Page 38 of 225
PDF/HTML Page 51 of 238
single page version
३८ श्री प्रवचन रत्नो-१
‘ज्यारे आ जीव सर्व पदार्थोना स्वभावने प्रकाशवामां समर्थ एवा केवळज्ञानने उत्पन्न करनारी भेदज्ञानज्योतिनो उदय थवाथी’ आत्मामां राग ऊठयो, विकल्प ऊठयो/ ‘भेदज्ञानज्योति’ एम शब्द वापर्यो छे. ए रागने शरीरने कर्मथी जुदो पण अस्तित्व एनुं चैतन्यज्योत-भेदज्ञानज्योति, एवा भेदज्ञानज्योतिनो उदय थाय छे प्रगट थाय छे, भेदज्ञानज्योतिथी केवळज्ञान उत्पन्न थाय छे. आहा... हा! आत्मानी पूरण मोक्षदशा एटले पूरण दुःखथी रहित दशा अने पूरण अतीन्द्रियआनंदने ज्ञाननी दशा, ए भेदज्ञानथी उत्पन्न थाय छे. व्यवहारना रागना संबंधथी स्वतःसिद्ध केवळज्ञान उत्पन्न थतुं नथी.
आहा... हा! धीरानी वातुं छे भई आ तो ए ‘भेदज्ञानज्योतिनो उदय थवाथी’ , जुओ आ भेदज्ञानज्योति शुद्धात्म (दशा), ‘सर्व परद्रव्योथी छूटी’ - रागादि बधां परद्रव्यो एनाथी छूटी ‘दर्शनज्ञानस्वभावमां’ -दर्शन ज्ञान... एनो स्वभाव, एवुं जेनुं नित्य अस्तित्व, दर्शनने ज्ञान एवुं जेनुं अस्तित्व होवाथी भगवान आत्मा द्रष्टाने ज्ञाता, एवी जेनी हयाति छे, मौजुदगी दर्शन ने ज्ञाननी छे. आवुं आत्मतत्त्व एनी साथे ‘एकत्वगतपणे वर्ते’ -एकत्वपरिणमनपणे अंदर वर्ते आहाहा! रागथी ने विकल्पथी भेदज्ञानज्योति वडे जुदुं पाडी, अने केवळज्ञान उत्पन्न करनारी तो ए चीज छे. एक ज आहा...! व्यवहार रत्नयत्र केवळज्ञान उत्पन्न करवानुं कारण नथी. क्यां’ य कह्युं होय तो उपचारथी कथन (छे). निश्चय साथे व्यवहारनो सहचर देखीने साथे देखीने, एनो एनामां उपचार कर्यो होय छे. वस्तुस्थिति ‘आ’ छे.
आहा... हा! ‘त्यारे ए दर्शनज्ञानचारित्रमां स्थित होवाथी’ आत्मतत्त्व जे दर्शन ने ज्ञानना अस्तित्ववाळुं तत्त्व छे, ज्ञाता ने द्रष्टा ए स्वभाववाळुं जे अस्तित्व-मौजुदगीचीज तत्त्व छे. एमां जे... छे ने! ‘एकत्वगतपणे वर्ते’...‘त्यारे दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित होवाथी’ स्वरूप चैतन्य ज्ञानने आनंद एनी हयातिवाळुं तत्त्व-मौजुदगी चीज एमां एकपणे ज्यारे वर्ते त्यारे ते दर्शनज्ञान चारित्रमां स्थित होवाथी-त्यारे ते सम्यग्दर्शनज्ञान ने चारित्रमां स्थित छे. समजाय छे कांई...? आ वातुं आवी झीणी छे!
आहा...! ‘त्यारे ए दर्शनज्ञानचारित्रमां स्थित होवाथी’ आत्मतत्त्व जे दर्शन ने ज्ञानना अस्तित्ववाळुं तत्त्व छे, ज्ञाता ने द्रष्टा ए स्वभाववाळुं जे अस्तित्व-मौजुदगीचीज तत्त्व छे. एमां जे... छे ने? ‘एकत्वगतपणे वर्ते’... ‘त्यारे दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित होवाथी’ स्वरूप चैतन्य ज्ञानने आनंद एनी हयातिवाळुं तत्त्व-मौजुदगी चीज एमां एकपणे ज्यारे वर्ते त्यारे ते दर्शनज्ञान चारित्रमां स्थित होवाथी-त्यारे ते सम्यग्दर्शनज्ञान ने चारित्रमां स्थित छे. समजाय छे कांई...?
आ वातुं झीणी छे! आहा...! जेने केवळज्ञान एटले मुक्ति, मोक्ष जेने उत्पन्न करवो छे एने भेदज्ञानज्योतिथी ते उत्पन्न थाय छे. ए रागना.., श्रद्धाज्ञानचारित्रना व्यवहार भाव, एनाथी भेद पाडे, त्यारे ते भेदज्ञानज्योति वडे केवळज्ञान उत्पन्न थाय, तेथी ते आत्मामां दर्शन, ज्ञानने चारित्रमां स्थित थाय छे.
आहा... हा! झीणी वातो बहु! धरम बहु सूक्ष्म भाई! आहा... हा! ‘दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित होवाथी’ जुओ...! पाठमां ‘चरित्तदंसणणाण’ हतुं. पण... ते पद्यमां रचना करवा माटे. ए मूळ हतुं ए पद्यमां एम आव्युं अने टीकाकारे दर्शन-ज्ञान-चारित्र लीधुं. अमृतचंद्र आचार्ये पण एम
Page 39 of 225
PDF/HTML Page 52 of 238
single page version
श्री प्रवचन रत्नो-१ ३९ लीधुं! आंही एम न लीधुं चारित्र-दर्शन-ज्ञान.
