Pravach Ratno Part 1-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 5-6 ; Pravachan: 20 ; Date: 29-06-1978.

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४८ श्री प्रवचन रत्नो-१

श्री समयसार गाथा प भावार्थ प्रवचन क्रमांक–२० दिनांकः २९–६–७८

“भावार्थः आचार्य आगमनुं सेवन, युक्तिनुं अवलंबन, परापर गुरुनो उपदेश अने स्वसंवेदन ए चार प्रकारे उत्पन्न थयेल ज्ञानना विभवथी एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्मानुं स्वरूप देखाडे छे.

तेने सांभळनारा हे श्रोताओ! पोताना स्वसंवेदन-प्रत्यक्षथी प्रमाण करो; अहीं पोतानो अनुभव प्रधान छे तेनाथी शुद्धस्वरूपनो निश्चय करो- एम कहेवानो आशय छे.”

(शुं कहे छे) आचार्ये आगमनुं सेवन करवानुं कह्युं, तो ए आगम कया? आगम एने कहीए-अरिहंतना-सर्वज्ञना मुखे नीकळेली वात. कल्पित आगमो जे छे, लोकोए करेलां ए नहीं. सर्वज्ञ, त्रिलोकनाथ परमात्मा, एना मुखे नीकळेली वाणी ‘मुख ओंकार ध्वनि सूनि, अर्थ गणधर विचारै’ - ए वाणीने आगम कहेवामां आवे छे. अहा...! ए आगमनुं सेवन आकरी वात छे! खरेखर तो श्वेतांबरना आगम पण ए आगम नथी, एम सिद्ध थाय छे, (तेथी) एनुं सेवन अने अनुभवमां ए निमित्त थाय, एम छे नहीं. (अनुभवमां जे निमित्त थाय) ए आ आगम. सर्वज्ञे कहेली वाणी, एने गणधरे गूंथी होय ते वाणी आगम. आहा.. हा! ए आगमनुं सेवन. एक वात.

‘युक्तिनुं अवलंबन’ (एटले) अन्यमतो जेटला एकांतिक छे, ए (सर्वनी) निस्तुष युक्तिथी जेनुं अमे खंडन कर्युं छे (अर्थात्) निराकरण करीने अमने अनुभव थयो छे. आहा.. हा! जेटला-३६३ पाखंड छे ए बधानुं युक्तिथी अमे निराकरण कर्युं छे के ए वस्तु (एमनी वात) खोटी छे. आहा.. हा! झीणी वात बहु...!! बे वात.

(त्रीजी वात) ‘परापर गुरुनो उपदेश’ - आहा..! अरिहंतथी मांडीने अमारा गुरु पर्यंत, एनी परंपरानो मळेलो उपदेश अने चोथुं ‘स्वसंवेदन’ (पहेलां कह्यां ए) त्रण निमित्त, चोथुं स्वसंवेदन उपादान.

आहा.. हा! ते चार प्रकारे उत्पन्न थयेली, पोताना ज्ञानना विभवथी (एटले) मारा ज्ञानना, निजना विभवथी ‘एकत्व-विभक्त’ - एकत्व-विभक्त करवुं छे ने...! अंतर पूरण अतीन्द्रिय ज्ञान आनंदथी एकत्व छे अने रागादि-विकल्पथी पृथक-विभक्त छे. छेखरो रागादि, पण छे पृथक! आहा... हा! व्यवहार रत्नत्रयनो जे विकल्प ऊठे-ए रागथी पण पृथक आत्मा छे. समजाणुं कांई...?

आहा.. हा! ‘स्वसंवेदन’ -चार प्रकारे (थयुं तो हवे) ज्ञानमां एकत्व-विभक्त एवो शुद्ध आत्मा, एनुं स्वरूप (आचार्यदेव) देखाडे छे.

गमे ते प्रकारनो शुभराग हो... पण एनाथी तो प्रभु! आत्मतत्त्व भिन्न छे, केमके... ए राग छे ते तो आस्रवतत्त्वमां जाय छे अने आत्मा छे ते तो ज्ञायकतत्त्व छे. बे तत्त्वनवतत्त्वमां तद्न जुदा छे. आहा... हा... हा.!


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श्री प्रवचन रत्नो-१ ४९

(आचार्यदेव) एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्मानुं स्वरूप देखाडे छे अने सांभळनारा हे श्रोताओ! (तमे) पोताना स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी प्रमाण करो!! (जुओ!) एमां कांई एकला मुनिने नथी कह्युं (परंतु) जे श्रोताओ छे ते सर्वने कह्युं छे.

आहा... हा! बापु! करवा जेवुं तो ‘आ’ छे. जे कंई कर्तव्य छे मोक्षना मार्गनुं, ए तो रागथी भिन्न ने स्वभावथी अभिन्न ते कर्तव्य छे.

(कहे छे केः) सांभळनारा हे श्रोताओ! पोताना स्वसंवेदन प्रत्यक्षथी प्रमाण करो-पोतानी जातना अनुभवमां प्रमाण-प्रत्यक्ष-अनुभवथी-प्रत्यक्ष एनुं वेदनथी प्रत्यक्ष प्रमाण करो एटले के अनुभव करो. आहा.. हा! प्रथम तो ‘आ’ करवानुं छे. पछी आगळ शांति वधे स्वनाआश्रयथी ने विकल्पो आवे व्रतना, पंचमगुणस्थाने छठ्ठे गुणस्थाने (यथा) योग्य, पण ए बधा विकल्पो आस्रव छे.

