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श्री प्रवचन रत्नो-१ १७
समयसार गाथा बे. पहेलो एक बोल चाल्यो छे. जीव केवो छे? ‘जीव-पदार्थ केवो छे? छे ने...? (टीकामां) ‘आ जीव-पदार्थ केवो छे?’ ए एक बोल चाल्यो.
बीजो बोल. ‘वळी जीव केवो छे?’ छे? वचमां. ‘नैयायिको अने वैशेषिको सत्ताने नित्य ज माने छे अने बौद्धो सत्ताने क्षणिक ज माने छे; तेमनुं निराकरण सत्ताने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप कहेवाथी थयुं’ त्यां सुधी तो आवी गयुं छे.
‘वळी जीव केवो छे? चैतन्यस्वरूपपणाथी’ -एनुं स्वरूप तो चैतन्य छे. जाणवुं-देखवुं एनुं कायम स्वरूप छे. ‘चैतन्यस्वरूपपणाथी नित्य उद्योतरूप छे’ चैतन्यना स्वरूपथी जीव नित्य प्रकाशमान छे. केवो छे जीव? के चैतन्यस्वरूपपणाथी नित्य प्रकाशमान, निर्मळ उद्योतरूप स्पष्ट-उद्योतरूप... निर्मळ अने स्पष्ट! ‘दर्शनज्ञान-ज्योतिस्वरूप छे’ ए त्रिकाळनी वात करी. त्रिकाळी तत्त्व आवुं छे.
ए हवे ठरे छे क्यारे शेमां, ए पछी लेशे. आवी चीज छे! ए दर्शनज्ञानमां स्थित थाय, तो एने स्वसमय कहेवाय एम सिद्ध करवुं छे.
आहा.. हा! नित्य उद्योतरूप निर्मळ स्पष्ट-प्रत्यक्ष दर्शनज्ञान ज्योतिस्वरूप छे. ई तो प्रत्यक्षदर्शनज्ञानज्योति त्रिकाळस्वरूप एनुं छे. नित्यउद्योतनिर्मळ छे. एवुं ई जीवद्रव्य छे एम सिद्ध करवुं छे. जीव-पदार्थ आवो छे. पछी शेमां स्थित थाय ए पछी कहेशे ए पर्यायमां.
‘आ विशेषणथी चैतन्यने ज्ञानाकारस्वरूप नहि माननार सांख्यमतीओनो निषेध थयो. कौंसमां कह्युं के कारणके चैतन्यनुं परिणमन दर्शन ज्ञानस्वरूप छे. चैतन्य लेवो छे ने...! ‘जाणनार- देखनार’ एनुं परिणमन दर्शनज्ञानरूप छे. चैतन्यनुं परिणमन दर्शनज्ञानरूप छे.
(श्रोताः) त्रणे काळे जीव केवो छे ते बताववुं छे? (उत्तरः) त्रणे काळे जीवद्रव्य छे ए चैतन्यस्वरूपपणाने लईने नित्य उद्योतरूप निर्मळ स्पष्ट दर्शनज्ञान-ज्योतिस्वरूप छे. एटले के चैतन्यनुं परिणमन दर्शनज्ञानस्वरूप छे. परिणमन नाख्युं अंदर एमां. आम तो त्रिकाळी बताववुं छे. त्रिकाळी दर्शनज्ञानस्वरूप छे. एनुं परिणमन दर्शनज्ञानमय छे.
आहा.. हा! अहींयां तो त्रिकाळी चैतन्य द्रव्यनी द्रष्टि करावीने, चैतन्यने अंर्त दर्शनज्ञानमां स्थित थयेलो ए आत्मा छे एम जणाववुं छे. त्रीजो बोल! वळी ते केवो छे प्रभु! जीव द्रव्य? ‘अनंत धर्मोमां रहेलुं जे एक धर्मीपणुं ‘आहा.. हा! अनंतथगुणोरूपी धर्मी! आहा..! अनंतगुणोरूपी धर्मी एमां जे रहेलुं एक धर्मीपणुं द्रव्य एक. अनंतगुणोमां केमके अनंतधर्म एवो एक एनो गुण छे. एथी अनंतधर्मोमां रहेलुं (जे) एक धर्मीपणुं-एकद्रव्यपणुं. एक द्रव्यमां अनंता गुणो रह्यां छे एथी एकरूप ते द्रव्य अनंतधर्मोमां एकरूपी धर्मी ते द्रव्य. छे ने...? ‘अनंतधर्मोमां रहेलुं’ - धर्म शब्दे गुणने पर्याय अथवा त्रिकाळीगुणो (एवा) ‘अनंतधर्मोमां रहेलुं जे एक धर्मीपणुं तेने लीधे जेने द्रव्यपणुं प्रगट छे’ कारण के अनंत धर्मोनी एकता ते द्रव्यपणुं छे.’ कोई जुदी चीज नथी. ज्ञान, दर्शन जे गुण अपार छे,
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१८ श्री प्रवचन रत्नो-१ अनंत छे अने ते गुणो एकगुण ज्यां व्यापक छे त्यां अनंतगुणो व्यापक छे. एम कह्युं ने...! ए अनंतधर्मोमां रहेलुं एकधर्मीपणुं.
ए वस्तु ज छे आत्मा, एना गुणो अनंत, पण ते अनंतधर्मोनुं रूप एकधर्मीपणुं ते द्रव्य छे. आहा.. हा! एटले? ए धर्मो अनंत.. एनो कोई अंत नहीं. अने ए धर्मोमां दरेक धर्म व्यापक छे. एटले? के अनंतगुणो छे आत्मामां, तो ज्ञान छे उपर छे ने दर्शन हेठे, चारित्र हेठे शांति हेठे वीर्य हेठे एम एमां क्षेत्रभेद नथी. समजाणुं कांई...?
