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श्री प्रवचन रत्नो -१ २०३
समयसार, ता. २८३-८४-८प गाथा. एनी टीका. झीणो अधिकार छे थोडो! टीकाः ‘आत्मा पोताथी रागादिकनो अकारक ज छे’ आत्मानुं स्वरूप ज एवुं छे के पोताने आश्रये राग थाय एवुं एनुं स्वरूप ज नथी. दया -दान- व्रत -भक्ति -काम क्रोधादिना भाव, ए आत्माने आश्रये थाय एवो आत्मानो स्वभाव ज नथी. आहा... हा! आत्मा पोताथी पुण्यने पाप, राग अने द्वेष, दया ने दान, व्रत ने भक्ति आदिना परिणाम, एनो पोते अकारक ‘ज’ छे. आहा... हा... हा! आत्मा अकारक ज छे रागादिनो जो एम न होय.... जो आत्मा पोताथी रागादिकनो कारक होय शुं कहे छे हवे?
के रागादि थाय छे ई पोताना स्वभाव ने आश्रये नथी थतां. फकत परद्रव्यना निमित्तना लक्षे..... पोतामां थाय छे ई पोताना स्वभावमां, ए रागादि नथी. आहा... हा! सूक्ष्म विषय छे! थोडुं चाली गयुं छे आ तो फरीने...
ए पोताथी एकलो ज्ञायकस्वरूप! ए ज्ञायक!! रागनो त्याग कहेवो ई पण एने लागु पडतुं नथी कहे छे. ए तो अकारक ज छे. आहा... हा...! रागनो त्याग, आत्माए कर्यो ए पण एक व्यवहारनुं वचन छे. पोते तो... रागरहित ज एनुं स्वरूप छे! अने पोताना आश्रये.... राग के दया- दान के कामक्रोधआदिना परिणाम थाय, एवुं एनुं स्वरूप ज नथी. समजाय छे कांई.... ?
ए परद्रव्यना निमित्तना लक्षे (रागादि) उत्पन्न थाय छे. निमित्तथी नहीं पण परद्रव्यना निमित्तना लक्षे एमां विकार, पुण्य-पापना भाव थाय! एथी आत्मानो वास्तविक स्वभाव, स्वथी राग करवो - एवुं एनुं स्वरूप ज नथी! सम्यग्ज्ञानी, धर्मी जीव, शुद्ध आत्मस्वभावमां ज्ञायकनी द्रष्टिने लईने, परनो त्याग करनारो तो ए छे नहीं ‘पोते पोतानो देखनारो ने जाणनारो छे ए पण व्यवहार छे.’ आहाहा... हा.. हा! समजाय छे कांई...?
आत्मा परने जाणे-देखे ने छोडे ए वात तो एनामां छे ज नहीं. त्रणे य आवी गयां. दर्शन- ज्ञानने चारित्र! आत्मा... एकलो परने जाणे - देखे अने छोडे, एवुं एवुं स्वरूप ज नथी अरे...! पोते - पोताने जाणे ने देखे ने रागना अभाव स्वभाव स्वरूप अपोहक स्वरूप छे ए पण स्व- स्वामीसंबंधनो व्यवहार छे. अहा...! परमार्थे एने लागु पडतुं नथी. को’ भाई? झीणी वातुं छे!
स्वयं भगवान आत्मा, ज्ञायकस्वरूप ते ज्ञायक ज छे. ए ज्ञायकस्वरूप छे ते पोताने जाणे, पोताने देखे ने रागनो त्याग एनामां करे-ए पण व्यवहार छे. ‘राग करे... परने जाणे–देखे’ ए तो तद्न असद्भूत व्यवहार छे. झीणुं बहु! चेतनजीए कीधुं तुं! आ फरीने लेवुं कीधुं तुं! काल कह्युं तुं थोडुं चाली गयुं हतुं आपणे!
आहा... हा! भगवान आत्मा! ज्ञायक ते ज्ञायक ज छे! ज्ञायक ते परने जाणेने परने देखे ने
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२०४ श्री प्रवचन रत्नो-१ परने छोडे – ए एनां स्वरूपमां ज नथी!! आहा... हा... हा! “आवो आत्मा जेनी द्रष्टिमां आवे त्यारे तेणे आत्मा जाण्यो अने देख्यो एम कहेवामां आवे!” अने ते पण आत्मा, आत्माने जाणे ने देखे एम ए पण व्यवहार भेद पडयो! “आत्मा पोते ज छे.”
आहा... हा! झीणुं छे. ए आत्मा... शरूआतमां पहेली लीटीमां ज बधो सिद्धांत भर्यो छे. ‘आत्मा... पोताथी’ एटले के निमित्त ना लक्ष विना, अने निमित्तना आश्रय विना राग थाय, आत्मा एकलो रहेने पोताने राग थाय-एवो एनो स्वभाव ज नथी.
आहा....! ए तो ज्ञायकस्वरूप भगवान! ज्ञायक ते ज्ञायक ज छे. ए ज्ञायक ते रागना त्याग स्वभाव स्वरूप छे. एम कहेवुं ई ए व्यवहार छे. ए तो त्यागना अभाव स्वभाव स्वरूप ज एनुं स्वरूप छे! रागना त्यागना अभाव स्वरूप! एनो त्याग कर्यो एनो अभाव छे. एनुं स्वरूप ज एवुं छे. एनो-रागनो त्याग करवो, एपण एनां स्वरूपमां नथी. आहा... हा... हा... हा..! आवी वातुं ल्यो धर्मनी!
‘आत्मा... पोताथी... स्वयंथी... ए तो ज्ञानदर्शनने आनंदस्वरूप छे. ए पोताथी पुण्यपापना परिणाम एनो अकारक ज छे.’ आहाहा...! ए दया -दान-व्रत-भक्ति आदिना परिणाम जे शुभ छे. एनो य पोताथी तो (आत्मा) अकारक ज छे. आहा.... हा... हा! आवो एनो स्वभाव छे. एवी द्रष्टि थवी अंदर, एनुं नाम सम्यग्दर्शन - सम्यग्ज्ञान छे.