आहा... हा! करवानुं तो ‘आ’ छे. ए वखते पण विभक्तपणुं छे ए तारे करवानुं छे. व्रतो.. आवे-छठ्ठे गुणस्थाने पंचमहाव्रतादि, पांचमे बारव्रत, पण ए वखते पण एनाथी विभक्त करवानुं छे, एनां एकत्वथी-एनाथी (विकल्प करतां-करतां) विभक्त थवाय नहीं. ए शुभरागनां एकत्वथी, एनाथी भिन्न पडाय-एम नहीं, एनाथी भिन्न पाड, तो भिन्न पडे समजाणुं कांई...?

(कहे छे) ‘अहीं पोतानो अनुभव प्रधान छे’ - अनुभवनी मुख्यता छे, आंहीतो! आहा..! तेनाथी शुद्धस्वरूपनो निश्चय करो- ‘एम कहेवानो आशय छे’

जयचंदपंडिते भावार्थमां लख्युं छे. पहेलांना पंडितो य एवा हतां!! दिगंबर पंडितो- जयचंदपंडित, टोडरमल्ल, बनारसीदास, भागचंदजी आदि ओहोहो! जयचंद पंडिते आ भावार्थ कर्यो छे के आचार्यने आम कहेवुं छे अहा...! चालती भाषामां (सौने समजाय.)

त्यारे... हवे, शिष्यने प्रश्न ऊपजे छे. हवे प्रश्न ऊपजे छे के एवो शुद्ध आत्मा कोण छे? छे पाठमां? (जुओ!) मथाळुं छे. “कोऽसौ शुद्ध आत्मेति चेत्” - ए एकत्व छे ने परथी विभक्त छे. एवो शुद्ध आत्मा छे केवो!? के जेनुं स्वरूप जाणवुं जोईए?

शिष्यनो आ प्रश्न अंतरथी आव्यो छे, के आवो तो, शुद्ध आत्मा-स्वभावथी अभेद अने रागथी भेद, एवो शुद्ध आत्मा कोण छे?! के जेनुं स्वरूप जाणवुं जोईए?

एम छे ने? छे के नहीं मथाळे? आवी जेने अंतर जिज्ञासाथी प्रश्न ऊठयो छे, एवा श्रोताने उत्तर देवामां आवे छे. आम (-अमथुं) सांभळवा साधारण आव्या छे, एवाओ माटे नहीं, कहे छे. अहा..! जेने अंतरथी प्रश्न ऊठयो छे के ए शुद्ध आत्मा ते कोण छे?! आहा..! शुं छे ई ते (तत्त्व!) के जेनुं ‘स्वरूप’ जाणवुं जोईए. (जुओ शिष्यने) बीजा द्रव्यनुं (स्वरूप) जाणवुं- ए प्रश्न एने ऊठयो नथी (विश्वना) छ द्रव्यो अने छ द्रव्यना गुण... ने (पर्याय) ए तो वात साधारण एमां गौणपणे आवी गई.

आहा.. हा! आवो जे भगवान आत्मा! शुद्ध स्वरूप!! स्वभावथी एकत्व ने रागथी विभक्त, एवो जे शुद्ध, ए ते आत्मा कोण छे, केवो छे?! के जेनुं ‘स्वरूप’ जाणवुं जोईए, एवो ते शुद्ध कोण छे के जेनुं ‘स्वरूप’ जाणवुं जोईए. (जुओ!) छे?

ए प्रश्नना उत्तररूप गाथा छे. (ओहो!) आवो जेने प्रश्न अंतरमांथी ऊठयो छे, एवा


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प० श्री प्रवचन रत्नो-१ श्रोताओने माटे आ उत्तर छे. अहा.. हा.. हा..! अमृतचंद्राचार्य शैली करे छे. के जेने अंतरथी ऊठयुं छे के आ शुद्ध छे वस्तु अंदर! पूर्णानंदनो नाथप्रभु (ज्ञायकध्रुव), ए विकल्पना विकारथी तद्न जुदो अने पोताना परिपूर्ण स्वभावथी एकत्व-अभेद एवो ते शुद्ध आत्मा छे.

एवो शुद्ध आत्मा छे कोण? के जेनुं ‘स्वरूप’ जाणवुं जोईए. आवो प्रश्न अंतरमांथी जेने ऊठयो छे, एवा श्रोताओने आ उत्तर देवामां आवे छे. शुं शैली!

* * *

-रागना काळे ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक पर्याय
पोताथी प्रगट थाय छे. द्रव्यनुं ज्ञान पर्यायमां आवे ते
स्वप्रकाशक अने पर-राग संबंधी पोतानुं ज्ञान
पोतानी पर्यायमां थाय ते परप्रकाशक. त्यां रागथी
ज्ञाननी स्वपरप्रकाशक पर्याय थई छे एम नथी.
स्वपरप्रकाशक ज्ञाननी पर्याय तो पोताथी थई छे, तेमां
राग निमित्त छे. ज्ञाननी जे परिणत्ति प्रगट थई तेनो
कर्ता पोतानो आत्मा छे. तेमां राग निमित्त छे,
निमित्तकर्ता नहीं.
(प्रव. रत्ना. भाग-प, पानुं-१२)
-धर्मी रागनो ज्ञाता छे एम कहेवुं ए पण
व्यवहार छे केमके रागमां ज्ञानी तन्मय नथी. ज्ञानी तो
रागसंबंधी जे ज्ञान थयुं ते ज्ञानमां तन्मय छे अने ते
ज्ञाननो जाणनार छे. (तन्मय थया विना जाणवानुं
बनी शके नहि)
(प्रव. रत्ना. भाग-प, पानुं-३८२)

