Pravach Ratno Part 1-Gujarati (Devanagari transliteration). Date: 08-01-1979; Pravachan: 163.

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१प२ श्री प्रवचन रत्नो-१

प्रवचन क्रमांक – १६३ दिनांकः ८–१–७९

आहींथी छे. ‘आ रीते’ ... छे? (ज्ञाता पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान करे छे तेथी) ज्ञायकस्वभाव जेनी द्रष्टिमां आव्यो ए ज्ञायकस्वभाव (नो) तो जाणवानो-देखवानो स्वभाव छे. ए जाणवा- देखवामां... कहे छे के ‘पुद्गलना परिणामनुं ज्ञान’ ए वखते त्यां रागआदि, द्वेषआदि, भक्ति आदि, स्तुति आदिनो राग थाय! ए ‘पुद्गल परिणाम’ कहेवामां आव्या छे.

तेनुं ज्ञान करे छे (ज्ञानी) - एनुं ज्ञान! ज्ञायकस्वभाव होवाथी, ‘जाणनार-देखनार’ होवाथी-अनुभवमां जाणनार-देखनार आव्यो होवाथी, ए रागादि थाय, दया-दान-भक्ति आदि, स्तुति आदिनो राग, तेने ए जाणे! .... झीणी वात छे!

छे? ‘पुद्गलपरिणाम’ एटले राग. चाहे तो भगवाननी भक्तिनो स्तुतिनो, पंचमहाव्रतनो ए राग, ए राग पुद्गलपरिणाम छे! एनुं ज्ञान करे छे एने जाणे छे ज्ञानी!!

‘तेथी एम पण नथी’ एटले शुं? के आत्मा ज्ञायकस्वभावी छे एम ज्यां जणाणुं अनुभवमां आव्युं! भगवान द्रष्टिमां आव्यो! पर्यायमां-ज्ञानपर्यायमां ज्ञेय पूर्ण छे तेनो अनुभव थयो ए धर्मीने.. रागआदिना परिणाम थाय तेने ते जाणे छे! केमके तेनो ज्ञाता-द्रष्टा स्वभाव होवाथी, धर्मीने राग के पुण्य-पापना भाव थाय एने ‘पुद्गलपरिणाम’ कहीने एने ई जाणे छे! जाणवा छतां... ‘एम पण नथी के पुद्गलपरिणाम ज्ञातानुं व्यापय छे.’ शुं कीधुं ई...? राग अने दया-दानना विकल्पोने जाणे जाणतां... छतां एम नथी राग छे ते आत्मानुं कार्य छे!

आहा. हा! आवुं छे! भगवान आत्मा! ज्ञायक स्वभाव! वस्तुस्वरूप चैतन्यस्वरूप ज छे एवुं ज्यां भान थयुं त्यारे तेने रागादिना परिणाम (छे) वीतराग पूरण नथी, एथी तेने दया-दान-व्रत-भक्ति-स्तुति, एवो राग आवे! तेथी ते रागने जाणे! जाणवा छतां, राग आत्मानुं कार्य छे एम नथी.

(श्रोताः) तो ए कोनुं कार्य छे? (उत्तरः) पुद्गलनुं कार्य छे. आहा.. हा.! झीणी वात छे भाई...!

आहा.. हा! छे? जाणनारो ज्ञाता पुद्गलपरिणामनुं ज्ञान करे! ए रागने जाणवानुं काम करे! तेथी एम पण नथी के पुद्गलपरिणाम ए रागादि छे ए ज्ञाताना-जाणनारानुं ए कार्य छे एम नथी. समजाय छे आमां?

(श्रोताः) रागने जाणे छे? (उत्तरः) रागनुं? ...ए तो, व्यवहार कह्यो ने..! पहेलो पोताने जाणे छे, पण रागनुं ज्ञान एवुं बताव्युं! (ज्ञानी) जाणे छे तो पोताने!! ...पण आंही ई कहेवुं छे पाछुं के ई रागने जाणे छे. ‘जाणवानी पर्याय तो पोताथी, स्वपरप्रकाशकस्वभाव होवाथी जाणे छे’ ए ज्ञाननी पर्याय, षट्कारकपणे परिणमती, पोते कर्ता-पर्यायनो पोते कर्म पोतानुं ए रागनुं कार्य नहीं! आहा.. हा! पण... रागने जाणे छे एथी राग व्याप्य नाम आत्मानुं कार्य छे एम नथी! झीणुं छे! ‘आ’

आहा.. हा! भगवान आत्मा जाणनार-देखनार जेनो (स्वभाव छे) आव्युं’ तुं ने काल ‘हुं


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श्री प्रवचन रत्नो-१ १प३ स्वसंवेदन-दर्शन-ज्ञान-सामान्य छुं बस! एवुं ज्यां भान थयुं एनी ज्ञाननी पर्यायमां... रागनो भाव होय ते राग आवे! पण रागने जाणवानुं कार्य ते जीवनुं छे.

तो रागने जाणवानुं कार्य जीवनुं छे तो राग एनुं कार्य आत्मानुं छे एम केम नही? एम प्रश्न छे. (ज्ञानी) रागने जाणे छे-जाणवानुं कार्य तो एनुं छे तो... रागने जाणे छे तो राग एनुं कार्य छे के नहीं? आहा.. हा! समजाणुं कांई...?

पुद्गलपरिणाम ज्ञातानुं व्याप्य छे ‘एम पण नथी एम राग जाणनारनुं कार्य छे एम नथी! आ-रे आवी वातुं छे!

(कहे छे के) ‘कारण के पुद्गलने’ (जुओ!) ई पुद्गलना परिणामने ‘पुद्गल’ कही दीधुं! (एटले) अंदर दया-दान-व्रत-भक्ति-स्तुतिनो राग थाय तेने पहेलां पुद्गलना परिणाम कह्यां हतां, आंही एने ‘पुद्गल’ कही दीधां. समजाणुं कांई...?

