोताथी थई छे. व्यवहारथी थई नथी.
पर्याय, व्यवहारने जाणनारी पर्याय (साधकदशामां) व्यवहार आव्यो रागादि अने ते ज्ञाननी पर्याय, एनाथी (व्यवहारथी) थई छे एम नथी. एमां क्यां ज्ञान हतुं? रागमां क्यां ज्ञान हतुं के राग जाणे! जेमां ज्ञायकनुं ज्ञान भरेलुं छे ज्ञायकमां (ते जाणे छे) आहा... हा! ज्यां अंदरमां ज्ञान थतां, जाणनारो जाणे छे, तो ते जाणनारो पोते पोताने जाणे छे अने जाणनारो पोतानी पर्यायने जाणे छे.
‘रागने जाणे छे’ एम कहेवुं ते पण व्यवहारथी कथन छे. आहा.. हा! समजाणुं कांई...? ल्यो! ‘दीवानी जेम’ - ‘कर्त्ता-कर्मनुं अनन्यपणुं छे’ अनेरापणुं नथी. कर्ता छे ते ज कर्म छे ने कर्म छे तेनो ते ज कर्ता छे. समजाणुं कांई...? एटले के ‘थनारो’ अने ‘थयुं’ ते बे अनन्य छे. जुदा जुदा नथी. कर्ता=थनारो; कर्म=थयुं, ते बे अनन्य छे, ते बेय एक ज वस्तु छे.
आहा... हा! ‘अनन्यपणुं होवाथी ज्ञायक ज छे.’ पोते जाणनारो ए ‘कर्त्ता’ माटे पोते कर्त्ता, रागसंबंधीनुं ज्ञान थयुं छे ते ज्ञाननी पर्यायनो कर्त्ता पोते छे अने तेनुं ‘कर्म’ पण एनामां छे.
ए ज्ञानमां, रागने जाणे छे एम नथी ने रागने लईने जाणे छे एम नथी. आहा.. हा! हवे आवी व्याख्या! साधारण बिचारा जीवो के जे संप्रदायमां पडया होय अने आखो दि’ क्यारेय वखत मळतो न होय, जिंदगी जाय. आहा...! एमां बे धडी सांभळवा जाय ने... मळे एवुं सत्यथी विरुद्धनी वातुं मळे!!
(कहे छे) ‘ए ज्ञेयाकार अवस्थामां पण ज्ञायकपणे जे जणायो ते स्वरूपप्रकाशननी अवस्थामां पण ज्ञायक पणे जणायो, ज्ञायक ज छे. छे ने छेल्लो शब्द! वच्चेनुं लखाण मूकी द्यो. (अने पछी वांचो) ‘दीवानी जेम’ - कर्त्ता-कर्मनुं अनन्यपणुं होवाथी, ते स्वरूपप्रकाशननी अवस्थामां पण ज्ञायक ज छे’ एम छे ने...? ओलुं तो (दीवानी जेम) द्रष्टांत छे.
आहा.. हा! कोई एम जाणे के, आपणे समयसार सांभळ्युं छे, माटे एमां कांई नवीनता न होय, एम नथी प्रभु! आहा..! ए... नवी वस्तु छे बापु! भगवान!
शुं कीधुं? ‘पोते जाणनारो माटे पोते कर्त्ता’ -रागनी, शरीरनी क्रिया थई, एनुं आंही ज्ञान थयुं, ए ज्ञाननुं कार्य पोतानुं छे. ए कार्य, रागनुं शरीरनुं नथी, तेथी ते कार्य पोते-ज्ञाननी पर्याय जाणे छे ते कर्त्ता अने पोताने जाण्यो माटे. पोते कर्म पर्यायनी वात छे हो! अहींयां. जणाय छे पर्याय, ए पर्याय एनुं ‘कार्य’ जणाय छे राग एम नथी, तेम रागथी अहीं जाणवुं थयुं-कार्य थयुं एम नथी. ए रागनुं कार्य नथी, ए ज्ञायकनुं कार्य छे. समजानुं कांई?
आहा.. हा! ए सरकारना कायदा गहन होय साधारण! आ तो त्रण लोकना नाथना
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ७७ कायदा!! (गहनमां गहन!) आहा... हा! सर्वज्ञस्वरूप, तो तेना कायदा केवा होय बापा! एक-एक गाथामां केटली गंभीरता छे!!