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श्री प्रवचन रत्नो-१ प१

गाथा–६

हवे प्रश्न ऊपजे छे के, एवो शुद्ध आत्मा कोण छे के जेनुं स्वरूप जाणवुं जोईए? ए प्रश्नना उत्तररूप गाथासूत्र कहे छेः

कोडसौ शुद्ध आत्मेति चेत्।

ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव।। ६।।
नथी अप्रमत्त के प्रमत्त नथी जे एक ज्ञायक भाव छे,
ए रीते ‘शुद्ध’ कथाय, ने जे ज्ञात ते तो ते ज छे. ६

गाथार्थः– [यः तु] जे [ज्ञायकः भावः] ज्ञायक भाव छे ते [अप्रमत्तः अपि] अप्रमत्त पण [न भवति] नथी अने [न प्रमतः] प्रमत्त पण नथी, [एवं] ए रीते [शुद्ध] एने शुद्ध [भर्णान्त] कहे छे; [च यः] वळी जे [ज्ञातः] ज्ञायकपणे जणायो [सः तु] ते तो [सः एव] ते ज छे, बीजो कोई नथी.

टीकाः– जे पोते पोताथी ज सिद्ध होवाथी (कोईथी उत्पन्न थयो नहि होवाथी) अनादि सत्तारूप छे, कदी विनाश पामतो नहि होवाथी अनंत छे, नित्य उद्योतरूप होवाथी क्षणिक नथी अने स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति छे एवो जे ज्ञायक एक ‘भाव’ छे, ते संसारनी अवस्थामां अनादि बंधपर्यायनी निरूपणाथी (अपेक्षाथी) क्षीरनीरनी जेम कर्मपुद्गलो साथे एकरूप होवा छतां, द्रव्यना स्वभावनी अपेक्षाथी जोवामां आवे तो दुरंत कषायचक्रना उदयनी (-कषायसमूहना अपार उदयोनी) विचित्रताना वशे प्रवर्तता जे पुण्य-पापने उत्पन्न करनार समस्त अनेकरूप शुभ-अशुभ भावो तेमना स्वभावे परिणमतो नथी (ज्ञायक भावथी जड भावरूप थतो नथी) तेथी प्रमत्त पण नथी अने अप्रमत्त पण नथी; ते ज समस्त अन्य द्रव्योना भावोथी भिन्नपणे उपासवामां आवतो ‘शुद्ध’ कहेवाय छे.

वळी दाह्यना (-बळवायोग्य पदार्थना) आकारे थवाथी अग्निने दहन कहेवाय छे तो पण दाह्यकृत अशुद्धता तेने नथी, तेवी रीते ज्ञेयाकार थवाथी ते ‘भाव’ ने ज्ञायकपणुं प्रसिद्ध छे तो पण ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी; कारणके ज्ञेयाकार अवस्थामां ज्ञायकपणे जे जणायो ते स्वरूप-प्रकाशननी (स्वरूपने जाणवानी) अवस्थामां पण, दीवानी जेम, कर्ता-कर्मनुं अनन्यपणुं होवाथी ज्ञायक ज छे- पोते जाणनारो माटे पोते कर्ता अने पोताने जाण्यो माटे पोते ज कर्म. (जेम दीपक घटपटादिने प्रकाशित करवानी अवस्थामांय दीपक छे अने पोताने- पोतानी ज्योतिरूप शिखाने-प्रकाशवानी अवस्थामां पण दीपक ज छे, अन्य कांई नथी; तेम ज्ञायकनुं समजवुं.)

भावार्थः– अशुद्धपणुं परद्रव्यना संयोगथी आवे छे. त्यां मूळ द्रव्य तो अन्य द्रव्यरूप थतुं ज नथी, मात्र परद्रव्यना निमित्तथी अवस्था मलिन थई जाय छे. द्रव्य-द्रष्टिथी तो द्रव्य जे छे ते ज छे अने पर्याय (अवस्था)-द्रष्टिथी जोवामां आवे तो मलिन ज देखाय छे. ए रीते आत्मानो स्वभाव ज्ञायकपणुं मात्र छे, अने तेनी अवस्था पुद्गलकर्मना निमित्तथी रागादिरूप मलिन छे ते पर्याय छे. पर्यायनी द्रष्टिथी जोवामां आवे तो ते मलिन ज देखाय छे अने द्रव्यद्रष्टिथी जोवामां आवे तो ज्ञायकपणुं तो ज्ञायकपणुं