आहा.. हा “ए पुद्गलने अने आत्माने’ -ई पुद्गलपरिणामने ‘पुद्गल’ कही दीधुं, आखाद्रव्य लीधां ने... बेय! आहा...! ‘ज्ञेयज्ञायक संबंधनो व्यवहार मात्र होवा छतां’ -ए पुद्गलना परिणाम कहो के पुद्गल कहो, रागआदिने आहाहा! व्यवहाररत्नत्रयनो राग एने पुद्गल आंही कीधुं! (ए) पुद्गलनुं व्याप्य-कार्य छे एथी ते पुद्गल छे एम कीधुं!

‘ए पुद्गलने अने आत्माने ज्ञेयज्ञायक संबंधनो व्यवहार मात्र! (एटले के) ए रागने... जाणनारो... जे जणाय ए ज्ञायक-ज्ञेयनो, व्यवहार मात्र संबंध! निश्चय संबंध तो छे नहीं.. आहा! ‘ज्ञेय-ज्ञायकने’ राग ज्ञेय अने आत्मा ज्ञायक एवो जे ज्ञेय–ज्ञायकनो संबंध, ई व्यवहार मात्र छे आहाहा! परमार्थे तो पोते ज्ञाननो पर्याय जे थयो ए द्रव्य–गुणने पर्याय ते ज्ञेय अने तेनो ‘जाणनार’ !! आवुं झीणु छे!

‘पुदगलने अने आत्माने.’ आहाहा! भगवाननी भक्तिनो भाव, स्तवन.. आम चालतुं होय.. (श्रोताः) ए तो विकल्प! (उत्तरः) वाचन चाले विकल्प! पण आ तो समंतभद्र आचार्य याद आव्या! चोवीस तीर्थंकरनी स्तुति करी छे ने (स्वयंभूस्तोत्रमां)

समंतभद्र आचार्य कहे छे के प्रभु! मने आपनी भक्तिनुं व्यसन पडी गयुं छे एम कहे छे. छे एमां..? पोते स्तवनमां कह्युं छे ‘मारे ए जातनुं व्यसन छे’ चोवीस तीर्थंकरनी स्तुति करी! पण एम कह्युं प्रभु! मने व्यसन छे. (श्रोताः) एने तो आंही ‘पुद्गल’ कहो छो (उत्तरः) ए राग छे, छोडवानुं छे. केमके.... ई तो परदेश छे. श्रीमद्मां आव्युं ने... ‘जाशुं स्वरूप स्वदेश’

आहा.. हा! अरे, अमारे हजी राग बाकी छे, परदेश! शेष कर्मनो भाग छे, भोगववो अवशेष रे’ एटलो हजी राग बाकी छे, परदेश! आहा.. हा! ‘तेथी देह एक धारीने, जाशुं स्वरूप स्वदेश..’ ई राग जे बाकी छे भक्ति आदिनो ई परदेश छे.

आहा.. हा! अंर्त भगवान स्वरूप स्वदेश अनंत.. अनंत.. गुणनो सागर-दरियो (आत्मा) ए अमारो स्वदेश छे, एमां अमे जवाना छीए. आहां... हा! एय.. भाई..? आवी वातुं छे.

आ तो बहेने (चंपाबेने ‘परदेश’ शब्द (बोलमां) वापर्यो छे अने श्रीमदे य (श्रीमद्राजचंद्रे)


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१प४ श्री प्रवचन रत्नो-१ ‘स्वदेश’ शब्द वापर्यो छे.

आहा... हा! भगवान आत्मा ज्ञानने आनंद आदि गुणनो दरियो छे ते स्वदेश छे. अने चाहे.. तो भगवाननुं स्मरण पंच परमेष्ठिनी भक्ति-स्तुति, ए राग ते परदेश छे. आहा.. हा! हजी एकाद भव परदेशमां रहेवानुं छे! पछी तो.. एम स्वरूपमां-स्वदेशमां चाल्या जशुं!!

बहु वात आकरी बापा! मारग समयसारनो मारग कोई अलौकिक छे समयसार एटले आत्मा एनो मारग एम. (श्रोताः) मारग शुं सहेलो छे? (उत्तरः) मारग सहेलो छे, अण अभ्यासे दुष्कर थई ग्यो छे. दुर्लभ कीधुं छे ने...! सम्यग्दर्शन दुर्लभ कीधुं छे! सत्.. ज्ञायक स्वभाव छे! ‘छे’ तेने पामवुं तेमां शुं? ‘छे’ तेने पामवुं सहज छे! ए श्रीमदे य कह्युं छे ने..! ‘सत् सरळ छे, सत् सहज छे, सत् सर्वत्र छे!

आहा.. हा! आ.. भगवान आत्मा सत् छे! सर्वत्र छे! सरळ छे! पोते ज छे! ज्ञायकस्वभावभाव भगवान!! एने कहे छे के ज्ञानमां रागनापरिणामनुं ज्ञान थाय एथी ते ज्ञातानुं राग कार्य छे? एम प्रश्न छे आहा.. हा! छे? कारण! पुद्गलने अने आत्माने ज्ञेयज्ञायकसंबंधनो व्यवहार मात्र होवा छतां’ पण... छतां? ... ‘पण पुद्गलपरिणाम जेनुं निमित्त छे’ एटले के जे दया-दान-भक्ति-व्रत-तपनो विकल्प ऊठयो छे राग-पुद्गलपरिणाम जेनुं निमित्त छे ‘एवुं जे ज्ञान’ आहा.. हा! ज्ञान थयुं छे तो उपादान पोताथी... आहा..! जेओ पाठ! रागनुं ज्ञान थयुं छे तो पोताथी एमां राग निमित्त छे. रागना ज्ञानमां ए (राग) निमित्त छे. ज्ञान थयुं छे/रागनुं ज्ञान थयुं छे ई तो पोताना उपादानथी थयुं छे!