आहा.. हा! ‘पोते जाणनारो माटे पोते कर्ता’ -कोनो जाणनारो? पोतानी पर्यायनो आहा.. हा.. हा! केवळी, लोकालोकने जाणे छे, ए पण नहीं. केवळी पोतानी पर्यायने जाणे छे. आहा.. हा! पर्याय तेनुं कार्य छे ने कर्त्ता तेनुं द्रव्य, एटले ज्ञान (पर्याय) छे. आहा.. हा! लोकालोक छे माटे आंही (तेनुं) ज्ञान थयुं छे परनुं-एम नथी. अहा! समजाणुं कांई आमां?
आ प्रश्न तो त्र्यासीनी सालमां ऊठेलो, संवत १९८३, केटलां वरस थयां? एकावन. एकावन वरस पहेलां (आ) प्रश्न उठयो’ तो के आ लोकालोक छे माटे केवळज्ञान छे के लोकालोकनुं ज्ञान छे के ज्ञान पोताथी छे लोकालोकनुं छे नहीं. आ एक प्रश्न हतो. शेठे एम कह्युं के लोकालोक छे तो तेनुं आहीं ज्ञान थयुं छे. ज्यारे वीरजीभाईए ना पाडी के एम नथी. पछी बन्ने ठठे आव्या, अने मने पूछयुं. कीधुं बापु! एम नथी. केवळज्ञान तो पोताथी थाय छे. केवळज्ञानना कार्यनो कर्ता आत्मा कर्म केवळज्ञान लोकालोक कर्ता ने केवळज्ञान ‘कर्म’ एटला बधा शब्दो त्यां त्यारे नहोता ए वखते, पण लोकालोक छे माटे ज्ञानपर्याय थई छे एम नथी. आहा.. हा! समजाणुं कांई...?
अरे रे! एक पण वातने... सर्वज्ञना न्यायथी बराबर जाणे, तो एक ‘भाव’ जाणे एमां बधा ‘भाव’ जाणे एमां बधा ‘भाव’ (यथार्थ) जणाय जाय पण एककेय भावना ठेकाणां न मळे! आहा... हा! अरे रे! जिंदगी पूरी थवा आवी तो पण जे करवानुं हतुं ते रही ग्युं!! कर्या.. धुमाडा एकला पापना! अरे! पुण्यनां पण ठेकाणां न मळे! एने माटे चार-चार कलाक साचो सत्समागम करवो जोईए.
आहा...! सत्समागम पण कोने कहेवो तेनी पण हजी समजण नथी करी अने सत्शास्त्रनुं चार-चार कलाक वांचन करे हंमेशा, तो पुण्य तो बंधाय, एनां य ठेकाणां न मळे! धरम तो न मळे, पण पुण्यनां य ठेकाणां न मळे!! सत्शास्त्र, सत्समागम, ए बेनो परिचय, चोवीस कलाकमां चार कलाक रहे ते पुण्य बांधे, धरम नहीं. धरम तो रागथी पृथक् पडीने सर्वज्ञपणानुं स्वरूप मारुं स्वरूप छे, एवो अंतरमां अनुभव करे, द्रष्टि करीने त्यारे तेने सम्यग्दर्शन थाय. समजाणुं कांई... ?
तो कहे छे के ‘जेम दीपक घटपटादिने प्रकाशित करवानी अवस्थामां य दीपक छे’ दीवो जे छे ने...! ए घटने, पटने-पट एटले वस्त्र, अने प्रकाशवाकाळे तो दीवो तो दीवो ज छे. ए दीवो, घट- पटने प्रकाशे एटले ए-रूपे थयो छे? ना, ‘दीपक घट-पटादिने प्रकाशित करवानी अवस्थामां य दीपकज छे’ शुं कीधुं? दीवो, घट-पटादिनी अवस्थाने प्रकाशवाकाळे दीवो तो दीवारूपे छे. ए घट-पटने प्रकाशवा काळे, घटपटनी अवस्थापणे ए दीवो थयो नथी, घटपटने लईने प्रकाशे छे एम नथी. दीवाना प्रकाशने लईने प्रकाशे छे. एम घट-पटने ज्ञान प्रकाशे छे, ए ज्ञान एनुं नथी, ए पोताना (ज्ञान) प्रकाशने लईने प्रकाशे छे. आहा.. हा!’ जेम दीपक घट-पटादिने प्रकाशित करवानी अवस्थामांय दीपक ज छे.’ ‘अने पोताने, पोतानी ज्योतिरूप शिखाने, प्रकाशवानी अवस्थामां पण दीपक ज छे. एम, ‘ज्ञायक’ रागने-परने जाणवा काळे पण, ज्ञायकनी पर्यायनुं ज्ञान छे अने पोताने प्रकाशवा काळे पण ज्ञाननी
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७८ श्री प्रवचन रत्नो-१ पर्याय ज छे. आहा... हा! परने जाणवा काळे, एनी पर्याय परने लईने थई छे, एम नथी.