ज्यां ज्ञान छे त्यां दर्शन छे. आम व्यापक छे. एकेक गुणो अनंतधर्मोमां व्यापक छे. एकेक गुणो अनंतधर्मोमां रहेल छे. जेम आ रजकणो छे. उपरनुं रजकण ते नीचला रजकणनी हारे नथी, नीचलुं उपरनी हारे नथी. एम आत्मामां नथी. आत्मामां अनंत गुणो एमां एक गुण उपर छे ने पछी छे ने पछी छे ने एम नथी. पण अनंतगुणनो पिंड आम छे एम नथी एक-एक गुण सर्वगुणमां व्यापक छे.
आहा.. हा! जेम केरीमां रंगथी देखो तो सारी (आखी) केरी व्यापक छे. गंधथी देखोतो आखी केरी (गंधमय) व्यापक छे. केरी रसथी देखो तो आखी केरी व्यापक छे ने स्पर्शथी देखो तो आखी केरी स्पर्शमय व्यापक छे. एम नथी के केरीनो रस छे ए उपर रहे छे ने गंध छे ते हेठे छे, स्पर्श हेठे छे एम भाग नथी. समजाणुं कांई...?
गहन विषय छे! ए अनंता धर्मोमां रहेलुं एक धर्मी (पणुं) द्रव्य, अनंतधर्मोमां व्यापनारुं एम. आहा..! जेम धर्म एक अनंतमां व्यापक छे एम धर्मी-द्रव्य अनंतगुणमां व्यापक छे. आहा..! ‘अनंतधर्मोमां रहेलुं जे एक धर्मी पणुं तेने लीधे जेने द्रव्यपणुं प्रगट छे.’ - वस्तु ते प्रगट छे आहाहा’ कारणके अनंतधर्मोनी एकता ते द्रव्यपणुं छे’ ए खुलासो कर्यो (कौंस आपीने) कौंसमां ओलुं जरी चैतन्यनुं परिणमन नाख्युं छे ने... खरेखर तो नित्यदर्शनज्ञानस्वरूप सिद्ध करवुं छे आंही, आंही परिणमन सिद्ध नथी करवुं.
परिणमन सिद्ध नथी करवुं आंही तो वस्तु आवी छे एटलुं बस एटलुं! ई पछी स्थित केम थाय ई पछी परिणमननी दशा, ए पछी कहेशे. जे आ कौंसमां छे ने...? ‘कारणके चैतन्यनुं परिणमन दर्शनज्ञानस्वरूप छे’ (एम लख्युं छे) ई त्यां मेळ नथी खातो. शुं कह्युं समजाणुं?
आ नित्य केवुं छे ने आंही. वस्तु-जीव-पदार्थ, त्रिकाळजीवपदार्थ केवो छे? ए लई अने पछी ए स्थित थाय छे दर्शनज्ञानचारित्रमां ए परिणमन छे. समजाणुं कांई..? पाठे य छे ने... जुओ ने..! ‘चैतन्यस्वरूपपणाथी नित्य, उद्योतरूप, निर्मळ स्पष्ट दर्शनज्ञान-ज्योतिस्वरूप छे’ (आ पाठ छे)
अने आमां अनंतधर्मोमां रहेलुं ओहो हो! जे एक धर्मीपणुं तेन लीधे जेने द्रव्यपणुं प्रगट छे. केमके अनंत धर्मोनी एकता ते द्रव्यपणुं छे आ विशेषणथी वस्तुने धर्मोथीरहित-गुणोरहित माननार बौद्धमतीनो निषेध थयो. आ जीव-पदार्थ, जीवो ए शब्द छे ने..! एनी व्याख्या करे छे आ. ‘जीवो’ पछी चरित्तदंसणणाण ठिदो ए पछी पर्यायनी व्याख्या चालशे. समजाणुं कांई...?
आम तो जुवानिया सांभळे छे ने... आ तो आत्मानी वात छे आहा.. हा! एक कोर ‘तत्त्वार्थसूत्र’ मां एक कहे के उदयभाव ते जीव छे. छे ने..? तत्त्वार्थसूत्र पहेलो अध्याय.
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श्री प्रवचन रत्नो-१ १९ पुण्य-पाप, राग-द्वेष ए जीवतत्त्व, जीव छे केमके जीवनी पर्याय छे ने...!
एकबाजुं एम कहे छे क्षयोपशमभाव आदि भाव पण जीवमां नथी. ए द्रव्यनी अपेक्षाए वात छे.
एकबाजु एम कहे, के जीवना जे पर्यायो.. राग-द्वेष, पुण्य-पाप थाय छे ए बधां पुद्गल छे केम के एनामांथी नीकळी जाय छे ने एनी चीज नथी माटे. अने एने जीवतत्त्व कह्युं केम के एनी पर्यायमां एना अस्तित्वमां छे. कर्मना अस्तित्वमां रागद्वेष, पुण्यपाप नथी. समजाणुं कांई..?
आहाहा! आवी वात छे! एक कोर कहे, के जीवमां क्षायिकभाव नथी. ‘नियमसार’ .. ए त्रिकाळीद्रव्यनी अपेक्षाए..! क्षायिकभाव वस्तुमां क्यां छे? वस्तु परमपारिणामिकभाव एकरूप छे. क्षायिकभाव तो पर्याय छे. क्षायिकभाव जीवद्रव्यमां नथी. अने एककोर कहे के पर्यायमां राग-द्वेष ए जीवतत्त्व छे. कई अपेक्षाए.. (अपेक्षा) जाणवी जोईए ने.! पर्याय एनी छे एनामां थाय छे, पण वस्तुनो ‘स्वभाव नथी’ एथी एने काढी नाखीने... पुद्गलना परिणाम कह्यां.
