Pravach Ratno Part 1-Gujarati (Devanagari transliteration). Date: 30-06-1978; Pravachan: 21.

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प८ श्री प्रवचन रत्नो-१

प्रवचन क्रमांक – २१ दिनांकः ३०–६–७८

शिष्यनो प्रश्न एम हतो के ‘शुद्ध आत्मा’ जे तमे कह्यो, ते छे कोण? केवो छे? के जेनुं ‘स्वरूप’ जाणवुं जोईए, जेने जाणवाथी हित थाय अने अहित टळे. ई शुं चीज छे?

केम के (आपश्रीए तो कह्युं) ए आत्मा अनादि-अनंत, नित्य उद्योतरूप, स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति छे. ए संसार अवस्थामां पुण्य-पापने उत्पन्न करनार, एवुं जे दुरंत कषायचक्र (अर्थात्) शुभ-अशुभरूप भावो थाय छे, पण ए शुभाशुभ भावरूपे ज्ञायक थयो नथी. (एतो) एनी अवस्थामां (पर्याय) मां थाय छे.

ज्ञायकभाव (के) जे वस्तु छे, ए शुभाशुभपणे थती ज नथी. जो ए-पणे थाय तो... वस्तु छे जे ज्ञानरस स्वभावरूप अने शुभाशुभ छे अचेतन-अंधारा (स्वरूप) छे. ए स्वरूपे जो आत्मा थाय तो (आत्मा) जड थई जाय! आहा.. हा..! तेथी ए ज्ञायकभाव-वस्तु जे छे पदार्थ, ते शुभाशुभ भावरूपे नहि थवाथी- शुभाशुभरूपे नहि परिणमवाथी, एमां प्रमत्त-अप्रमत्तना पर्यायना भेदो नथी. आहा... हा..! मूळ गाथा छे! छठ्ठीना लेख कहे छे ने..! आहा.. हा..! ज्ञायकवस्तु-चैतन्य! ए एकलो ज्ञानरस! आनंद रस! शांत रस! वीतराग रस- स्वरूपे ज बिराजमान. ए रागरूपे केम थाय? आत्मा जिनस्वरूपी- शांत स्वरूपी- वीतराग स्वरूपी (एवो) जे ज्ञायकभाव ए रागरूपे केम थाय? आहा...!

(श्रोताः) राग तो छे ने...! (उत्तरः) पर्यायमां राग थाय, वस्तुमां राग न थाय! अहा... हा...! चैतन्यप्रकाशनो चंद्र!! शीतळ.. शीतळ... शीतळ..!! ए चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु!! ए अशीतळ एवा विकार ने आकुळता (रूप) भावो, ए रूपे केम थाय?

आहा.. हा! भगवान जिनचंद्रस्वरूप प्रभु! चैतन्यना रसथी भरेलो प्रभु! (अभेदज्ञायक) ए अचेतन एवा शुभाशुभ परिणामरूपे, ए ज्ञायक भाव-चेतनभाव केम थाय?

तेथी, ते प्रमत्त-अप्रमत्त नथी. अहीं सुधी तो (गईकाले) आव्युं हतुं हवे, छेल्ली एक लीटी रही छे, मुदनी वात छे!!

एने (ज्ञायकभावने) शुद्ध केम कीधो? ज्ञायकभाव, ए शुभाशुभ भावे परिणमतो नथी- ए चीजने तमे शुद्ध केम कीधी?

तो कहे छे, ते शुद्ध तो छे ज. (पण कोने?) के भिन्न-पणे उपासवामां आवतां- शुद्धस्वभावमां आवतां, एने शुद्ध जणाय छे. शुं कह्युं ई? वस्तु तो त्रिकाळ शुद्ध छे ज. ए तो छे, पण छे कोने?

अहा.. हा... हा...! ‘ते ज समस्त अन्यद्रव्योना भावोथी’ (एटले) अन्य द्रव्योना भाव (अर्थात्) कर्मनो रस आदि आहा...! विकार आमां न लेवो. आंही तो अन्यद्रव्योना भाव लेवा. ई अन्यद्रव्योना भावथी भिन्न पडतां, विकारथी भिन्न पडी जाय छे. ‘भाव’ एम कहेवुं छे ने...! अन्य द्रव्योना ‘भाव’ एटले पुण्य-पापना भाव ई आंही नहीं. अन्य द्रव्योनो जे ‘भाव’ अन्यभाव, एनी शक्ति, ‘भाव’ - एनाथी भिन्न, एनुं लक्ष छोडीने, एनाथी भिन्न ज्यां एनुं लक्ष छोडे त्यां विकारनुं


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श्री प्रवचन रत्नो-१ प९ लक्ष छूटी जाय छे हारे!! आहा.. हा..! आवो मारग..!!

(कहे छे केः) ‘ते ज समस्त अन्य द्रव्योना भावोथी’ - अन्य- द्रव्यना भावथी, ए छे संसार, ‘मोक्षमार्ग-प्रकाशक’ मां छे, भिन्नपणे उपासवामां आवतां- पोते कर्यो छे आ अर्थ. शुं कीधुं? अहींया आत्मा-ज्ञायक भाव- शुद्ध चैतन्य स्वभावभाव-त्रिकाळ (छे) ए पोते शुभाशुभपणे थयो नथी, एवा शुद्ध स्वभावने ‘शुद्ध’ कह्यो केम? छे तो शुद्ध त्रिकाळ! पण कोने? जेणे अन्य द्रव्यना भावनुं लक्ष छोडी अने स्वद्रव्यनुं पर्यायमां, एनुं (स्वद्रव्य स्वभावनुं) सेवन करे, एनो अर्थ ए थयो के अन्य द्रव्यना भावथी (एनुं) लक्ष छूटयुं, पोते स्वद्रव्यना लक्षे स्वभावनी उपासना थई एटले विकारनुं (पर्याय) नुं लक्ष पण एमां भेगुं छूटी ग्युं! आहा.. हा..!

मारग एवो छे भाई! मूळ ‘दर्शनशुद्धि’ - एनी व्याख्या छे. मूळ रकम छे ई पवित्र ने शुद्ध ज्ञायक छे. पण ‘छे’ ई कोने ख्याल (ज्ञानमां) आवे छे? ‘छे’ - एनी प्रतीत कोने आवे? ‘छे’ - एनुं ज्ञान कोने थाय? ‘छे तो छे’ आहा.. हा..!