आहाहा.. हा! बहु झीणुं बापु! मारगडा... झीणा भाई...! “ज्ञायक” कहेतां एमां बधां सिद्बांत समाई जाय छे, ए ‘जाणनार’ जाणनारो छतां... /ई आवी गयुं छे ने.. छठ्ठीगाथामां ‘ज्ञायक’ ण वि होदि अप्पमत्तो, ण पमतो जाणगो दु जो भावो! एवं भणंति शुद्धं, जाणनार जाणनारने जाणे छे! णादो तो सो हु सो चेव!!

आंही कहे छे के ‘जाणनार जाणनारने जाणे छे ए वात बराबर छे, हवे ई जाणनारमां- जाणवानी पर्यायमां राग निमित्त छे, निमित्त छे एटले कांई करतुं नथी एम एनो अर्थ छे.

आहा.. हा! छे? ‘पुद्गलपरिणाम जेनुं निमित्त छे’ आहा.. हा! ‘एवुं जे ज्ञान ते ज ज्ञातानुं व्याप्य छे’ -ते ज आत्मानुं कार्य छे. रागनुं ज्ञान थयुं माटे एनुं ए कार्य छे अथवा रागनुं कार्य आत्मानुं छे एम नथी.

ई तो पहेलां आवी गयुं छे, ज्ञान थयुं माटे रागनुं कार्य छे ई एम तो नथी. पण राग आत्मानुं कार्य छे / आंही एनुं ज्ञान थयुं (तेथी) ए आत्मानुं कार्य राग छे एम नथी.

आहा.. हा! आवुं छे! ... भाई...? झीणी वातुं छे बापा! आहा.. हा! पुद्गल.. ज्ञेय! ए राग आदि, भक्ति आदि, स्तुति आदिनो राग, ए ज्ञेय अने आत्मा ज्ञायक एवो व्यवहार मात्र होवा छतां आहाहा! ‘पण... पुद्गलपरिणाम जेनुं निमित्त छे एवुं जे ज्ञान ते’ - आंही जाणवानो पर्याय थयो पोताथी, रागथी थयो नथी. रागने


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श्री प्रवचन रत्नो-१ १पप जाणवानुं ज्ञान रागथी थयुं नथी. थयुं छे पोताथी. पोताना ज्ञान (पर्यायमां) ज्ञान थयुं, तेमां राग निमित्त छे, छतां ते रागनुं कार्य, जीवनुं नथी. आहा.. हा! छे? ‘एवुं जे ज्ञान ते ज ज्ञातानुं व्याप्य छे.’

आहा..! रागनुं ज्ञान, एमां ए (राग) निमित्त छे, (ज्ञान) आम तो, पोतानुं पोताथी थयुं छे रागने जाणवानुं ज्ञान पण ज्ञान पोते पोताथी थयुं छे. एना ज्ञानमां राग निमित्त मात्र छे अने ते ज्ञेय-ज्ञायकनो व्यवहार मात्र होवा छतां ए राग आत्मानुं कार्य नथी.

आहा.. हा! रागनुं कार्य नथी आत्मानुं-ई तो पहेलां आवी गयुं छे. आंही तो हवे आत्मानुं ज्ञान थयुं/ रागनुं ज्ञान थयुं, ज्ञान थयुं छे पोताना उपादानथी. राग व्यवहाररन्तत्रयनो विकल्प छे, निमित्तनुं ज्ञान/ज्ञेयज्ञायक संबंधनो व्यवहार मात्र होवा छतां ते राग आत्मानुं कार्य नथी.

भाषा तो सादी छे पण भई, भाव तो... भाव तो जे होय ते आवे एमां... अने हळवा करी नखाय कांई? ... आहा.. हा! एवुं स्वरूप छे!

आहा.. हा! ‘माटे ते ज्ञान ज ज्ञातानुं कर्म छे’ ल्यो! व्यवहारे.. (कह्युं) ए आत्मा ज्ञायक छे, एणे स्वने जाण्यो... राग छे तेने परने जाण्युं, एवुं जे ज्ञेयज्ञायक (पणुं) तो व्यवहार मात्र! छतां... ते रागनुं कार्य आत्मानुं नथी. माटे ते ज्ञान ज ज्ञातानुं कार्य छे-राग आत्मानुं कार्य नथी, रागसंबंधी ज्ञान जे पोताथी थयुं छे ते ज ज्ञातानुं कार्य छे. आहा.. हा! छे? ‘माटे ते ज्ञान ज ज्ञातानुं कार्य छे ए पण हजी भेद छे आहा.. हा! ए आंही परथी जुदुं बताववुं छे ने...! नहितर तो... रागसंबंधी ज्ञान ने पोतासंबंधी ज्ञान, ए ज्ञान पोताथी थयुं छे, ए ज्ञान ज्ञातानुं कार्य छे ए पण व्यवहार कीधो! (खरेखर तो) ए ज्ञाताना परिणाम जे थया परिणाम, ए परिणाम कर्ता अने परिणाम एतुं कार्य (छे), एने आत्मानुं कार्य (कह्युं ए तो) परथी जुदुं पाडवाने कह्युं छे.

आहा..! आटला बधा भेद, क्यां समजवा! वीतराग मारग एवो छे भाई! बहु सूक्ष्म-झीणो छे!!

हवे, आ ज अर्थना समर्थननुं कळशरूप काव्य कहे छे. ल्यो! गाथा पूरी थई, टीका (पूरी थई)

कलश–४९
(शार्दूलंविक्रीडित)
व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेत्रैवातदात्मन्यपि
व्याप्यव्यापकभावसम्भवमृते का कर्तुकर्मस्थितिः।
ईत्युद्दामविवेकधस्मरमहोभारेण भिन्दंस्तमो
ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान्।। ४९।।

(श्लोकार्थ) ‘व्याप्यव्यापकता तदात्मनि भवेत्’ – व्याप्यव्यापकपणुं एटले कर्ताकर्मपणुं तत्स्वरूपमां ज होय’ -राग ए कांई जीवनुं स्वरूप नथी. तेथी ‘व्याप्यव्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज होय.’ आत्मा व्यापक अने एना ज्ञानपरिणाम ते व्याप्य होय. परथी जुदुं पाडीने बताववुं छे ने अत्यारे!