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प२ श्री प्रवचन रत्नो-१ ज छे, कांई जडपणुं थयुं नथी. अहीं द्रव्यद्रष्टिने प्रधान करी कह्युं छे. जे प्रमत्त-अप्रमत्तना भेद छे ते तो परद्रव्यना संयोगजनित पर्याय छे. ए अशुद्धता द्रव्यद्रष्टिमां गौण छे, व्यवहार छे, अभूतार्थ छे, असत्यार्थ छे, उपचार छे. द्रव्यद्रष्टि शुद्ध छे, अभेद छे, निश्चय छे, भूतार्थ छे, सत्यार्थ छे, परमार्थ छे. माटे आत्मा ज्ञायक ज छे; तेमां भेद नथी तेथी ते प्रमत्त-अप्रमत्त नथी. ‘ज्ञायक’ एवुं नाम पण तेने ज्ञेयने जाणवाथी आपवामां आवे छे कारण के ज्ञेयनुं प्रतिबिंब ज्यारे झळके छे त्यारे ज्ञानमां तेवुं ज अनुभवाय छे. तोपण ज्ञेयकृत अशुद्धता तेने नथी कारण के जेवुं ज्ञेय ज्ञानमां प्रतिभासित थयुं तेवो ज्ञायकनो ज अनुभव करतां ज्ञायक ज छे. ‘आ हुं जाणनारो छुं ते हुं ज छुं, अन्य कोई नथी’ - एवो पोताने पोतानो अभेदरूप अनुभव थयो त्यारे ए जाणवारूप क्रियानो कर्ता पोते ज छे अने जेने जाण्युं ते कर्म पण पोते ज छे. अवो एक ज्ञायकपणामात्र पोते शुद्ध छे. - आ शुद्धनयनो विषय छे. अन्य परसंयोगजनित भेदो छे ते बधा भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिकनयनो विषय छे. अशुद्धद्रव्यार्थिकनय पण शुद्ध द्रव्यनी द्रष्टिमां पर्यायार्थिक ज छे तेथी व्यवहारनय ज छे एम आशय जाणवो.

अहीं एम पण जाणवुं के जिनमतनुं कथन स्याद्वादरूप छे तेथी अशुद्धनयने सर्वथा असत्यार्थ न मानवो; कारण के स्वाद्वाद प्रमाणे शुद्धता अने अशुद्धता-बन्ने वस्तुना धर्म छे अने वस्तुधर्म छे ते वस्तुनुं सत्त्व छे; अशुद्धता परद्रव्यना संयोगथी थाय छे, ए ज फेर छे. अशुद्धनय ने अहीं हेय कह्यो छे कारण के अशुद्धनयनो विषय संसार छे अने संसारमां आत्मा कलेश भोगवे छे; ज्यारे पोते परद्रव्यथी भिन्न थाय त्यारे संसार मटे अने त्यारे कलेश मटे. ए रीते दुःख मटाडवाने शुद्धनयनो उपदेश प्रधान छे. अशुद्धनयने असत्यार्थ कहेवाथी एम न समजवुं के आकाशना फूलनी जेम ते वस्तुधर्म सर्वथा ज नथी. एम सर्वथा एकांत समजवाथी मिथ्यात्व आवे छे; माटे स्याद्वादनुं शरण लई शुद्धनयनुं आलंबन करवुं जोईए. स्वरूपनी प्राप्ति थया पछी शुद्धनयनुं पण आलंबन नथी रहेतुं. जे वस्तुस्वरूप छे ते छे- ए प्रमाणद्रष्टि छे. एनुं फळ वीतरागता छे. आ प्रमाणे निश्चय करवो योग्य छे.

अहीं, (ज्ञायकभाव) प्रमत्त-अप्रमत्त नथी एम कह्युं छे त्यां ‘प्रमत्त-अप्रमत्त’ एटले शुं? गुणस्थाननी परिपाटीमां छठ्ठा गुणस्थान सुधी तो प्रमत्त कहेवाय छे अने सातमाथी मांडीने अप्रमत्त कहेवाय छे. परंतु ए सर्व गुणस्थानो अशुद्धनयनी कथनीमां छे; शुद्धनयथी आत्मा ज्ञायक ज छे.

* * *
-भगवान! तुं छो के नहीं? आ बधुं छे अने ए बधुं जणाय छे ते
पण तारी पर्यायमां जणाय छे. जे पर्यायमां बधुं जणाय छे ते पर्याय जेटलो
तुं छो? आ बधुं जणाय छे जेनी सत्तामां-जेनी हयातीमां एटलुं पर्यायनुं
जाणपणुं एटलामां ए जणातुं नथी. खरेखर तो ए पर्याय जणपाय छे.
जेनी वर्तमान दशामां आ बधुं छे एम जाणे छे कोण? जाणनारनी दशा
जाणे छे. जाणनारनी दशा खरेखर तो पोताने जाणे छे. पण तेनुं लक्ष पर
उपर छे एथी जाणे हुं आने जाणुं छुं.
(पू. गुरुदेवश्रीनुं नियमसार गाथा ८८/८९ उपरनुं प्रवचन दिनांक -
२३-११-७९ मांथी)

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श्री प्रवचनो रत्नो-१ प३

प्रवचन क्रमांक – २० दिनांकः २९–६–७८

६. गाथार्थः– ‘जे ज्ञायक भाव छे ते अप्रमत्त पण नथी अने प्रमत्त पण नथी’ - ए रीते एने शुद्ध कहे छे’ ... आहा! कहेशे टीकामां. (आचार्यदेव) ए वस्तु पोते जे शुद्ध छे, परथी विभक्त (अर्थात्) शुभ-अशुभरूपे थई ज नथी. ज्ञायक भाव जे छे, ए वस्तुस्वरूप छे, ए शुभाशुभ भावपणे थई नथी. केम? के शुभाशुभ भाव जड छे, एमां चेतननो अभाव छे. ओ... हो.. हो..! ए ज्ञायक स्वरूप! शुभाशुभ भावपणे थाय तो जड थई जाय. जुओ..! एकत्व-विभक्त सिद्ध करे छे. ए शुभाशुभ (भाव) थी भिन्न छे, एटले शुभाशुभपणे पर्याय थई ज नथी. पर्यायमां ज्ञायक छे ने... ए शुभाशुभभावपणे थयो ज नथी. जो शुभाशुभभावपणे थाय, तो प्रमत्त-अप्रमत्त दशाओ उत्पन्न थाय. समजाणुं कांई..? आहा... हा! बहु झीणुं बापु! ए ज्ञायक भाव छे. बहेननी भाषामां आव्युं छे ने... “जागतो जीव ऊभो छे ने ते कयां जाय?” ते आ. जागतो एटले ज्ञायक, ज्ञायक एटले के ध्रुव, ए शुभाशुभ भावपणे थयो नथी. केम के ज्ञानस्वरूपी प्रभु! (चेतन) छे, ए शुभ-अशुभ (भाव) अचेतन छे, एमां ज्ञाननो (चैतन्य) नो अंश नथी- ए रीते ए केम थाय? आहा... हा..! शुभाशुभ भावरूपे ज्ञायक थयो ज नथी., एटले एनाथी पृथक ज रह्यो छे.