आहा..! घटपटने प्रकाशवा काळे दीवो, घटपटने लईने प्रकाशे छे एम नथी. दीवानो पोतानो ज प्रकाशक स्वभाव छे, घटपटने प्रकाशवानो. घटपटने प्रकाशवा काळे पण दीवो तो दीवो ज छे! पोतानी ज्योतिने प्रकाशवा काळे पण दीवो तो दीवो ज छे.
आवुं झीणुं बापु! एक कलाकमां केटलुं आव्युं! (समजवानी) नवराश न मळे, फुरसद नथी, आखो’ दि पाप आडे अने शरीरना रक्षण माटे होय तो आखो दि’ सलवाय जाय! आनुं आम कर्युं ने.. आनुं आम कर्युं ने.. छतांय शरीरनुं जे थवानुं होय ते थाय, एनाथी कांई न थाय. आ तो, पुरुषार्थथी थाय ज.
आहा.. हा.. हा! दीवो, घट एटले घडो ने पट-वस्त्रादि, कोयला के नागने प्रकाशवा काळे पण दीवो तो दीवारूपे रहीने ज प्रकाशे छे. शुं पररूपे थईने ते प्रकाशे छे? अने परने प्रकाशे छे? ना. दीवो, दीवाने प्रकाशे छे. तेमज पोताने प्रकाशवाना काळे पण दीवो दीवाने ज प्रकाशे छे.
एम, भगवान आत्मा-जाणनारो, जणाय छे ते अवस्थामां पण ज्ञायकपणे ज पोते रह्यो छे. परपणे थयो नथी ने परने लईने थई नथी अवस्था! अने पोताने जाणवाकाळे पण पोते छे, पोतानी पर्याय छे. हवे! आवुं बधुं याद राखवुं! आवो मारग छे प्रभुनो (आत्मानो) बापु! त्रणलोकना नाथ तीर्थंकरदेव सिवाय ए तत्त्व क्यांय छे नहीं.
त्रणलोकनो नाथ! तीर्थंकरदेव!! आहा.. हा! पण ए वातुं कर्ये (हाथमां न आवे!) बहु सूक्ष्म छे प्रभु! ए कोई पैसा खर्ची नाखे करोड- बेकरोड माटे धरम थई जाय, एम नथी. आहा.. हा! शरीरनी क्रिया करी नाखे अपवासादि करे! शरीरनो बळुको अपवासादि करे अने जाणपणाना-एकली बुद्धिनो प्रकाश करवावाळा बुद्धिनी वातो कर्या करे, पण अंतर शुं चीज छे, एने केळववा जतो नथी!
अहीं कहे छे के ‘अन्य कांई नथी’ तेम ‘ज्ञायकनुं समजवुं’ एटले? ‘जाणनारो’ भगवान आत्मा, स्वने जाणतां-पर्यायमां स्वने जाण्यो, ते ज पर्यायमां परने पण जाण्युं ए परने जाणवानी पर्याय पोतानी छे ने पोताथी ज थई छे, एटले (परने जाण्युं कह्युं तो पण) खरेखर, तो पोतानी पर्यायने एणे जाणी छे. कारण के पर्यायमां कांई ज्ञेय आव्या नथी. जेम घटपटने दीवो प्रकाशे छे एटले कांई दीवाना प्रकाशमां घटपट कांई आवी गया नथी के दीवाना प्रकाशमां तेओ कांई पेठा नथी. आहा.. हा! समजाणुं कांई...? एम, भगवान चैतन्यदीवो चैतन्यचंद्रप्रभु! एनुं जेने अंतरमां ज्ञान थयुं, रागथी भिन्न पडीने, सर्वज्ञस्वभावी आत्मा छे एम एनुं जेनु अंतरमां ज्ञान थयुं, रागथी भिन्न पडीने, सर्वज्ञस्वभावी आत्मा छे एम ज्यां भान थयुं, त्यां अल्पज्ञपर्यायमां सर्वज्ञस्वभावनुं भान थयुं, तो ए जे अल्पज्ञपर्याय थई ते सर्वज्ञस्वभावीनी छे, ए ज्ञायकनी पर्याय छे. स्वने जाणे ते अने ते ज पर्याय परने जाणे, ते पर्याय पण ज्ञायकनी पर्याय छे. ए परनी पर्याय छे ने परने लईने थई छे.. एम छे नहीं.