अहींयां हवे जे छे ए तो एनां गुणोनी वात छे. पर्यायनी नथी. अरे! आवुं बधुं समजवुं...! आहा.. हा! ‘अनंत धर्मोनी एकता ते द्रव्यपणुं छे’ वस्तु ते अनंत गुणो जे छे अनेक, पर्यायनी अहीं वात नहीं अत्यारे! तेम पुण्य-पापना विकल्पो एनामां छे ज नहीं. वस्तुना गुणोमांय नथी ने वस्तुमां य नथी.
आहा.. हा! आवो जे जीव-पदार्थ! अनंतगुणोनुं एकरूप!! ते द्रव्य छे. एम कहीने ‘वस्तुने धर्मोथी रहित माननारनो निषेध कर्यो. हवे वळी ते केवो छे? हवे सिद्ध करे छे एनी पर्यायसहित.
‘क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्तता अनेक भावो जेनो स्वभाव होवाथी जेणे गुणपर्यायो अंगीकार कर्या छे’ आहा.. हा! क्रमरूप ए पर्याय छे. क्रमे.. क्रमे थती पर्याय... क्रमे थती-एक पछी एक, एक पछी एक ते थती, थती, थती ते एकपछी एक. एकपछी एक गमे ते एकपछी एक एम नहीं. जे थवानी छे ते एकपछी एक, ते ते रीते क्रमवर्ती छे ई... आहा..! लंबाई! .. एकधारा.. पर्याय लंबाई एटले आयत-एकपछी एक जे पर्याय थवानी छे ते. क्रमबद्ध एकपछी एक, क्रमवर्ती कहो, क्रमबद्ध कहो पण.. क्रमबद्धमां बधानो संबंध एकपछी एकनी जे थवानी एम आंही क्रमवर्तीमां वर्ते छे एटलुं. पण एमांय न्याय तो आवी जाय छे भाई..! क्रमे वर्ते छे. पर्याय एकसमये एक वर्ते ए ज वर्तशे. एकसमये वर्ते छे ते ज वर्तशे. एक क्रमे ई वर्तशे. एवो जेनो क्रमवर्ती, पर्यायनो धर्म छे. अने ते क्रमवर्ती पर्यायमां तेने परनी कोई अपेक्षा नथी. के पर होय तो आ क्रमवर्ती पर्याय थाय... एनो पोतानो क्रमवर्ती स्वभाव छे. समजाणुं कांई...?
आवुं झीणुं हवे समजवा क्यां नवरा थाय! एक तो आखो दि’ संसारना पाप आडे नवराश न मळे! आहा.. हा! सांभळवा मळे तो पाछुं कहे के जीवतत्त्व, राग द्वेष जीवतत्त्व! एककोर कहे के रागद्वेष पुद्गल तत्त्व! कई अपेक्षाथी कहे छे ज्ञान न करे ने एकांत मानी ल्ये के रागद्वेष जडना छे, जड ज छे ए खोटुं! अने ए राग वस्तुनो स्वभाव छे तेथी ए ते स्वभावमां छे ए य खोटुं!
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२० श्री प्रवचन रत्नो-१
आहा.. हा! ‘क्रमरूप अने अक्रमरूप’ जुओ! आव्युं... गुणो छे ई अक्रम छे आम तीच्छा अने पर्याय आम क्रमवर्ती छे आम... एकपछी एक पर्याय काळक्रमे आयत, अने आ (गुणो) अक्रमे छे. जेटला गुणो छे तेटला ए अक्रमे एकसाथे (छे) एकसाथे छे पण उपराउपर रहेला एम नहीं. बधा एकरूपे रहेला छे आम. तीरछा.. तीरछा नाम विस्तार... तीरछोविस्तार आत्मामां विस्तारतीरछो, पर्याय आयत आम लांबी एक पछी एक अने आ वस्तुना गुणो छे ए अक्रमे छे. एकसाथे अनंत आम तीरछा, छतांय ए तीरछा एक उपर एक पछी एक उपर एक, उपर पाथरेला एम नहीं. पाथरेला.. एम विस्तार नहीं. ए एक ज गुण ज्यां छे त्यां बधा गुणो व्यापेला हारे छे. छतां एक गुण बीजा गुणरूपे थयो नथी. सर्वे गुण असहाय! जेटला गुणो अनंत छे ई बधा असहाय छे! एने बीजा गुणनी सहाय नथी केमके ई सत् छे. असहाय छे, तीरछा रहेला छे माटे अक्रमे छे अने एकसाथ व्यापेला छे. एटले अनंतगुणोमां अनंत संख्याना तीरछामां आ पहेलो ने आ बीजो ने आ त्रीजो एम नथी.
आहा.. हा! जेम.. अनंतगुणोनी संख्यामां आ पहेलो, बीजो ने आ छेल्लो, एम गुणमां नथी. एम तीच्छामां गुणमां पण पहेलो आ ने बीजो आने त्रीजो आ एम एम तीरछा, एम पण नथी. समजाणुं?
फरीने...! वस्तु छे एना अनंत गुण छे. ए अनंत गुण.. एने काळभेद नथी. एकहारे छे. एकवात अने अनंतगुण छे एनो छेल्लो गुण अनंतमो क्यो? ए नथी. एटला अनंत संख्याए छे अने ते अनंत संख्याए छे ते.. एक-बे-त्रण आम जे रहे एम नथी रहेला. एकसमयमां तीच्छा व्यापक एकसाथे रहेला छे.