(कहे छे) अन्यद्रव्यो ने द्रव्यना भावनुं लक्ष छोडी, ए अन्यद्रव्यना ‘भाव’ मां अस्तिपणुं जे छे, ए छोडी दई अने एनाथी थोडे अंतर- (पासे ज पाछळ) ज्ञायकभाव छे, ए तरफ एनी पर्याय गई ए पर्याये एनुं सेवन कर्यु!! आहा.. हा..! ए पर्याय जे वर्तमान ज्ञानने श्रद्धानी पर्याय छे, ए परना लक्षने छोडीने, स्वना-चैतन्यना- ज्ञायक भावना लक्षमां ज्यां आवी त्यारे एनी पर्यायमां शुद्धतानुं स्फुरण थयुं, एटले के शुद्धतामां एकाग्रता थई, आ एकाग्रता (लीनता) थई... एमां जणाणुं के ‘आ’ शुद्ध छे.

झीणी वात छे बहु बापु! आहा... हा..! चैतन्यधाम-प्रभु! ‘स्वयं ज्योति सुखधाम’ - एनुं सेवन एटले परना आश्रयनुं लक्ष छोडी दई, अने स्व-चैतन्यज्ञायकभाव (जे छे) तेनुं लक्ष करतां- ए लक्ष कयारे थाय? के एनी पर्यायमां तेना तरफनुं वलण थाय त्यारे. तो, ए पर्यायमां द्रव्यनुं सेवन थयुं छे? ‘जे समस्त द्रव्योना भावोथी भिन्नपणे उपासवामां आवतां’ - वस्तु तो शुद्ध छे, पण भिन्नपणे उपासवामां आवतां ‘शुद्ध’ कहेवाय छे, एने शुद्धपणुं जणाणुं छे. पर्यायमां शुद्ध दशामां ‘आ शुद्ध छे’ एम जणाणुं, एने ‘शुद्ध’ कहेवाय छे. आहा.. हा..! समजाय छे? सामे (शास्त्र पाठ?)

(जुओ! कहे छे) एक कोर भगवान ज्ञायकभाव अने एककोर अनंता द्रव्यो बीजां बधां पडयां छे. (तेमां) कर्मनुं (द्रव्य कर्मनुं) मुख्यपणुं छे, एनां तरफनुं जे लक्ष छे, आंहीथी (त्रिकाळीथी) लक्ष तो अनादिथी छूटी गयुं छे एथी एने पर्यायमां, ‘आ शुद्ध छे’ एवी द्रष्टि तो थई नहीं, तेथी, ‘भिन्नपणे सेवतां’ (उपासवामां आवतां)’ - अन्य द्रव्योनां ने द्रव्यना ‘भावथी’ भेद पाडतां- जूदुं पडतां पाडतां (तो तेनो) अर्थ ए के (स्व) द्रव्य उपर लक्ष जतां, ई लक्ष गयुं ई वर्तमान पर्यायमां शुद्धता थई, ए शुद्धता द्वारा ‘आ शुद्ध छे’ एम जणाणुं, एने शुद्ध छे.

आहा.. हा..! जेने शुद्ध छे ई पर्यायमां अशुद्धता जणाय छे अने ई अशुद्धता उपर ज (पर्याय उपर ज) पर्यायबुद्धि उपर ज जेनी रुचि-द्रष्टि छे, एने तो (शुद्ध होवा छतां) शुद्ध छे नहीं. वस्तु भले शुद्ध छे, पण एने शुद्ध छे नहीं, आहा... हा..! गजब वात छे! समयसार! एनी एक- एक गाथा, एक-एक पद! सर्वज्ञ अनुसारीणि भाषा छे. त्रिलोकनाथ, सर्वज्ञ परमेश्वर एमणे कहेली चीज ज आ


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६० श्री प्रवचन रत्नो-१ प्रमाणेनी छे. आहा... हा..! अने ते न्यायथी, तेना ख्यालमां आवी शके छे. ‘न्यायथी ख्यालमां आवे ने पछी अंदरमां जाय तो अनुभव थाय. आहा... हा..! एक पद हतुं ने बाकी कालनुं आहा..! (तेनुं स्पष्टीकरण थाय छे.)

(कहे छे) ए ज ज्ञायक छे, ते ज. ए रीते एटले ते ज. (अर्थात्) ज्ञायक छे ते ज. तेज (अजवाळुं) नहीं. परंतु ते ज. ए त्रिकाळज्ञायक स्वरूप, जेमां पर्याय नथी. जेमां शुभाशुभ भाव नथी. जेमां प्रमत्त-अप्रमत्त भेद नथी. आहा.. हा..! एवी (अभेद) चीजने...! ‘समस्त अन्यद्रव्योना भावोथी- अनेरा- अनेक आंही तो नोकर्म छे अने कर्म जे छे अंदर, एमना तरफनो उदयभाव जे छे- एमना तरफनुं लक्ष छोडी दईने, पोते ज्ञायक चैतन्यमूर्ति प्रभु छे- चैतन्यचंद्र छे प्रभु ज्ञायक! आहा.. हा..! वस्तु भिन्न!! ‘घट घट अंतर जिन बसे, घट घट अंतर जैन, मत मदिरा के पान सौ मतवाला समजै न’ जेनो अभिप्राय रागनो, रुचि परनी ने एवा रुचिवाळाने आ वस्तु छे तो शुद्ध स्वरूप- छे तो शुद्ध (एने) शुद्ध कहो, जिनस्वरूप कहो, ज्ञायक कहो, ध्रुवरूप अभेद कहो, सामान्य कहो (एकरूप कहो) एवी चीज (आत्मवस्तु) होवा छतां - अज्ञानीनुं अन्यद्रव्य उपर लक्ष छे तेथी तेनी समीपमां ई द्रव्य पडयुं छे, एनी एने खबर पडती नथी. आहा.. हा. हा.. हा.! पर्याय, एक समयनी समीपमां प्रभु (ध्रुव) पडयो छे, भगवान अनाकुळ आनंदनो नाथ! आहा...! एक समयनी पर्याय जे छे- ज्ञाननी- जाणवानी, ए पर्यायनी समीप ज प्रभु छे. आखुं (परिपूर्ण) द्रव्य चिदानंद ध्रुव समीप ज पडयो छे, पण तेनी उपर तेनी नजर न होवाथी (तेने ‘शुद्धध्रुव’ देखातो नथी) ‘समयसार’ १७-१८ गाथामां तो एम कह्युं के एनी वर्तमान ज्ञानपर्यायमां ज्यारे आवो अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाळ गोपाळ सौने सदाकाळ पोते ज अनुभवमां आवतो होवा छतां पण...) झीणी वात छे बापा! आहा..! प्रभु तारी प्रभुतानो पार न मळे! जेनी प्रभुतानी पूरणतानुं कथन करवुं कठण पडे! एवो तुं सर्वोत्कृष्ट नाथ अंदर बिराजे छे. (छतां पण) एने, एक समयनी पर्यायमां पडेलो (एटले पर्यायने ज जाणतो) एने ई समीपमां छे ई नजरमां आवतो नथी.