आहा...! ने रागना अभाव स्वभाव स्वरूप, परना लक्षने छोडी, ने शुद्ध चैतन्य मूर्तिना आश्रये ठर्यो ए एनो चारित्र भाव छे. आहा...! पण ई आत्मा, आत्मामां ठर्यो, ए पण स्व- स्वामीसंबंध अंश, व्यवहार छे. आहा.... हा... हा...! आवुं.... स्वरूप!! एक वात
आंही (हवे) कारण आपे छे. केम अकारक छे? भगवान आत्मा स्वयं पोते पोताथी कोईपण दया-दान-भक्ति-व्रतादिनां परिणामनो तो अकारक ज छे. एनुं स्वरूप ज अकारक छे. आहा... हा... हा! कारण.... के जो एम न होय तो अर्थात् जो आत्मा पोताथी ज रागादिभावोनो कारक होय तो’ एटले आत्मा पोताना आश्रयेथी, पोताने लक्षे, पोताने अवलंबे, दया-दान पुण्यपापनो कर्ता होय तो ‘अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यानना द्विविधपणानो उपदेश बनी शके नहि’ भगवाने... शुद्ध नयनुं कथन छे एथी अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यान कह्युं छे. एथी भगवाने कह्युं के राग छोड! राग छोड!! वर्तमान रागनुं प्रतिक्रमण कर! भविष्यना रागनुं प्रत्याख्यान कर!! त्यारे एम जे उपदेश आव्यो ई एम सूचवे छे के रागनो कर्ता भगवान (आत्मा) स्वयं पोते नथी. जो होय तो वर्तमान रागनो त्याग, ने भविष्यना रागना पच्चखाण एम बनी शके नहीं. समजाय छे कांई.... ?
आहा... हा! आवो धर्मनो उपदेश! ओलो तो केवो हतो उपदेश ‘मिच्छामि पडिक्रमण सामायि पडिकमणुं थई गयुं ल्यो! आंही तो कहे छे के हजी आत्मा कोण छे एनी तने खबर विना.... सांभळ तो खरो!
आत्मा पोताथी...पोताथी...वजन आंही छे. भगवान आनंदने ज्ञान ने दर्शनस्वरूप छे. ज्ञानथी जाणे छे. देखे छे. ई एमेय नहीं ई स्वरूप ज छे. ज्ञान-दर्शन ने आनंद एनुं आत्मानुं स्वरूप
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श्री प्रवचन रत्नो-१ २०प ज छे! एथी पोताथी विकारनो अकारक छे. आहाहा...! समजाय छे कांई... ? केम? ‘जो एम न होयतो’ -भगवाननो उपदेश एवो छे के अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यानना द्विविधपणानो उपदेश बनी शके नहि’ - निषेधथी वात करी छे. बाकी एनो पोतानो जो स्वभाव होय तो.... रागथी छूटी जा... रागनो त्याग कर.... अने रागनुं पच्चख्खाण कर-छोड! एवो जे उपदेश व्यवहारनो ए बनी शके नहि. जो आत्मा पोताथी करतो होत तो... रागने छोडने रागनुं पच्चखाण कर ए बनी शके नहि. एनो (आत्मानो) स्वभाव ज जो होय तो करवानो तो ते उपदेश बनी शके नहि.
आहा.... हा! अधिकार झीणो छे. ‘अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यान द्विविध’ - हजी द्रव्य भावनी वात नथी अत्यारे! अत्यारे तो द्रव्य अप्रतिक्रमण अप्रत्याख्यान एटली ज एटले के परनुं प्रतिक्रमणने परनुं पच्चखाण, ई कहेवुं छे ने शुद्धनयनो अधिकार एटले अप्रतिक्रमण ने अपच्चखाण कह्युं! ‘एवो जे उपदेश भगवाननो छे ए बनी शके नहि. जो पोते ज पोताना स्वभावथी, स्वरूप ज विकार करवानो दया-दान-आदिनो होय तो एने छोडवानुं जे कह्युं, एटले के तेनाथी लक्ष छोडी दे एम कह्युं, ए उपदेश बनी शके नहीं समजाणुं कांई... ?
आहाहा...! आवो मारग हवे! ओलुं तो पडिकमणुं मिच्छामि.. करता तो एय.. भाई..! तमारा बाप एम करता. सामायिक करे.. सामायिक पोषा.. पोषा करे बधा.. बधाय करताने.. तो ‘आ’
आहा... हा! अरे.... आंही तो कहे छे प्रभु एक वार सुन (सांभळ)! आंही कहे छे के ए रागनो त्याग कहे छे एनो अर्थ ज (आत्मा) एनो कर्ता नथी. रागनुं प्रतिक्रमण कर. रागनुं पच्चखाण कर एम कहेवाना उपदेशमां ज एवो अर्थ आव्यो के आत्मा पोताथी राग करे ने पुण्य करे एवुं एनुं स्वरूप ज नथी.
आहा.... हा... हा! झीणो अधिकार आव्यो! तेरसे व्याख्यान हतुं पाछुं बारसे आव्युं आ तेर दि’ वच्चे पडयुं! आवुं.... भाई? आहा... हा! भगवान आत्मा, ज्ञान दर्शन अने परना रागना अभाव स्वभाव स्वरूप छे. एनुं स्वरूप ज ए छे. ए वळी आत्मा, आत्माने जाणे ने आत्मा, आत्माने देखे ने आत्मा, आत्मामां ठरे-ए पण व्यवहार छे. एनुं स्वरूप ज एवुं छे कहे छे! आहाहा! ए ज्ञानदर्शनने रागना अभाव स्वभाव स्वरूप ज एनुं छे. एवी द्रष्टि थतां अंदरमां सम्यग्दर्शनचारित्र थाय, एनुं नाम धरमने मोक्षनो मारग छे!
आहा... हा.... हा... हा! आकरुं पडे एवुं छे बधां ने!! आवो मारग छे भाई....! आहा...! अनंतकाळथी रखडे छे! एनी महिमा, एनी जातनी महिमा, एनी जातनी मोटप!!! बेठी नथी. एणे हीणो ज कलप्यो छे! कां रागनो कर्ताने रागनो भोक्ता ने...! आहा... हा!
आहा.... परनो जाणनारो ने परनो देखनारो ने...! पोतानी पर्यायमां परने जाणवुं थाय छे ई क्यां पर–पर क्यां त्यां जणाय छे? आहा...! केमके परनी हारे तो तन्मय नथी. ए परने जाणतो नथी निश्चयथी तो! आहा...! निश्चयथी तो जेमां पर्यायमां तन्मय छे तेने जाणे छे ए पण व्यवहार एने पण व्यवहार कहेवो छे. आहा... हा... हा! एम परने देखे छे. ए क्यां परमां तन्मय थाय छे के देखे? ए देखवानी पर्यायमां तन्मय छे. माटे पोते पोताने देखे छे. – ए पण व्यवहार छे. (कारण) भेद पडयो!