आहा.. हा! आ तो हजी ‘जीवो’ एनी व्याख्या करे छे. पहेलो शब्द पडयो छे ने (गाथानो) ‘जीवो’ आ तो वाणी वीतरागनी बापु! सर्वज्ञ, त्रणलोकना नाथनी वाणी ए संतो! जगतमां आडतिया थईने जाहेर करे छे. आडतिया छे भगवानना मालना. कारणके ‘पूरुं तो सर्वज्ञे जोयुं छे. प्रत्यक्ष! मुनिए पूरुं प्रत्यक्ष जोयुं नथी पण पूरा प्रत्यक्षनो एने प्रतीतने विश्वास छे.
आहा.. हा! ए विश्वास, अनुभूति सम्यग्द्रष्टिनी भूमिकामां- स्थिरवस्तुमां रहेला पाछा चारित्रनी ए भूमिकानी आ वात करी रह्या छे. आहा.. हा! ‘क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्तता’ प्रर्वतता नाम? क्रमे प्रवर्ते ई तो पर्याय भले! पण अक्रमे प्रवर्तता एटले एकहारे होय प्रवर्तता एटले रहेला अनंतगुणो छे एक्रमे प्रवर्तता. प्रवर्तता नाम अनेकअक्रमे परिणमे छे ई नहीं ए अत्यारे नथी वात. ई तो पर्यायमां ग्युं परिणमन. अने आ गुणो छे ते अक्रमरूपे प्रवर्तता, प्रवर्तता एटले रहेला.
आहा.. हा! अरे...! कोने? निजघरमां शुं छे एनी खबरुं न मळे! बाकी बधी वातुं बहारनी... आहा..! आवो प्रभु! केवो छे जीव-पदार्थ? के क्रमे-अक्रमे प्रवर्तता...
आहा.. हा! ‘अनेक भावो.’ छे? बे य अनेक भाव छे. क्रमे प्रवर्तती पर्यायो अनेक भावरूप छे. अने गुणो अक्रमे रहेला तिरछा एक साथे व्यापेला. आम ज्ञान ने दर्शनने आनंद ने.. एम नहीं. आम ज्ञान छे त्यां दर्शन छे त्यां आनंद छे. अनेकपणे प्रवर्तता-रहेला ‘अनेकभावो’ जेनो स्वभाव होवाथी’ जोयुं? पर्यायने गुण बेय जेनो स्वभाव होवाथी क्रमे प्रवर्तवुं एवो पण अनेक भाव एनो स्वभाव
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श्री प्रवचन रत्नो-१ २१ होवाथी, अने अक्रमे प्रवर्तवु-रहेवुं एनो स्वभाव होवाथी!
आहा.. हा! आ तो समयसार छे! भरतक्षेत्रनी छेल्लामां छेल्ली, ऊंचामां ऊंची चीज! आहा..! सत्ने प्रसिद्ध करनारी ए चीज छे ‘आ’
वाणियाने तो एनो एक धंधो! ई नुं ई बोल्या करे आखो दि’! एक जातनो धंधो तो आनुं आ ने आनुं आ, एमां कांई नवुं के तर्क कांई नहीं. आ लोढानो वेपार! आ लोढुं आवुं छे आनुं आम छे! ए भाई! जेने जे धंधो होय अमारे मास्तर कहेता, नै? मास्तर! अमे मास्तर बधा पंतु कहेवाय कहे. केम? आखो दि’ शीखववानुं ज होय एकनुं एक! एमां कोई नवुं के शीखववानुं तर्क न होय एमां! मास्तर हता ने...! ए कहेता’ ता. एम आ वाणिया य ते पंतु जेवा छे. एने य आखो दि’ शब्दो ते ने ते. पण तेमां शुं नवीन चीज छे?
(श्रोताः) वाणिया तो डाही जात छे. (उत्तरः) डाही जात छे बधी समजवा जेवी. कीधुं तुं ने आव्यो’ तो छोकरो एक वीस-पचीस लाखनो आसामी. दुकान नवी करी हशे तो मनने एम माराज’ ना दर्शन करी. में तो एटलुं पूछयुं एने के एला आ पचास, साठ, सीत्तेर वरस कहेवाय छे, ए शरीरना के आत्माना? (श्रोताः) मा’ राजने खबर. (उत्तरः) एक जुवान माणस आव्यो, वीस- पचीसलाखनो हतो. एने प्रेम तो आंही घणो ने...! माराज’ ना पगमां पडशु तो दुकान-दुकान सरखी चालशे. एवी एवी मान्यताओ बाकी तो थवानुं होय ते थाय त्यां क्यां अमारे लईने थाय छे.
आंही कहे छे आहा... हा! जीव-पदार्थ एवो छे के जेने पर्यायो क्रमवर्ती प्रवर्ते छे एनी अने जेना गुणो अक्रमे-... -साथे-तीच्छा आम.. (विस्तारक्रम) पर्याय आम... गुण आम एक साथे ए पण एकपछी एक एम गुण नहीं. एक गुण छे त्यां अनंत गुणो व्यापेलां छे बधां! आहा..हा! ए ‘विभु’ नामनो गुण छे. ने एमां ४७ शक्ति विभत्वगुण त्यां ज्ञान व्यापक छे त्यां बधुं व्यापक छे. आ... आ... एम अनंतगुण छे ते ज्ञान आंही, दर्शन आंही आनंद आंही थोकडो पडयो छे एम नथी. व्यापेलो थोकडो छे! ज्यां एक गुण छे त्यां अनंत गुण रहेलां छे! क्षेत्रथी तो रहेलां छे भावथी पण व्यापीने रहेलां छे.