शुं कीधुं? ‘जीवो चरित्तदंसणणाण ठिदो’ एम आव्युं ने (मूळ) पाठमां! एनो अर्थ एवो कर्यो. ‘जीव ज्यारे पोतामां एकत्वपणे दर्शनज्ञानचारित्रमां स्थित थईने वर्ते त्यारे तेने आत्मा, स्वसमय आत्मा कहेवामां आवे छे. तो जेवुं जेनुं रूप हतुं तेमां ई आव्यो!
आहा... हा! भगवान आत्मा दर्शन-ज्ञान एनुं रूप, एनी हयाति ए छे. ए बहारना रागादिना विकल्पना भेद पाडी, अने पोताना आत्मतत्त्वमां एकत्वपणे आव्यो! रागआदिमां जतो तो एने बगडतुं, ‘एकडे एक ने बगडे बे’ ई आत्मतत्त्व वस्तु छे एमां एकत्वगतपणे, दर्शनज्ञानचारित्रमां स्थित ई एकत्व! पुण्यने दया-दाना रागमां स्थित, ए तो बेपणुं-बगडवापणुं छे. ई कर्ममां स्थित छे. कर्मना रसमां-रागमां ए स्थित छे.
आत्मामां दर्शन-ज्ञान जेनो रस छे जेनो स्वभाव छे तेमां ते स्थित नथी. आवी वात छे! आहा... हा! ‘त्यारे दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित होवाथी ‘युगपद् स्वने एकत्वपूर्वक जाणतो’ एकसाथे आत्माने एकत्वपणे जाणतो अने ‘स्व-स्वरूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो एवो ते’ जोयुं? ज्यारे एकत्वगतपणे वर्ते प्रभु आत्मामां, त्यारे ते दर्शन-ज्ञान-चारित्रमां स्थित होवाथी’ जीव दर्शनज्ञानचारित्रमां स्थित होवाथी युगपद् अने एकत्वपूर्वक जाणतो’ एक साथे पोताने जाणतो अने स्वस्वरूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो, ‘जाणतो ने परिणमतो’ समयनो अर्थ करवो छे ने...! एकसमये जाणे ने एकसमये परिणमे, एवी चीज होय ते आत्मा छे. बीजीचीज परिणमे छे पण जाणती नथी. एटले खरेखर ‘समय’ एने कहीए के पोते पोताना स्वरूपने जाणतो परिणमे अने परिणमतो जाणे! ए बेय एकहारे होय एने आत्मा कहेवामां आवे छे.
आहा.. हा निश्चयचारित्र छे ए व्यवहारचारित्रथी प्राप्त थाय छे (श्रोताः) ए पहोंचाडे छे! (उत्तरः) पहोंचाडे, ए काल आव्युं’ तुं ने...! (श्रोताः) व्यवहार चारित्रथी निश्चय चारित्र छे! (उत्तरः) एम छे नहीं. (व्यवहार) आवे छे. स्वरूपनी-एकत्वगतनी, दर्शनज्ञानचारित्रनी स्थितिमां अपूर्ण दशामां व्यवहारना एवा पंचमहाव्रतना आदि विकल्पो होय छे पण एनाथी निश्चयनी प्राप्ति थाय छे एम नहीं अने एम क्यांय कह्युं होय तो ए निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे छे. एनाथी थाय छे एम कहेवा माटे नहीं.
आहा... हा! आंही... क्यांय केटले पहोंचवुं एने! आहा... ‘स्व-रूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो’ छे ने...? अहीं समयनो अर्थ कर्यो, जाणवुं ने परिणमवुं इ. पहेलो कर्यो’ तो ने...! ‘अय गतौ’ धातु छे एनो गमन अर्थपण छे तेथी एकसाथे ज (युगपद्) जाणवुं तथा परिणमन करवुं’ ए अर्थ कर्यो तो ने..! ए पहेलां अर्थ आवी गयो. एनो सरवाळो लीधो आंही.
आहा... हा! जाणतो... जे समये परिणमे छे ते समये तेने जाणतो! आहा... हा! अथवा जे समये ज्ञान थाय छे ते समये ज तेने जाणतो. आहा... हा! गाथा ओ तो पहेली ‘बार’ मुदनी छे ने...! बहु टूंकामां... एकदम भर्युं छे! पछी विस्तार करशे.
Page 40 of 225
PDF/HTML Page 53 of 238
single page version
४० श्री प्रवचन रत्नो-१
आहा...! आत्मा दर्शनज्ञानमां होवापणे टक्यो छे तेमां जे एकत्वपणे, परथी भिन्न थईने एकत्वपणे दर्शनज्ञानमां स्थित थाय, ए जीव ते ज समये दर्शनज्ञानचारित्रपणे परिणमतो अने ते ज समये तेने जाणतो! समजाणुं कांई...? छे ने सामे? आ तो ओगणसमी वार वंचाय छे.
(श्रोताः) बधा माटे ओगणसमी वार के आपना माटे? (उत्तरः) तो आंही हशे के नहीं केटला’ क! केटलाय नवा होय! वारतहेवारे आवे ई न होय. आंही रहेनारा होय ते होय.
आहा... हा! ‘एवो ते ‘स्वसमय’ एम प्रतीतरूप करवामां आवे छे’ आहा...! भगवान... आत्मा! दर्शनने ज्ञाननी हयातिवाळुं तत्त्व जेमां विकारनी हयाति त्रणकाळमां छे नहीं. एवो जे भगवान स्वभाव! ई दर्शनज्ञानमां- जेवुं तत्त्व छे तेमां एकत्वपणे एटले रागनो साथ लईने नहीं, रागथी भिन्न पडीने एकत्वपणे आहाहा! त्यां आ रागनुं एकलापणुं लईने अहींयां/रागमंद छे तेने लईने अहींयां एकत्व थाय छे, एम नथी. तो तो बेकलापणुं/बेपणुं थई गयुं.