शुं कह्युं? ज्ञाननी एक समयनी पर्यायनो स्वभाव तो एवो छे के आखुं द्रव्य जे जाणे छे स्वभाव सहित!! समजाणुं कांई..? आहा... हा..! एक समयनी पर्याय जे छे ज्ञाननी उघडेली वर्तमान, एमां ए द्रव्य ज जणाय छे.

पण, अज्ञानीनी द्रष्टि त्यां नथी, अनादिथी अज्ञानीनी द्रष्टि दया-दान-व्रत-काम-क्रोधनां परिणाम ने कां एने जाणनारी एक समयनी पर्याय त्यां ए रही ग्यो छे. बापु! मिथ्याद्रष्टि छे, सत्यद्रष्टिथी विरुद्ध द्रष्टि छे.

आहा..! सत्य जे प्रभु ज्ञायक भाव (एने) सत्यार्थ कहो, भूतार्थ कहो, सत्साहेब पूर्णानंदनो प्रभु एनी उपर एनी नजर नथी, छे तो पर्यायमां जणाय एवी चीज, जणाय ज छे!! शुं कह्युं? ज्ञाननी पर्यायमां जणाय छे तो ए ज परमात्मा, कहे छे पर्याय एम कहे छे!

अहा..! त्रिलोकनाथ जिनेश्वरदेव, एना केडाय तो संतो, ई एम कहे छे के प्रभु एम कहे छे. प्रभु! तुं एक वार सांभळ, तारी वर्तमान जे ज्ञाननी एक समयनी दशा, एनो स्वपर प्रकाशक स्वभाव होवाथी,


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श्री प्रवचन रत्नो-१ ६१ भले तुं त्यां नजर (करतो) न होय, पण पर्यायमां द्रव्य ज जणाय छे. आहा... हा..! अरे... रे! क्यां वात गई!! क्यां जावुं छे ने कोण छे, एनी खबर न मळे!

आहा... हा..! भगवान आत्मा! त्रिलोकनाथ एम कहे, प्रभु! तुं जेवडो मोटो प्रभु छो, तारी एक समयनी पर्यायमां, अज्ञानमां पण पर्यायमां जणाय छे. केम के (ज्ञान) पर्यायनो स्वभाव छे स्वपर प्रकाशक, तो ई पर्यायमां स्व प्रकाशक तो छे, पण तारी नजर (तारुं लक्ष) त्यां नथी. तारी नजर, आ कां दया करीने.. भक्ति करीने.. व्रत पाळ्‌यां ने.. पूजाओ करी एवो जे राग, एना उपरथी तारी नजर छे. ए नजरने लईने, रागनी आगळ जे ज्ञानपर्याय छे-रागने जाणनारी छे ए ज पर्याय तने जाणनारी छे, पण तेमां तारी नजर नही होवाथी, तने राग ने पर्याय जणाय छे (पण वस्तु उपर नजर जती नथी) तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे-मिथ्याद्रष्टि ज छे. आहा... हा..! समजाणुं कांई..?

(कहे छे के मिथ्याद्रष्टि होवा छतां) पण, जेनी द्रष्टि परद्रव्यना ‘भाव’ उपरथी छूटी गई. अने भेद, पर्यायना पर्यायमां नथी, एथी पर्यायलक्ष (पर्यायद्रष्टि) ज्यांथी छूटी गई. आहा.. हा..! अन्यद्रव्यना भावथी लक्ष छूटी, एनो अर्थ (आ छे के) आंहीथी ज्यां अंदरमां लक्ष छूटयुं, तो रागथी पण लक्ष छूटयुं ने रागथी छूटयुं ने पर्यायथी पण लक्ष छूटयुं! आहा... हा...! आवी वात बापु! सम्यग्दर्शननी पहेली-धर्मनी सीडी! एवी चीज छे!! लोको तो एम ने एम जिंदगी गाळीने चाल्या जशे. तत्त्वनी द्रष्टि कर्या विना! ई तो चोराशीना अवतार कर्या बापा! चोराशीना अवतार अरे! प्रभु! त्यां नथी तारुं, कांई नथी, तुं त्यां नथी. आहा... हा..! त्यां जईने अ.. व.. त.. र.. शे!!

आहा.. हा..! तो, एकवार ज्यां प्रभु (आत्मा) छे त्यां नजर कर.. ने..! ज्यां भगवान चैतन्यस्वरूप छे प्रभु! एकलो-अखंड-आनंदनोकंद-पूर्णानंद-चैतन्यरसथी भरेलो-जिनस्वरूप आत्मा छे. ए त्रिकाळ जिन स्वरूपी ज छे. त्रिकाळ जिनस्वरूप ज छे! वीतराग छे. एने (लक्षगत करवा) परनुं लक्ष छोडी, रागनुं लक्ष छोडी, रागने जाणनार (ज्ञानपर्याय नुं) लक्ष छूटयुं-एनी पर्याये स्वलक्ष थ्युं के आम छूटतां, एनाथी पण लक्ष छूटी ग्युं छे आहा.. हा..! एनुं लक्ष ज्यां आत्मा उपर गयुं त्यारे पर्यायमां शुद्धता प्रगटी!! बहु... छठ्ठी गाथा! मुदनी रकम छे.