आ ई ज कह्युं त्यां विकल्प-भेद नथी, ओलुं एकपछी एक ने आ (एकसाथ). एम आमां नथी. एम आ गुणो जे छे. एक तो एक शब्द वापर्यो के ‘क्रम अने अक्रम अनेकभावो’ एम कीधुं ने...! अनेक शब्द अनंत बेथी मांडीने अनेक कहेवाय छे. एटले वस्तु जे छे प्रभु आत्मा, एनी पर्यायो अनेक लांबी आम क्रमे प्रवर्ते. ते पण एकपछी एक, एकपछी एक, आडीआवळी नहीं अने वच्चमां पांचमे समये थवानी होय बीजे समये थाय बीजे समये थवानी पांचमे (समये थाय) एमे य नहीं.
आहा... हा! एवी क्रमे प्रवर्तती पर्याय, ए तो छे. ‘अनेक’ शब्द वापरीने अनेक कह्युं छे. एम अक्रमे प्रवर्तता गुणो पण अनंत! आहा... हा!
जरी ऊंडो विचार करे तो एने पत्तो लागे के ओहो... हो... हो! बीजा द्रव्यो तो एनी पासे रह्यां, जुदां! आ एक पोते छे. जे अनंत, अनंत, अनंत गुणोथी भरेलो, अने एक गुण छे त्यां बीजो गुण व्यापी रहेलो अने अनंत छे त्यां संख्यानो क्यांय छेडो नथी, क्षेत्रथी तो आत्मा (आ शरीर प्रमाण) एटलामां आवी गयो आत्मा. पण एनी शक्तिओ जे गुणो छे
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२२ श्री प्रवचन रत्नो-१ ए तो एटला अनंत छे के जेने एकपछी एक तो काळ लागु पडतो नथी, पण जेने आ छेल्लामां छेल्लो गुण छे एवुं त्यां लागु पडतुं नथी.
आहा... हा! एम ‘अनेक’ प्रवर्तता कह्युं. अनंतगुणो एकसाथे प्रवर्ते छे. विस्ताररूपे- तीरछारूपे आम. आहा... हा!
आ तो भई... ओगणसमी वार वंचाय छे. ए बधुं पछी... अढारवार तो वंचाई गयुं छे आ समयसार! आ तो ओगणीसमी वार शरू थयुं छे.
(श्रोताः) दरेक वखते जुदी जुदी रीते आवे? (उत्तरः) आवे! एकधारी वात छे? आहा... हा! ‘क्रमरूप अने अक्रमरूप प्रवर्तता’ एटले हयाति धरावता, एम समजाणुं? ‘अनेक भावो जेनो स्वभाव होवाथी’ अनेक एटले अनंत होवाथी जेणे गुणपर्यायो अंगीकार कर्या छे’ पदार्थ... एवी चीज छे के अनंतागुण अक्रमे अने ते पर्यायो क्रमे ए अंगीकार कर्या छे. एवो जे पदार्थ.
आहा... हा! ‘गुण ने पर्यायो जेणे अंगीकार कर्या छे एवो छे’ अने ४९मी गाथामां ‘अव्यक्त’ (ना बोलमां) एम कहे के जीवद्रव्य छे तेमां पर्याय आवती नथी. द्रव्य पर्यायने स्पर्शतुं नथी. पर्याय द्रव्यने स्पर्शती नथी. आहा... हा! बे नुं स्वतंत्र अस्तित्व स्द्धि करवा (कह्युं छे)
अने आंही तो ए जीव पोते छे आखो ए पोते गुणपर्यायो अंगीकार करेल छे. भाई...? आवुं झीणुं छे! एकवार समयसार सांभळ्युं छे ते आपणे सांभळ्युं छे बस! अरे... बापु! ए समयसार शुं चीज छे!! त्रणलोकना नाथ सर्वज्ञपरमात्मा एनुं प्रवचनसार छे ‘आ’ , आ ‘समयसार’ छे. आत्मसार! ओलुं प्रवचनसार एनी वाणीनो सार!
आवा अगाध गुण ने अगाध क्रम पर्यायो अनंती एनो जेणे अंगीकार कर्यो छे एटले के गुणपर्यायवाळुं द्रव्य छे एम. (ए आत्मद्रव्य) गुणपर्यायवाळुं द्रव्य छे. ‘तत्त्वार्थसूत्र’ मां आवे छे.
आहा... हा! ‘पर्याय क्रमवर्ती होय छे अने गुण सहवर्ती होय छे; सहवर्तीने अक्रमवर्ती पण कहे छे’ साथे रहेनारा अनंत गुणोने अक्रमवर्ती पण कहे छे. सहवर्ती एटले द्रव्यनी साथे रहेला एम नहीं. द्रव्यनी साथे रहेला माटे सहवर्ती एम नहीं. गुणो गुणो पोते एकसाथे रहेला माटे सहवर्ती! सहवर्ती, द्रव्यनी साथे (रहेला) जो सहवर्ती कहीए तो पर्याय पण द्रव्यमां साथे वर्ते छे! एटले आंही तो गुणो एकसाथे वर्ते छे, तीरछा अनंतगुणो भले संख्यानो पार न मळे छतां एकसमयमां साथे वर्ते छे. गुणो, गुणमां एकसाथे वर्ते ते सहवर्ती छे. गुण, द्रव्यमां एकसाथे वर्ते माटे सहवर्ती छे एम नहीं.