आहा... हा! आंही तो रागना विकल्पनी गमे तेवी वृत्ति होय-देव गुरु शास्त्रनी श्रद्धानी वृत्ति हो, के शास्त्रना ज्ञाननो विकल्प हो, ए बधांथी भिन्नपणे... एम छे ने...? एकत्वपूर्वक जाणतो युगपद् परिणमतो दर्शनज्ञानचारित्ररूपे अने ते समये तेने जाणतो-स्वरूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो एवो ते ‘स्वसमय’ एम प्रतीत करवामां आवे छे. एम श्रद्धामां लेवामां आवे छे, ए वस्तु पोते दर्शनज्ञानवस्तु एमां एकत्व थईने श्रद्धाज्ञानने चारित्रमां स्थित थाय एने ‘स्वसमय’ एम प्रतीत करवामां आवे छे. एवो आत्मा ई स्वसमय थयो- जेवो हतो तेवो थयो. दर्शनज्ञानपणे हतो एवी ज पर्यायमां दर्शनज्ञाननी प्रतीती दर्शनज्ञाननुं ज्ञान दर्शनज्ञानमां स्थिरता.
आहा... हा! ‘युगपद् स्वने एकत्वपूर्वक जाणतो तथा स्व-रूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो एवो ते ‘स्वसमय’ एम प्रतीतरूप करवामां आवे छे’ पाठमां छे ने ई ‘ससमयं जाणं’ पाठ एम छे ने...! ‘स्वसमय जाण’ एम कीधुं ने..! कुंदकुंदाचार्यनो शब्दार्थ अहीं लीधो छे तेने स्वसमय जाण!
आवो स्वरूप ते भगवान, एमां जे एकत्वपणे दर्शनज्ञानचारित्रमां, परना साथ अने मदद विना, स्वरूपमां दर्शनज्ञानचारित्रमां, पोताना अस्तित्वमां-दर्शनज्ञानचारित्रमां वर्ते तेने तुं स्वसमय जाण एनो आंही अर्थ कर्यो के ‘एम प्रतीतरूप करवामां आवे छे’ ए आत्मा आवो छे ए स्वसमय एम जाणवामां-प्रतीतरूप करवामां आवे छे’
आहा... हा! हवे आवुं! क्यां पहोंचवुं एने! व्यवहारनी वातुं आखो दि’ करे! व्यवहार... व्यवहार! (साधकदशामां) व्यवहार वच्चे आवे!
पण ई व्यवहार पण जेने निश्चयनी भावना छे, व्यवहार निश्चयमां पहोंचाडे एम. पण भावना शुं एनो अर्थ? आहा...! झीणी वातुं बहु भाई...!
भूमिकाने योग्य विकार आवे छे, होय तो खरुं ने... न होय एम नहीं. पण निश्चयने पहोंचाडे छे ई? एकत्वपणे होय ई पहोंचाडे छे. बेकलापणुं हारे लईने ई पहोंचाडे छे? आहा...! व्यवहार आवे छे वच्चे ई बंधनुं कारण छे. देव-गुरु-शास्त्रनी श्रद्धा, पंचमहाव्रतदशा आदिनो भाव, शास्त्रनुं-शास्त्रतरफनो भणवानो विकल्प ए बधो आवे! पण छे ई बंधनुं कारण, बंधना कारणने हारे
Page 41 of 225
PDF/HTML Page 54 of 238
single page version
श्री प्रवचन रत्नो-१ ४१ लईने निश्चय पमाय एम नथी. एनाथी भेद पाडीने, जुदो पाडीने निश्चय पमाय. एनाथीनपमाय! छतां ए व्यवहार आव्या विना रहे नहीं. पूरण वस्तु न होय त्यां व्यवहार आवे, होय पण ‘स्वसमय’ तो आने कहीए.
आहा... हा! पोतानुं परिणमन दर्शनज्ञान स्वरूपना अस्तित्वमां, श्रद्धाज्ञानने चारित्र रूपे थयुं तेने ‘स्वसमय’ जाण एम कीधुं.
आहा..! ‘एवो ते ‘स्वसमय’ प्रतीत करवामां आवे छे.’ एवा जीवने मोक्षमार्ग छे एम श्रद्धवामां आवे छे. आहाहा! ई एक वात थई.
(गाथामां) ‘जीवो चरित्त’ जीवो कही ‘दंसणणाण ठिदो’ एटले दर्शनज्ञानचारित्रमां स्थित ‘तं हि ससमयं जाण’ ते ‘स्वसमय’ जाण एटलानो अर्थ थयो! बे पदनो हवे त्रीजा पदनी (व्याख्या)
‘पण ज्यारे ते अनादि अविद्यारूपी जे केळ’ आहा... हा! पोताना पुरण दर्शनज्ञानस्वरूपी प्रभु (आत्मा) ज्ञाताद्रष्टाथी हयातिवाळो भगवान, एना अज्ञानने लईने, ए स्वरूपना भान विना, ‘अनादि अविद्यारूपी केळ’ केळ आ जेमां केळां थाय छे ने...! ‘तेना मूळनी गांठ जेवो’ केळनी मूळनी गांठ! एमांथी केळ बहु पाके, फाल्या ज करे! छे ने केळनी (गांठमांथी बचलां फूटयांज करे) आहा...!
अज्ञानरूपी ते केळ तेना मूळनी गांठ जेवो मोह. जेम केळनी गांठमांथी अनेक केळुं (केळना बचलां) थाय, केळनी गांठ होयने मोटी गांठ, एमां अनेक केळ पाके. केळनी वात छे केळांनी वात नथी. केळुं (पाके) एम मोहरूपी गांठ!
आहा... हा! ‘अनादि अविद्यारूपी अज्ञानरूपी जे केळ, ए केळनी गांठ जेवो मोह पुष्ट थयेलो आहा! ‘मोह.. तेना उदय अनुसार’ एने कर्मनो जे उदय छे एने ‘अनुसारे पोते प्रवर्ते आधीनपणाथी’ ए उदय तेने प्रवर्तावे छे एम नहीं पण उदयना अनुसारे पोते प्रवर्तीने आधीनपणाथी.
