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श्री प्रवचन रत्नो -१ १९३
समयसार, बसो चार गाथा फरीने थोडुं! आ आत्मा वास्तवमां (अर्थात्) खरेखर परम पदार्थ छे. अने ते आत्मा ज्ञान छे’ आत्मा परमपदार्थ छे. ज्ञान स्वरूप छे. ‘अने आत्मा एक ज पदार्थ छे’ आत्मा एक ज पदार्थ छे. एटले ज्ञान एक ज पदार्थ छे. आत्मा एकस्वरूप छे तो ज्ञान पण एक स्वरूप छे. तेथी ज्ञान पण एक ज पद छे. आत्मा एक स्वरूप छे तो ज्ञान पण एक स्वरूप छे. केमके आत्मा ज्ञान छे. ‘जे आ ज्ञान नामनुं एक पद छे ते आ परमार्थ स्वरूप साक्षात् मोक्ष-उपाय छे.’
ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा, एना तरफनी द्रष्टि-एकाग्रता ए मोक्षनो उपाय छे. आहा! परमार्थ स्वरूप साक्षात् - मोक्ष - उपाय छे.’
अविनाशी तो आंही भगवान छे! आहाहा! एना नाशवान (देह) उपर तो लक्ष करवानुं नथी, पण रागने पर्याय उपर पण लक्ष करवा जेवुं नथी. आहा! ए आत्मा पदार्थ ज्ञानस्वभावी (छे) एटले आत्मा एक छे ते ज्ञान पण एक ज स्वरूप छे.
अरे...., भगवान तुं कोण छे? एने जो ने.. . आहाहा! एवी दशाओ (मरणनी) अनंतवार थई. हवे तारे तारुं कल्याण करवुं होय, आवा अवसरमां तो भगवान आत्मा एक स्वरूपे छे तो एनुं ज्ञान पण एकस्वरूप छे आहा.. हा! ए मोक्षनो उपाय छे. अंदर एकस्वरूप ज्ञान छे ए तरफनुं अवलंबन लेवुं ए मोक्षनो उपाय छे... जनम-मरणथी रहित थवानो भाव ए एक ज छे भाई!
आहा...! ‘अहीं, मतिज्ञान आदि’ भेदज्ञानथी पर्यायमां मति, श्रुत, अवधि (ज्ञानमा) भेदो आ एक पदने भेदता नथी’ खरेखर तो ज्ञाननी निर्मळ पर्याय, अनेकपणे स्वभावना आश्रये उत्पन्न थाय छे ए एकपणानी पुष्टि करे छे. भेद उपर लक्ष न हो अने ज्ञानस्वभाव उपर नजर हो तो ज्ञाननी शुद्धिनी पर्याय भले मति, श्रुत, अवधिना भेद हो पण ई एकपणाने अभिनंदे छे. आहा...हा जे जे ज्ञाननी निर्मळ थाय ते ते निर्मळदशा आनी पुष्टि करे छे. आहा..! समजाणुं कांई...?
निर्जरा अधिकार छे ने...! आहा...! ए भगवान आत्मा शुद्ध स्वरूप तो त्रिकाळ छे. एना अवलंबनथी शुद्धतानी संवर-निर्जरानी पर्याय शुद्ध प्रगटी छे ए पूरण शुद्धिनुं कारण छे. पूरण शुद्धि एटले मोक्ष.
पण.... अहींयां कहे छे के पर्यायमां अनेकपणारूप ज्ञान थाय छे ने...! ए अनेकपणुं उत्पन्न थाय, पण ई एकपणाने अभिनंदे छे. स्वभावनी पुष्टि करे छे. आहा... हा!
झीणी वातुं बहु भाई...! ए चैतन्य भगवान आत्मा एक पदरूपे - एकस्वरूपे होवा छतां, तेनो आश्रय लईने निर्मळ पर्यायो अनेक प्रगट थाय छतां ए अनेक पर्याय, एकपणाने अभिनंदे ने पुष्टि आपे छे. समजाय छे?
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१९४ श्री प्रवचन रत्नो -१
स्वरूप शुद्ध एकरूप चैतन्य छे. एनां अवलंबनथी निर्मळ पर्याय अनेक थाय छे ए निर्मळ पर्यायो एकपणानी पुष्टि करे छे. भेद उपर लक्ष न लीधुं! द्रष्टि अभेद उपर छे. ज्ञाननी एकाग्रता.... शुद्धि वधे छे तो कहे छे के एकपणानी पुष्टि करे छे. एकाग्रपणानी पुष्टि करे छे. आहा... हा! एकाग्रपणानी पुष्टि करे छे.. . आहा.. हा! छे?
त्यां सुधी आव्युं’ तुं ‘परंतु तेओ पण आ ज एक पदने अभिनंदे छे’ एक पदने ज अभिनंदे छे. अर्थात् ज्ञायकभाव जे भगवान (आत्मा छे) एना तरफना अवलंबनथी अनेक प्रकारनी निर्मळ पर्यायो मति, श्रुत, अवधि उत्पन्न थाय छे ए बधी एकपणानी पुष्टि करे छे. स्वभावमां एकाग्रतानी वृद्धि करे छे. आहा.. हा!
रागने दयादानना विकल्प ए तो क्यांय बहार रही गया! ए कोई धरम नथी, धरमनुं कारणे य नथी... आहा... हा!