आहा..हा! व्यापक (नुं) व्याप्य, एटले ज्ञानपरिणाम, अने व्यापक ते आत्मा. ए तत्स्वरूपमां


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१प६ श्री प्रवचन रत्नो-१ ज होय. राग-दया-दान-व्रत-भक्तिनो, स्तुतिनो राग, ए कांई तत्स्वरूप नथी, ए कांई आत्मस्वरूप नथी.

आहाहाहा! एथी व्याप्यव्यापकपणुं एटले के कर्ताकार्यपणुं तत्स्वरूपमां ज होय. एटले आत्मा ज्ञानस्वरूप छे/तत्स्वरूपमां कर्ताकर्मपणुं होय (तेथी) कर्ता आत्मा अने ज्ञानपरिणाम कार्य (कर्म). ‘अतदात्मनि अपि न एव’ ‘अतत्स्वरूपमां न ज होय’ (एटले) राग जे व्यवहाररत्नत्रयनो विकल्प ऊठे छे ते अतत्स्वरूप छे. आहा... हा! हवे... आवी वातुं! नवा अजाण्या माणसने तो एवुं थाय के शुं आ ते कहे छे!! सांभळवा मळ्‌युं नथी अने परिचय नथी.

आहा.. हा! ‘व्याप्यव्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज होय’ एटले? भगवान आत्मा ज्ञानस्वरूप- आनंदस्वरूप (छे), एना परिणाम पण ज्ञानस्वरूप-आनंदस्वरूप, ई आत्मा! आत्मा व्यापक ज्ञानपरिणाम व्याप्य ते तेनुं तत्स्वरूप छे. ई तत्स्वरूपमां कर्ता-कर्मपणुं होय, तत्स्वरूपमां व्यापयव्यापकपणुं होय, तत्स्वरूपमां कारण-कार्यपणुं होय. (श्रोताः) क्षयोपशमज्ञान ए तत्स्वरूप कहेवाय के नहीं? (उत्तरः) बहारनुं... बहारनुं ज्ञान, ए ज्ञान नथी. ई परज्ञान छे! परसत्तावलंबी!

ए आवी गयुं छे आपणे ज्ञेयनिष्ठ-ज्ञेयनिमग्न! आमे य अग्यार अंगनुं (ज्ञान) अनंत वार कर्युं छे. नव पूर्व अनंतवार थयां छे! ए स्वज्ञेय होय तो कल्याण थई जाय त्यां, आहा.. हा! एनाथी एक भव घटयो नथी. (श्रोताः) वध्यो खरो! (उत्तरः) ए भव ज छे त्यां वधवानुं शुं? ई पोते ज भवस्वरूप छे, जेम राग भवस्वरूप छे एम ‘परसंबंधीनुं जे ज्ञान स्वनुं मूकीने (परसंबंधीज्ञान) ए भवस्वरूप ज छे!

झीणी वात छे प्रभु! आहा! आवो वीतराग मारग! सर्वज्ञ परमेश्वरना मुखथी नीकळी छे वाणी ए ‘आ’ वाणी छे! आ तो समयसार छे! ओलुं-प्रवचनसार दिव्यध्वनिनो सार! ‘आ’ तो आत्मानो सार!!

आहा.. हा! ‘व्यापकव्याणकपणुं तत्स्वरूपमां ज होय’ - जोयुं? तत्स्वरूपमां ‘ज’ होय! एकांत करी नाख्युं. कथंचित् तत्स्वरूपमां अने कथंचित् अतत्स्वरूपमां एम नहीं. अ ए अस्तिथी कह्युं. हवे ‘अतदात्मनि अपि न एव’ ‘अतत्स्वरूपमां न ज होय.’ अने व्याप्यव्यापक भावना संभव विना ‘कर्तृकर्मस्थितिः काः’ - कर्ताकर्मनी स्थिति केवी?

आहा... हा! रागनुं कार्य आत्मानुं ने कर्ता आत्मा एम अतत्स्वरूपमां क्यांथी आव्युं? समजाणुं कांई...?

‘तत्स्वरूपमां आवे आत्मा कर्ता अने एना शुद्धस्वभावना-मोक्षमार्गना परिणाम तेनुं कर्म होय. आत्मा व्यापक अने मोक्षमार्गना परिणाम व्याप्य ए तत्स्वरूपमां कर्ताकर्मपणुं होय.

पण... राग ते व्याप्य अने आत्मा व्यापक-कर्ता तेनुं कार्य राग एम नथी. अतत्स्वरूपमां व्याप्यव्यपकपणुं नथी. आहा.. हा! पुद्गलपरिणाममां व्यापक आत्मा अने पुद्गलपरिणाम व्याप्य एम नथी. पुद्गल व्यापक अने ए (राग-व्याप्य छे) आहा...! गजब वातुं छे ने...!

भगवाननी भक्ति-भगवाननी स्तुति ए पण पुद्गलना परिणाम पुद्गल व्यापकनुं व्याप्य छे.


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श्री प्रवचन रत्नो-१ १प७ आहा... हा! पुद्गल पोते परिणमीने ते राग-व्याप्य तेनुं थयुं छे. समजाय छे ने भाई...? समजाय छे? आवो मारग! अरे...

अस्ति-नास्ति करी. (हवे) त्रीजी वात, ‘व्याप्यव्यापकभावनो संभव विना ‘कर्तृकर्मस्थितिः का’ ए त्रीजुं! ज्यां व्यापयव्यापकपणुं नथी त्यां कर्ताकर्मपणुं केवुं?

राग व्याप्य अने आत्मा व्यापक ए अतत्स्वरूपमां तो छे नहीं... समजाणुं कांई...? आहा..! देहनी क्रियानी तो वातुं क्यां गई?! आहा..! शरीर, वाणी, मननी पर्याय, एनो व्यापक परमाणुं ने एनुं व्याप्यए पर्याय!