जे आंही स्वभावना आधीनपणे दर्शनज्ञानने चारित्रमां स्थित थवुं जोईए एम न करतां, निमित्त जे कर्मनो उदय एने अनुसारे प्रवृत्तिना आधीनपणाथी आहा.. हा! कर्मना अनुभागना- निमित्तना अनुसारे प्रवृत्तिना आधीनपणाथी-पोते करे छे. कर्म करावतुं नथी एने कांई...! आहाहा! ‘तेना उदय अनुसार प्रवृत्तिना आधीनपणाथी, दर्शनज्ञानस्वभावमां नियत वृत्तिरूप त्यां कीधुं’ तुं ने ‘नियतवृत्तिरूप अस्तित्व’ ओलामां प्रवृत्ति कीधी. आहा.. ‘नियत वृत्तिरूप आत्मतत्त्वथी’ दर्शनज्ञान स्वभावमां निश्चय अस्तित्वरूप आत्मतत्त्व, आत्मतत्त्व एने कहीए जे ज्ञानदर्शनमां अस्तिपणे रहे छे. दर्शनज्ञान एवुं जे निश्चय-एनुं जे टकवुं, एवुं जे आत्मतत्त्व.’ ए दर्शनज्ञानमां टकेलुं आत्मतत्त्व छे. समजाणुं कांई...?
आहा.. हा! दर्शनज्ञानस्वभावमां नियत निश्चय होवापणारूप आत्मतत्त्व-दर्शनज्ञानस्वभावमां निश्चयपणे रहेलुं-होवारूपे रहेलुं आत्मतत्त्व, एनाथी छूटी मोह तेना उदय अनुसार तेना आधीनपणाथी-निमित्तना उदयना आधीनपणाथी आत्मतत्त्वथी छूटी, ई करमना उदयना आधीन ते प्रवर्ततो ते आतमतत्त्वथी छूटयो आहा.. हा! स्वरूप जे दर्शनज्ञानस्वरूप छे. द्रष्टाने ज्ञाता जे आत्मतत्त्व छे. एनाथी छूटयो, अने मोह जे केळनी गांठ जेवो मोह एने अनुसारे प्रवर्ततो, मिथ्या दर्शन
Page 42 of 225
PDF/HTML Page 55 of 238
single page version
४२ श्री प्रवचन रत्नो-१ ज्ञानने चारित्ररूप परिणम्यो-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञानने मिथ्याचारित्र-राग (रूपे वर्त्यो).
आ तो अंतरनी वातुं छे बापु क्यांय अत्यारे तो बहारमां तो मळे एवुं नथी अने बहारमां ए छे एम कीधुं ने..! ई तो दर्शनज्ञानस्वभावना अस्तित्वमां आत्मतत्त्व छे. भगवान आत्म दर्शनज्ञाननी हयातिवाळुं तत्त्व आत्मा छे. ए हयातिवाळाने छोडी दईने मोहनाअनुसारे, आधीनपणानी जेनी प्रवृत्ति छे ते स्वद्रव्यथी च्यूत थई जाय छे. समजाणुं कांई...?
आहा... हा! ‘परद्रव्यना निमित्तथी स्वद्रव्यथी छूटी निमित्तथी हो? ‘उत्पन्न मोहरागद्वेषादि’ निमित्तथी नो अर्थः निमित्त एने (मोहराग द्वेष) उत्पन्न करावतुं नथी पण आंही आ बाजुमां (स्वद्रव्यमां) एकाग्र नथी, तेथी निमित्त तरफ एकाग्र छे. आहा... हा! ‘परद्रव्यना निमित्तथी’ आंही जो अमारे बधां (कहेवा लागे के) परद्रव्यना निमित्तथी थाय छे जुओ निमित्तथी (आंही कह्युं!) एनो अर्थ शुं? परद्रव्य छे एना तरफना झूकावथी, स्वद्रव्यथी च्यूत थवाथी, अने परद्रव्यना निमित्तथी उत्पन्न मोहरागद्वेषादि भाव/ए आंही टीकामां तो त्रण (भाव) छे. ओलामां दर्शन-ज्ञान-चारित्र (त्रिपुटी) अने आंही मोह-राग-द्वेष (त्रिपुटी), आत्मतत्त्वथी छूटी-दर्शन ज्ञाननुं हयातिवाळुं प्रभुत्व! एना आस्था, श्रद्धाज्ञानथी छूटी अने मोह जे छे तेने अनुसारे आधीनपणे प्रवर्तता- ‘निमित्तथी उत्पन्न थतां मोहरागद्वेषादि भावो साथे मिथ्यात्व, राग अने द्वेष, रति वासना वगेरे साथे एकत्वगतपणे-एनी साथे एकपणुं मानीने आंही एकत्वगतपणेनो अर्थ एकपणुं मानीने अर्थ कर्यो-एकपणुं मानीने वर्ते छे.
आत्मा, व्यवहार ते मारी चीज छे एम मिथ्यात्वमां एकपणे वर्ते छे. अने रागमां एकपणे वर्ते छे. द्वेषमां एकपणे वर्ते छे. जे आत्मा ज्ञानदर्शनमय, एनाथी भिन्न होवा छतां रागद्वेषमोह थतां तेमां एकपणे वर्ते छे. एनुं नाम मिथ्यात्वने मोह ने राग-द्वेषादि छे.
आहा... हा! त्यारे... एकपणे वर्ते छे’ त्यारे... पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित होवाथी’ जोयुं? ओला मोहराग द्वेषमां वर्ते छे ए पुद्गलप्रदेशोमां स्थित कहेवामां आवे छे. आंही भगवान आत्मामां स्थित हता जे दर्शनज्ञान चारित्रमां ते छूटीने निमित्तने आधीन थईने मोह-राग-द्वेषना प्रदेशमांए पुद्गलकर्मनाप्रदेश कहेवाय. ए मोह-राग-द्वेष ए कर्मनो ज भाग छे, कर्म तरफना वलणवाळी उपाधी छे. ए मिथ्यात्व अने रागद्वेष/ भगवान (आत्मा) तो निरुपाधि तत्व छे, ए तो दर्शनज्ञानमय निरुपाधि तत्त्व छे ए निमित्तने आधिन उपाधि तत्त्व साथे एकत्वपणे वर्ते छे एने अणात्मा कहेवामां आवे छे. एने परसमय कहेवामां आवे छे. आहा... हा!