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२०६ श्री प्रवचन रत्नो- १
हवे तो ए रागनो त्याग करे छे (आत्मा), एम कहेवुं ए पण व्यवहार छे. असद्भूत (व्यवहार छे) आंही तो रागना अभाव स्वभाव स्वरूप आत्मा छे. एवो जे भेद छे. एय व्यवहार छे. आहा... हा... हा! ए तो रागना अभाव स्वभाव स्वरूप ज त्रिकाळी ज चीज छे एवी वीतरागस्वरूप ज ए छे. आहा... हा... हा! वीतराग स्वरूप छे एमां रागनो अभावो करवो.... के आत्मा रागनो अभाव करे. अथवा रागनो अभाव करे तो वीतरागपणे रहे... एम नथी. ए तो रागना अभाव स्वभाव स्वरूप वीतरागस्वरूप ज बिराजमान छे.
आहा...हा...हा...हा! समजाय छे कांई? समजाय छे कांई? आ तो चाल्युं’ तुं थोडुं! चेतनजी कहे के वळी फरीथी लेवुं! एथी फरीने लीधुं आ.
आहाहा! (श्रोताः) पछी शुं आवे? (उत्तरः) आम ज छे. झीणुं कहो के जाडुं कहो! वस्तु आवी छे त्यां! पहेलेथी ज कीधुं ने... ‘आत्मा पोताथी रागादिकनो अकारक ज छे’ ए सिद्धांत शुं कहे छे. के पोताने आश्रये राग करे के पोताने आश्रये परने जाणवानुं करे परनुं लक्ष जाय छे ने तेथी परने जाणे छे एम कहे छे. छतां ते परने जाणे ई ए नहीं. कारण के एनी पर्यायमां, जे परसंबंधीनुं ज्ञान, पोतामां ते समये परनी अपेक्षा विना, पोताथी पर्याय पर्याय जाणवा- देखवानी थाय! आहा... हा! आवुं छे.
‘जो आम न होय तो अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यान’ बे बोल छे हो? द्रव्य ने भाव, पछी आवशे. आंही तो हजी अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यान, परथी पाछुं हठवुं, परमां जोडावुं नहीं भविष्यमां (ते), एवो जे उपदेश छे ते एम ज बतावे छे. आत्मा स्वयं पोताथी रागनो कर्ता छे नहीं. आहा...हा...हा...! ए तो एनुं लक्ष परमां जाय छे. त्यारे निमित्तना लक्षे ए विकार थाय छे. निमित्तथी नहीं परद्रव्यथी जेम राग नहीं तेम परना निमित्तथी पण राग नहीं... आहा!
शुं कह्युं ई.... ? जे भगवान ज्ञायकस्वरूप प्रभु! पोताथी जेम राग नथी तेम ने निमित्तना लक्षे पण राग नथी, निमित्तने लक्षे.... पोते राग पर्यायमां करे छे. (आत्मा) निमित्तथी नहीं. आत्माथी जेम राग नहीं एम निमित्तथी पण राग नहीं. समजाय छे. आमां? एनी पर्यायमां निमित्तनुं लक्ष करीने, स्वभावनो आश्रय छोडी दईने, विकार पर्यायमां करे छे. एथी भगवाने एम कह्युं के रागनुं प्रतिक्रमण कर! रागनुं पच्चखाण कर! केम के तारुं स्वरूप नथी ए. आहा... हा... हा! समजाणुं आमां?
‘अप्रतिक्रमण ने अप्रत्याख्यानना द्विविधिपणानो’ अप्रतिक्रमण ने अप्रत्याख्यान हो ए अत्यारे बे लीधा. बीजां बे (पछी) लेशे. पछी वळी द्रव्यने भाव बीजां बे पछी. आ तो फकत एक वर्तमान अप्रतिक्रमण भविष्यनुं अप्रत्याख्यान, एवा बे बोल लीधां, गया काळनी वात तो छे नहीं अत्यारे माटे प्रश्न नहीं, आ लीधुं वर्तमानमां रागनो त्याग ने भविष्यमां रागनो त्याग!
एवो अप्रतिक्रमणने अप्रत्याख्याननो उपदेश भगवाने आप्यो ए शुद्ध नयथी कह्युं. खरेखर तो रागनो वर्तमानमां अभाव कर, भविष्यमां रागनो अभाव कर एजे कहेवुं छे ए ज एम बतावे छे के आत्मा पोताना स्वभावथी राग करे एवो एनो स्वभाव नथी. आहा...! ए निमित्त जे परद्रव्य छे तेना उपर एनुं लक्ष जाय छे आ स्वभाव शुद्ध चैतन्य अखंड अभेद छे. एनुं लक्ष छोडी दईने, स्व-जीव एनामां नथी, जे एनामां छे एनुं लक्ष छोडी दईने जे एनामां नथी एवा परनुं लक्ष करे छे तेथी ते निमित्तना
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श्री प्रवचन रत्नो- १ २०७ लक्षे राग करे, निमित्तथी राग थतो नथी. पण निमित्तना लक्षे राग - द्वेष थाय छे समजाय छे कांई?
आहा.... हा! जेम आत्मा, पोते अकारक छे. रागने पोते पोताथी करे एवुं वस्तुनुं स्वरूप ज नथी. तेम निमित्तथी राग थाय एवुं पण स्वरूप नथी. पण निमित्तने लक्षे राग करे छे. आहा... हा... हा...! को’ आमां समजाय छे? झीणुं छे भई आ अधिकार झीणो! आंही सुधी तो आव्युं’ तुं काल.
आहा...! भगवाननो उपदेश अप्रतिक्रमणनो ने अप्रत्याख्याननो बे प्रकारनो उपदेश बनी शके नहि.ं जो पोते पोताथी कर्ता होय एनो स्वभाव ज जो राग करवानो होय, तो रागने छोड - वर्तमान रागने छोडने भविष्यमां रागनो त्याग ते प्रत्याख्यान एवो जे उपदेश ते बनी शके नहि. समजाय छे कांई... ? आहा!! भाषा समजते के नहीं गुजराती?
आहा.... हा...! आवो... उपदेश हवे! एवो धर्म सरळ हतो सामायिक करो ने पडिक्रमणां करो ने चोविहार करो ने थई ग्यो ल्यो धरम? अरे... भाई!