‘ते वातने द्रष्टांतथी समजाववामां आवे छे’ आंही सुधीं आव्युं’ तुं काल. ‘जेवी रीते आ जगतमां वादळांना पटलथी ढंकायेलो सूर्य’ वादळनां दळथी ढंकायेल सूर्य ‘जो के वादळांना विघटन अनुसार’ वादळ ना विखरवा अनुसार ‘प्रगटपणुं पामे छे’ शुं? प्रकाश. ‘तेना (अर्थात् सूर्यना) प्रकाशननी (प्रकाशवानी) हीनाधिकतारूप भेदो तेना (सामान्य) प्रकाश स्वभावने भेदता नथी.’ प्रकाश विशेष, विशेष, प्रगट थाय छे ए सामान्यने भेद करता नथी ते एकत्व करे छे आहा... हा! बहु झीणुं!
अंर्तमां भगवान आत्मा एकरूप - ज्ञान एकरूप एनुं अवलंबन लेवाथी निर्मळथी निर्मळ एम अनेक पर्यायो उत्पन्न थाय छे, पण ई (पर्यायो) अनेकपणाने प्राप्त थती नथी ए स्वरूपनी अंदर एकाग्रतानी पुष्टि करे छे. आहा... हा! शुं कहे छे? अरे... वीतराग मारग बापा!
भगवान आत्मा, ज्ञायकभावथी भरेलो प्रभु! एनां अवलंबनथी जे शुद्धिनी वृद्धि एक पछी एक थाय छे ए अनेकपणाने पुष्ट नथी करती आंही एम कहे छे. अंर्तमां एकाग्रतानी पुष्टि करे छे. समजाणुं? सूर्यना आडा वादळां छे ए जेम जेम विखराई छे तेम तेम प्रकाश विशेष विशेष थाय छे ए (विशेषपणुं) प्रकाशनी पुष्टि करे छे. अनेकपणानी नहीं प्रकाशनी पुष्टि करे छे. आहा... हा! आवी... धरमनी वातुं!
ए भाई? अरे रे ई करोडपति बधा दुःखी छे एम कहे छे. अरे रे क्यां छे भाई...! तारुं पद क्यां छे? तारुं पद तो अंदर छे ने...! अने ते एकरूप पद भगवान आत्मा दर्शनज्ञान आनंद एकरूपे छे. ई एकरूपमां एकाग्रता थाय छे अने ई एकाग्रतामां शुद्धिनी अनेकता उत्पन्न थाय छे. अनेकतामां लक्ष नहीं त्यां, ई अनेकता एकतानी पुष्टि करे छे. आहा...! समजाणुं कांई...?
(जेम) सूर्यनो प्रकाश, वादळना विखरवाथी जेम विशेष थतो जाय छे तो ए (विशेषता) प्रकाशनी पुष्टि करे छे. (प्रकाश तेज तेज थतो जाय छे) समजाणुं कांई...? हवे आवी वातुं! धरमने माटे, (लोको कहे) मारे धरम करवो छे बापु! पण भाई..! धरम आ रीते थाय... भाई! भगवान तुं ज्ञानस्वरूपे बिराजमान छो ने...! ....ए तरफना झूकावथी जे शुद्धिनी, एक पछी एक अनेक प्रकारनी पर्यायो उत्पन्न थाय छे ए अनेकपणुं, एकपणानी पुष्टि करे छे शुद्धि, शुद्धि, शुद्धि, शुद्धि, शुद्धि, वृद्धि छे
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श्री प्रवचन रत्नो -१ १९प अनेकपणानी पुष्टि नथी थती अनेकपणानी पुष्टि थाय छे. आहा... हा! भगवान.... आवो छे! जन्म - मरण रहित ई चीज कोई अलौकिक छे!
आखा जगतथी उदास थवुं पडशे प्रभु! रागने पर्यायथी पण उदास थवुं पडशे! उदास थवुं पडशे भाई! अंदर भगवान पूर्णानंदनो नाथ, त्यां तारुं आसन लगावी दे आहा... हा! उदासीनोडहं, उदासीन...! उदासीन परथी उदास थईने पोताना स्वभावमां आसन लगावी दे! आहा! ई आसन लगाववाथी एकपणानी शुद्धि रहेती नथी त्यां शुद्धिनी वृद्धि थाय छे तो शुद्धि वृद्धि पामे छे ते अनेकपणानी पुष्टि नथी करती, शुद्धिनी वृद्धिए अनेकपणानी एकपणानी पुष्टि करे छे. आहा... हा! समजाय छे कांई...?
आहा... हा ‘तेना अर्थात् सूर्यना प्रकाशननी (प्रकाशवानी) हीनाधिकतारूप भेदो तेना सामान्य प्रकाशस्वभावने भेदता नथी.’ प्रकाश.. . प्रकाश... प्रकाश वधतो जाय एमां भेद नहीं, भले प्रकाश वधतो होय पण प्रकाशनी ज पुष्टि त्यां छे आहा.. हा!
तेवी रीते कर्मपटलना उदयथी ढंकायेलो आत्मा’ (केटलाक) आमांथी काढे! (जुओ!) कर्मना उदयथी ढंकायेलो आत्मा एम (कह्युं छे) ए.. कर्मना उदयने वश पडयो रहेलो आत्मा एम (अर्थ छे) समजाणुं कांई... ? कर्मना पटलना उदयथी, ढंकायेलो (एटले) कर्मना उदयमां, वश थईने, पोताना स्वभावने ढांकी दीधो छे. आहा... हा! दुश्मनने वश थईने सज्जननी सत्शक्तिने ढांकी दीधी. ए राग, कर्मनो उदय ए दुश्मन छे. एने वश थईने निजशक्तिने ढांकी दीधी. आहा... हा! ए कर्मना उदयथी ढंकायेलो आत्मा एक कह्युं द्रष्टांत देवुं छे ने...! वादळ ने प्रकाश. वादळ ढांके छे तो प्रकाश ढंकाय छे पण खरेखर तो ढंकाववानी योग्यता प्रकाशनी पोतानाथी छे. ए वादळ प्रकाशने ढांके छे एम कहेवुं ई तो व्वहारथी कथन छे. आहा... हा! समजाणुं कांई?