आंही तो आत्मामां थता रागना परिणाम-भक्तिना परिणामस्तुतिना परिणाम, परमात्मा परद्रव्य छे ने...! ए परिणामनी साथे अतत्स्वरूप होवाथी आत्माने तेनुं कर्ताकर्मपणुं नथी. समजाणुं कांई..? छे ने... एमां छे ने...? त्रण वात थई.

कर्ताकर्मपणुं एटले कारण-कार्यपणुं, व्याप्यव्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज होय, अने व्याप्यव्यापक सिवाय अतत् स्वरूपमां कर्ताकर्मपणुं होय नहीं.

माटे ‘व्याप्व्यापकभावना संभव विना कर्ताकर्मनी स्थिति केवी?’ आहा.. हा! आवुं झीणुं छे प्रभु!

आहा... हा! ‘अर्थात् कर्ताकर्मनी स्थिति न ज होय’ एटले? व्यवहार-रत्नत्रयनो जे विकल्प छे ए आत्मानुं व्याप्य अने आत्मा व्यापक ई अतत्स्वरूपमां होई शके नहीं ई अतत् स्वरूप छे!

आहा...! को’ भाई..? आवुं छे!! (कहे छे केः) ‘इति उद्वाम–विवेक–धस्मर–महोभारेण’ –ओहो...! शुं कहे छे, शुं कळश.. ते कळश!! ओहो...! ‘आवो प्रबळ विवेकरूप’ आवो प्रबळ विवेकरूप! एटले...? रागादिना परिणाम अतत्स्वरूप छे भगवान ज्ञाताना परिणाम ते तत्स्वरूप छे. आवो प्रबळ विवेक छे!

आहा.. हा! ‘आवो प्रबळ विवेकरूप’ - आवो प्रबळ भेदरूप-आवो प्रबळ भेदज्ञानरूप! ‘अने सर्वने ग्रासीभूत करवानो जेनो स्वभाव छे’ -प्रबळ विवेकरूप-भेदरूप अने जे ज्ञानने सर्वने ग्रासीभूत करवानो जेनो स्वभाव छे ‘एवो ज्ञानप्रकाश.’ रागना परिणाम ते पुद्गलता परिणाम ते पुद्गलनुं व्याप्य ते अतत्स्वरूप ते तत्स्वरूपमां होय शके नहीं. भगवान आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा ते कर्ता, अने तेना परिणाम जे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र थाय, ए परिणाम तेनुं व्याप्य! आहा.. हा! ए पण भेदथी.. (कथन छे!) आवी वात छे!

निश्चयथी तो ए मोक्षमार्गना परिणाम षट्कारकथी परिणमतां पोताथी छे. आहा.. हा! भगवान (आत्मद्रव्य) ध्रुव छे ए क्यां परिणामे छे? (अपरिणामी छे.)

आहा... हा! शुं... कळश!! (कहे छे) व्यापयव्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज होय! तो तत्स्वरूप तो.. भगवान ज्ञान ने आनंदस्वरूप छे प्रभु! ए तत्स्वरूपमां एनां ज्ञानने आनंदना परिणाम व्याप्य अने आत्मा व्यापक एम कही शकाय. पण... राग व्याप्य अने व्यापक आत्मा कोई रीते विवेकथी-भेदज्ञान छे त्यां न


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१प८ श्री प्रवचन रत्नो-१ कराय...! आहा...!

द्रष्टि फेरे बधो भाव फेर पडी जाय छे. हें? द्रष्टि एवी सृष्टि!! ज्ञायकनी द्रष्टि थई तेने ‘जाणवा-देखवा ने मोक्षनां मार्गने आनंदना परिणाम, ए तेनुं (आत्मानुं) व्याप्य थाय छे अने ते ज्ञानमां राग निमित्त होवा छतां ते राग आत्मानुं कार्य नहीं अने रागथी ज्ञान थयुं ते रागनुं कार्य नहीं.

झीणी वात छे भाई...! आ तो वितराग सर्वज्ञ परमात्मा, त्रिलोकनाथ केवळीना वचनो छे ई संतो जगतने जाहेर करे छे. आहा.. हा! ‘आवो प्रबळ विवेकरूपे’ - उदम् विवेक! उदम् विवेक! एम. प्रबळ विवेक!! ‘अने सर्वने ग्रासीभूत करवानो जेनो स्वभाव छे’ (एटले) ज्ञान तो स्वने जाणे-परने जाणे ई ‘जाणवानुं कार्य’ पोतानुं पोताथी थाय, ए बधाने जाणवानो-ग्रासीभूत-कोळियो करी जाय! लोकालोक छे ते पण ज्ञाननी पर्यायमां कोळियो थई ग्यो छे! निमित्तरूपे!

आहा.. हा! ‘ग्रासीभूत’ - ए ज्ञाननी पर्यायनो एटलो स्वभाव छे के लोकालोक भले एमां निमित्त हो पण ए ज्ञाननी पर्याय पोताना उपादानथी थई छे तेथी ते पर्यायनो स्वभाव सर्वने कोळियो करी जवुं (एवो छे)! कोळियो नानो ने मोढुं मोटुं! एम ज्ञाननो प्रकार मोटो ने ज्ञेय (लोकालोक) ते नानो, कोळिया समान छे. आहा.. हा!

भाषा तो सादी छे प्रभु! आ वस्तु तो पण हवे बीजुं शुं थाय? आहा..! एने बीजी रीते करे तो कांई.. आहा.. हा! खरेखर, मुनिओनो शुद्ध उपयोग जे छे ए तेनुं व्याप्य छे अने आत्मा व्यापक छे ई परथी भिन्न पाडवानी अपेक्षाए.. भाई? शुं कीधुं? मुनि एनो आत्मा कर्ता कहेवो अने मोक्षमार्गना परिणाम तेनुं कार्य कहेवुं- ए परथी भिन्न पाडवानी अपेक्षाए, पण राग तेनुं कार्य छे-व्यवहार रत्नत्रयनो राग एनुं आत्मानुं कार्य छे एम नथी!

