Pravachansar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 174-189.

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यथोदितस्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषासंभावनया चैकाङ्गविकलत्वात् ।।१७३।।

अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो बन्धो भवतीति सिद्धान्तयति

रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि

दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ।।१७४।।
रूपादिकै रहितः पश्यति जानाति रूपादीनि
द्रव्याणि गुणांश्च यथा तथा बन्धस्तेन जानीहि ।।१७४।।

येन प्रकारेण रूपादिरहितो रूपीणि द्रव्याणि तद्गुणांश्च पश्यति जानाति च, तेनैव प्रकारेण रूपादिरहितो रूपिभिः कर्मपुद्गलैः किल बध्यते; अन्यथा कथममूर्तो मूर्तं पश्यति पौद्गलं कर्म कथं बध्नाति, न कथमपीति पूर्वपक्षः ।।१७३।। अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो नयविभागेन बन्धो भवतीति प्रत्युत्तरं ददाति ---रूवादिएहिं रहिदो अमूर्तपरमचिज्ज्योतिःपरिणतत्वेन तावदयमात्मा रूपादिरहितः तथाविधः सन् किं करोति पेच्छदि जाणादि मुक्तावस्थायां युगपत्परिच्छित्तिरूप- सामान्यविशेषग्राहककेवलदर्शनज्ञानोपयोगेन यद्यपि तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथापि ग्राह्यग्राहकलक्षण- संबन्धेन पश्यति जानाति कानि कर्मतापन्नानि रूवमादीणि दव्वाणि रूपरसगन्धस्पर्शसहितानि मूर्तद्रव्याणि न केवलं द्रव्याणि गुणे य जधा तद्गुणांश्च यथा अथवा यथा कश्चित्संसारी


विशेषनो असंभव होवाने लीधे एक अंग विकळ छे (अर्थात् बंधयोग्य बे अंगोमांथी एक अंग खामीवाळुं छेस्पर्शगुण विनानुं होवाथी बंधनी योग्यतावाळुं नथी). १७३.

हवे आत्मा अमूर्त होवा छतां तेने आ प्रमाणे बंध थाय छे एवो सिद्धांत नक्की करे छेः

जे रीत दर्शन -ज्ञान थाय रूपादिनुंगुण -द्रव्यनुं,
ते रीत बंधन जाण मूर्तिरहितने पण मूर्तनुं. १७४.

अन्वयार्थः[यथा] जे रीते [रूपादिकैः रहितः] रूपादिरहित (जीव) [रूपादीनि] रूपादिकने[द्रव्याणि गुणान् च] द्रव्योने तथा गुणोने (रूपी द्रव्योने तथा तेमना गुणोने) [पश्यति जानाति] देखे छे अने जाणे छे, [तथा] ते रीते [तेन] तेनी साथे (-अरूपीने रूपी साथे) [बंधः जानीहि] बंध जाण.

टीकाःजे प्रकारे रूपादिरहित (जीव) रूपी द्रव्योने तथा तेमना गुणोने देखे छे अने जाणे छे, ते ज प्रकारे रूपादिरहित (जीव) रूपी कर्मपुद्गलो साथे बंधाय छे; कारण