एम अहींयां अशुद्धतानी दशा उत्पन्न थई ते कर्मना उदयने वश थई गयो छे ए कर्मथी हठीने अंतरमां जेम जेम अशुद्धता घटती जाय छे तेम तेम करम पण दूर थता जाय छे तेम विज्ञानघन आत्मा पोतानी पर्यायमां प्रकाशमां पुष्ट थतो जाय छे. आहा... हा! आवो धरम हवे आरे...! एवी वातुं छे भाई!
‘करमना विघटन अनुसार’ भाषा.. छे? ए पछी वर्णीजी हारे प्रश्न थ्याता तो एणे ए ज कह्युंः “के ज्ञानावरणीय कर्मनो जेटलो क्षय, क्षयोपशम थाय एटलुं ज्ञान आवे” तमे कहो छो के ज्ञाननी पोतानी योग्यताथी ज्ञान थाय छे. आहा... हा! आ तो निमित्तथी कथन कयु छे. समजाणुं कांई...?
निमित्तने वश थाय छे (पोते) एटलो आत्मा ढंकाई गयो छे. जेटलो निमित्तना वशथी छूटयो एटलो आत्मानो विकास थयो आहा... हा! समजाणुं कांई... ? प्रभु, आतो वीतरागना घरनी वातुं बापा!
अरे! भरतक्षेत्र जेवा साधारण क्षेत्र! एमां गरीब माणसोने घरे वस्ती (गरीब) एमां आ तवंगरनी वातुं करवी! आहा... हा! महा भगवान पूर्णानंदनो नाथ! अंतर महेलमां बिराजे छे आनंदना महेलमां!
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१९६ श्री प्रवचन रत्नो -१
ए आत्मा जेटलो कर्मना उदयने वश थाय छे एटली त्यां आत्मानी पर्याय ढंकाय छे. जेटलो आत्मा निमित्तने वश न थईने रह्यो तो कर्मनुं घटवुं थयुं एम कहेवामां आव्युं ई आत्मा पोते ज कर्मने वश न थयो तो कर्म घटयां! अशुद्ध पर्याय निमित्तने वश थती हती एवो अर्थ छे भाई! छे?
‘कर्मना विघटन अनुसार’ भाषा छे. जेम वादळना घटवाने कारण प्रकाश प्रगट थाय छे एम अहींया कर्मना घटवाने कारणे आहा...! एनो अर्थ ए छे के पोतानी अशुद्धपर्याय जे परने-निमित्तने ताबे थती हती ए निमित्तने ताबेथी हठी, तो कर्मनो क्षयोपशम एम कहेवामां आवेल छे. वात तो आम छे भाई....!
एकबाजु एम कहे के आत्मानी पर्याय जे समये जे उत्पन्न थवानी छे ते पोताथी उत्पन्न थाय छे अने एकबाजु अमे कहे के कर्म घटे तेटलो प्रकाश थाय. भई! एनो न्याय तो समजवो पडशे ने...! आहा.... हा! शास्त्र वांचनामां पण बापु! तो ए द्रष्टि यथार्थपणे हो तो एमां समजी शके! परद्रव्य घटवाने कारणे आत्मामां प्रकाश वधे छे? पण आत्मामां एक अभाव नामनो गुण छे, ए अशुद्धताना अभावरूपे परिणमे छे. तेटली पुष्टि, ज्ञाननी वृद्धि थाय छे.
आहा... हा! साधारण माणसने... अभ्यास न होय अंदरमां आहा...! अने क्यां जावुं छे क्यां! आहा...! देह तो पडी जशे प्रभु! देह तो संयोग छे. परमां छे तारामां छे नहीं पण एकक्षेत्रे भेगुं होय त्यां सुधी तने लागे के देहमां छईए! देहमां नथी ए तो पोते आत्मामां छे. देहनो क्षेत्रांतरथी देह छूटे. समजाणुं? काल प्रश्न नहोतो थयो पंडितजी ? के भई परिणमन छे ई क्रियावती शक्तिने कारणे छे (उत्तरः) क्षेत्रांतर तो एक क्षेत्रथी अन्य क्षेत्रे क्षेत्रांतर थाय ई क्रियावती शक्ति, पण एनुं जे परिणमन छे ई क्रियावती शक्तिथी नहीं. ए अनंत गुणनुं परिणमन जे छे ए पोताथी छे. क्रियावती शक्तिनुं परिणमन तो आत्मा के परमाणु क्षेत्रथी क्षेत्रांतर थाय, ए क्रियावती शक्तिनुं (कार्य छे) पण त्यांने त्यां रहीने जे परिणमन थाय छे ए क्रियावती एकली नहीं भले ए वखते स्थिर होय तो क्रियावती शक्तिनुं परिणमन स्थिर छे. गति करे तो ए होय, पण परिणमन एनी दशा... भगवान पूर्णानंदना नाथनुं अवलंबन लईने जे दशा शुद्धि, शुद्धि उत्पन्न थाय छे ए शुद्धि अनेकताने नहि अभिनंदती, शुद्धि वधे ई एकतानी पुष्टि करे छे. समजाणुं कांई...?