(श्रोताः) अशुद्धनये तो कहेवाय ने...! (उत्तरः) हें? अशुद्धनये तो पर्यायमां एनी थाय छे ई अपेक्षाए, पण स्वभावद्रष्टिए अने स्वभावमां नथी’ माटे तो एने परनां परिणाम कीधां. एम कहेवुं छे ने..! ए तत्स्वरूप नथी एनुं! एनुं स्वरूप तो चैतन्य स्वरूप छे, भगवान ज्ञायकस्वरूप छे, ए तत्स्वरूपमां रागनुं कार्य क्यांथी आवे?

आहा.. हा! ई तो बपोरे आवी गयुं हतुं ने चैतन्यस्वरूप!! चारे कोरथी जुओ तो संतोनी वाणीमां अविरोधपणुं ऊभुं थाय छे. पण धीराना काम छे भाई...! आहा...! ए वातने झीलवी ए पण एक पात्रता होय छे आवी वात छे बापु... !

आहा... हा! भगवान आत्मा! ए रागथी भिन्न पडेलो ने एकरूप भेदज्ञानमां एवुं जे ज्ञान (के) ‘जेनो सर्वने ग्रासीभूत करवानो स्वभाव छे एवो जे ज्ञानप्रकाश तेना भारथी’ -ज्ञानप्रकाशना भारथी अज्ञान-अंधकारने भेदतो राग ते अज्ञान छे तेने तोडतो भेदतो सः एषः पुमान् आ आत्मा ‘ज्ञानीभूय’ ज्ञानस्वरूप थईने’ (अर्थात्) ज्ञायक छे ते ज्ञानस्वरूप थईने’

आहा.. हा! द्रव्यस्वभाव! गुणस्वभाव! ज्ञायकस्वभाव! सर्वज्ञस्वभाव! जेनी शक्ति ज पोते... पोताने त्रिकाळीने पोताथी ‘जाणे ने देखे’ एवो एनो स्वभाव छे. त्रिकाळज्ञानदर्शननो, त्रिकाळी पोताना


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श्री प्रवचन रत्नो-१ १प९ ज्ञान-दर्शननो जाणवा-देखवानो स्वभाव छे! ए... जयारे पर्यायमां / आ तो गुणमां वात करी, हवे पर्यायमां ज्ञान थयुं एनो पण सर्वने ग्रासीभूत करवानो स्वभाव छे.

आहा..! शुं कह्युं ई..? के आत्मानो त्रिकाळी ज्ञानदर्शन जे स्वभाव छे ए पोताना त्रिकाळीने जाणवा-देखवावाळुं, शक्तिवाळुं ए तत्त्व छे! आहा... हा! ‘नियमसार’ मां आव्युं छे.

ए त्रिकाळी ज्ञानदर्शन ने- त्रिकाळीद्रव्यने, ज्ञानदर्शन-जाणवा-देखवाना स्वभाववाळुं छे. ए जयारे पर्यायमां प्रगट थाय तत्स्वरूप! रागथी भिन्न पडी स्वभावनी द्रष्टि थई ने आत्मानो आश्रय आव्यो त्यारे जे पर्याय प्रगट थाय छे. मोक्षना मार्गनी ए जीवनुं व्याप्य नाम कर्म छे /कार्य छे. आ व्यवहाररत्नत्रय ए जीवनुं कार्य नहीं. ए... भाई! आवुं छे!! छे एमां? आहा..! ‘व्यवहाररत्नत्रयथी निश्चय थाय.’ अरे! भगवान शास्त्रमां कह्युं छे ने ए तो निमित्तनुं ज्ञान कराव्युं छे (अने निश्चय समजीश) तो ए तत्त्वनो विरोध थई जशे!

आहा.. हा! ‘आ आत्मा ज्ञानस्वरूप थईने,’ आ पर्यायनी वात छे हो! ए भगवान (आत्मद्रव्य) ज्ञायकस्वरूप तो छे! पण हवे पर्यायमां ‘ज्ञानस्वरूप थईने’ ‘ते काळे’ ‘कर्तृत्वशून्यः लसितः’ थयेलो शोभे छे.’ ‘जाणवाना’ परिणाम जे थया ते परिणाम थयो थको-परिणामरूपे थयो थको एम. रागरूपे थयो थको नहीं. (पण..) ज्ञानपरिणामरूपे थयो थको-थईने ‘तेकाळे- तत्समये’ एम. ‘कर्तृत्व रहित थयेलो शोभे छे.’ - रागना कार्यना कर्ता रहित थईने ज्ञानस्वरूप थईने शोभे छे!

बहु गाथा सारी आवी छे, भाई..! आहा..! एक कळशमां केटलुं नाख्युं छे!! अहा..! एक, एक गाथा ने...! एक, एक पदने...! एक, एक कळश!! आखुं स्वरूप भरी देवानी ताकात छे!!

भावार्थः ‘जे सर्व अवस्थाओमां व्यापे ते व्यापक’ (एटले के) दरेक अवस्थामां रहेलो होय तेने व्यापक कहीए. ‘अने कोई एक अवस्था विशेष थाय ते’ व्यापकनुं व्याप्य-कार्य कहीए.

आत्मा ज्ञायक! एनी दरेक अवस्थामां व्यापक छे ने तेनी ज्ञान पर्याय ज तेनुं व्याप्य छे. अवस्थाविशेष-ई एनुं कार्य छे. व्यापक ज्ञायक त्रिकाळी बधी अवस्थामां व्यापनारो छे अने कोई एक ज अवस्था (विशेष) ई पर्याय छे-व्याप्य छे. ए व्यापक बधी अवस्थामां व्यापनारो ज्ञाननी पर्यायमां व्यापे छे. समजाणुं कांई...?