‘त्यारे पुद्गलकर्मना प्रदेशोमां स्थित होवाथी युगपद् परने एकत्वपूर्वक जाणतो आंही ‘जाणतो’ तो लीधो पण मोह ने रागद्वेषादिने एकत्त्वपणे जाणतो अने परिणमतो. ओलो भिन्नपणे जाणतो ने परिणमतो.
आहा.. हा! एक एक श्लोकनी वात! छे क्यां? मध्यस्थ थई. जुए, धीरजथी.. सत्यनो शोधक बनीने..? तो आचीज छे ए बीजे क्यांय छे नहि. युगपद् आहा..! एकत्वपूर्वक जाणतो तथा पररूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो’ समयनो अर्थ आप्यो ने..! ‘एकसाथे जाणे ने परिणमे’
तो ज्यारे स्वसमयमां एकाग्र छे. त्यारे ते ज समये जाणे ने परिणमे. अने आंही रागनी
Page 43 of 225
PDF/HTML Page 56 of 238
single page version
श्री प्रवचन रत्नो-१ ४३ साथे-मिथ्यात्व साथे एकाग्र छे ते ते ज समये जाणतो ने राग मारां छे एम जाणतो अने एरूपे एकत्वपणे परिणमतो. आहा... हा! जाणतो’ तो राख्युं पणए जाणवामां विशेषण आ आप्युं आ ‘एकत्वपणे जाणतो’ मोहने रागद्वेषनो परिणामने स्वभावमां-आत्मामां एकत्वपणे जाणतो. आहा...! समजाणुं?
ओलुं युगपद् स्वने एकत्वपणे जाणतो एम हतुं पहेलामां दर्शनज्ञानचारित्रमां स्थित होवाथी युगपद्स्वने एकत्वपणे जाणतो, आ परने एकत्वपूर्वक जाणतो. बस आम अस्ति, नास्ति करी छे.
आहा... हा! युगपद् अने एकत्वपूर्वक जाणतो तथा स्वरूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो एवो ते स्वसमय एम प्रतीतरूप करवामां आवे छे एम पहेलां कह्युं हतुं हवे आंही ‘युगपद् परने एकत्वपूर्वक जाणतो तथा पररूपे एकत्वपूर्वक परिणमतो एवो ते ‘परसमय’ एम प्रतीतरूप करवामां आवे छे.’ एने नहीं, बीजाने... ए आत्मा अज्ञानी छे, परसमय छे, अणात्मा छे, अणात्मामां एकत्वपणे वर्ते छे माटे ते परसमय छे, एम जाणवामां आवे छे. छे ने...? ‘पोग्गलकम्मदेस छिदं चतं जानीहि’ छे ने...! बेयमां जाणवुं-जाणवुं बेयमां ‘प्रतीत करवामां आवे छे’ एनो अर्थ कर्यो छे. एटले के जाणवामां एम आवे छे.
आहा... हा! ‘एकत्वपूर्वक परिणमतो एवो ते ‘परसमय’ एम प्रतीतरूप करवामां आवे छे’ एटले के जाणवामां आ आत्मा, अणात्मा थयो एम जाणवामां आवे छे. आहाहा! रागना विकल्प साथे एकत्वपणे परिणमतो अने एकत्वपणे जाणतो, जाणतो तो राख्युं, पण एकपणे जाणतो तेने परसमय एम जाणवामां आवे छे ए परसमय छे. ए अणात्मा छे. ए स्वरूपथी च्यूत थईने जे एनामां नथी तेमां ई रहेलो छे माटे परसमय कहेवामां आवे छे.
आहा... हा... हा! आ वात वादविवादे कांई पार पडे एवुं नथी! वस्तुनी स्थिति ज आवी छे ज्यां! पछी गमे तेटलां लखाण शास्त्रमां आवे! कोई व्यवहार नये आवे ए तो निमित्तना ज्ञान करवा माटे आवे छे. वस्तुस्थिति तो आंहीथी उपाडी छे, एनो ज पछी बधो विस्तार छे.
आहा...! ‘आ रीते जीव नामना पदार्थने’ जीव नामनो पदार्थ तो कह्यो पहेलो! गुण पर्यायवाळो, उत्पादव्ययध्रुववाळो, ज्ञानदर्शनवाळो, एवा ‘जीव पदार्थने स्वसमय अने परसमय-एवुं द्विविधपणुं प्रगट थाय छे.’
आहा... हा! स्वसमयपणुं, एकत्वमां होय तो स्वसमय प्रगट थाय छे. रागमां एकत्व होय तो परसमयपणुं प्रगट थाय छे. एकमां बे-पणुं आम ऊभुं थाय छे. आहा..! वस्तु एम दर्शनज्ञानमय प्रभुमां आवुं परमां-रागमां एकता थवाथी परसमयपणुं -द्विविधपणुं, स्वसमयपणुं ने परसमयपणुं द्विविधपणुं उत्पन्न थाय छे. एकमां बेपणुं उत्पन्न थवुं ए ज नुकसान कारक छे.
आहा... हा! स्वमां एकत्वपणे प्रगट थवुं ते आत्माने लाभदायक छे. ए भगवान आत्मा, दर्शनज्ञानमां हयातिवाळो प्रभु! ए रागने पुण्य-पापनी हयातिमां एकत्वपणे स्वीकारतो ए एकमां बीजापणुं-द्विविधपणुं उभुं थयुं. स्वसमयपणुं ने परसमयपणुं एकमां बेपणुं ऊभुं थयुं! आहा.. हा! आमां क्यांय एम कह्युं नथी के कर्मना उदयनुं जोर छे ते प्रमाणे आंही वर्ते छे रागमां-द्वेषमां एवुं तो कांई
Page 44 of 225
PDF/HTML Page 57 of 238
single page version
४४ श्री प्रवचन रत्नो-१ छे नहीं. परने तो निमित्त कीधुं छे. निमित्तने आधीन थईने प्रवर्ते छे ए मोहने रागद्वेषमां प्रवर्ततां परसमयमां गयो छे ई स्वसमयमां रह्यो नथी, एम जाणवामां आवे छे.