आहा.... हा ‘जे कर्मना विघटन (क्षयोपशम) अनुसारे प्रगटपणुं पामे छे’ आवी भाषा हवे एमांथी काढे लोको ए! ‘कर्मना उदयना घटवा प्रमाणे ज्ञाननो उघाड थाय’ आंही एक बाजु एम कहेवुं के ज्ञाननी पोतानी पर्याय ते समये ते प्रकारनी प्रगट थवानी लायकातथी प्रगट थाय छे. करमना घटवाथी नहीं केम के एमां (आत्मामां) एक ‘अभाव’ नामनो गुण छे. के परना अभावरूपे परिणमे छे, परथी नहीं परना अभाव पणे परिणमवुं पोतानो स्वभाव छे. समजाणुं कांई.. ?
करम घटे माटे अभावरूपे परिणमे छे ए तो निमित्तनुं कथन छे. आहा... हा! केमके आत्मामां एक भावने अभाव नामनो गुण छे. तो भावगुणना कारणे तो दरेक गुणनी वर्तमान पर्याय थशे ज. कर्मना घटवाथी एवी थई छे (पर्याय) एवुं छे नहीं न्यां भले घटे पण एनी आंही अपेक्षा नहि. समजाणुं कांई?
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १९७
आवो विषय! काल कोई पूछतुं’ तुं अनेक अपेक्षाथी काल सवारमां वात आवी. भई! ज्ञाननी विशेषतानी महिमा ज एवी छे एनां पडखां एटलां पडखां छे. आहा.. हा!
आंही कहे छे के ज्ञानस्वरूप भगवान (आत्मा) परना स्वभाव ने निमित्तने वश थईने भाव थाय छे एना अभावगुणना कारणे ई कर्मनुं घटवुं थयुं पण अहींया तो पोताना अभावगुणना कारणे रागना अभाव स्वभावरूपे परिणमवुं ए पोताने कारणे छे. आहा... हा! कर्मना घटवाने कारण शुद्धि वधे छे ए तो निमित्तनुं कथन छे... आहा.. हा! समजाणुं कांई?
आहा...! तेना ज्ञाननी हीनाधिकतारूप भेदो’ पहेली शुद्धि थोडी पछी विशेष, एवो हीनाधिकतारूप भेद ‘तेना सामान्य ज्ञानस्वभावने भेदता नथी परंतु ऊलटा तेने अभिनंदे छे’ भले ई वृद्धि पामे शुद्धि पण ए सामान्यज्ञानने पुष्टि करे छे. सामान्य नाम त्रिकाळ ने तेनुं अवलंबन लेवुं ई सामान्य. एनी पुष्टि करे छे. आहा.. हा!
आवी.. वातुं हवे आहा... हा वीतरागमारग बहु अलौकिक प्रभु! एवी वात क्यांय छे नहीं, सर्वज्ञवीतराग सिवाय. पण समजवुं ए अलौकिक वात छे भाई...!
आहा...! ‘तेना ज्ञाननी हिनाधिकतारूप भेदो तेना सामान्य ज्ञानस्वभावने भेदता नथी’ भगवान सामान्य त्रिकाळ छे एने तो भेदता नथी, पण सामान्यमां एकाग्रता छे एनो य भेद करता नथी. एकाग्रतानी तो पुष्टि करे छे. समजाणुं कांई...? वाह रे वाह! ‘परंतु ऊलटा तेने अभिनंदे छे’ आहा...! आत्माना अवलंबनथी शुद्धिनी अनेकता होवा छतां पण ई एकतानी पुष्टि करे छे. भेदनी पुष्टि नथी. समजाणुं कांई.... ? आवी वात छे? अरे लोकोने स्थूळ मळे! एमां सांभळीने संतोष थई जाय (अने माने) कांईक धरम कर्यो!
अरे! प्रभु कयारे अवसर मळे? प्रभु भाई! आहा! सत्य स्वरूप, सच्चिदानंद प्रभु! सूर्यसमान प्रकाशनो पुंज! ज्ञानना प्रकाशनो पुंज! ए तो त्रिकाळी. पण एना अवलंबने शुद्धिनी अनेकता उत्पन्न थवा छतां पण एकतानी पुष्टि करे छे अनेकमां खंड नथी थता. एकताना खंड नथी थतां एकतानी पुष्टि करे छे. समजाणुं?
ए भाई? आवी वातुंछे आ अरेरे! देखावा सारु अर्थ (टीका) करी छे? बापु! बहारमां क्यां शरण छे? ए वखते पण जो भगवान आत्माना स्वभावनी द्रष्टि करे तो शरण मळी जाय. समजाणुं कांई... ? केमके भगवान (आत्मा) विद्यमान, त्रिकाळ विद्यमान छे. एमां अविद्यमानपणुं तो बिलकुल छे ज नहीं आहा...हा...हा! एवो जे भगवान आत्मा त्रिकाळ विद्यमान प्रभु! सत्ता, वस्तु पोतानी सत्ता, हयाति मौजुदगी त्रिकाळ राखनारो, एनो आश्रय लेवाथी शुद्धिनी अनेकता पर्यायमां भासे छतां ते अंतरनी शुद्धिनी पुष्टि करे छे. अंतरमां एकाग्रतानी पुष्टि करे छे.