आहा...! ‘आम होवाथी द्रव्य तो व्यापक छे’ आंही तो द्रव्यने सिद्ध करवुं छे ने परथी भिन्न! आहा... हा! ‘द्रव्य तो व्यापक छे’ आत्माज्ञायकद्रव्य तो व्यापक छे! ‘अने पर्याय व्याप्य छे’ -मोक्षमार्गनी जे सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रनी पर्याय ए व्याप्य छे. कार्य छे.

आहा... हा! ई ज्ञायक छे ते कारण परमात्मा छे, दरेक अवस्थामां ई होय छे अने अवस्था- एकसमयनुं विशेष ते तेनुं कार्य छे. द्रव्य व्यापक छे ने पर्याय व्याप्य छे/निर्मळ पर्याय व्याप्य छे ई कहेवुं छे हो! राग एनुं व्याप्य छे ई आंही छे नहीं. ई षुद्गलमां जाय छे.

आहाहा! ‘द्रव्य-पर्याय अभेदरूप ज छे’ आंही तो... ई सिद्ध करवुं छे ने...! परथी भिन्न सिद्ध करवुं छे ने...! राग आदि पुद्गलना भाव एनाथी भिन्न सिद्ध करवुं छे ने एथी आंही कहे छे के ‘द्रव्य


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१६० श्री प्रवचन रत्नो-१ ने पर्याय अभेदरूप ज छे’ . द्रव्य जे ज्ञायकभाव अने निर्मळ पर्याय ए अभेद छे. स्वना आश्रये थयेली ते अभेद छे. अभेद छे एटले? पर्याय द्रव्यरूप थई गई छे एम नथी. पण.. पर्याय आम.. जे भेदरूप (परसन्मुख) ए पर्याय आम (स्वसन्मुख) थई ते अभेद थई!

आहा.. हा! एक.. एक शब्दना अर्थ आवा! पकडाई एवुं छे, भाषा तो सादी छे प्रभु! पण तुं एवो छो अंदरमां अलौकिक चीज!

आहा.. हा! ए ज्ञायक छे ते व्यापक छे अने एना निर्मळ परिणाम-मोक्षनो मारग ते व्याप्य छे. आम द्रव्यने पर्याय अभेदरूप ज छे. आंही द्रव्यने पर्याय जुदा छे ए आंही नथी सिद्ध करवुं. (समयसार) संवर अधिकारमां तो ई पर्यायनुं क्षेत्र भिन्न छे! पर्यायनो काळ भिन्न छे! द्रव्यनो भाव भिन्न छे!! आहा.. हा! अहींया तो पुद्गलना परिणामथी भिन्न बताववुं (छे) एवां जे ज्ञानना परिणाम थयां ते ते ज्ञातानुं व्याप्य छे, ज्ञाता तेनो कर्ता छे!

आमां धरे एनी मेळे समजे तो शुं एमांथी काढे? ए... भाई? (कर्तापणाना) भाव करे! बीजुं शुं? (परद्रव्यनुं कांई करी शके छे?) आ कर्युं ने आ (एवा भाव करे!)

भारे काम बापु आकरां! जुओ! पाछुं शुं कहे छे? ‘जे द्रव्यनो आत्मा स्वरूप अथवा सत्त्व ते ज पर्यायनो आत्मा, स्वरूप अथाव सत्त्व.’ जोयुं? जे द्रव्यनो आत्मा एटले स्वरूप द्रव्यनो आत्मा स्वरूप! स्वरूप अथवा सत्त्व! (एटले) द्रव्यनतो आत्मा, द्रव्यनुं स्वरूप, द्रव्यनुं सत्त्व ते ज पर्यायनो आत्मा, पर्यायनुं स्वरूप, पर्यायनुं सत्त्व! फरीने वधारे लेवाय छे हो? फरीने... वस्तु छे जे भगवान आत्मा/अत्यारे एना उपर लेवुं छे ने... !

एनुं-द्रव्यनुं स्वरूप आत्मा, स्वरूप मूळ तो आ व्याख्या करी के, द्रव्यनो आत्मा एटले द्रव्यनो भाव ते द्रव्यनुं स्वरूप! ते द्रव्यनुं सत्त्व! आहा.. हा! सत्... सत् प्रभु ज्ञायक! सत्द्रव्य, तेनुं ज्ञायकपणुं ते तेनुं सत्त्व!! सत्नुं सत्त्व! आहा.. हा! ‘ते ज पर्यायनो आत्मा, पर्यायनो भाव, तेज पर्यायनुं स्वरूप ने ते ज पर्यायनुं सत्त्व!

आहा.. हा! द्रव्यनुं-सत्नुं सत्त्व अने पर्यायनुं सत्त्व बेय एक छे. आ अपेक्षाए! परनुं सत्त्व जुदुं पाडवुं छे ने अत्यारे!

आहाहा! दया-दान-भक्ति-स्तुतिनो राग छे ते पुद्गलनुं-सत्नुं सत्त्व छे! आ.. निर्मळपर्याय ने निर्मळ भगवान (आत्मद्रव्य) के जे द्रव्यनो आत्मा! द्रव्यनो जे स्वभाव! ते ज स्वरूपे ते तेनुं सत्त्व! ते ज पर्यायनो आत्मा! आहाहाहा! आ एवुं -त्रिकाळीनुं स्वरूप एनुं छे ने..! पर्यायनो आत्मा ते त्रिकाळीस्वरूप! अने सत्त्व! ‘आम होईने द्रव्य पर्यायमां व्यापे छे’ द्रव्य निर्मळपर्यायमां व्यापे छे.

आहा... हा! कई अपेक्षानुं कथन छे! (समजवुं जोईए ने.. !) एक बाजु कहे छे के पर्याय षट्कारकथी परिणमे छे तेने द्रव्यगुणनी अपेक्षा नथी, निमित्तनी अपेक्षा नथी!

आंही तो.. परथी पुद्गलनापरिणामथी (जे) राग-दया-दान-व्रतादि एनाथी भिन्न बताववा


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श्री प्रवचन रत्नो-१ १६१ द्रव्यनुं स्वरूप छे ए पर्यायनुं स्वरूप छे एम कीधुं छे. आहा.. हा! केवी अपेक्षा वीतरागमार्गनी!