आहा... हा! ‘ए रीते एने शुद्ध कहे छे’ (कहे छे के) शुभाशुभ भावरूपे ज्ञायक भाव थयो नथी तेथी ते अप्रमत्त-प्रमत्त पण नथी. (गाथा) मां पहेलां अप्रमत्त लीधुं छे ने...! आहा..! अप्रमत्त पण नथी. सातमा (गुण स्थानथी) चौद सुधी अप्रमत्त, एकथी छ (गुणस्थान) प्रमत्त. पहेलां अप्रमत्तथी उपाडयुं (आचार्ये) केम के ज्ञायक भाव एकरूप वस्तु छे. ए शुभ-अशुभ भावरूपे थई नथी. तेथी ते अप्रमत्त-प्रमत्त एवां गुणस्थान भेदो, ज्ञायक भावमां नथी. एटले? चैतन्यनो एकरूपरस जाणक् स्वभावनो एकरूपरस, ए बीजारूपे (अर्थात्) शुभाशुभ भावरूपे थयेल नथी. आहा.. हा! ए तो ज्ञायकरूप-एकरूपरसे रह्यो छे.

(श्रोताः) आमां कांई समजातुं नथी. (उत्तरः) कांई समजातुं नथी? ए तो चैतन्यस्वभावना रसे ज रह्यो छे. एमां अचेतननो अंश अडयो नथी. अचेतनना शुभाशुभ रसभावे, चैतन्यरस- ज्ञायकरस- ज्ञायक अस्तित्व- जेनी हयाति ज्ञायक स्वभावरूप छे. ते... शुभाशुभ भावपणे थयो नथी, एनाथी पृथक छे, (ते) ज्ञायकभावे ज रह्यो छे. माटे प्रमत्त-अप्रमत्त एवा भेद तेने लागु पडता नथी. आहा.. हा..! समजाणुं कांई...?

(श्रोताः) अप्रमत्त ए पण अशुद्ध परिणाम छे? (उत्तरः) हा, भेद छे ने...! ए गुणस्थानो नथी आत्मामां. चौदेय गुणस्थानो नथी, भेद छे ने...! भेदमां उदयभाव छे ने..! ए भेदो छे. (आत्मा) शुभाशुभ भावपणे थयो नथी, तेथी ते अप्रमत्त-प्रमत्त नथी, तेथी ते गुणस्थानना भेदरूप थयो ज नथी.

(श्रोताः) शुभाशुभ भाव छे ने...! (उत्तरः) एने तो अचेतन कहेल छे. छेल्ले गाथा-६८

(गाथार्थः- जे आ गुणस्थानो छे ते मोहकर्मना उदयथी थाय छे एम (सर्वज्ञनां आगममां) वर्णववामां


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प४ श्री प्रवचन रत्नो-१ आव्युं छे; तेओ जीव केम होई शके के जेओ सदा अचेतन कहेवामां आव्या छे?) आहा.. हा..! अलौकिक छे भई आ वात! अनंतकाळमां एणे, भवनो अंत आवे- ए वात जाणी नथी. अहा...! भवना अंतवाळी चीज छे!!

कहे छे भव ने भवनो भाव जेमां नथी, केमके शुभ-अशुभपणे (ते..) ज्ञानरस-चैतन्यधाम- चैतन्यरसकंदप्रभु-अनादि अनंत एकरूप (रसे ज रह्यो छे.) आहा... हा..! ए कोई दि’ शुभाशुभ पणे थयो ज नथी. तेथी प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानभेद एमां नथी. अहा..! ‘ज्ञायकभाव एकरूप छे, एमां भेद नथी’ गुणस्थानना भेदो एमां छे नहीं.

आहा.. हा..! ए द्रष्टिनो विषय छे. ए ज्ञायकने अहींयां भूतार्थ कीधो छे (एटले) छतो पदार्थ-वस्तु एकरूप- नित्यज्ञायकभाव- ज्ञायकभाव- ध्रुवस्वभाव!! चैतन्यना पूरनो ध्रुवप्रवाह!!

(जुओ..!) पाणीना पूर आम हाले आ पूर ध्रुव... ध्रुव.. ध्रुव.. ध्रुव ए ज्ञायकपणे जणायो छे, तो शुद्ध, पण जणायो एने शुद्ध कहे छे.

(कहे छे केः) ‘वळी जे ज्ञायकपणे जणायो ते तो ते ज छे’ एटले? जाणनारो जणायो... ए जाणवानी पर्याय पोतानी छे. जाणवानी जे वस्तु छे ए जणाणी, ए जणाणी–पर्याय ए पोतानी छे. ए पर्याय पोतानुं कार्य छे अने आत्मा एनो कर्त्ता छे. जाणनारो... एवो ध्वनि छे ने...! तो, जाणनारो एटले जाणे. परने जाणे छे? जाणनार कीधो ने...! जाणनार छे, तो ते परने जाणे छे? ते कहे... ‘ना’ ए तो परसंबंधीनुं ज्ञान पोताथी, पोतामां स्वपर–प्रकाशक थाय छे. ते पर्याय ज्ञायकनी छे. ए ज्ञायकपणे रहेलो छे. ए ज्ञायकने जाणनार पर्याय, ते तेनुं कार्य छे. जणावा योग्यवस्तु छे एने ई जाणवानुं कार्य नथी, ई जणावा योग्यवस्तु छे ई जाणनारनुं कार्य नथी. आहा...! आवुं छे!!