जरी झीणुं छे भाई! समजाणुं कांई... ? समयसार तो माखण एकलुं छे! जैनदर्शननुं! जैन दर्शन एटले कोई पंथ नथी. वस्तु दर्शन! जेवी जगतनी वस्तु छे ए वस्तुनी दशा केवी, वस्तुनी शक्ति केवी वस्तुनुं वस्तुपणुं शुं? ए बतावे छे.
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१९८ श्री प्रवचन रत्नो -१
आहा... हा...! कहे छे के आत्मानी शुद्धि उत्पन्न थाय छे ए भेदती तो नथी ऊलटा तेने अभिनंदन करे छे. छे? एटले एकाग्रतानी पुष्टिमां शुद्धिनी वृद्धि थई. बीजे ठेकाणे आवे छे ने भाई समयसारमां के शुद्धि अनेक अनेक अनेक शुद्धिनी वृद्धि थाय छे. छतां ई शुद्धि अनेक अनेक होवा छतां एकतानी पुष्टि छे. शुद्धिनी अनेकता थाय, अनेकता थतां ई अनेकपणुं एमां पुष्ट नथी थतुं आहा... हा!
आहा.... आ दुनियानी मिठाश मूकवी! ‘हें? अने आत्मानी मिठाशमां आववुं भाई...! आंही तो एम कहे छे प्रभु! मिठाश - आनंदथी भरपूर एकरूप स्वरूप छे. जेम ज्ञान एकरूपे - आत्मा एकरूपे ने आनंद एकरूपे! ए आनंदमां एकाग्रता करतां करतां आनंदनी पर्याय अनेक पणे प्रगट थाय छे. ए अनेकपणुं एकपणानी पुष्टि करे छे. शुद्धिनी वृद्धि थईने पण एकपणानी पुष्टि करे छे. निर्मळ पर्यायमां हो? सामान्य तो छे ए छे! आ तो निर्मळ पर्याय जे प्रगट थई, ए अनेकपणे शुद्धि, शुद्धि, शुद्धि थती वधती जाय छे ए अनेकपणाने पुष्ट नथी करती ए अनेकपणुं अंतर एकाग्रताने पुष्ट करे छे.
ए भाई? आवुं चोपडां तो कोई दि’ वांच्यो य न होय न्यां! आहा...! अरेरे! आवी चीज पडी छे! निधान मूक्यां छे. आहा... हा! भावमां हो? आ पानां तो जड छे. आ तो भावमां!
(जेम) रूना धोकडां होय छे ने... एमांथी रूनो नमूनो काढे आवो माल छे. एम पोताना आनंद स्वरूपमां एकाग्रता थतां आनंदनो अंश, नमूनो बहार आवे छे ते नमूना द्वारा (आखो) आत्मा आनंदस्वरूप आवो छे. एवी प्रतीति थाय छे हवे ई आनंदनी पर्यात तो प्रगट थई अने विशेष एकाग्रता थतां थतां आनंदनी विशेष पर्याय प्रगट थई तो विशेष पर्याय प्रगट थई, भेद न्यां थतो नथी. ए अंदरमां ज्ञाननी पुष्टिमां एकाग्र थाय छे. आहा... हा! ए आनंदनी वृद्धि थाय छे. अनेकपणामां अनेकपणानी वृद्धि नहीं पण आनंदनी वृद्धि थाय छे.
आहा... हा... हा! आवो मारग हवे! ‘माटे जेमां समस्त भेद दूर थया छे’ देखो! भेद पण दूर थई गया! भेद उपर लक्ष नहीं. भले शुद्धिनी अनेकता थाव पण ए उपर लक्ष नहीं. लक्ष त्रिकाळ उपर छे तो अंदर एकाग्रतामां पुष्टि विशेष थाय छे. समजाणुं कांई... ?
धीमेथी समजवुं प्रभु! आ तो वीतरागनो मारग! त्रणलोकना नाथ! परमात्मा एवो ज आ त्रणलोकनो नाथ परमात्मा छे. आ परमात्मा पोते परमात्मा आत्मा पोते परमात्मा! आहा.... हा...! एनो पंथ-एमां एकाग्रता थवी, ज्यां एकरूप पद पडयुं छे तेमां एकाग्र थवुं - एकाग्रता थवाथी ए जे शुद्धिनी अनेकता उत्पन्न थाय छे छतां ई एकाग्रतानी पुष्टि करे छे. शुद्धिनी वृद्धि थाय छे. त्यां! अनेकपणानी पुष्टि नथी करता. आनंदनी वृद्धि थाय विशेष आनंद आनंद आनंद! भले आनंदना अंशो शुद्धिना वध्या एटले अनेकपणे भिन्न भिन्न थतां आनंदनी वृद्धि अंदर पर्यायमां-आनंदनी वृद्धि थाय छे. समजाणुं कांई...?
ए अनेकपणाने लईने आनंदनी वृद्धिनो भेद पडी जाय छे एम नथी. आहा... हा... हा! आवी वात क्यां छे भाई!
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श्री प्रवचन रत्नो -१ १९९
आंही तो पर्यायमां शुद्धि वधे ए उपर लक्ष न करवुं एम कहे छे. अंदरमां लक्ष गयुं छे ए द्रव्यमां त्यां ज लक्ष जमावी दे! एथी शुद्धि भले अनेकपणे वधे - अनेकपणे देखाय पण अंदरमां तो एकपणे शुद्धि वधती जाय छे. आहा... हा! जरी विषय झीणो छे!