आहा... हा..! ‘अन्य द्रव्योना समस्त’ -समस्त लीधुं ने..! (तेमां) तीर्थंकरो आव्या, तीर्थंकर वाणी आवी-एना उपरथी पण लक्ष छोडी दे! आहा.. हा..! ‘समस्त अन्य द्रव्य’ अने एना ‘भाव’ आहा.. हा..! भगवाननो ‘भाव’ ते केवळ केवळज्ञान, कर्मनो ‘भाव’ ते पुण्य-पापनो रस, ए बधाथी लक्ष छोडी दे!! अन्य द्रव्योना भावोथी भिन्नपणे सेववामां आवतां (एटले) एनाथी जुदो रागथी-वाणीथी जुदो, आत्माज्ञायक भगवान पूर्ण स्वभावथी भरेलो जिनचंद्र छे ए तो वीतरागी शीतळ स्वभावथी पूरण भरेलो भगवान! एनी उपर लक्ष जतां एटले के पर्यायमां तेनुं लक्ष थतां, पोते द्रव्यमां लक्ष कर्युं ए सेवा छे आहा.. हा..! द्रव्यनी सेवा!! केटलुं भर्युं छे एमां!! हें? आहा.. हा..! अरे.. रे..! जगत क्यां पडयुं छे! ने क्यां चाल्युं जाय छे अनादिथी, रखडे! चोराशीना अवतार करी-करीने... कागडानां कूतरानां, निगोदनां भव करी मिथ्यात्वथी रखडी मर्यो छे! साधु थ्यो अनंतवार दिगंबर साधु अनंतवार थ्यो, पण द्रष्टि राग अने पर्याय उपर छे. ज्यां भगवान पूरण स्वरूप छे, तेनी उपासना एनो अर्थ


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६२ श्री प्रवचन रत्नो-१ (के) एनो स्वीकार-एनो सत्कार एटले के एनो आश्रय.

(कहे छे) ‘ए भिन्नपणे उपासवामां आवतो ‘शुद्ध कहेवाय छे’. (एटले) ए रागने पर्यायनुं लक्ष छोडी, एनी सेवा करनार (अर्थात्) स्वरूपनुं लक्ष थतां तेनी पर्यायमां शुद्धता जे थाय, ए शुद्धता ई द्रव्यनी सेवा-शुद्धता ए (शुद्ध) द्रव्यनो स्वीकार कर्यो छे. ए शुद्धतानी पर्याये, शुद्धद्रव्यनो स्वीकार कर्यो एथी शुद्धनी पर्यायमां शुद्ध जणायो, एने शुद्ध कहेवामां आवे छे. आहा.. हा..! गंभीर भाषा छे भाई!

आ तो- आ तो ओगणीसमी वार वंचाय छे. समयसार!! पहेलेथी छेल्ले सुधी कोई वार दोढ वरस, कोई वार बे वरस, कोई वार अढी वरस, एम अढार वार चाल्युं छे. आ ओगणीसमी वार छे. आहा.. हा..! गजब वात छे.

वीतराग त्रणलोकना नाथ! एनी वाणी, ए संतो आडतीया थईने जाहेर करे छे. प्रभु! तुं कोण छो? तने क्यारे खबर पडे? तुं छो ज्ञायक! जेमां शुभाशुभ भाव छे ज नही तेथी एमां पर्यायभेद छे नही. पण.., एनी क्यारे तने खबर पडे? ‘छे तो छे शुद्ध’ .

तुं... ज्यारे परनुं लक्ष छोडी दई अने स्वद्रव्यने ध्येय बनावी अने ध्येयनो पर्यायमां सत्कार थयो, उपासना थई, शुद्धता प्रगटी ए सम्यग्दर्शन ज्ञाननी पर्यायमां ‘आ शुद्ध छे’ एम जणाय छे. समजाणुं कांई...? आवी वात छे!! कठण वात छे बापु!! वीतराग मारग मळ्‌यो नथी लोकोने भाई..! लोको बहारनी प्रवृत्तिमां-रागमार्ग-संसार मार्ग छे एमां रच्या-पच्या छे, अत्यारे तो पूजा, भक्ति, व्रत ने तप, अपवास ए बधो रागमार्ग छे अन्य मार्ग छे ए जैनमार्ग नहीं!

आहा.. हा..! आंही प्रभु एम कहे छे, तारी प्रभुता जेम छे तेम ते पूछयुं’ तुं! अने तेनुं ‘स्वरूप’ जाणवुं जोईए ते तें पूछयुं तो एनो उत्तर आ छे के परद्रव्य उपरनुं बिलकुल लक्ष-परद्रव्य उपरनुं संपूर्ण लक्ष छोडी दई ए ‘ज्ञायकभाव’ -शुद्धभाव पर लक्ष जतां, जे पर्यायमां शुद्धता थाय, सम्यग्दर्शन थाय, ते जीवने शुद्ध कहेवामां आवे छे. पर्यायनी शुद्धतानुं भान थयुं-सम्यग्दर्शन थयुं, ए अंतरमां लक्षने लईने अंतरनो आश्रय लईने-अंतरमां सत्कार ने स्वीकार श्रद्धाने स्वभावमां भगवानने लईने, त्यारे ते जीवने ‘आ शुद्ध छे’ एम कहेवामां आवे छे. आकरी वात छे बापा! शुं थाय!

आ अनंतकाळ वयो गयो, जैनमां अनंतवार जन्म्यो! भगवानना समवसरणमां पण अनंतवार गयो, पण आंही आने ज्यां जावुं छे त्यां न गयो, अने एनी रीत शुं छे? एनी पण खबर न पडी! आहा.. हा..! एक लीटीमां आवो ‘भाव’ भर्यो छे!! ई तो पार पडे एवुं नथी बापा! ए भगवाननी वाणी ने एनां भाव वाणीमां पार आवे? ई अंतरमां भासे ए भाषामां आवे नही, भासे एटलुं भाषणमां नो आवे!! आहा..! साक्षात् आवी वाणी पडी छे जीवंत! (ए वाणीमां आव्युं छे के) ए (ज्ञायकभाव) पुण्य-पाप पणे थयो नथी. एटले पुण्य-पापनां थनारां, एना कारण एवां ए शुभाशुभ भाव ए पणे प्रभु! ज्ञायकभाव थयो ज नथी. तेथी ते प्रमत्त-अप्रमत्त पर्याये, एने लईने नथी. पर्यायभेद तेमां नथी. आहा...! चौदगुण स्थानना भेदो पण आमां नथी.

एवो जे अभेद भगवान ज्ञायक शुद्ध, एकरूप, भगवान प्रभु छे. (प्रश्नः) कोने शुद्ध कहेवाय? कोने शुद्ध छे? (उत्तरः) के जेणे शुद्ध (आत्मद्रव्य) तरफनो सत्कार


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श्री प्रवचन रत्नो-१ ६३ (स्वीकार) पर्यायमां करी अने परद्रव्यनो जेने आश्रय अने सत्कार छूटी गयो छे. भगवान पूर्णानंद सिवाय, परचीजनी एकपणे अधिकता, विशेषता, अचिंत्यता, चमत्कार (द्रष्टिमांथी) छूटी ग्यो छे बधो!! अधिक होय तो य हुं, शुद्ध होय तो य हुं, चमत्कारी चीज होय तो य हुं, प्रभु होय तो य हुं, समजाणुं कांई..?