‘ज्ञायकपणे जणायो’ ... कीधुं ने...! ज्ञातः ‘जणायो ते तो ते ज छे’ - ‘जाणनारो’ ... (कीधो) छे माटे बीजो्र जणायो एमां एम नथी. तो ‘जाणनार’ छे ने..! तो ‘जाणनार’ ने बीजो जणाणो एमां...? (कहे छे के) ना, एम नथी. ए जणाय छे ई पोताने पोतानी पर्याय जणाय छे. ‘जाणनारनी पर्याय जणाणी छे’ आहा..! रागादि होय, पण रागसंबंधीनुं ज्ञानजे छे ने...! ए ज्ञान तो पोताथी प्रगटेलुं छे, ए राग छे माटे आंही स्वपर प्रकाशक ज्ञाननी पर्याय प्रगटी छे, एम नथी. आहा... हा... हा.. हा!

‘जणायो ते पोते ज छे’ एम कहे छे. ‘जणायो’ जे ज्ञाननी पर्यायमां, ए ‘जाणनारो’ एम अवाज आवे! एटले के जाणे के ‘बीजाने जाण्युं’ - ई एनुं बीजानुं कार्य छे. (कहे छे के) ना. बीजाने जाणवाने काळे, पोतानो पर्याय पोताथी जणाणो छे– पोताथी थयो छे, एने ते जाणे छे.

आहा... हा..! (श्रोताः) बीजो छे एम कह्युं एटले? (उत्तरः) बीजाने-बीजो एटले राग नथी, रागनुं ज्ञान नथी- ए रागनुं ज्ञान नथी, (ए तो) एनुं ज्ञाननुं ज्ञान छे. (स-सार बारमी गाथामां) व्यवहार जाणेलो प्रयोजनवान एम आवशे, पण कहे छे के ए राग छे तो रागनुं ज्ञान थयुं छे, एम नथी. अने रागने जाणे छे एम नथी. ए तो रागसंबंधीनुं पोतानुं ज्ञान, पोताने थयुं छे, तेने ई जाणे छे. आहा.. हा..! आवी


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श्री प्रवचन रत्नो-१ पप वात छे!

(श्रोताः) ई जाणे छे ते आत्मानी पर्याय छे! (उत्तरः) पर्याय, पोतानी छे, ई जणाणो, जेमां ई पर्याय पोतानी छे एने जाणे. आ परने जाणे छे, एम नथी. आहा... हा..! झीणी वात छे भाई! अभ्यास नहीं ने... ‘आ’, अनंतकाळनो मूळ चीजनो.

आहा... हा! ‘ते ज छे’ एम छे ने? ‘बीजो नथी’ एटले? ए रागनुं ज्ञान नथी. परनुं-जणाणुं छे- जाणनारो जणाणो छे, माटे ए जाणनारो परने जाणे- ए माटे परने जाणवानुं ज्ञान छे, एम नथी.

आहा.. हा! शब्दे, शब्दे... गूढता छे. आ तो समयसार छे!! एमां कुंदकुंदाचार्य! (मांगलिक) मां त्रीजे नंबरे आव्युं छे ने... मंगलम् भगवान वीरो, मंगलम् गौतमो गणी मंगलम् कुंदकुंदार्यो! आहा.. हा..! पहेला भगवान, बीजा गणधर, त्रीजा कुंदकुंदाचार्य! जैन धर्मोऽस्तु मंगलम्। आहा.. हा..! आकरी वातो बहु!! पुरुषार्थ घणो जोईए भाई...!

‘वळी जे ज्ञायकपणे जणायो’ एम आव्युं ने...! पर्याय छे ई. (टीकाः–) ‘जे पोते पोताथी ज सिद्ध होवाथी पोते पोताथी सत्तारूपे वस्तु होवाथी, कोईथी उत्पन्न थयो नहि होवाथी अनादि सत्तारूप छे’ - एनी सत्ता, पोते पोताथी ज हयाति होवाथी, कोईथी उत्पन्न थयो नथी, तेथी भगवान आत्मा, अमे शुद्ध कहेवा मागीए छीए. (ते) अनादि सत्तारूप छे- अनादि होवारूप छे. आहा... हा..! पर्याय तो थाय ने जाय. वस्तु जे छे ते तो रागथी पृथक ते तो अनादि सत्ता छे. अनादिथी ‘होवावाळी’ चीज!! (त्रिकाळीज्ञायक) केम के कोईथी उत्पन्न थयो नथी. ईश्वरे एने उत्पन्न कर्यो छे के ईश्वर कोई कर्त्ता छे आत्मानो, एम नथी. आहा.. हा...! ए पोते- पोताथी ज.

‘कथंचित् पोताथी ने कथंचित् परथी’ तो अनेकांत थाय ने? ‘पोते पोताथी छे, परथी नथी’ - एनुं नाम अनेकांत छे. पोताथी सत्ता पोताथी छे ने पोतानी सत्ता परथी नथी. (ए अनेकांत) छे. आहा... हा..! ए अनादि सत्तारूप छे.