आहा... हा! ‘पंचाध्यायी’ मां छे ई. ‘पंचाध्यायी’ मां खुलासो कर्यो छे. आहा.. हा! ‘सहवर्तीने अक्रमवर्ती पण कहे छे. आ विशेषणथी जीवना विशेषण छे ने आ...!’ आ विशेषणथी पुरुषने निर्गुण माननार सांख्यमतीओनो निरास थयो.’ सांख्यमती कहे छे पुरुषनो निर्गुण छे. ए तो एना प्रकृतिना जे (गुण) छे सत्त्व, रज, तमोगुण ए एमां नथी. पण एना जे स्वभावरूप गुण छे ए एमां त्रिकाळ पडया छे. ई तो एने खबर नथी. गुणनुं एनुं आवे छे ने... सत्त्व, रज, तम! इतो प्रकृतिना गुणो, ई प्रकृतिना गुणो स्वभावमां ई छे अने अनंती पर्यायो छे. ए गुण ने पर्यायो जेणे अंगीकार कर्या छे एवुं ते-जीवद्रव्य छे.
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श्री प्रवचनो रत्नो-१ २३
आहा... हा! आमां केटलुं याद राखवुं? दुकानना धंधामां तो ई ने दाखला ने ई ने ई पलाखा. नवुं कांई शीखवानुं कांई न मळे! मजुर बेठो होय तो ई एय बोल्या करे ई ने ई. आनुं आटलुं ने आनुं आटलुं ने आनुं आटलुं (ई ने ई वात) एनो शेठ बेठो होय तो ई ए ए ज कर्या करे, बोल्या करे (ईनुंई)
आहा...! आ चीज तो बीजी छे बापु! आहा... हा! देहमां भिन्न जे पदार्थ कई रीते छे ने कई रीते एमां गुणोने पर्यायो प्रवर्ती रह्या छे?
पर्यायो क्रमे प्रवर्ती रही छे, गुणो एकसाथे-अक्रमे प्रवर्ती रह्या छे. माटे ते द्रव्यने गुणपर्यायोने अंगीकार करनारुं कहेवामां आवे छे.
आहा... हा! भाषा तो सादी छे, पण भाव तो जे होय ते होय ने...! (श्रोताः) बहुत गंभीर है! (उत्तरः) गंभीर है. आहा... हा! (श्रोताः) निमित्तथी तो पर्यायनो क्रम तोडीने थाय छे.
(उत्तरः) बिलकुल जूठी वात छे. ए ज अज्ञानीमां, मोटा वांधा! उपादानमां अनेक जातनी योग्यता छे निमित्त आवे एवुं थाय एम कहे छे, ए तद्न जूठी वात छे.
उपादानमां एक ज वातनी ते समये ते क्षणे उत्पन्न थवानो समय छे अने ते थशे. एक ज योग्यता छे, बीजी योग्यता छे ज नहीं. ए पंडित कहे छे बधा... उपादानमां घणी जातनी योग्यता छे, पाणीमां घणी जातनी योग्यता छे, रंग नाखो एवुं देखाशे. लीलो नाखो तो लीलुं, पीळो नांखो तो पीळुं ए वात तद्न खोटी छे.
आहा... हा! तत्त्वनी वातुं समजवी, सांभळवी ए बापु! बहु सूक्ष्म बापु! बाकी तो धूळधाणीने बधुं आवुं... संसार, हेरान थईने मरी ग्या छे! अनंत काळ काढयो, रखडतां!
पण रखडनारनी दशाने रखडनारना गुणो अने रखडनारो पोते कोण? केटलो? केवडो छे? जाण्यो नहीं. कां तो भूल थई छे कर्मे करावी छे आहा..! अने कां भूल छे ए मारो त्रिकाळीस्वभाव, गुण मारो छे ए दरेक भूल...
पर्यायमां भूल जे समये थवानी छे क्रमे तेनो काळ छे काळलब्धि छे ई. जे समये जे पर्याय थाय ए तेनी काळ लब्धि छे. अने ते तेनी निजक्षण छे. आहा... हा! मोक्षमार्गप्रकाशकमां तो त्यां सुधी (कह्युं छे) कह्युं’ तुं ते दि’ त्यांय के अरे...! जिनाज्ञा माने तो आवी अनीति संभवे नहीं, कर्मथी विकार थाय एम माने. जैननी आज्ञा जो माने तो आवी अनीति संभवे नहीं. ए वात थई’ ती ते दि’ पण अंदर... घणा वरसथी बेठेली ऊंघी (मान्यता), खसेडवुं कठण पडे माणसने...! पंडित थई गयेला होय मोटा, व्याकरण (श्रोताः) काशी जई आव्या होय! (उत्तरः) काशी थई आव्या होय के बनारस जई आव्या होय काशी करवत मूकी आव्या होय!
आ तो काशी-भगवान आंही छे. त्यां जाय तो एनी खबर पडे! एनी शी स्थिति छे. आहा... हा हा ‘वळी ते केवो छे प्रभु! ‘जीवो’ एनी व्याख्या हाले छे अत्यार सुधी. अने तेथी जे ४७ शक्तिओ छे एमा जे पहेलां ‘जीवत्त्वशक्ति’ छे ए आमांथी काढी छे. अमृतचंद्रआचार्ये टीका पोते
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२४ श्री प्रवचन रत्नो-१ करनार छे ने...! अमृतचंद्राचार्ये गजब काम कर्युं छे! कुंदकुंदाचार्ये, पंचमआराना तीर्थंकर जेवुं काम कर्युं छे, आणे (अमृतचंद्राचार्ये) गणघर जेवुं काम कर्युं छे.
टीका छे ने टीका तो एकहजारवरसथी छे. पाठमां जेवुं छे, जेवुं अंदरमां छे एवुं खोलीने मूक्युं छे आंही. आहा...! समाजनी जेने तुलना राखवानी दरकार नथी, के समाज आमां सरखी रीते बधां मानशे के नहीं माने एनी जेने दरकार नथी, सत्य आ छे. समाज समतुल रहो, बधां भेगां थईने मानो, भेगां न रहीने न मानो एनी साथे कोई संबंध नथी. आहा... हा!