आहा.. हा..! आवुं छे! अरेरे! जिंदगियुं!! जगतमां मजुरी करीने हाली जशे.. मजुर छे बधा.. बायडी, छोकराने धंधा! मजुर मोटा रागना छे! आहा.. हा..! अने कदाचित शुभभावमां आवे ने शुभ करे, तो ई रागनी मजुरी छे. मजुर.. मजुर!! आहा.. हा..! शुभराग ए मजुरी छे, तारी चीज नहीं ई प्रभु! तारी चीजमां तो पर्याये य नथी. एवी चीजने पकडतां जे पर्याय थाय, ए पर्यायशुद्धतामां ‘आ शुद्ध छे’ एम जणाय छे.

आहा.. हा..! ए (आत्मा) दया, दानना विकल्प के व्रतादिना भावथी ए जणाय एवो नथी. कारण के ए तो राग छे. ए तो दुःख छे. व्रत-तप भक्ति-पूजाना भाव ए तो राग छे, दुःख छे तुं तो रागरहित ज छो!! आहा.. हा..! आ भगवान तो आनंदस्वरूप छे, अतीन्द्रिय आनंदनो गांठडो छे!! आहा.. हा.! एनी सेवा एटले एनो सत्कार, एनो आदर, एनुं ज अधिकपणुं बीजी बधी वस्तुथी, ए अधिकपणुं भासतां पर्यायमां निर्मळपणुं प्रगट थाय, एने ‘आ शुद्ध छे’ एम कहेवामां आवे छे. आहा... हा..! गजब वात छे ने..! आ प्रभुनां वचनो छे बापा! बाकी बधां थोथां छे. आहा.. हा..!

समजाणुं कांई..? कांई एटले? समजाय तो तो प्रभु अलौकिक वात छे. पण, समजाणुं कांई? एटले कई पद्धतिएथी कहेवाय छे? कई रीतथी कहेवाय छे एनी गंध आवे छे?

आहा... हा..! अरे! एणे मूळ वात मूकीने बीजे बेठो छे अनादिनो. आहा.. हा..! घरे भगवान पडयो छे त्यां जातो नथी!! हें? रांको अनादिनो रांका-पामर पुण्य-पापनां भाव भिखारा- रांका पामर छे, पामरने पकडीने बेठो! एक समयनी पर्याय पण पामर छे!!

आहा.. हा..! सम्यग्द्रष्टि जीवने पूर्णतानी प्राप्ति पर्यायमां जणाय.. छतां ए पर्याय, केवळ ज्ञाननी पासे पण पामर छे. तो ए अज्ञानी, पर्यायमां स्थित, पर्याय जणाय माटे परने जाणीने पर्यायमां बेठो (एकत्वबुद्धि) करी छे ई तो भिखारीमां भिखारी पर्याय छे-रांक पर्याय छे, एमां भगवान (आत्मा) आव्यो नथी, ए पर्यायमां पामर-पुण्यने पाप, दया ने दान व्रतने भक्ति, राग- पामर जेमां आवे छे, ए पर्याय रांक भिखारा छे.

(कहे छे केः) आंही तो आवी पर्यायमां, जेणे शुद्ध द्रव्यनी, अंदरमां सेवा करी अने शुद्ध चैतन्यमूर्ति प्रभु (आत्मा)! एनो आदर थयो ने पर्यायमां एनो सत्कार थयो, त्यारे पर्यायमां सम्यग्दर्शन थयुं, ए सम्यग्दर्शने ‘आ शुद्ध छे’ एम जाण्युं, ए सम्यग्दर्शन पण केवळज्ञाननी आगळ पामर छे अने त्रिकाळी वस्तु पासे पण ए पामर छे!!

आहा.. हा..! नित्यप्रभु! शुद्ध चैतन्य-धातु-चैतन्यधातु (के जेणे) चैतन्यपणुं जे धारी राख्युं छे, जेमां पुण्य-पाप, दया-दान, व्रत-भक्तिना विकल्पनी गंध नथी. पर्याय-चौदगुण स्थाननी जेमां गंध नथी. अरे..! तेरमुं गुणस्थान ‘सयोगी केवळी’ ए पण जेमां-वस्तुमां नथी, कारण के ई पर्याय छे.


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६४ श्री प्रवचन रत्नो-१

आहा.. हा..! भगवान (आत्मा), भगवानने जेणे शोध्यो साध्यो अने शुद्ध छे तेम पर्यायमां अनुभव थयो, तेने हवे, आत्मा ज्ञायक शुद्ध छे, भूतार्थ छे एम कहेवामां आवे छे. आहा.. हा..! आवी वात छे भाई! अत्यारे तो मुश्केल पडे एवुं छे! अत्यारे श्रद्धाने नामे गोटा, मोटा गोटा छे. व्रत पाळोने.. भक्ति करोने.. व्रत करोने.. करोडो खर्चो मंदिरोमां ने..! ए बधा गोटा छे. (श्रोताः) धर्मने नामे फोफां खांडे छे! (उत्तरः) फोफां छे. रागनी कदाच मंदता होय तो पुण्य छे, पण फोफां छे. एमां जनम-मरणनो अंत नथी प्रभु! ए तो (पुण्यना भाव) जनम-मरणनां बीजडां छे, बधां!!

आहा.. हा..! ए शुभभाव पण मारो छे ने हुं करुं छुं (ए मान्यता) मिथ्यात्वभाव छे. ए मान्यतां आ अनंता चोराशीना अवतारनो गरभ छे! एनाथी अनंता अवतार निगोदने, नरकने, पशुना ने ढोरना अवतारो थशे. आहा.. हा..! न्यां कोईनी सफारीश काम नहीं आवे! अमे घणांने समजाव्यां’ ता ने.. घणांने वाडामां जैनमां (संप्रदायमां) भेयां कर्या’ ता ने..! बापु ए वस्तु जुदी छे आहा..! आंही तो बोलवानो विकल्प पण ज्यां मारो नथी.

आहा.. हा..! भगवान त्रणलोकना नाथ परमात्माने एनी वाणी पण मारी नथी. एना लक्षमां जाउ तो मने राग थाय. (तेथी) ए लक्ष छडीने चैतन्य भगवान-ज्ञायकभाव-परमपिंड निजप्रभु शुद्ध पडयो छे, एक समयनी पर्यायमां पासे ज पडयो छे, त्यां नजर करतां, जे नजरमां सम्यग्दर्शन थाय, सम्यग्ज्ञान थाय, एने ‘आ आत्मा शुद्ध छे’ एम कहेवामां आवे छे. समजाणुं कांई...?