धरम करनारो.... ए कोण छे? के जेनामां... . राग छे ज नहीं जेनामां ज्ञान दर्शनने आनंद भरेलो छे. आहा... हा! धर्मी... एने जो धरम करवो होय तो... एनामां... तो ज्ञानदर्शनने आनंदभर्यां छे. ए पोताने आश्रये राग-द्वेष करे... ए तो स्वरूप ज एनुं नथी. तेथी तेने भगवाननो उपदेश (छे के) द्रव्य अप्रतिक्रमण अने द्रव्य अप्रत्याख्यान, वर्तमान राग छे एने ने भविष्यमां राग थाय एने छोड कारण के तारा स्वरूपमां ए छे नहीं. ए फकत तुं निमित्तने लक्षे तुं राग करे छे अने भविष्यमां पण निमित्तना लक्षे राग थाय तेने छोड!
आहा... हा! आवो छे उपदेश! पहेले दि’ हाल्युं ते आव्युं झीणुं आव्युं आवुं! आ अधिकार ज एवो छे.
आहा...! ‘अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्याननो खरेखर द्रव्यने भावना भेदे’ हवे बे पहेलां लीधां’ ता वर्तमान अप्रतिक्रमणने भविष्यनुं अप्रत्याख्यान एटलुं... . हवे एना पाछा बे भेद पाडया. आहा... हा... शुं कीधुं ई? ‘अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्याननो खरेखर द्रव्यने भावना भेदे द्विविध’ द्रव्यने भाव ए बे प्रकार लीधां पहेलां अप्रतिक्रमण ने अप्रत्याख्यान ए बे भेद लीधां, वर्तमान अप्रतिक्रमण ने भविष्यनुं अप्रत्याख्यान.
हवे, अप्रतिक्रमणना बे प्रकार ने अप्रत्याख्यानना बे प्रकार अप्रतिक्रमण बे प्रकार शुं? द्रव्य एटले निमित्त उपरनुं लक्ष जाय छे ते अप्रतिक्रमणनुं निमित्त अने एने आश्रये विकार थाय छे ए भाव. निमित्तथी थतां नथी फकत एने लक्षे करे छे. समजाणुं कांई...?
परद्रव्यने लईने रागद्वेष थतां नथी. आंही वीतरागी स्वरूप भगवान आत्मा एनो आश्रय छोडीने जेणे निमित्त - परद्रव्य उपर लक्ष कर्युं एथी तेने आश्रये रागद्वेष थाय छे. ते निमित्तथी थया नथी, स्वभावथी थया नथी. फकत निमित्तना लक्षे थाय छे. पहेलां बे प्रकार-द्रव्य अप्रतिक्रमणने द्रव्य अप्रत्याख्यान बे भेद लीधां हवे अप्रतिक्रमण अप्रत्याख्यानना पाछा बे भेद. (द्रव्य ने भाव)
पहेलां अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यान कह्यां ए वर्तमान ते अप्रतिक्रमणने भविष्यना अप्रत्याख्यान ए बे भेद लीधां. हवे पाछा एक-एकना बब्बे भेद (ले छे) के अप्रतिक्रमण बे प्रकार-द्रव्य
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२०८ श्री प्रवचन रत्नो- १ अने भाव. कारण के द्रव्य एटले पर उपर लक्ष एनुं जाय छे ए द्रव्य. एने लईने रागद्वेष थाय छे ई भाव - ए अप्रतिक्रमणना बे प्रकार. निमित्त अने रागद्वेष.
एम अप्रत्याख्यानना बे प्रकार भविष्यमां रागमां लक्ष जशे, निमित्त तरफनुं ए द्रव्य (अप्रत्याख्यान) अने भाव थशे राग. (एम) द्रव्यने भाव बे प्रकारे अप्रतिक्रमण अने द्रव्य ने भाव बे प्रकारे अप्रत्याख्यान आहा... हा... हा!
नवराश न मळे, फुरसद न मळे! भाई आ नवराश नहीं ने... निर्णय करवानी बायडी - छोकरां साचववां, धंधो करवा सांभळवानुं मळे तो एने बीजुं मळे! आ वात... क्यां आंही त्रणलोकनो नाथ! सच्चिदानंद प्रभु! वीतरागनी मूर्ति... ए वीतरागनी मूर्ति, राग केम करे? कहे छे, आहा... हा!
त्यारे कहे के एमां राग थाय छे ने...! अने भगवाननो उपदेश पण छे ने...! के रागनुं प्रतिक्रमणने रागनुं प्रत्याख्यान कर, एम छे ने...! हा.... छे केम? के एना स्वभाव-द्रव्यगुणमां ए नथी, पण पर्यायमां एनुं लक्ष परद्रव्य उपर जाय छे. तेथी द्रव्य अप्रतिक्रमण कह्युं. अने एनाथी भाव-राग-द्वेष थया ए भाव अप्रतिक्रमण कह्युं. एम भविष्यमां पर उपर लक्ष जशे ए द्रव्य अप्रत्याख्यान कह्युं अने भाव थाशे ए भाव अप्रत्याख्यान कह्युं! बराबर है? (श्रोता) बराबर है!
आहा... हा! आ वीतरागनो मारग छे भाई...! शुं कहे छे? के अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्याननो जे खरेखर, खरेखर भाषा लीधी छे जोयुं? निमित्त उपर लक्ष जाय छे ने...! ‘द्रव्य अने भावना भेदे द्विविध’ बे प्रकार पडयां. पोतानो भगवान वीतराग, स्वरूप ज्ञायक एने छोडी, एने पर द्रव्य उपर लक्ष कर्युं ए द्रव्य अप्रतिक्रमण अने तेनाथी थतो राग ते भाव अप्रतिक्रमण.
आहा.... हा! समजाय छे कांई... .? आहा...! कहे छे, के ‘अप्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्यान जे खरेखर द्रव्य अने भावना भेदे... द्विविध (बे प्रकारनो) उपदेश छे’ भगवाननो उपदेश के जे राग थाय छे ते निमित्तने लक्षे थाय छे, ए द्रव्य, अने थाय छे ई भाव- द्रव्यने भाव बे (प्रकार) बे (प्रकारे) अप्रतिक्रमणने बे (प्रकारे) अप्रत्याख्यान-द्रव्यने भाव भेदे. वर्तमान छे ते द्रव्य, भविष्यमां पर उपर लक्ष करे ते निमित्तनुं ते द्रव्य अप्रत्याख्यान आंही भाव करे ते भाव अप्रत्याख्यान.