(श्रोताः) निर्भयपणे कह्युं छे, एणे निर्भयताथी कह्युं? (उत्तरः) ए एणे निर्भयताथी नाखेलो पाठ छे शास्त्रमां कळश छे. राग-द्वेषने भेद विना, निर्भयपणे कापी नाखे छे एने. एवो पाठ छे मूळ पाठ छे. करवतनी पेठे, करवत होय ने...! निर्दयरीते भेद कापी नाखे छे. एटले के अनादिनो रागनो संबंध तेने निर्दय रीते भिन्न करी नाख्यो! आम. अनादिनो ‘बंधु’ तरीके (हतो) ‘परमात्मप्रकाश’ मां तो एम नाख्युं छे. ए पुण्य-पाप ए ‘बंधु’ हता अनादिना रहेला, हारे रहेला अनादिना ‘बंधु’ ए ‘बंधु’ नो घात करनारो आत्मा छे.
आहा... हा! अनादिकाळथी पुण्यने पाप ने मिथ्यात्व धारी राख्या हता एने एक क्षणमां भेदज्ञाने निर्दयरीते कापी नाख्यां! अहाहाहा!
आवी वस्तु छे! आहा...! ‘वळी ते केवो छे? पोताना अने परद्रव्योना आकारोने प्रकाशवानुं सामर्थ्य होवाथी’ जीवद्रव्यमां एटलुं सामर्थ्य-ताकात छे, के पोताना अने परद्रव्योना आकार एटले विशेषरूपो, ‘एने प्रकाशवानुं सामर्थ्य होवाथी जेणे समस्त रूपने प्रकाशनारुं एकरूपपणुं प्राप्त कर्युं छे’
आहाहा... हाहा ‘बधाने जाणवा छतां एकरूपे रहेलो छे’ ‘अनेकने जाणवा छतां अनेकपणे थयो नथी’ ‘अनेक ज्ञेयने जाणवा छतां अनेक ज्ञेयरूपे थयो नथी’ ‘अनेक ज्ञेयोने जाणवा छतां, ए ज्ञानरूप रहीने अनेक ज्ञेयोने जाण्या छे जेणे’ आहा... हा! कुंदकुंदाचार्ये समयसार बनाव्युं हशे! आहा... हा! ए हुं शरू करुं छुं. मारा ज्ञानमां, क्षयोपशममां जे भाव छे, ए रीते हुं जणाववा शरू करुं छुं वाणीनो विकल्प ने वाणी तो एने कारणे आवशे.
आहा... हा! आ तो भई निवृत्तिनुं काम छे, निवृत्ति लईने पछी आ वस्तु तद्न निवृत्तस्वरूप छे अंदर... एने जाणवा माटे भाई...! बहु वखत जोईए भाई नहितरएना जनम- मरण नहि मटे बापा! ए चोराशीना अवतार भाई...! आ देह छूटयो ने क्यां जशे! आहा... प्रभु! आ देह छूटशे पण आत्मानो नाश थशे? आत्मा तो रहेवानो छे आहा... हा! आ बधुं छूटी जशे तो रहेशे एकलो क्यां? आ मारां, मारां करीने ममताने मिथ्यात्वमां गाळ्यो वखत, मिथ्या भ्रममां रहेशे भविष्यमां. अहा... हा! अने ए भ्रमना फळ... रखडवाना... अवतार... कोई जाणेलां सगां-वहालां ज्यां नथी. कोई बायडी-छोकरां एनां नथी. कोई फई, फूवा, मासी, मासा त्यां नथी. आहा... हा! एकलडो जईने, एकलो मथशे ऊंघे रस्ते!
आहा... हा! ‘पोताना अने परद्रव्योना आकारो’ गुणने पर्यायो बधाने ‘प्रकाशवानुं सामर्थ्य
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श्री प्रवचन रत्नो-१ २प होवाथी जेणे समस्त रूपने-बधा रूपने स्वना द्रव्यगुणपर्याय, परना द्रव्य-गुणपर्याय बधाने जाणवारूपे प्रकाशनारुं ‘एकरूपपणुं प्राप्त कर्युं छे’ -एटला, अनंतज्ञेयोने जाणतां ज्ञाननो पर्याय अनेकरूपे- परनेरूपे थती नथी. ‘पोताना ज्ञाननी पर्यायरूपे एकपणे रहे छे.’ आहा... हा! समजाणुं कांई...?
अनेकने जाणवा काळे पण जीवनी पर्याय एकरूपे पोतानाज्ञानरूपे रहे छे. परज्ञेयरूपे अनेकने जाणवा छतां परज्ञेयरूपे ते ज्ञान थतुं नथी. अग्निने जाणतुं ज्ञान, अग्निरूपे थतुं नथी. ‘ज्ञान तो ज्ञानरूपे रहीने अग्निने जाणे छे’ आहा... हा! एम ज्ञान पोतारूपे रहीने अन्यज्ञेयोने जाणे छे ए अनंतज्ञेयने जाणतां, अनेकपणाना खंड-खंड थई ग्या छे ज्ञानमां एम नथी.
आहा... हा... हा! समयसार धर्मकथा छे बापु! आ तो भागवत-कथा! हें? (कहे छे) ‘एकपणुं प्राप्त कर्युं छे’ छे! ‘जेमां अनेक वस्तुओना आकार प्रतिभासे’ आकार प्रतिभासे कहेवुं ई पण निमित्तनी वात छे. ए तो पोतानुं पर्यायमां एटलुं सामर्थ्य छे के स्वने परने जाणवारूपे-ज्ञानरूपे पोते परिणमे छे. एवुं पोताना परिणमन-पर्यायनुं अस्तित्वनुं एटलुं सामर्थ्य छे.