आहा..! छठ्ठी ने अगियारमी गाथा तो अलौकिक छे. आ तो छेल्ला एक पदनी (वाक्यनी) व्याख्या चाले छे. आहा. हा..! पार.. नथी एनो!! आहा..! सम्यग्द्रष्टि-ज्ञानी संतो, आत्माना आनंदना अनुभवीओ! आहा.. हा..! एवा संतनी वाणीनुं शुं कहेवुं!!

‘ते ज’ एटले ज्ञायक, ते पुण्य-पापपणे थयो नथी ते.. केम के पुण्य-पापपणे, अप्रमत्त- अप्रमत्तपणे थयुं नथी (आत्म) द्रव्य! ‘ते ज’ (एटले) ते ज वस्तु एम’ . ‘समस्त अन्यद्रव्योना भावोथी भिन्नपणे उपासवामां आवता’ एम छे ने..? एनी सेवा करे तो-उपासवामां एटले एनी सेवा, सत्कार ने आदर करे द्रष्टिमां तो एने द्रव्य शुद्ध छे. आहा... हा! ज्ञायकनुं आव्युं (अर्थात्) (ज्ञायक भावनुं स्पष्टीकरण आव्युं)

हवे, चोथा पदनी व्याख्या. झीणुं छे प्रभु! शुं थाय! ‘हरिनो मारग छे शूरानो, कायरनां काम नथी त्यां’ -ए पुण्य-पापमां पुण्यने धरम माननारां ने पापमां अधर्म माननारां पामरो-मिथ्याद्रष्टि, एवा जीवोनुं काम नथी कहे छे.

अहींयां तो पुरुषार्थी अंतरमां आहा.. हा..! अंतर स्वरूपमां स्वीकार करनारो पुरुषार्थ छे तेवा पुरुषार्थी छे, एवा पुरुषार्थवाळानी वातुं छे आ तो!! आहा..! हवे, चोथा पदनी व्याख्या चाले छे.

(कहे छे केः) ‘वळी दाह्यना (-बळवायोग्य पदार्थना) आकारे थवाथी अग्निने दहन कहेवाय छे’ शुं कहे छे? अग्निने ‘बाळनारी’ कहेवाय छे. ए बळवायोग्य पदार्थना आकारे थवाथी (एटले के) ए लाकडाने, छाणाने बाळे त्यारे, आकार तो एवो (अग्निनो) थाय ने..! जेवा छाणा, लाकडां (होय) एवो ज आकार थाय ने..?! ए आकार (अग्नि) नो कांई एने लईने थयो नथी, ई तो अग्निनो आकार


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श्री प्रवचन रत्नो-१ ६प छे. (जेम) अडायुं सळगतुं होय ते आकारे (अग्नि देखाय छे) ‘अडायुं’ समज्या? वगडामां अमथुं छाण पडयुं होय, ते सूकाई गयुं होय. अने आम छाण भेगु करीने छाणां करे-थापे ते छाणुं अने अडायुं ते छाण पडयुं होय ने सूकाई गयुं होय, एने आपणे काठियावाडमां ‘अडायुं’ कहे छे. तो ई (अडायानी) आंही जेवी स्थति होय, एने अग्नि बाळे तो एवो आकार (अग्नि) नो थाय. पण ए आकार अग्निनो छे. एनो (अडाया) नो नथी. बळवायोग्य वस्तुने आकारे (अग्नि) थई माटे दाह्यने आकारे पराधीन अग्नि थई गई-ई बळवा योग्यने आकारे थई कहेवाय छे (छतां) एम नथी. आहा.. हा..! हजी तो आ द्रष्टांत छे हो? आत्मामां तो पछी ऊतरशे! आहा.. हा..! अरे.. रे!

(कहे छे) ‘दाह्यना बळवा योग्य पदार्थना आकारे’ एटले? छाणां-लाकडां कोलसा तेना आकारे अग्नि.. थवाथी.. दहन.. बाळनार कहेवाय छे. छे ने दहन एटले ‘बाळनार’ . ‘तो पण दाह्यकृत अशुद्धता तेने नथी’ -बळवा-योग्य-पदार्थनोजेवो आकार थयो, माटे तेनी अपेक्षाथी त्यां (अग्निनो) आकार थयो छे, एवी अशुद्धता-पराधिनता तेने (अग्नि) ने नथी. ए अग्निनो आकार थयो छे ए पोताथी थयो छे. एवे आकारे अग्नि पोताथी थई छे. ए छाणां-लाकडां-कोलसो ए आकारे अग्नि थई तो ए बळवायोग्यने आकारे (अग्नि) थई, तो बळवायोग्य ने (आधीन) थई परनी पराधीनता (अग्नि) ने छे एम नथी. आहा.. हा.. हा..! छे?

(कहे छे) ‘बळवायोग्य पदार्थना आकारे थवाथी’ अग्निने ‘बाळनार’ कहेवाय छे’ तो.. ‘बाळनार’ तेमां अवाज एवो आव्यो (के) बळवायोग्य छे तेने बाळे छे (एटले के) एने आाकारे (अग्नि) थई छे, एम नथी. ए वखते पण अग्नि पोताने आकारे थयेली छे. आहा..हा..! बळवा योग्य पदार्थने आकारे अग्नि थई (देखाय छे) ए अग्नि पोताने आकारे स्वयं पोताथी थई छे. समजाणुं कांई...?

हजी तो द्रष्टांत छे. पछी, सिद्धांत तो अंदर (आत्मामां) ऊतरशे. (कहे छे केः) तो आ दाह्यकृत-बळवायोग्य पदार्थने आकारे थयेली होवाथी, अशुद्धता (पराधीनता) अग्निनी नथी, ए अशुद्धता अग्निनी, एने लईने नथी. ई तो अग्नि (स्वयं) पोताने आकारे थयेली छे, जे आकार छे ए अग्निनोज आकार छे, बळवायोग्य पदार्थन ई.. आकार नथी. ‘तेवी रीते ज्ञेयाकार थवाथी’ -ज्ञानस्वरूपी प्रभु (आत्मा)! ज्ञेय-जणावा योग्य पदार्थने आकारे थवाथी, ए जाणे के ज्ञेयकृत आकार छे, एम नथी! ई तो ज्ञाननो पोतानो ज आकार ई रीते परिणम्यो छे. आहा.. हा..!