आहा... हा! ए उपदेश छे ते, द्रव्य अने भावना निमित्त-नैमित्तिकपणाने जाहेर करतो थको’ हवे शुं कहे छे? आहा.... हा... हा! भगवान आत्मा ज्ञायक चैतन्यमूर्ति प्रभु! स्वयं तो विकार - दयादानआदिनो कर्ता नथी, पण निमित्त -नैमित्तिक संबंधे, परद्रव्यनिमित्त, विकार नैमित्तिक एनी पर्याय छे. द्रव्यने भावना निमित्त-नैमित्तिक पणुं परद्रव्य उपर ए द्रव्य ने थाय छे भाव एना लक्षे ते नैमित्तिक, ए निमित्त-नैमित्तिक संबंध एम बतावे छे के वस्तु पोते एकलो आत्मा विकारनो कर्ता नथी. आहा...हा...हा...हा! समजाय छे कांई?
शुं कहे छे प्रभु! आहा... हा... मुनिराजनी टीकातो जुओ! शुं कहे छे! के द्रव्य अने भावनो जे उपदेश छे ए द्रव्य ने भावना निमित्त - नैमित्तिकपणाने जाहेर करतो जोयुं? पर द्रव्य उपर लक्ष जाय
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श्री प्रवचन रत्नो- १ २०९ छे ए निमित्त अने भाव थाय छे. नैमित्तिक! ए निमित्त-नैमितिकने प्रसिद्ध करे छे. स्वभाव त्यां ढंकाई जाय छे. स्वभावनुं त्यां भान रहेतुं नथी. निमित्त-नैमित्तिक जाहेर करे छे’ परद्रव्य उपर लक्ष जाय छे ए द्रव्य (अप्रतिक्रमण) आंही थाय छे ए विकार ए भाव (अप्रतिक्रमण)
ए द्रव्य अप्रतिक्रमणने भाव अप्रतिक्रमण ए अप्रत्याख्यान (द्रव्यने भाव) बे य - ए निमित्त - नैमित्तिकपणाने जाहेर करतो थको आहा...हा...! स्वभावमां भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनंदनो कंद प्रभु! आहा... हा! सच्चिदानंद प्रभु! ए पोते पोताथी आनंदने उत्पन्न करे, ए पण हजी व्यवहार. रागने उत्पन्न करे ई तो वस्तुमां छे ज नहीं आहा...हा...! हवे आंही तो हजी व्यवहार दयादानने व्रत करे तो धरम थाय! तो निश्चय थाय! एम हजी कहे छे ल्यो! लोको आवुं कहे छे.
भगवान! तारुं स्वरूप प्रभु! तारुं स्वरूप वीतराग भावथी भरेलुं तारुं स्वरूप छे तारी मोटपमां वीतरागता छे. ए तारे आश्रये वीतरागता ज थाय पण ते तारो आश्रय छोडीने, निमित्तनुं आम लक्ष करे छे, परद्रव्यनुं - निमित्तनुं ने तेने लक्षे थतो भाव ते विकार ए निमित्त - ए नैमित्तिक प्रसिद्ध करे छे के ज्ञायकभाव पोते कर्ता नथी. आहा... हा... हा!
आवो उपदेश हवे! को’ भाई? क्यां आवुं क्यां हतुं कयाय सांभळ्युं तुं क्यांय? आ वीतरागनो मारग आवो छे भाई! त्रण लोकना नाथ, पोते हो? त्रण लोकनो नाथ ज्ञायकभाव!! सच्चिदानंद प्रभु! सत्.... छे ज्ञानानंदस्वरूप प्रभु! ए ज्ञानानंदस्वरूप पोताने आश्रये राग शी रीते करे? एना स्वरूपमां ज छे नहीं.
त्यारे कहे छे के थाय छे ने (राग) के ई स्वनो आश्रय छोडीने, निमित्तनो आश्रय करे छे ई परद्रव्य त्यारे थाय छे. निमित्तथी थतो नथी. निमित्तनो आश्रय करे छे. एथी त्यां विकार उत्पन्न थाय छे. पुण्य-पाप, दया-दान आदि.
ए निमित्त-नैमित्तिक जाहेर एम करे छे के व्यवहारथी ते विकार थाय छे, आत्माना स्वभावथी ते थतो नथी. आहा...हा...हा...!
जरी’क झीणुं छे पण धीमे-धीमे (समजवुं) विचारवानो बापु आवो वखते क्यारे मळशे? अरे...! वखत... हाल्या जाय छे. मनुष्य देह! मनुष्य देहनी स्थिति केटली? आ धूळनी आ तो माटी छे. (शरीर छे ते) हाल्यो जशे आ! भगवान आंहीथी चाल्यो जशे. ए जेनी द्रष्टिमां आ तत्त्व शुं छे ए आव्युं नथी ई चोराशीमां रखडशे! प्रभु!! कोई शरण नथी क्यांय! आहा...हा...!
शुं कहे छे आहा... हा.... हा! द्रव्य अने भाव बे, अप्रतिक्रमण ने अप्रत्याख्यानना बे भेद कीधां ए निमित्त-नैमित्तिकने जाहेर करे छे, निमित्त-नैमित्तिक जाहेर करे छे. पर उपर लक्ष जाय छे. एने निमित्त कीधां ने ए निमित्त-नैमित्तकने जाहेर करे छे. स्वभावने आश्रये थतो नथी एम यथार्थसिद्ध करे छे. आहा... हा... हा...! को’ समजाय छे कांई....? संभळाय छे ने बराबर... ? ए भाई? (श्रोताः) हा, जी, हा... (गुरुदेवः) संभळाय छे?
आहा.... हा.... हा. शुं टीका! शुं टीका!! गजबनी वात! अने ते आम बे ने बे चार जेवी वात बेसे एवी छे.
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२१० श्री प्रवचन रत्नो- १
के भगवान आत्मा पोताथी (रागादिकनो) अकारक छे, कारक छे ज नहीं अकारक ज छे. त्यारे कहे के आ (रागादि) छे ने...! ए द्रव्य अप्रतिक्रमण ए द्रव्य अप्रत्याख्यानने लईने छे. तो ए द्रव्य अप्रतिक्रमणने द्रव्य अप्रत्याख्यान थयुं केम? ए परद्रव्यना लक्षे, द्रव्य अप्रतिक्रमणने द्रव्य अप्रत्याख्यान परद्रव्यना लक्षे थयुं छे. ए निमित्तक-नैमित्तिक (संबंध) पर्यायमां व्यवहार जाहेर करे छे. ए पर्यायमां, निमित्तना लक्षे थतो विकार ए पर्यायमां व्यवहार जाहेर करे छे. ए आत्मा अकारक छे एम सिद्ध करे छे.