आहा... हा! ‘माटे जेमां समस्त भेद दूर थाय छे. एवा आत्म स्वभाव भूत’ आत्मानो... स्वभाव... भूत ए ‘ज्ञाननुं ज एकनुं आलंबन करवुं जोईए’ एकरूप भगवान आत्मा एनुं अवलंबन करवुं जोईए.... आहा... हा! पर्याय भले अनेक हो पण छतां आलंबन तो एकमां एकनुं ज लेवुं जोईए... आहा... हा!
समजाय एवुं छे प्रभु! आत्मा केवळज्ञान लई शके अंतमूहूर्तमां अरे! एना विरह पडी ग्या! पंचमकाळ! काळ नडयो नथी, पण एनी पर्यायमां हीणी दशानो काळ पूरी दशानो काळ पोतामां पोताने माटे नहीं आहा... हा! पोतानो छे ने स्वयं ए दोष पोतानो काळ नहीं काळ - काळनो दोष नहीं! हीनता ए वृद्धि ए वृद्धि नहीं पामती ए नडतर छे. आहा.... हा! समजाणुं कांई...?
आहा...! ‘एवा आत्मस्वभाव भूत ज्ञाननुं एकनुं ज’ आत्म ज्ञान छे ने...! तेथी स्वभावभूत ज्ञान, जे स्वभावभूत आत्मा छे त्रिकाळ एम ज्ञान, स्वभावभूत ए ज्ञाननुं ज एकनुं अवलंबन करवुं जोईए’ आहा... हा!
‘तेना आलंबनथी ज भाषा देखो! भगवान ज्ञायकस्वरूप त्रिकाळ ज्ञानानंद सहजानंद प्रभु! तेना अवलंबनथी ज’ जोयुं? अवलंबनथी ‘ज’ निश्चय लीधो. आ ज वस्तु छे. तेनो प्रभु पूर्णानंदनो नाथ! द्रव्य स्वभाव तेना अवलंबनथी ज, पाछुं बीजानुं अवलंबन नहीं माटे ‘ज’ मूक्यो छे. पर्यायनुं अवलंबन नहीं, रागनुं नहीं निमित्तनुं नहीं आहा... हा! तेना अवलंबनथी ज निज पदनी प्राप्ति थाय छे’ पर्यायमां.
निजपद जे त्रिकाळ छे तेना अवलंबनथी ज पार्ययमां निजपदनी पूरण प्राप्ति थाय छे. आहा... हा..! समजाणुं? फरीथी, आमां कांई पुनरुक्ति न लागे आमां, भावनानो ग्रंथ छे ने....! हें? निजस्वरूप पूर्णानंदनो नाश तेना आलंबनथी ज निजपदनी प्राप्ति पर्यायमां थाय छे. द्रव्य तो निजपद तो छे ज. तेना अवलंबनथी ज पूरणपर्याय निजपदनी प्राप्ति तेनाथी थाय छे. आहा... हा!
आंही तो हजी बहारमां तकरारुं! झगडा अरे रे! ए व्यवहार उथापे छे ने...! एकांत निश्चय स्थापे ने... आवा झगडा बधा!
प्रभु! वात तो आवी ज छे. आंही तो पर्यायनी अनेकता पण आश्रय करवा लायक नहीं. तो वळी रागने दयादानने आश्रय करवो. आहा... हा! आ वात वीतराग सिवाय क्यांय नथी. वीतराग स्वभावी भगवान प्रभु (आत्मा), वीतराग स्वभावभूत आत्मा, तेना अवलंबनथी ज वीतरागी पर्यायनी पूर्णतानी निजपदनी प्राप्ति थाय छे. आहा... हा! कोई रागना कारणे के निमित्तना कारणे ई पूरणपर्यायनी पूर्णतानी प्राप्ति नथी थती. समजाणुं कांई?
‘तेना आलंबनथी निजपदनी प्राप्ति थाय छे एकवात. अस्तिथी पहेलां लीधुं ‘भ्रांतिनो नाश थाय छे’ मिथ्यातत्त्वनो नाश निजपदना अवलंबनथी थाय छे. बीजी कोई चीज नहीं. भ्रांति नाम मिथ्यात्व,
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२०० श्री प्रवचन रत्नो-१ जे पर्याय जेवडो ज हुं छुं - रागथी धर्म थशे विगेरे भ्रांति जे मिथ्यात्व ए निजपदना अवलंबनथी ज नाश थशे. निजपदनी प्राप्ति तेना अवलंबनथी ज थाय छे ए अस्तिथी लीधुं पहेलुं पछी ‘भ्रांतिनो नाश थाय छे’ (ए नास्ति कही) पण निजपदना अवलंबनथी ज भ्रांतिनाम मिथ्यात्वनो नाश थाय छे. आहा... हा! आवी तो चोख्खी वात! अरे दिगंबर शास्त्रो अने दिगंबर मुनिओ तो अलौकिक वात छे बापा! आहा मुनिपणा केवा अलौकिक बापु! आहा... हा जेने अंर्त अनंत आनंद पर्यायमां, समुद्रमां जेम कांठे भरती आवे छे. एम मुनिओने साचा संत होय तो पर्यायमां अनंत आनंदनी भरती आवे छे. ए अतीन्द्रिय आनंदनी विशेष विशेष दशा वर्ते ए विशेष विशेष उपर लक्ष नहीं सामान्य उपर लक्ष-द्रष्टि छे ए कारणे विशेष विशेष आनंद हो, एकाग्रतामां पुष्टि थाय छे ए आनंदनी, आनंदनी वृद्धि थाय छे! आहा... हा! समजाणुं कांई?