फरीने.. एकदम समजाय एवुं नथी आ, (कहे छे) जेम बळवायोग्यने आकारे अग्नि थवाथी, अग्नि बळवायोग्य पदार्थने आकारे थवाथी, ए (आकाररूपी) अशुद्धता अग्निने नथी, अग्नि पोते ज (स्वयं) ए आकारे थई छे. ‘तेवी रीते ज्ञेयाकार ज्ञानमां, शरीर वाणी-मन- मकान-पैसा आम देखाय.. आकार, एने (ज्ञेयने) आकारे आंही ज्ञान थयुं माटे ते ज्ञेयाकारनी अपेक्षाथी थयुं.. एवी ज्ञानना आकारने पराधीनता नथी. ज्ञान स्वयं-पोते ते रूपे-आकारे थयुं छे (एटले के) परने जाणवा काळे, परचीज जेवी छे ते आकारे ज्ञान थयुं छे ते ज्ञान (आकार) जाणवालायक (ज्ञेयपदार्थ) छे एने कारणे थयुं छे, एम नथी. ए ज्ञान ज ते आकारे (स्वयं) पोते परिणम्युं छे पोताथी स्वतंत्र!!


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६६ श्री प्रवचन रत्नो-१

(कहे छे केः) ‘ज्ञेयाकार थवाथी’ ए हवे शुं? के जरी सूक्ष्म लईए. जे राग थाय छे ने समकितीने-ज्ञानीने! राग थाय, तो राग जेवुं ज्ञेयाकार (ज्ञान) थाय! रागना जेवी आंही ज्ञाननी पर्याय थाय, पण एथी ज्ञाननी पर्याय रागने लईने थई छे, एम नथी. आहा.. हा! ए ज्ञाननी पर्याय ज ते आकारे परिणमीने स्वयं-स्वतंत्र पोताथी थई छे. आहा.. हा..! धर्मी जीवने आत्मज्ञान थयुं छे एने हजी राग आवे, तो राग आकारे आंही ज्ञान थाय, पर्यायमां जेवो राग छे, तेवुं (ज) ज्ञान थाय-पण, तेथी ते ज्ञान-आकार, ज्ञेयाकार थयुं माटे पराधीन छे, एम नथी. ए ज्ञानाकार, रागनुं ज्ञान थईने, ज्ञानाकार ज्ञान पोते पोताथी ज परिणम्युं छे. ए ज्ञेय-रागने लईने नहीं. अहा.. हा. हा!

कोने ‘आ’ पडी छे!! आखी दुनिया, बावीस कलाक, त्रेवीस कलाक बायडी-छोकरां-धंधा! पाप एकलां पाप!! कलाक वखत मळे सांभळवा जाय त्यारे, त्यां बधुं ऊंधुं मारे बधुं! आनो कलाक लूंटी ल्ये! तमने आम धरम थाशे ने... तमने आम थाशे.. तमने आनाथी थाशे ने..! आहा.. हा..! अरे.. रे! जिंदगियुं चाली जाय छे!

परमात्मानो पोकार छे प्रभु! तें तारा स्वभावनो, स्वीकार करी शुद्धता जाणी, हवे ए शुद्धता जे पर्यायमां आवी- थई, ए ज्ञानी तेनामां हजी राग थाय छे ए रागनुं ज्ञान आहीं थाय छे. ए ते राग जेवो छे तेवुं ज्ञान आंही थाय, माटे ज्ञेयकृत अशुद्धता आंही थई-ज्ञान ए आकारे थयुं माटे ज्ञेयकृत अशुद्धता थई ज नथी.

ए ज्ञाननो स्वभाव ज एवो छे, ते प्रकारे रागसंबंधीनुं ज्ञान, पोतानुं, पोताथी थयेलुं छे एवी एनी (ज्ञाननी) स्वाधीनता छे. आहा.. हा..! मारग वीतरागनो झीणो बापु! अरे, अत्यारे तो क्यांय मळतो नथी भाई! शुं कहीए..! सांभळवा मळतो नथी प्रयोग करे तो क्यांथी?

आहा... हा! शुं कहे छे? के सम्यग्द्रष्टिने, पोतानी पर्यायमां, शुद्धत्रिकाळ (द्रव्य) छे, एवुं जणाणुं, एथी एने शुद्ध कहीए. हवे, आ बाजुमां-आ बाजुमां जतां शुद्धनी पर्याय प्रगटी एमां शुद्ध जणाणो, माटे एने शुद्ध कहीए. हवे, आ बाजुमां बाकी राग छे, रागआदि जणाय छे, ते छे. ए राग जणाय छे माटे ते ‘रागनो जाणनारो छे तेनुं ज्ञान छे?’ तो, कहे ना.

ए रागसंबंधीनुं ज्ञान, रागआकारे थयुं ईज्ञान, पोताने आकारे (ज्ञानाकार) थयुं छे. ए रागने कारणे थयुं नथी, एनो (ज्ञानपर्यायना) स्वपरप्रकाशक स्वभावने कारणे ए परप्रकाशपणे ज्ञान थयुं छे. समजाणुं कांई? भाषा समजाय छे ने..! आवो मारग छे भाई...! शुं कहीए!!

आहा.. हा! आंही तो समकितीने-ज्ञानीने आत्मानुं ज्ञान थयुं के (आत्मा) त्रिकाळ शुद्ध छे. एवुं पर्यायमां ज्ञान थयुं, एथी एने शुद्ध कहेवामां आवे छे. हवे, एनी पर्यायमां-राग थाय छे अने एनी पर्यायमां आ शरीर, आ मकान आदि (परचीज) जणाय छे. तो तेमनुं ज्ञान, जेवुं ज्ञेय छे ते आकारे आंही ज्ञान थाय छे, तेथी ते ज्ञाननी पर्याय ज्ञेयने (आकारे जणाय तो) ज्ञेयने कारणे तेने पराधीनता-अशुद्धता छे? तो कहे, ना. (कारण) ए ज्ञेयकृतथी (ज्ञान) थयुं नथी, ए ज्ञाननो पोतानो स्वभाव ज परप्रकाशनो-ते प्रकारनो छे ते प्रकारथी ते रीते थयुं छे!! गहन विषय छे बापु!