आहा.. हा! एक वार मध्यस्थ थईने सांभळे ने..! न्यां आग्रह राखीने पडया होय के ‘आनाथी आम थाय ने आनाथी आम थाय’ व्रत करवाथी संवर थाय ने तपस्या करवाथी निर्जरा थाय! व्रत,
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श्री प्रवचन रत्नो-१ ७९ निश्चयव्रत कोने कहेवुं, एनी खबर न मळे! व्रत करीए तो संवर थाय ने अपवास करीए तो निर्जरा थाय! अरे, भगवान! ए व्रतना विकल्पो जे व्यवहारना छे ए पुण्यबंधनुं कारण छे. ए अपवासना जे विकल्पो छे व्यवहारना ए पण पुण्यबंधनुं कारण छे, जो रागमंद कर्यो होय तो! त्यां संवर, निर्जरा नथी. आहा.. हा!
(आहोहो!) त्यां तो एमे य कह्युं छे ने..! ३२० गाथा. ते उदयने जाणवाकाळे पण ज्ञाननी पर्यायने जाणे, निर्जरा काळे पण निर्जरानी पर्यायने जाणे छे ते निर्जराने करतो नथी. उदयने जाणवुं कहेवुं पण (साधकने) पोताने रागने जाणे छे ते ज्ञाननी पर्याय तरीके एने जाणे छे. निर्जराने काळे जाणे छे ए पण निर्जरानी पर्याय नथी एटले के निर्जरानी जे पर्याय ज्ञानरूप थई छे ए ए जाणे छे. बंधने जाणे एटले बंधनुं ज्ञान थयुं छे ए जाणे, ते ज्ञाननी पर्यायने जाणे छे. मोक्षने जाणे, उदयने जाणे, अविपाक-सविपाक, सकाम-अकाम निर्जराने जाणे-ए चार बोल लीधा छे ने...! सविपाक, अविपाक, सकाम, अकामना आहा.. हा!
दिगंबर संतोए तो गजब काम कर्यां छे! तेने समजनारा.. विरल पाके! बाकी आवी वात बीजे क्यांय छे नहीं भाई! एनी ऊंडपनी वातु अमे शुं कहीए!!
आहा...! अने कर्ता-कर्मनुं अनन्यपणुं छे, एम कह्युं. एटले शुं? के ‘कर्ता’ अन्यने ‘कार्य’ अन्य, एम होई शके नहीं. ‘कर्ता’ ज्ञाननी पर्यायनो आत्मा अने पर्यायनुं ‘कार्य’ रागादि जाणवुं ए एनुं ‘कार्य’ एम नथी. कर्ता-कर्म अनन्य ज होय छे. अनन्यपणुं एटले? ते ज कर्ता ने ते ज ‘कर्म’! आहा.. हा! तेज कर्ता ने ते ज कार्य, एम कहे छे. आहा.. हा! रागने जाणवाकाळे ज्ञान, ज्ञानरूपे ज थयुं छे तेथी तेनुं ‘कर्ता’ ज्ञान अने ‘कर्म’ पण ज्ञान!!
ए रागनुं ज्ञान (कहेवाय छे छतां) राग कर्ता ने रागनुं ज्ञान कर्म एम नथी. आहा.. हा! व्यवहार रत्नत्रयनो विकल्प ऊठयो, अने एनुं जे ज्ञान थयुं, ते एने लईने ज्ञान थयुं छे ने? (उत्तरः अरे, एमां क्यां ज्ञान हतुं के तेनाथी ज्ञान थाय, ज्ञान तो आहीं छे, आत्मामां!!
स्वपरप्रकाशक ज्ञान आवे छे ने..! समयसार नाटकमां आवे छे (साध्य-साधक ‘स्वपरप्रकाशक शक्ति हमारी, ता तैं वचन भेद-भ्रम भारी’ -स्वप्रकाश ज्ञेय अने परप्रकाश ज्ञेय-बेय वस्तु ज्ञेय, ज्ञेय स्वने पर बेय, छतां पण परने जाणवाकाळे पर्याय, पोते पोताथी जाणे छे (पोताने) अहींयां ए सिद्ध करवुं छे. विशेष कहेशे.
कहेवाय छे.