ए.. भाई? समजाय छे के नहीं ‘आ’ , त्यां तमारे कांई समजाय एवुं नथी एक्केय लीटी त्यां... (श्रोताः) समजवा तो आव्या छे! (उत्तरः) वात साची छे.

आहा.. हा! द्रव्यनो आत्मा एटले द्रव्यनो भाव एम. द्रव्यनुं स्वरूप, सत्त्व-बेयनो, आत्मा अने पर्यायनो भाव! एनुं स्वरूप-सत्त्व! आंही... रागना द्रव्य-सत्त्व, एनी हारे कोई संबंध नथी. समजाणुं कांई...?

आहा.. हा.. हा..! झीणुं बहु बापु! वीतराग मारग! सर्वज्ञ परमेश्वर.. आरे...! एने लोकालोकनुं ज्ञान कहेवुं ई कहे छे व्यवहार छे. ए ज्ञान लोकालोकने कोळियो करी ग्युं! ‘प्रवचनसारमां’ तो आवे छे ने.. कोतराई गयुं, ज्ञानमां कोतराई गयुं! खोडाई गयुं प्रवचनसारमां पहेला भागमां आवे छे ने..! आ तो समयसार छे. प्रवचनसारमां छे ‘ए बधा जाणे अंदरमां ज्ञानमां केम न होय!’ कारण के ए संबंधी ज्ञान थयुं ने...! एटले ज्ञानमां छे एम कहेवामां आव्युं!

आहा.. हा! ‘आम द्रव्य पर्यायमां व्यापे छे’ द्रव्य वस्तु छे ते पर्यायमां व्यापे-द्रव्य जे वस्तु छे ई पोतानी निर्मळ अवस्थामां व्यापे, ई एनी अवस्था कहेवाय. राग एनी पर्याय नथी (आत्म द्रव्यनी) (श्रोताः) ए पुद्गल छे राग? (उत्तरः) पुद्गल!

आहा..! द्रव्य-वस्तु पर्यायमां रहे-व्यापे छे. ‘अने पर्याय द्रव्य वडे व्यपाई जाय छे’ कार्य थई जाय-द्रव्य वडे कार्य थाय.

आहा... हा! पर्याय द्रव्य वडे व्यपाई जाय! आवो मारग वीतरागनो’ . आमां.. क्यां बीजे क्यां.. (आवुं तत्त्व छे!) अनार्य देश, लंडनमां!

(श्रोताः) एमां आ सांभळवा य न मळे! (उत्तरः) सांभळवा न मळे? साची वात बापा! अरे...! आवी वात बापा! प्रभु तुं कोण छो?

तारा द्रव्यनुं ने पर्यायनुं सत्त्व एक छे, कहे छे. अने रागनुं ने पुद्गलनुं सत्त्व (ताराथी) भिन्न छे! पुद्गलनी हारे (एनुं सत्त्व) गयुं! पुद्गल द्रव्य छे ई एनो आत्मा ई एनुं स्वरूप ने सत्त्व! एवो ज राग, एनुं स्वरूप ई एनो आत्मा स्वरूप ने सत्त्व!

धीमे... थी.. कहेवाय छे प्रभु! विचार करवानो वखत मळे! आहा.. हा! अरे! परमात्माना विरह पडया, त्रणलोकनो नाथ भगवान बिराजे छे, एनी ‘आ वाणी छे’ शब्दो तो भगवान पासेथी (सांभळीने) लावीने ‘आ’ वाणी (शास्त्र) बनावी, (अने टीकाकार अमृतचंद्राचार्ये) कहे छे ने..! कुंदकुंदाचार्यना पेटमां पेसीने.. आहा! टीका एणे करी छे.

(कहे छे के) ‘आवुं व्याप्यव्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज ई अभिन्न सत्ता छे, पर्यायने द्रव्य! ‘अतत्स्वरूपमां (अर्थात् जेमनी सत्ता-सत्त्व भिन्न छे एवा पदार्थोमां) न ज होय’ -भगवान आत्मानुं सत्त्व द्रव्यने पर्यायनुं सत्त्व छे.

पण.. जे व्यवहार-रत्नत्रयनो राग, भगवाननी स्तुतिनो राग, तेनुं सत्त्वने सत् तद्न भिन्न छे.


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१६२ श्री प्रवचन रत्नो-१

आहा... हा.. हा! ए.. भाग्यशाळीने काने पडे एवी वात छे बापा! परमात्मानी वाणी छे, भगवाननी-तीर्थंकरदेवनी...

आहा..! ‘ज्यां व्याप्यव्यापकभाव होय त्यां ज कर्ताकर्म भाव होय, व्याप्यव्यापक भाव विना, कर्ताकर्मभाव न होय? व्यवहाररत्नत्रयमां व्याप्यव्यापकपणुं आत्मानुं नथी माटे तेमां कर्ताकर्मपणुं (आत्मानुं) नथी.

आहा..! ‘आवुं जे जाणे छे ते पुद्गलने अने आत्माने कर्ताकर्मभाव नथी एम जाणे छे’ -ई पुद्गलपरिणाम-राग आदि छेल्ले (टीकामां) कह्युं हतुं ने...! ‘आवुं जे जाणे छे ते पुद्गलने एटले रागादिना परिणाम पुद्गल अने आत्माने कर्ताकर्मभाव नथी एम जाणे छे. भगवान आत्मा कर्ताने दाय दानना ने भक्तिना ने स्तुतिना परिणाम ते कार्य (आत्मानुं) एम ज्ञानी मानतो नथी एम कहे छे. ‘पुद्गलने अने आत्माने कर्ताकर्मभाव नथी एम जाणे छे.

‘एम जाणतां ते ज्ञानी थाय छे’ आहा.. हा! (कहे छे के) कर्ताकर्मभावथी रहित थाय छे.

* * *