(कहे छे) ‘भ्रांतिनो नाश थाय छे’ ई तो आम ज्यां अस्ति प्राप्ति थई सम्यगदर्शनपणे त्यां भ्रांतिनो नाश थयो. निज अवलंबनथी सम्यग्दर्शन प्राप्त थयुं तो स्वरूपनी प्राप्ति थई पर्यायमां, ए वखते भ्रांतिनो नाश थाय छे. आहा...! ‘आत्मानो लाभ थाय छे’ पहेली साधारण वात करी के निजपदनी प्राप्ति थाय छे. तो ए कहे छे के आत्मानो लाभ थाय छे. भ्रांतिनो नाश थवाथी भगवान आनंद स्वरूप प्रभु एनो लाभ थाय छे.
आ वाणिया लाभ-सवाया नथी मूकतां! दिवाळी उपर करे छे ने...! लाभ सवाया! नामुं लखे ने...! भाई लाभ नथी ए तो नुकशान सवाया छे. आहा... हा! प्रभु आ लाभ आत्मलाभ ते लाभ छे. आहा...! आत्मलाभ! ‘आत्मानो लाभ थाय छे आहा... हा!
हवे देखो! ‘अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे’ हवे आंही तो पुण्यना परिणामने अणात्मा कह्या. को’ चेतनजी? आ तो अणात्मा. पुण्य अणात्मा छे. ए आत्मा नथी. हवे आंही (लोको) कहे पुण्यने धर्म कह्यो छे, अरे प्रभु! अरे रे.. आवुं शुं छे भाई? पुण्य छे ई अणात्मा छे. आत्मानो लाभ थयो तो अनात्मानो नाश थयो. परिहार थयो. ए पुण्य अणात्मा छे! पुण्यने तो पहेला अधिकारमां जीव अधिकारमां अजीव कह्या छे. आहा... हा! ई अजीवथी जीवने लाभ थाय छे? अने अजीवने धर्म कह्यो? ए निश्चय धर्म छे? ए तो उपचारथी कथन कर्युं छे.
आहा... हा! ‘आत्मानो लाभ थाय छे, अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे’ पूरण स्वरूप, ध्रुव, तेनो आश्रय लेवाथी आत्म-निजपद-निजस्वरूप (नी प्राप्ति थाय छे) राग पद ए निजपद नहीं. निजपदनी प्राप्ति एटले आत्मानो लाभ थाय छे. त्यां आत्मानो लाभ मळे - आत्म लाभ! आ लक्ष्मीना लाभ मळे ने धूळनो ने... ए (लाभ नथी.) ए पुण्यभावनो लाभ ई ए आंही नहीं पुण्यभाव तो अणात्मा छे. आहा... हा! समजाणुं कांई....?
आवो उपदेश हवे! माणसने नवराश ने फुरसद नहीं, धंधा आडे नवराश न मळे! ए पोतानुं हित केम थाय! आहा!
बापु! ए तो तने खेद छे दुःख छे अने एने देखीने तने आम थयुं ए तो मिथ्यात्वभाव छे. आहा.... हा...! न्यां तो मिथ्यात्वनी पुष्टि थई छे. आहा... हा! आ भगवानने तरतो अंदर जुदो देख! आवे
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श्री प्रवचन रत्नो -१ २०१ छे ने विश्व उपर तरतो (समयसार) एकसो चुमालीस (गाथामां) आवे छे. याद न होय कये ठेकाणे छे भाव मगजमां रही ग्यो होय! विश्ववमां तरतो न्यां एकसो चुमालीसमां आवे छे. कर्ताकर्ममां छे. घणे ठेकाणे आवे छे.
आहा... हा! भगवान आत्मा रागथी ने पर्यायथी भिन्न तरतो आहा...! पर्यायनो पण जेमां प्रवेश नहीं (एवो धुव आत्मा)! जो तारा त्रिकाळीनुं अवलंबन ले, तने आत्मलभाव थशे, भ्रांतिनो नाश थशे - आत्मलाभ थशे - अणात्मानो परिहार सिद्ध थशे. पुण्यभाव ए अणात्मा छे. अरेरे! हवे आंही आत्मा, तो ए अणात्मा छे. आंही धर्म तो ए अधर्म छे. आंही पवित्रता तो ए अपवित्रता छे. आहा... हा!
आहा... हा..! आकरुं काम भाई...! अने ते चांडालणीना पुत्र बेयने कह्युं छे. पुण्यने पाप. ब्राह्मणने त्यां ऊछर्यो ते कहे आ मने खपे नहीं, आ मने खपे नहीं. पण तुं कोण छो? मूळ तो छो चांडालणीनो पुत्र! एम पुण्यभाव वाळो कहे के आ मने खपे नहीं फलाणुं खपे नहि पण तारो ए पुण्यभाव चांडालणीनो पुत्र छे. विभावनो पुत्र छे. एवुं लख्युं छे. ‘कळशटीका’ मां.
पुण्यभाववाळा एम माने आ मारे खपे नहीं आ खपे नहीं, ए चांडालणनो पुत्र होय ने माने ब्राह्मणीनो छुं एवुं छे एने आहा... हा..! अमारे विषय भोग होय नहीं अमारे स्त्रीनो संग होय नहीं, संग नथी पण तारो भाव शुं छे? भाव तो शुभ छे राग छे ए राग तो चांडालणीनो पुत्र छे. चांडालणीनो बीजो पुत्र छे ते कहे छे के मने खपे छे. आ चांडालणीनो दिकरो छे ते कहे छे मारे खपतो नथी! आहा... हा..!