पर छे माटे एने परने जाणे छे एमे य नथी. ए पर छे एना ते संबंधीनुं अस्तित्वनुं ज्ञाननी पर्यायनुं सामर्थ्य छे तेटला अस्तित्वनुं पोते पोतामां रहीने स्वने अने परने जाणतां अनेकरूपे परिणम्युं ज्ञान, एथी अनेक थई ग्युं छे एम नथी. ज्ञाननी पर्याय तो पोते एकरूप रही छे.
आहा...! ‘जेमां अनेक वस्तुओना भावो प्रतिभासे छे एवा एक ज्ञानना आकाररूप ते छे’ आहा...! आ विशेषणथी, आ बधा जीवना विशेषण कह्या ने...! जीववस्तु, एने विशेषणथी ओळखावी, के आवो जीव छे. आवो जीव छे एनां आ विशेषणो छे. विशेषवस्तु पोते एनां आ बधां विशेषणोथी ओळखावी.
आहा... हा! एक ‘जीवो’ एनी व्याख्या हाले छे आ. ‘जीवो चरित्तदंसणणाण ठिदो’ ए पछी (कहेशे) आहा...! अमृतचंद्राचार्य! जे कुंदकुंदाचार्यने मळ्या नहोतां. भगवान पासे गयां नहोतां. ए कुंदकुंदाचार्यना पेटमां... जे भाव कहेवाना हता भाषामां ए भाव खोल्या छे.
आहा... हा! आवी टीका! भरतक्षेत्रमां अत्यारे बीजे तो नथी पण दिगम्बरमां आ समयसार ने आवी टीका बीजे ठेकाणे नथी! आहा... हा! आखो एने हलावी नाखे एकवार! आहा...! परथी जुदो तुं प्रभु परथी जुदो!
परने जाणवा छतां पररूपे थईने जाणे छो एम नहीं. परने जाणवा काळे पण तारारूपे रहीने थईने तुं जाणे छे! भाई...? भाषा तो सहेली छे! आवी वातुं छे बापु शुं थाय?
आहा... हा हा परनुं कांई करी शकतो तो नथी, केमके परना आकारो अहीं कीधा ने... ते पररूपे छे. आ एम आव्युं ने...! ‘पोताना अने परद्रव्योना आकारोने’ परद्रव्य, परद्रव्यरूपे छे एना द्रव्यगुणपर्याय त्रणे. पोताना द्रव्यगुणपर्याय छे. एने ‘प्रकाशवानुं सामर्थ्य होवाथी’ पररूपे थईने नहीं. पोताना ज्ञानमांथी खसीने परने जाणे छे एम नहीं आहा...! पोताना ज्ञानना अस्तित्वमां रहीने, स्वने परना आकारोने जाणवा छतां ‘एकरूपे रहे छे’ ए एकनो बे थातो नथी.
आ ज्ञान पोताने जाणे ने परने नथी जाणतुं एक कहेनाराओनो निषेध कर्यो. ज्ञान पोताने ज
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२६ श्री प्रवचन रत्नो-१ जाणे छे, परने नथी जाणतुं! ‘परने जाणतुं नथी’ कई अपेक्षाए? परमां तन्मय थईने परने जाणवुं नथी.!
पण परने परमां तन्मय थया विना, पोतामां रहीने परने पर तरीके बराबर जाणे छे. (मतार्थीनो निषेध करेल छे)
आहा...! ‘आ विशेषणथी ज्ञान पोताने ज जाणे छे परने नथी जाणतुं ‘एम एकाकार ज माननारनो, तथा पोताने नथी जाणतुं पण परने जाणे छे. ‘एम अनेकाकार माननारनो व्यवच्छेद थयो’ - पोते पोताने नथी जाणतो परने ज जाणे छे एम माननारा छे आहा... हा! आ शरीर छे, आ वाणी छे, आ धंधो छे एने ज्ञान जाणे ई परने जाणे छे एम. पोताने नथी जाणतो अरे पण, परने जाणवाकाळे जाणनार पर्याय पोतानी छेके परनी छे?
ए पोतामां रहीने परने जाणे छे के पररूप थईने परने जाणे छे? ए पोतामां रहीने परने जाणे छे तो एनुं स्वरूप सिद्ध छे तो एने केम न जाणे?
आहा... हा! ‘तथा पोताने नथी जाणतुं पण परने जाणे छे एम अनेकाकार ज माननारनो व्यवच्छेद थयो ल्यो! आहा... हा!
विशेष कहेशे हवे.....
तन्मय छे, ज्ञेयमां तन्मय नथी. तेथी ज्ञानमां पोतानो
स्व-परप्रकाशक स्वभावज विस्तरे छे, तेमां परनो
विस्तार नथी. (आत्मधर्म अंक-६३९)
पोतेपोताने जाणे छे. जोके पोते पोताने जाणे छे एम
कहेवामां पण स्व-स्वामी अंशरूप व्यवहार छे. पोते
पोताने जाणवानुं कार्य करे ए पण भावक-भावना
भेदरूप सद्भूत व्यवहार छे परनुं करवुं तो क्यांय रह्युं,
परने जाणे ए तो असद्भूत व्यवहार छे पण पोते
पोताने जाणे ए पण स्व-स्वामीनो भेद पडतो
होवाथी सद्भूत व्यवहार छे. ज्ञायक तो ज्ञायक ज छे
ए निश्चय छे. (आत्धर्म अंक-६४२/४३)