अरे! आ सत्य हाथमां न आवे तो मरी जवाना छे बिचारां! चोराशीना अवतारमां


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श्री प्रवचन रत्नो-१ ६७ रखडी-रखडीने, सोथा नीकळी ग्या छे बापु! प्रभु तो कहे छे के तारा दुःखनां, एकक्षण-तारा एकक्षणनां दुःख नर्कनां प्रभु! करोडो भवथी ने करोडो जीभथी न कही शकाय. एवा ते दुःखो तें एकक्षणमां वेठयां छे. एवां-एवां तेत्रीस सागर ने एवां अनंतकाळ! ए मिथ्यात्वने लईने बधुं (दुःख) छे बापु! आहा.. हा! तो, सम्यग्दर्शन विना, ए चोराशीना अवतारमां मरी जईश बापा! रखडीने, क्यांय अंत नहि आवे क्यांय भाई..!

(भवना अंत लावे) एवुं जे सम्यग्दर्शन!! आहा..! जेणे त्रिकाळी शुद्धने पकडयो अने ज्ञाननी पर्यायमां शुद्धतानो-आनंदनो स्वाद आव्यो अने ‘स्वप्रकाशक’ पर्याय ज्ञाननी थई, हवे एने पण हजी थोडुं’ क-पूरण केवळ ज्ञान नथी एथी एने राग आवे छे, तो ए रागनुं ज्ञान आंही थाय छे. राग जेवुं ज, मंदराग होय तो मंदनुं, तीव्र होय तो तीव्रनुं-तो ए राग छे, तो रागकृत- रागआकारे ज्ञान थयुं छे? (ना) ई तो ज्ञाननी पोतानी ज्ञानकृतज्ञान, पोताने (स्वयंने) आकारे थवाथी थयुं छे. आहा.. हा!

अरे...! आवुं बधुं (समजवुं), वाणियाने धंधा आडे! आहा...! वाणियाने जैन धरम मळ्‌यो!! आहा! मारग झीणो भाई..! आहा... हा... हा गजब वात कहे छे ने..!

प्रभु! ... तने कहे छे के आत्मानुं ज्ञान थयुं, पण हवे ए शुद्धचैतन्यनुं ज्ञान थयुं पर्यायमां, पण तारी पर्यायमां जे हजी राग थाय छे. अने ते पर्यायनुं ज्ञान हजी छे! एमां परनुं ज्ञान (एटले के) शरीरनुं, स्त्रीनुं, कुटुंबनुं-जेवा भाव थाय एवी रीते आंही ज्ञान थाय छे. तो ई ज्ञेय छे एनी अपेक्षाथी (आंही) ज्ञान थयुं छे. तो ई ज्ञाननो परप्रकाशनो स्वतःस्वभाव होवाथी, परनी अपेक्षा विना, ते ज्ञानकृत, परनुं जाणवानुं (ज्ञान) पर्याय थयो ए ज्ञातानुं कार्य छे. आहा.. हा! समजाणुं कांई..?

फरीने.. आ तो जणाणो शुद्ध (आत्मा) एने पर जणाय छे शुं? एनी वात हाले छे. जेने आत्मानुं ज्ञान नथी, एनी तो वात छे ज नहीं. ए तो पराधीन थईने, मिथ्यात्वने लईने रखडी मरवाना छे. आहा.. हा! जेने, ई आत्मा ज्ञानस्वरूपी प्रभु! (नो अनुभव थयो) ए जिन स्वरूपी वस्तु! ए जिनना परिणाममां जिनस्वरूपी वस्तु जणाणी, शुद्ध परिणाममां, शुद्धवस्तु जणाणी एने शुद्ध कीधुं छे.

हवे, आ बाजुमां के आ बाजुमां (परप्रकाशकमां) ज्ञाननी पर्याय, हजी जेवो राग थाय, द्वेष थाय ते प्रकारे ते ज्ञान (पर्याय) तेवुं जाणे! तेथी ते ज्ञान, ते ज्ञेयकृतना कारणे ते अशुद्ध छे? के पराधीन छे? ना. ए ज्ञाननो ते वखतनो स्वभाव ज, एने प्रकाशवाना काळमां परने प्रकाशवानो स्वभाव स्वतः छे, स्वतःपणे ज्ञान, रागने जाणतुं परिणमे छे. आहा.. हा! “ते ज्ञायकनुं ज्ञान छे, ते रागनुं ज्ञान नहीं” एम कहे छे अरे.. रे! आ ते मळे नहीं त्यां शुं करे?! आहा..! अरे, अनंतभव थयां! जैनसाधु थयो, दिगंबर साधु अनंतवार थयो! पण, आ रागनी एकता तोडीने स्वभावनुं ज्ञान कर्युं नहीं अने स्वभावनुं ज्ञान थवामां परनी कोई अपेक्षा.. छे नहीं!

हवे, आंही तो ‘परनुं ज्ञान’ करवामां पण परनी अपेक्षा नथी. आहा.. हा! समजाणुं कांई...? समजाय एटलुं समजवुं प्रभु! आ तो.. त्रणलोकना नाथनी वातुं छे बापा! जेने ईंद्रो ने गणधरो सांभळे, ए वात बापा कांई साधारण वात हशे!!

आहा... हा! ‘ज्ञेयाकार थवाथी ते भावने’ ते भावने एटले ज्ञेयाकार थयेलुं जे ज्ञान, ते भावने


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६८ श्री प्रवचन रत्नो-१ ‘ज्ञायकपणुं’ प्रसिद्ध छे-ई ‘जाणनारो’ छे एम प्रसिद्ध छे.

पण, ‘जाणनारो’ छे ए शुं? ‘तो पण ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी’ (कहे छे केः) राग जणाय छे ने तेनुं ज्ञान आंही थाय छे माटे रागनी अपेक्षा राखीने ज्ञान थयुं छे अहींयां, एम नथी. आहा... हा!

विशेष कहेवाशे...

* * *





व्यवहारनय ते काळे जाणेलो प्रयोजनवान छे
एटले के तेकाळे व्यवहार छे एम जाणेलो प्रयोजनवान
छे. वास्तवमां तो ते पोतानी पर्यायने जाणे छे तेमां ते
जणाई जाय छे. आवी वात छे. भगवान केवळी
लोकालोकने जाणे छे एम आवे छे ने? हा. पण ए
तो असद्भुत व्यवहारनय छे. खरेखर तो भगवान
जेमां लोकालोक प्रकाशे छे एवी पोतानी पर्यायने ज
जाणे छे. तेम ज्ञानी रागने जाणे छे एम उपचारथी-
व्यवहारथी कथन छे.
(प्रव. रत्ना. भाग-७ पानु-११७)