आहा... हा! भाई...? समजाय छे? आहा... हा... हा! भाषा तो सादी पण भाव तो भाई जे होय ई होय ने प्रभु शुं! ई शुं कीधुं? ‘द्रव्य अने भावना निमित्त - नैमित्तिकपणाने जाहेर करतो थको’ आत्माना अकर्तापणाने ज जणावे छे’ आहा... हा... हा..!
शुं कह्युं ई प्रभु! कहे छे प्रभु, सांभळ! भगवंत! तुं भगवंत स्वरूप छो!! आहा...! भगवंत स्वरूप पोते पोताथी विकार करे एवुं स्वरूप एनामां छे ज नहीं. त्यारे ए थाय छे खरो... तो ए द्रव्यगुणोमां तो थाय नहीं, त्यारे स्व तो शुद्ध ज्ञायक चैतन्यमूर्ति ज्ञायक आनंदरूप छे. त्यारे हवे पर्यायमां परना लक्षे, निमित्त पर द्रव्य उपर तेनुं लक्ष जाय छे. एनाथी आ (विकार) थाय छे. एटले निमित्त ने नैमित्तिक जाहेर एम करे छे के आत्मा रागादिकनो अकारक ज छे.
ए निमित्त उपर लक्ष करे छे त्यारे थाय छे एवो व्यवहार थाय छे (पर्यायमां) ई रीते व्यवहार छे. आहा... हा! समजाणुं आमां? आमां समज्या एम कीधुं ओला समज्यां छो ए नहीं आहा...हा...हा! आवो मारग! प्रभुनो मारग छे शूरानो, ए कायरना त्यां काम नथी.
शुं सीधी वात करे छे आहा...हा...! भगवंत! तुं तो स्वरूप छो ने... वीतराग स्वरूप छो ने...! ए वीतरागस्वरूपने आश्रये राग थाय प्रभु! (न थाय.) त्यारे के छे के आ राग थाय छे ने...! अप्रतिक्रमण ने अप्रत्याख्यान एवा दोष देखाय छे ने...! के ए दोष छे ए निमित्तने लक्षे, द्रव्य स्वभावनो आश्रय छूटीने आश्रय छे त्यां तेने आम, आश्रय परद्रव्य उपर छे आंही नथी लक्ष तेथी न्यां परद्रव्य उपर लक्ष छे निमित्तने लक्षे राग-द्वेष पुण्यपाप थाय छे ए निमित्त नैमित्तिकने जाहेर करतो आत्माने अकारक जाहेर करे छे. आहा...हा...हा! नैमित्तिक व्यवहारने जाहेर करतो, निश्चय भगवान आत्मा एकलो अकारक छे तेम जाहेर करे छे.
आहा.... हा.... हा! हवे आवो उपदेश! ओहो..! आचार्यो! दिगंबर संतो! एवी सादी भाषा! सादी भाषामां... आ एटलुं सिद्ध कर्युं छे आम!! प्रत्यक्ष एने थई जाय एम! आहा... हा...!
प्रभु तुं तो वीतरागस्वरूप छो ने... एम कीधुं ने...! ‘पोताथी अकारक छे’ एम कीधुं ने.. .! पहेलुं कीधुं ने ‘आत्मा पोताथी रागादिकनो अकारक छे’ रागादिकनो अकारक एटले वीतरागस्वरूप एम (अर्थ छे) तुं वीतरागस्वरूप ज छो!! अकषायस्वरूप प्रभु तारुं स्वरूप ज चिदानंद - सच्चिदानंद त्रिकाळ स्वरूप प्रभु तारुं छे - सच्चिदानंद सत् शाश्वत आनंदने ज्ञाननो कंद प्रभु! ए (आत्मा) पोते पोताथी रागादिकनो अकारक छे, एम सिद्ध करतां, वीतरागस्वरूप ज तुं छो, वीतरागभावे वीतराग भाव
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श्री प्रवचन रत्नो-१ २११ उत्पन्न थाय, रागभाव उत्पन्न थाय नहीं. आहाहा.... हा... हा!
झीणुं थोडुं पडे पण आ वाते य ते फरी - फरीने आवे छे बे त्रण वार. मारग आवो छे बापा! ओहोहो...! शुं कह्युं? ए बे प्रकारनो ज उपदेश छे. कया बे प्रकारनो? द्रव्य अने भाव, पर द्रव्यनुं लक्ष अने उत्पन्न थतो भाव. ए निमित्त-नैमित्तिक! ई बे प्रकारनो जे उपदेश छे ते ‘ते द्रव्य अने भावना निमित्त - नैमित्तिकपणाना भावने जाहेर करतो थको’ एटले? भाव क्यो विकारी, द्रव्य कोण पर. परद्रव्यना लक्षे निमित्ते ए द्रव्यने आंही विकारमां भाव ए निमित्त - नैमित्तिकने जाहेर करतो (थको) आत्मा अकारक छे एम सिद्धि करे छे. आहा.... हा... हा... हा... हा... हा... हा...!
झीणी वात छे बापु आ कांई... कथा... वार्ता नथी. आहा... हा! आतो त्रण लोकना नाथ! एनी कथा छे. धर्मकथा, धर्मकथा छे आ तो...! आहा...हा...!
आहा...हा...! द्रव्य अने भावना निमित्त-नैमित्तिकपणाने’ द्रव्य निमित्तने भाव नैमित्तिक एम. पर द्रव्यनुं लक्ष ए निमित्त ने नैमित्तिक ए भाव, विकारभाव, पुण्यपापना. ‘एने जाहेर करतो थको, आत्माना अकर्तापणाने ज जणावे छे’ ए निमित्त-नैमित्तिक जाहेर एम करे छे के आत्मा स्वयं अकर्ता छे. ए तो निमित्तनुं लक्ष करे ने विकार करे तो (कर्ता कहेवाय छे) बाकी स्वयं तो अकर्ता छे. आहा...हा...हा...!