आहा... हा...! आवुं स्वरूप छे! आवुं छे ई सोनगढनुं छे एम केटला’ क कहे छे. कोनुं छे आ? वस्तुनुं स्वरूपज आवुं छे त्यां...! कहे प्रभु कहे, तुं पण प्रभु छे! जेथी दर्शनज्ञानवाळुं तत्त्व एमां ज रहे तो तो ते समये स्वने एकत्वपणे जाणतो अने स्वने एकत्वपणे परिणमतो ए जे समये जाणे ते समये परिणमे, जे समये परिणमे ते समये जाणे. आहा.. हा.. हा!
अने बीजो आत्मा, अविद्यारूपी केळ (नी गांठ जेवो जे) मोह, मोहकर्म-जड एना अनुभागने अनुसारे प्रवर्ततो, ए जेटलुं कर्म उदय आव्युं ते प्रमाणे प्रवर्ततो एम नथी कह्युं. तेने अनुसारे पोते प्रवर्ततो (एम कह्युं छे) पोतानो जे चैतन्यस्वभाव छे, दर्शनज्ञानस्वभाव छे एम आव्युं ने...! एना-पणे न प्रवर्ततो. प्रवर्ततो ते ए य प्रवर्ते ने ओलो य प्रवर्ते! ओलो निमित्तने अनुसरीने थतां पोताना परिणाम तेमां स्थित थयो थको-स्वरूपथी भ्रष्ट थयो थको, एने ‘परसमय’ जाण. एम कह्युं छे ने...? एम कह्युं, परसमय प्रतीत करवामां आवे छे. जाणवामां (छे) एने परसमय कही एने जाणवामां आवे छे.
आहा... हा... हा! ‘आ रीते जीव नामना पदार्थने स्वसमय अने परसमय एवुं द्विविधपणुं- द्वि+विध = बे प्रकारपणुं प्रगट थाय छे.
आ टीकानो अर्थ कर्यो! संस्कृत भाषा हती, बहु गंभीर! अमृतचंद्राचार्यनी टीका घणी गंभीर! जेम मूळ श्लोक (गाथा) गंभीर छे! एवी टीका गंभीर छे! एने समजवा माटे घणो ज पक्षपात छोडीने मध्यस्थथी तेने जे कहेवुं छे ए रीते एने समजवुं. जे रीते कहेवुं छे ते रीते समजवुं एनुं नाम यथार्थ समजण कहेवामां आवे छे.
आहा...! पोतानी कल्पनाथी एना अर्थ काढवा... ए तो विपरीतता बधी छे. केटलुं लीधुं छे आमां! ए भावार्थमां कहेवाय छे.
भावार्थः ‘जीवनी नामनी वस्तुने पदार्थ कहेल छे.’ वस्तु, वस्तु छे ए. ‘जीव एवो अक्षरोनो समूह ते ‘पद’ छे’ - पदार्थ छे ने...! पदार्थनी व्याख्या करी पदार्थ! ‘जीव’ ए अक्षर छे एनो वस्तु छे ई पदार्थ छे, पदा... र्थ! ‘जीव’ बे अक्षरनुं पद छे ‘जीव’ , ए पद छे. जीववस्तु छे ई एनो अर्थ पदार्थ छे. वस्तु छे. पदनो अर्थ ए वस्तु छे! पद’ एने बतावे छे आहा... हा! ‘जीव’ एवो अक्षरोनो’ एम केमके बे अक्षर थयाने... ‘जीव’ एटले बे अक्षर छे एटले बहुवचन छे. ‘जीव एवो अक्षरोनो समूह, बे अक्षरनो समूह माटे ते पद छे. ‘अने ते पदथी जे द्रव्यपर्यायरूप अनेकांतस्वरूपपणुं’ जोयुं? आव्युं’ तुं ने अंदर (टीकामां) उत्पादव्ययने ध्रौव्य, गुणपर्याय जेणे अंगीकार कर्या छे (वगेरे विशेषणो छे)
ते पदथी जे द्रव्यपर्यायरूप-वस्तु अने अवस्थास्वरूप ‘अनेकांतस्वरूपपणुं’ अनेकांत छे. द्रव्ये य छे ने पर्याये य छे. पर्याय नथी एम नहि. ए ११मी गाथामां पर्यायने असत् कीधी छे ते पर्यायने गौण करीने, तेनुं लक्ष छोडाववा एम कीधुं छे. (जो पर्याय नथी तो कार्य शुं? पर्याय सिद्ध ए य पर्याय छे,
Page 45 of 225
PDF/HTML Page 58 of 238
single page version
श्री प्रवचन रत्नो-१ ४प मोक्षमार्ग पर्याय, मोक्ष ए पर्याय संसार पर्याय-बंधमार्ग ए पर्याय छे. अने वेदन पर्यायनुं छे. संसारीने दुःखनुं वेदन पर्यायमां छे. मोक्षमार्गनुं-आनंदनुं वेदन पर्यायमां छे. सिद्धने पूर्ण आनंदनुं वेदन पर्यायमां छे.
पर्याय नथी एम जे कीधुं छे एनो अर्थः गौण करीने, ए उपरथी लक्ष छोडाववा त्रिकाळीने मुख्य करीने, निश्चय कहीने - निश्चयकहीने, मुख्य करीने एम नहीं. गौण करीने व्यवहार, व्यवहार करीने गौण कर्युं एम नहीं. एम निश्चय ते मुख्य एम नहीं. मुख्य ते निश्चय. केमके निश्चय तो त्रणेय निश्चय छे द्रव्य, गुण, ने पर्याय-त्रणेय पोताना माटे निश्चय छे. ‘स्वआश्रय ते निश्चय ने पराश्रय ते व्यवहार’ पण आंहीयां हवे त्रण पोताना होवा छतां मुख्यने-द्रव्यने करवुं छे तेथी मुख्यने निश्चय कह्यो अने पर्यायने गौण करवुं छे माटे तेने व्यवहार कह्यो.