(कहे छे केः) ‘कदी विनाश पामतो नहि होवाथी अनंत छे’ - कदी विनाश पामतो नथी. ‘छे’ ... अनादि सत्ता वस्तु छे! छे.. छे.. छे.. भूतकाळमां छे वर्तमान काळे छे, भविष्यमां छे. छे ई छे बस!! आहा.. हा..! ‘छे’ - अनादि सत्ता-होवावाळी चीज (आत्मवस्तु) कदी विनाश पामती नथी- कोई काळे नाश पामती नथी. ‘कदी’ शब्द छे ने..! आहा.. हा..! माटे ते अनंत छे. भविष्यमां कायम रहेनार छे माटे अनंत छे. आहा..! वस्तुनो अंत नथी कदी जेनी शरूआत नथी, जेनो अंत नथी, एवी अनादि अनंत ए (आत्म) वस्तु छे. आहा.. हा..! भाषा तो सादी छे.. पण भाव तो जे छे ते आकरा छे!

(ओ.. हो.. हो..!) ‘नित्य उद्योतरूप होवाथी’ - पाछुं वर्तमानकाळमां रहेनारो होवाथी. ‘क्षणिक नथी’ (कायम) ‘छे’ ने क्षणिक होय कोई चीज, एम कोई कहे तो एम नथी. ‘नित्य उद्योतरूप’ - कायम उदयरूप (प्रगट) वर्तमानमां कायम, एवो ने एवो ध्रुव! अनादि-अनंत! सत्तास्वरूप वस्तु! नित्य उद्योतरूप छे. वर्तमानमां पण उद्योतरूप-कायम छे. (त्रिकाळीज्ञायक) भूतकाळमां उत्पन्न थयेल नथी, भविष्यमां कदी अंत छे नहीं, वर्तमानमां उद्योतरूप प्रगट छे.

आहा... हा...! ए ज वस्तु, रागथी भिन्न-स्वभावथी अभिन्न, एवी चीज वर्तमानमां


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प६ श्री प्रवचन रत्नो-१ प्रगटरूप होवाथी क्षणिक नथी, ए क्षणिकवस्तु नथी, ए तो ध्रुव छे!!

आहा... हा..! एक-एक शब्द ने एक-एक पद बराबर समजे तो, बधा न्याय आवी जाय, घणां... (न्याय समजाय जाय!)

अहा...! ‘अने स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति छे एवो जे ज्ञायक’ - आहा..! केवो छे? ए तो चळकतो, स्पष्ट, प्रगट, प्रत्यक्ष प्रकाशमान- प्रत्यक्ष प्रकाशमान (छे) आहा..! वर्तमान प्रत्यक्ष जणाय एवी ज्योति छे. स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति-चैतन्य ज्योति-चेतन ज्योति, चेतन... चेतन... चेतन... चेतन... चेतन प्रत्यक्ष स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति छे. आहा.. हा..! ‘एवो जे ज्ञायक’ एक भाव छे. जोयुं?! (शुं कीधुं?) ज्ञायक एवो जे एकभाव छे! आहा.. हा...!

हवे, अवस्थानी वात करे छे. ‘ते संसारनी अवस्थामां’ जुओ, वस्तु तो आवी ज छे, अनादि सत्तारूप शुद्धरूपे नित्य छे. जे अनादि अनंत, नित्य, स्पष्ट, वर्तमान उद्योतरूप, स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति छे. हवे, एनी अवस्थामां अनादिथी जे भूल छे, पर्यायनी-एनी वात करे छे. जे संसारनी दशामां अनादि बंधपर्यायनी निरूपणाथी कथंचित् बंधनी अवस्थामां अपेक्षाथी जोईए तो, ‘क्षीरनीरनी जेम कर्मपुद्गलो साथे एकरूप होवा छतां’ - जेम दूधने पाणी एकरूप देखाय छतां दूध दूधरूपे छे पाणी पाणीरूपे छे. आहा... हा..! ‘एम क्षीर-नीरनी जेम’ - क्षीर एटले दूध ने नीर नाम पाणी. क्षीर आत्माने लागु पडे छे ने नीर कर्मपुद्गलोने लागु पडे छे जेम पाणी पाणीरूपे छे ने दूध दूधरूपे छे. (कहेवत छे ने...) पाणीना पाणी ने दूधना दूध!

ओला दूधमां पाणी नाखीने आपे छे ने...! तो लोको बोले छे के ‘दूधना दूध ने पाणीना पाणी’ रहेशे. दूधमां पाणी नाखीने आपे छे तो पैसा अनर्थना नहीं रहे. एम पाणीने दूध भिन्न- भिन्न छे, एम भगवान आत्मा ने कर्मपुद्गलो भिन्न भिन्न छे, साथे एकरूप (देखाता) होवा छतां, एकरूप साथे. पण..., ‘द्रव्यना स्वभावनी अपेक्षाथी जोवामां आवे तो’ - ओली (पहेलां कह्युं ई) पर्यायना स्वभावनी अपेक्षाथी जोवामां आवतां, वस्तु एवी देखाय छे, पण वस्तुना स्वभावथी जोवामां आवे तो, ए कांई समजाणुं...?