को’ भाई? आवुं क्यां छे तमारे कलकत्तामां? धूळमांय नथी क्यांय... (श्रोता!) पैसो धूळ छे. ए! (उत्तरः) धूळ छे. पैसा, पैसा! अरे... रे! कहे छे के दया-दान-व्रत-भक्तिना तेपण नैमित्तिक भाव छे ते निमित्तने लक्षे नैमित्तक थाय छे. ए नैमित्तिक, स्वभावने लक्षे थता नथी. आहा... हा... हा... हा..! अरे... आवुं!
एथी... एनो स्वभाव, भगवान आत्मा सच्चिदानंद प्रभु! एनो स्वभाव/आ निमित्तने लक्षे विकार थाय ए निमित्त - नैमित्तिक संबंधने जाहेर करतो थको ए (संबंध) भगवान आत्मानो स्वभाव अकारक छे एम सिद्ध करे छे.
ए पर्यायबुद्धिमां निमित्तना लक्षे विकार थाय ई एम प्रसिद्ध करे छे. आत्मानो स्वभाव तो अकारक ज छे. आहा... हा... हा!! को’ चेतनजी! चेतनजी कहे फरीने लेवुं! पाठ एवो छे फरीने लेवा जेवो हतो. आहा... हा...! आ समजाय एवुं छे हो! भाषा तो सादी छे. भाव भले जे झीणां होय!
आहा.... हा! ‘माटे नक्की थयुं के परद्रव्यनुं निमित्त छे’ आ ओला वांधा करे छे ने...’ निमित्त छे तेनाथी थाय! निमित्त छे पण तेनाथी थतुं नथी. ‘परद्रव्य निमित्त छे’ जोयुं? (एम अहीं कह्युं) ‘अने आत्माना रागादिभावो नैमित्तिक छे.’ आहा...हा...हा! ज्ञायक भगवान! अतीन्द्रिय आनंदनो नाथ प्रभु! सच्चिदानंद आव्या अंदर पूर्णानंदनो नाथ जे वस्तु छे ए पूर्ण शुद्ध छे. वस्तु पोते छे ई शुद्धने पवित्र ने पूरण छे. एवो भगवान अंदर आत्मा, ए पोताना आश्रये - लक्षे स्वभावे विकारनो अकर्ता छे.
त्यारे कहे के (विकार) थाय छे केम? के एनो पोतानो स्वभाव छे तेनी द्रष्टि छोडी दईने, निमित्तना लक्षे / जे निमित्त एना नथी. जेनामां ए छे एमां जेम छे एमां द्रष्टि न आपतां जे एमां नथी एमां द्रष्टि
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२१२ श्री प्रवचन रत्नो- १ आपतां/एनाथी थतो नथी (विकार) पण एना-निमित्तना लक्षे थाय छे. आहा.... हा... हा... हा... हा..! ‘माटे एम नककी थयुं के पर द्रव्य निमित्त छे’ हो? निमित्त छे, नथी एम नहीं ए जे लोको कहे के निमित्त... निमित्त छे.
भाई.... ए (पंडिते) नक्की कर्युं के सोनगढवाळा निमित्त नथी एम नथी कहेता परंतु निमित्तथी थातुं नथी परमां (कांई) एम (सोनगढ) कहे छे. वांधा आखा! जुओ न्यां परद्रव्य निमित्त छे. पण ‘निमित्त’ छे ने! ’ निमित्त तो पोते करे छे (विकार), विकार परने लक्षे कर्यो तो तेने निमित्त कहेवाणुं विकार कर्यो पोते ई कांई एनाथी (निमित्तथी) विकार थयो नथी. आहा.... हा! समजाणुं कांई...?
द्रव्य - परद्रव्य निमित्त छे, एटले के स्वद्रव्य जे उपादान छे शुद्ध चैतन्य मूर्ति भगवान? एनो तो आश्रय छे नहीं. आहा...हा...! एथी तेना आश्रय विना, द्रष्टि क्यांक तो पोतानुं अस्तित्व कबूलवुं जोईशे एथी स्वद्रव्यमां आश्रय विना, परद्रव्यना लक्षे विकार थयो ए मारो छे एम मानीने, अज्ञानपणे रागद्वेषनो कर्ता अज्ञानी थाय छे. आहाहा... हा... हा.!
आवुं यादे य रहे शी रीते? एक कलाक सुधी आवी वातुं प्रभु! आहा...! प्रभु तारी वातुं मोटी छे भगवान! भगवान छो तुं.... परमात्मा छो तुं! ईश्वर छो! ए तने तारी खबर नथी. आहा... हा...! तारी मोटपनी, महिमानी सर्वज्ञप्रभु पण पूरुं कही शके नहीं एवी प्रभु तारी महिमा- मोटप छे अंदर एक-एक आत्माओ! एवा भगवान आत्माओ बधां शरीरमां (शरीरादिथी) भिन्न भिन्न बिराजे छे. आहा... आहा..!
एवा भगवान आत्मानो स्वभाव दोषनो अकारक छे केम के दोष छे नहीं वस्तुमां. अनंता गुणो छे पण ई बधा पवित्र छे. तेथी तेनो कोई गुण दोष करे एवो गुण नथी. तेथी ते तेना द्रव्यना आश्रये दोष न थतां, जे द्रव्यमां नथी एवा पर द्रव्यो उपर लक्ष जतां - पर द्रव्य उपर लक्ष जतां हो! परद्रव्य (विकार) करावे छे एम नहीं आहा...हा...हा...! भगवान पूर्णानंदनो नाश अंदर, एना उपर लक्ष नहि होवाथी, एनुं लक्ष पर उपर जाय छे. पोतानुं अस्तित्व प्रभु पोतानी मोटाईनी खबर नथी, एथी एनुं लक्ष पर उपर जाय छे अनादिथी, ए परवस्तु छे ई निमित्त छे अने ए निमित्तथी थता भाव, पोताना पोताथी थाय छे. निमित्तथी नहीं, स्वभावथी नहि! समजाणुं कंई...?
‘परद्रव्य निमित्त छे अने आत्माना रागादिभावो नैमित्तिक छे’ ‘जो एम न मानवामां आवे तो’ - जो आम न मानवामां आवे तो द्रव्य-अप्रतिक्रमण अने द्रव्य-अप्रत्याख्याननो कर्तापणानां निमित्त तरीकेनो उपदेश निरर्थक ज थाय’ - जो आम न माने तो भगवाने एम कह्युं छे. के तारुं परद्रव्य उपर लक्ष जतां तने विकार थाय छे, तेथी तुं तेनो कर्ता थाछो आहा... हा... हा.! समजाणुं? वस्तु (आत्मद्रव्य) कर्ता छे नहीं, वस्तुतो आनंदकंद प्रभु छे आहा... हा... हा...!