आहा... हा! एवुं द्रव्यने पर्याय जोडलुं छे. वस्तु! स्वतंत्र वस्तु एने परना संबंधनी कोई अपेक्षा नहीं. आहा...! ए द्रव्य, पर्यायरूप अनेकांत, अनेकधर्मस्वरूपपणुं छे. द्रव्यधर्म पण एनो, पर्यायधर्म पण एनो-बेय एने टकावी राख्युं छे. धर्म एटले... भाव. द्रव्यपणुं अने पर्यायपणुं एवुं अनेकधर्मपणुं, अनेक धर्म एटले गुणो अथवा अनेकपणुं ते ‘निश्चित करवामां आवे ते पदार्थ छे’ द्रव्यने पर्याय-बेपणे निश्चित करवामां आवे ते पदार्थ छे. एकला द्रव्यने निश्चित करवामां आवे छे ने एकली पर्यायने एम नहीं.
आहा... हा! ‘ए जीवपदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमयी सत्तास्वरूप छे’ आंहीथी उपाडयुं जीवपदार्थ उत्पादव्यय ने ध्रुव स्वरूप छे. एकलुं ध्रुवस्वरूप छे एम नथी अने एकलुं उत्पादव्यय पर्यायस्वरूप छे एम नथी. आहा... हा! उत्पादव्यय/उत्पाद पहेलो लीधो छे. व्यय पछी, ध्रुव पछी. पण एवी एक सत्ता छे होवावाळी वस्तु छे. उत्पादव्ययध्रुवनुं होवावाळुं ए पदार्थ छे. ‘दर्शनज्ञानमयी चेतनास्वरूप छे’ - दर्शनज्ञानमय ते चेतना पोते वस्तु-ज्ञाताद्रष्टामय ते वस्तु स्वरूप छे, चेतन पदार्थ!
‘अनंतधर्मस्वरूप द्रव्य छे.’ आवी ग्युं छे ने भाई पहेलुं एमां! (टीकामां) अनंतधर्मस्वरूप वस्तु एक छे. अनंतधर्म-गुणपर्याय अनंता होवा छतां, वस्तु तरीके द्रव्य एक छे. आहा... हा! आवुं भणतर!
‘अनंत धर्मस्वरूप द्रव्य छे’ अनंत शक्तिस्वरूप पदार्थ छे. एक ज शक्ति छे संख्यात- असंख्यात शक्ति छे एम नहीं, अनंत शक्तिस्वरूप ते द्रव्य छे.
‘द्रव्य होवाथी वस्तु छे.’ द्रव्य होवाथी वस्तु, वस्तु छे. आ ए वस्तुनी एक फेरे मोटी चर्चा हाली हती. राजकोट नेवासीनी सालमां एक विशाश्रीमाळी श्वेतांबर एक (माणस) राणपरनो आव्यो हतो. अध्यात्मनुं थोडुं वांच्युं हशे पछी... आत्मा, वस्तु न कहेवाय आत्माने ए कहे. नेवासीनी साल!
ए आव्यो’ तो, कांई ठेकाणां विनानां. आत्माने वस्तु न कहेवाय कहे. मोटी चर्चा चाली हती. कीधुं वस्तु कहेवाय. वस्तु छे. आवतो व्याख्यानमां बेसतो! देरावासी हतो श्वेतांबर जुवान! जाणे के कंईक जाणुं छुं आत्माने एवो एने डोळ हतो.
Page 46 of 225
PDF/HTML Page 59 of 238
single page version
४६ श्री प्रवचन रत्नो-१
‘द्रव्यहोवाथी वस्तु’ वस्तु केम? अंतर शक्तिओ अंदर वसेली छे माटे वस्तु कहेवामां आवे छे. एक ज चीज छे ने एक ज गुण छे ने एक ज पर्याय छे एम नथी. अनंतगुण ने अनंतीपर्याय एमां वसेली छे. माटे तेने द्रव्य अने वस्तु कहेवामां आवे छे.
आहा... हा! ‘गुणपर्यायवाळो छे’ ‘अंगीकार कर्या छे’ ए आव्युं ‘तुं ने...! गुणपर्याय जेणे अंगीकार कर्या छे. आत्मामां त्रिकाळी गुण पण छे ने वर्तमान पर्याय पण छे. गुणपर्यायवाळुं ए तत्त्व छे. एना पर्याय माटे - हयातिने माटे बीजां तत्त्वोने लईने आ पर्याय छे एम नथी. चाहे अविकारी के विकारी हो! पण ए गुणपर्यायवाळुं पदार्थ पोते ए रूपे रहेलुं छे. परने लईने नथी.
आहा... हा! ‘गुणपर्यायवाळो छे’ ‘तेनुं स्वपरप्रकाशक ज्ञान’ आत्मानुं स्वपरप्रकाशक ज्ञान छे? ‘अनेकाकाररूप एक छे’ ए ज्ञान... अनेक ज्ञेयोने जाणे, छतां अनेकपणे कटका-खंड थता नथी. अनेकने जाणे छतां एकरूपज्ञानरूपे रहे छे.
आहा... हा! आवी ग्युं छे एमां (टीकामां) आ आत्मा जे छे ए ज्ञानस्वरूप प्रभु छे. प्रज्ञास्वरूप-ज्ञानस्वरूप प्रभु! चैतन्यप्रकाशनो पुंज प्रभु! ए चैतन्य परने-अनेक-अनंतपदार्थने जाणे छतां ते परपदार्थ रूपे ते ज्ञान थतुं नथी. ए परपदार्थ-अनंतने जाणे तेथी ते ज्ञानमां अनंत खंड पडी जाय छे अनंत ज्ञेयोने जाणता ए ज्ञेयाकारोरूप अनंत खंड थाय छे एम नथी, ज्ञान तो एकरूपे ज रहे छे ए अनंत जाणवामां एकरूपे रहे छे. आहा... हा!