(शुं कीधुं?) संसारनी अवस्थामां अनादिबंध- पर्यायनी अपेक्षाए जोवामां आवे तो क्षीर- नीरनी जेम होवा छतां पर्यायमां-पर्यायमां-पर्यायनी साथे कर्मपुद्गलो साथे देखाय छे. पण...,

‘द्रव्यना स्वभावनी अपेक्षाथी जोवामां आवे तो, वस्तुनो स्वभाव जे छे कायमी, असली अनादि-अनंत, नित्यउद्योतरूप, स्पष्ट प्रकाशमान-ज्योति (स्वरूप) एवो जे द्रव्यस्वभाव, एनी अपेक्षाथी जोवामां आवे तो...

हवे कहे छे ‘तो दुरंत कषायचक्रना उदयनी (कषायसमूहना अपार उदयनी) विचित्रताना वशे’ - कषायचक्रनो अंत लाववो, महापुरुषार्थ जोईए, अनंता-दूर + अंत = दूरंत छे, जेनो महापुरुषार्थ छे. एना कषायचक्रना (एटले) पुण्यने पाप. (अर्थात्) पुण्यने पाप. (अर्थात्) कषायसमूहना अपार उदयनी एम. कषाय चक्र छे ने...!

‘कषायाचक्रना उदयनी विचित्रताना वशे प्रवर्ततां जे पुण्य-पापने उत्पन्न करनार’ - कर्मनां


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श्री प्रवचन रत्नो-१ प७ निमित्तनां संबंधे जोडातां, जे कंई विचित्रताना वशे प्रवर्ततां पुण्य-पापने उत्पन्न करनार (एटले) निमित्तरूप, पुण्य-पाप ए परमाणुओना बंधनी क्रिया निमित्ते, उत्पन्न करनारा शुभ-अशुभ भाव वर्तमान, अने पुण्य-पाप ए कर्म, एनां (निमित्ते) उत्पन्न करनारां शुभ-अशुभ भाव ‘तेमना स्वभावे परिणमतो नथी’ .

शुं कीधुं? ‘द्रव्यना स्वभावनी अपेक्षाथी जोवामां आवे तो, त्यां राखवुं- तो, ‘दुरंत कषायचक्रना उदयनी विचित्रताना वशे प्रवर्तता जे पुण्य-पापने उत्पन्न करनार अनेकरूप-समस्त अनेकरूप, शुभ-अशुभभावो अनेकरूप छे, असंख्य प्रकार-शुभ-अशुभे य असंख्य प्रकार-ए रीते द्रव्यना स्वभावथी जोवामां आवे तो,... पुण्य-पापने उत्पन्न करनारां एवां शुभाशुभ भावो ‘तेमना स्वभावे परिणमतो नथी’

आहा.. हा..! भगवान शुद्ध चैतन्य! (तेने) वस्तु स्वभावथी जोईए तो, वस्तुथी जोईए तो... पुण्य-पापने उत्पन्न करनारां शुभाशुभ भाव, ए भावरूपे ते द्रव्यस्वभाव कोई दि’ थयो ज नथी. आहा.. हा..! केम के ए तो ज्ञायकस्वरूप छे. अने उत्पन्न करनारां पुण्य-पापनां जे शुभाशुभ भावो छे, ए तो अचेतन छे. एमां चैतन्यना स्वभावनो अंश नथी.

आहा... हा..! ‘तेमना स्वभावे थतो नथी’ आहा.. हा..! अहीं पंडित जयचंदजी खुलासो करे छे. ‘ज्ञायकभावथी जडभावरूप थतो नथी’ . भाषा जोई लो!! (कहे छे केः) शुभ-अशुभ भावरूपे थाय तो जड थई जाय, केम के शुभ-अशुभभाव तो अचेतन-अजीव छे.

आहा.. हा..! ए जीव ज्ञायक! ए शुभाशुभ- अजीवरूपे केम थाय? (कदी न थाय) आहा.. हा..! द्रव्य स्वभावथी जोईए तो, जे कषायनो अंत लाववो मुश्केल, ए विचित्रताना वशे पुण्य-पापथी उत्पन्न थयेला शुभाशुभ भावो- ए रूपे आत्मा थतो ज नथी. शी रीते थाय? आवुं छे.

(कुंदकुंदाचार्यदेव) “वोच्छामि समयपाहूड” एम कह्युं छे ने...! ‘वोच्छामि’ - कहीश. कहीश (कह्युं) तो एनो अर्थ (छे के) सांभळनारा छे एने कहे छे ने...! आहा.. हा...! एने कहे छे (के) तारो नाथ! अंदर जे ध्रुव चैतन्य ज्ञायकभाव पडयो छे ‘ए’ शुभाशुभभावे, ते पुण्य-पापने उत्पन्न करनारां (एवा) शुभने अशुभ भावरूपे’ ‘ए’ द्रव्य स्वभाव, कदी थयो ज नथी. छे ने...?

आहा... हा...! ‘ज्ञायकभावथी जडभाव (रूपे) थयो नथी’ - एम कीधुं. जोयुं...?! ए शुभाशुभने जड कीधां.

आहा..! ज्ञायक..! जे चैतन्यस्वरूप चैतन्य-प्रकाशनो पुंज (छे) अने शुभ-अशुभभाव तो अंधारा छे, (तेमां) चैतन्यना प्रकाशनो शुभाशुभ भावमां अभाव छे. ए प्रकाश, अंधारारूपे केम थाय? एम ज्ञायक, शुभाशुभपणे केम थाय?

आहा.. हा...! एटले प्रमत्त पण नथी अने अप्रमत्त पण नथी आ कारणे भगवान आत्मा- ज्ञायकभाव, शुभाशुभ (भाव) पणे थयो नथी, एथी एने गुणस्थानना भेद पण नथी.

हवे, एक छेल्ली लीटी छे. (टीकानी बाकी)

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