शुं कीधुं? चंडालणीना बे दिकरा छे ते एक दिकरो कहे के आ मने मांस खपे नहीं (बीजा कहे के मने खपे) ए चांडालणीनो पुत्र छे. महाव्रतना परिणाम. महाव्रतना परिणामवाळो कहे के आ मने खपे नहि भोग खपे नहि, स्त्रीनो संग खपे नहि पण भाव तारो छे ए तो शुभभाव छे ए चांडालणीनो पुत्र छे. आहा... हा! एय....? (श्रोताः) आकरु पडे एवुं छे! (उत्तरः) आकरुं पडे एवुं! (श्रोता) गळे ऊतरे एवुं नथी. (उत्तरः) संसारनी वात केम गळे ऊतरी जाय छे झट! आ तो अंतरनी वात छे प्रभु! आ बहारमां बधु मनावी दीधुं छे. साधुए! व्रत करो ने अपवास करोने... सेवा करोने.... साधर्मीने मदद करो ने...! आहा... हा! छे दुनियाने... बहारनुं महात्म्य छे. ए तो.
आहीं कहे छे के ‘अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे’ अणात्मा कोण? पुण्य. पाप तो ठीक.... पण पुण्य छे ए अणात्मा छे, अजीव छे. आहा... हा... हा! अजीवनो परिहार थाय छे.
ए भगवान आत्मा पूर्णानंद प्रभु! एना अवलंबनथी निजदनी प्राप्ति थाय छे भ्रान्तिनो नाश थाय छे आत्मानो लाभ थाय छे अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे. आहा... हा! बहु सरस!
ओला कहे छे के अणात्मा राग साधन छे. - व्यवहार साधन छे. निश्चय साध्य आंही तो कहे छे आत्मानो लाभ थाय छे तो अनात्मानो परिहार थाय छे. आहाहाहा! अरे रे! जे व्यवहार अणात्मा छे एनाथी आत्माने लाभ थशे? आंही कहे छे आत्मानो लाभ ज्यारे थाय छे अंर्त त्यारे अणात्मानो
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२०२ श्री प्रवचनो रत्नो १ तो परिहार थाय छे एम कीधुं ने...! आहा... हा! त्याग! अणात्मानो त्याग थाय छे.
लोकरंजन करवानी वात छे आहा...! दुनियानुं आमां लोकरंजन थाय नहीं. पकडाय मांड मांड आ! तो य हवे माणस आवे छे. मुंबईमां पंदर, पंदर हजार माणस दश-दश हजार माणस आवे छे. सांभळवा.
आंही तो शुं कहे छे सांभळो तो खरा! आहा.... हा..! ए तो तमारे य पंदर पंदर हजार माणस (सांभळवा आवे छे) इंदोरमां, सागरमां पंदर पंदर हजार माणस! भोपालमां तो चालीश हजार माणस! चालीश हजार! सांभळे... अंदर खळभळाट तो थतो’ तो... पण आ (सांभळवुं) आकरुं पडे!
एककोर मंदिर बनावे दश दश लाखना लाखो रूपियाना! अने एने केवुं के तमे बनाव्या नथी. तमारो भाव (शुभ) होय तो पुण्य छे ए पुण्य अणात्मा छे.
कोण करे छे? थवानुं होय त्यारे थाय, एनाथी कांई थाय छे? मंदिर तो मंदिरना परमाणुने पर्यायनो काळ ए रीते छे त्यारे रचाय छे?
ए परमाणु ए परमाणु ते समये परिणमवाना परिणाम, परिणामनो परिणामी पदार्थ छे ते कर्ता छे. ए पर्यायनुं परिणमन छे ते पुद्गलपर्यायनो कर्ता पुद्गल परिणामी पदार्थ छे. कडियो ने वगेरे तेनो कोई कर्ता नथी. आरे आवी वातुं!
आंही कहे छे के ‘अनात्मानो परिहार सिद्ध थाय छे’ एम थवाथी कर्म जोरावर थई शकतुं नथी’ ओलुं कर्म बळवान थतुं हतुं पोतानी पर्यायमां तेने वश थवाथी तो कर्म बळवान एम कहेवायुं. आहा.. हा! (स्वामी) कार्तिकमां आवे छे ‘जीवो बळियो, कम्बो बळियो, त्यां नखे (कहे) जुओ कर्मने बळवान कह्युं! पण तारा परिणाम थया एवा तो कर्मने बळवान कहेवामां आव्युं छे. ज्यां विकार बळवानपणे छे ए कारणे अंदर अविकार परिणाम उत्पन्न थता नथी. परद्रव्यने लईने पोतानी पर्यायमां कोई कमी - ओछी थाय एवी कोई वात नथी. बीलकुल जुठी वात छे. माने, न माने स्वतंत्र छे, आ तो आव्युं (परंतु) करम बळवान होता नथी. आंही भावकर्मने जोडतो हतो आत्माना ए पछी अणआत्माना ए पछी आत्मानो लाभ थयो अणात्मा बळवान नहीं तो रागद्वेष उत्पन्न थता नथी ए कारणे अवलंबनथी निर्मळ पर्याय उत्पन्न थाय छे ए कारणे रागद्वेष उत्पन्न थता नथी, आहा...हा!
विशेष वात कहेशे... (प्रमाणवचन गुरुदेव!)