‘स्वपरप्रकाशकज्ञान अनेकाकाररूप एक छे’ पर आव्युं ने एमां? परने, अनेक जाणवा छतां स्वरूप तो एकज छे. पर्यायनो धर्म ज स्वपरप्रकाशक! अनंत परने... अनंतपोताना गुण होवाथी, बेयने प्रकाशे छतां ते एकरूप रहेनार छे. ज्ञानना खंड ने भेद थतां नथी त्यां! आहा... हा! आ ‘जीव’ नामना पदार्थनी व्याख्या करे छे.
‘वळी ते जीवपदार्थ आकाशादिथी भिन्न’ आकाश, परमाणु जेम भिन्न चीज छे जुदी एवो प्रभु (आत्मा) ‘असाधारण चैतन्यगुणस्वरूप छे’ जेनामां चैतन्यगुण असाधारण (छे) एटले के बीजां द्रव्योमां तो नथी... पण बीजो एवो गुण नथी. एवो असाधारण चैतन्यगुण स्वरूप छे. एनी साथे अनंतागुणो बीजां भेगां छे. पण चैतन्यनी मुख्यतामां कारणके चैतन्य पोताने जाणे, बीजां गुणोनी हयातिने जाणे! बीजां गुणोनी हयाति बीजां गुणो न जाणे! जडनी हयाति जड न जाणे! ते ज्ञान परनी हयातिने जाणे अने परना-पोताना ज्ञान सिवाय बीजा अनंता गुणने जाणे! तेथी तेने मुख्य चैतन्यगुण स्वरूप कहेवामां असाधारण (गुण स्वरूप छे) बीजो कोई एना जेवो छे नहीं गुण!
आहा... हा! आ तो जीव केवो? के त्रसनी दया पाळे ने परने सुख आपे ने दुःख आपे ने मारे ने... जीवाडे ने... ए जीव! आ धंधो करे ध्यान राखीने ए जीव! मारी नाख्या अज्ञानीए... आहा... हा! धंधाना प्रवीण थईने... हुशियारी करीने धंधा करे, दुकानमां थडो साचवे, पांच पचास नोकरो होय तो बधाने कबजामां राखे! ए जीव!
ए तारी बधी वात खोटी. आहाहा! जीव तो स्वने परने जाणनारो जीव छे. परनुं कांई करे ने
Page 47 of 225
PDF/HTML Page 60 of 238
single page version
श्री प्रवचन रत्नो-१ ४७ परनी कांई व्यवस्था करे ए जीव छे ज नहीं..
आंही कहे छे के परद्रव्य छे एने प्रकाशे! एने करी शके नहीं एनुं! आहाहा... हा! आत्मा सिवाय अनंतपदार्थ छे एनुं कांई करी शके नहीं पण एने स्वमां रहीने पोतानी सत्ताथी अनेकने जाणतां छतां ज्ञान एकरूप रहे अनेक- खंड-खंड न थाय! एवो एनो स्वभाव छे.
आहा... हा! आवी वात छे! आहा...! ‘अने अन्य द्रव्यो साथे एक क्षेत्रमां रहेवा छतां पोताना स्वरूपने छोडतो नथी’ क्षेत्र भले एक छे. आ शरीर शरीरमां ने आत्मा आत्मामां जुदो! आ (शरीर) तो माटी-जड-धूळ छे. आहाहा...!
अरे...! एने क्यां खबर छे? हुं कोण छुं! एमां ओघे-ओघे, आंधळे आंधळा... जन्म्या ने पछी बाळके ने युवानने ने वृद्ध पछी मरी जाय ने बीजो भव, थई रह्युं! पछी त्यां जनमनी कतार हाली... एकपछी एक, एक पछी एक जन्म-मरण, जनममरण कतार लागी गई छे अनादिथी...!
आहा... हा! वस्तुनी खबर नथी! एक क्षेत्रे रह्यां छतां पोतामां स्थित छे. आहा...! ‘आवो जीव नामनो पदार्थ समय छे ज्यारे ते पोताना स्वभावमां स्थित होय त्यारे तो स्वसमय छे’ पहेलानुं (टीकानुं) टूंकुं करी नाख्युं छे. ‘अने परस्वभाव-रागद्वेषमोहरूप थईने रहे त्यारे’ कर्मना प्रदेश कीधां’ ता एनो अर्थ ज रागद्वेषमोह कर्यो! टीकामां ए ज लीधुं छे. आहा...! ‘परस्वभाव- रागद्वेषमोहरूप थईने रहे त्यारे परसमय छे.
ए प्रमाणे जीवने द्विविधपणुं आवे छे. एकवस्तुने बे-पणुं आवुं आवे छे. ते बेपणुं शोभायमान छे नहीं.
विशेष कहेशे... (प्रमाणवचन गुरुदेव)
छे. भाई! जे परज्ञेय छे ते तो व्यवहारे ज्ञेय छे, वास्तवमां निश्चयथी तो पोतानी ज्ञाननी दशामां जे छ द्रव्यनुं ज्ञान थाय छे ते ज पोतानुं ज्ञेय छे, ते ज पोतानुं ज्ञान छे अने पोते आत्मा ज ज्ञाता छे. (अध्यात्म प्रवचन रत्नत्रय पानुं-१६६)
थई नथी पण स्वपरने प्रकशती थकी पोताथी-पोताना सामर्थ्यथी प्रगट थई छे. माटे पोतानी ज्ञाननी पर्याय ज पोतानुं ज्ञेय छे. ल्यो; आवी खूब गंभीर वात! (अध्यात्म प्रवचन रत्नत्रय पानुं-१६८)