शुं कह्युं? ‘जो एम न मानवामां आवे तो द्रव्य-अप्रतिक्रमण अने द्रव्य-अप्रत्याख्याननो कर्तापणानां निमित्त तरीकेनो उपदेश निरर्थक ज जाय, शुं कहे छे? एटले ए रागनो कर्ता छे. अज्ञानभावे रागनो कर्ता छे. ए निमित्तने लक्षे कर्ता छे. ‘अने ते निरर्थक थतां एक ज आत्माने रागादिभावोनुं निमित्तपणुं आवी पडतां’ आहा...! निमित्तने लक्षे रागद्वेष थाय छे ते वास्तविक छे. समजाणुं? एवो
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श्री प्रवचन रत्नो-१ २१३ उपदेश प्रभुनो छे ई बराबर छे. आहा... हा... अने ते निरर्थक थतां एक ज आत्माने रागादिभावोनुं निमित्त पणुं आवी पडतां ‘निमित्तने लक्षे विकार छे ई जो तुं न मान, तो एकलो आत्मा उपर आवी पडतां आत्मा विकार करे एवो तो ई ज नहीं. आहा...!
‘आत्माने रागादिभावोनुं निमित्तपणुं आवी पडतां’ निमित्तपणुं एटले? उपादान तो खरुं पण पोतापण एम. रागादि भावोनुं निमित्तपणुं एटले पोते कारणपणुं आवी पडतां ‘नित्य- कर्तापणानो प्रसंग आववाथी मोक्षनो अभाव ठरे.’ आहा... हा! भगवान नित्यानंद प्रभु! जो निमित्तनां लक्षे विकार थाय एवो निमित्त - (संबंधने) जाहेर करतां आत्मा अकारक छे ए सिद्ध छे. एम न होय तो, आत्मा रागनो कर्ता नित्य ठरे. ई तो पर्यायमां परने लक्षे करे छे क्षणिकमां पण एम जो न मान तो, आत्मा कर्ता तो आत्मा तो नित्य छे, आत्मा नित्य रागनो कर्ता थाय कोई दि’? तो तो धरम कोई दि’ थाय ज नहीं. समजाणुं एमां कांई...?
फरीने आहा...हा...! द्रव्य अने भाव प्रतिक्रमण अने अप्रत्याख्याननो -कर्तापणानो करे छे. अज्ञानभाव-राग-द्वेष एम कहे छे ए उपदेश छे ई निमित्त तरीकेनो उपदेश निरर्थक ज थाय, अने ते निरर्थक थतां एक आत्माने ज रागादिभावोनुं निमित्तपणुं आवी पडे’ निमित्त - नैमित्तिक संबंध विकार थाय छे. एम जो न मान, निमित्तने लक्ष थतो विकार एम जो न मान तो आत्मा उपर कर्तापणुं आवी पडे, तो आत्मा नित्य छे तो आत्मा नित्य विकारने करे तो कोई दि’ विकारनो अभाव थाय नहीं ने एम कोई दि’ बनतुं नथी. आहा... हा.. हा! समजाय छे आमां? रात्रे चर्चा बंध छे नहितर तो चर्चा थाय आ बधी रात्रे चर्चा बंध छे ने
शु कीधुं ई? द्रव्य अने भावनो कर्तापणानो निमित्त तरीकेनो उपदेश, परने लक्षे विकार थाय छे एवो जे उपदेश छे, ए निरर्थक ज थाय. एकलो आत्मा (विकार) करे तो.... अने ‘ते निरर्थक थतां एक ज आत्माने रागादिभावोनुं निमित्तपणुं आवी पडे’ एकला आत्माने परना लक्ष विना, पुण्य - पापनो भाव आवी पडे ने कर्ता थाय तोतो आत्मा नित्य छे तो विकार पण नित्य करे तो तो विकारथतां एने कोई दि’ दुःख मटे नहीं, कोई दि’ सुखी थाय नहीं, धरम थाय नहीं अने मोक्ष थाय ज नहीं समजाणुं आमां?
आहा...हा...! ‘एक ज आत्माने रागादिभावोनुं निमित्तपणुं आवी पडे’ शुं कीधुं? ओलुं निमित्तने लक्षे विकार थाय छे एम जो तुं न मान तो एकला आत्माने रागादिनुं कर्तापणुं आवी पडतां, आत्मा नित्य छे तो नित्यकर्ता ठरी जाय. ई वीतराग स्वरूप छे एने रागपणानुं कर्तापणुं सिद्ध थई जाय. आहा... हा.. हा.. हा! गजबनी वात छे.
आहा...! ‘एक ज आत्माने रागादिभावोनुं निमित्तपणुं’ निमित्त एटले कारण, आत्माने रागद्वेषनुं कारणपणुं आवी पडे! निमित्तने लक्षे नैमित्तिक जाहेर करतां आत्मा अकारक छे एम जो न करे, आत्मा एकलो रागनोकर्ता ठरतां, आत्मा नित्य छे तो रागनो कर्ता नित्य ठरे!
‘निमित्तपणुं आवी पडतां नित्यकर्तापणानो प्रसंग आववाथी मोक्षनो अभाव ठरे’ तो मोक्ष कोई दि’ थाय ज नहीं आत्मानो थई रह्युं! आहा... हा..! शुं कीधुं ई... ? के निमित्त उपर लक्ष जो निमित्त
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२१४ श्री प्रवचन रत्नो- १ पर वस्तु छे. जेम तुं छो एम पर पण छे. ए परना लक्षे विकार थाय ई एम जाहेर करे छे के आत्मा अकारक छे. हवे एम जो तुं न मान तो निरर्थक उपदेश थाय. तो आत्मा एकलो रागनो कर्ता ठरतां निमित्त - नैमित्तिक संबंध न रह्यो! तो तो आत्मा रागनो कर्ता ठरतां, आत्मा रागनो नित्यकर्ता ठरे, कोई दि’ मोक्ष रहे नहीं. मोक्ष थाय नहीं कोई दि’ !
आ वाणियाने वेपारीओने आवी वातुं हवे! एकलो न्यायनो विषय छे! हुं ‘मोक्षनो अभाव ठरे’ पछी वात आवशे.
(प्रमाण वचन गुरुदेव)