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जानाति चेत्यत्रापि पर्यनुयोगस्यानिवार्यत्वात् न चैतदत्यन्तदुर्घटत्वाद्दार्ष्टान्तिकीकृ तं, किं तु दृष्टान्तद्वारेणाबालगोपालप्रक टितम् तथाहियथा बालकस्य गोपालकस्य वा पृथगवस्थितं मृद्बलीवर्दं बलीवर्दं वा पश्यतो जानतश्च न बलीवर्देन सहास्ति संबन्धः, विषय- भावावस्थितबलीवर्दनिमित्तोपयोगाधिरूढबलीवर्दाकारदर्शनज्ञानसंबन्धो बलीवर्दसंबन्धव्यवहार- साधकस्त्वस्त्येव, तथा किलात्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलैः सहास्ति संबन्धः, एकावगाहभावावस्थितकर्मपुद्गलनिमित्तोपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभावसंबन्धः कर्मपुद्गलबन्ध- व्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव ।।१७४।। जीवो विशेषभेदज्ञानरहितः सन् काष्ठपाषाणाद्यचेतनजिनप्रतिमां दृष्टवा मदीयाराध्योऽयमिति मन्यते यद्यपि तत्र सत्तावलोकदर्शनेन सह प्रतिमायास्तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथापि परिच्छेद्यपरिच्छेदक- लक्षणसंबन्धोऽस्ति यथा वा समवसरणे प्रत्यक्षजिनेश्वरं दृष्टवा विशेषभेदज्ञानी मन्यते मदीयाराध्योऽयमिति तत्रापि यद्यप्यवलोक नज्ञानस्य जिनेश्वरेण सह तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथाप्या- राध्याराधकसंबन्धोऽस्ति तह बंधो तेण जाणीहि तथा बन्धं तेनैव दृष्टान्तेन जानीहि अयमत्रार्थः यद्यप्ययमात्मा निश्चयेनामूर्तस्तथाप्यनादिकर्मबन्धवशाद्व्यवहारेण मूर्तः सन् द्रव्यबन्धनिमित्तभूतं रागादि- विकल्परूपं भावबन्धोपयोगं करोति तस्मिन्सति मूर्तद्रव्यकर्मणा सह यद्यपि तादात्म्यसंबन्धो नास्ति


के जो एम न होय तो अहीं पण (देखवा -जाणवानी बाबतमां पण) ए प्रश्न अनिवार्य छे के अमूर्त मूर्तने कई रीते देखे छे अने जाणे छे?

वळी एम नथी के आ वात (अरूपीनो रूपी साथे बंध थवानी वात) अत्यंत दुर्घट छे तेथी तेने दार्ष्टांतरूप बनावी छे (द्रष्टांतथी समजावी छे), परंतु द्रष्टांत द्वारा आबालगोपाल सौने प्रगट थाय तेथी द्रष्टांत वडे समजाववामां आवी छे. ते आ प्रमाणेः जेवी रीते बाळने अथवा गोपाळने पृथक् रहेला माटीना वृषभने अथवा (साचा) वृषभने देखतां अने जाणतां वृषभ साथे संबंध नथी, तोपण *विषयपणे रहेलो वृषभ जेमनुं निमित्त छे एवां जे उपयोगमां आरूढ वृषभाकार दर्शन -ज्ञान तेमनी साथेनो संबंध वृषभ साथेना संबंधरूप व्यवहारनो साधक जरूर छे; तेवी रीते आत्मा अरूपीपणाने लीधे स्पर्शशून्य होवाथी तेने कर्मपुद्गलो साथे संबंध नथी, तोपण एकावगाहपणे रहेलां कर्मपुद्गलो जेमनुं निमित्त छे एवा जे उपयोगमां आरूढ रागद्वेषादिभावो तेमनी साथेनो संबंध कर्मपुद्गलो साथेना बंधरूप व्यवहारनो साधक जरूर छे.

भावार्थः‘आत्मा अमूर्तिक होवा छतां मूर्तिक कर्मपुद्गलो साथे केम बंधाय छे?’ एवा प्रश्ननो आचार्य भगवाने उत्तर आप्यो छे केआत्मा अमूर्तिक होवा छतां

*वृषभ अर्थात् बळद वृषभाकार दर्शन -ज्ञाननुं निमित्त छे.


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अथ भावबन्धस्वरूपं ज्ञापयति उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि

पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं सो बंधो ।।१७५।। तथापि पूर्वोक्तदृष्टान्तेन संश्लेषसंबन्धोऽस्तीति नास्ति दोषः ।।१७४।। एवं शुद्धबुद्धैकस्वभाव- जीवकथनमुख्यत्वेन प्रथमगाथा, मूर्तिरहितजीवस्य मूर्तकर्मणा सह कथं बन्धो भवतीति पूर्वपक्षरूपेण


मूर्तिक पदार्थोने केम जाणे छे? जे रीते ते मूर्तिक पदार्थोने जाणे छे ते ज रीते मूर्तिक कर्मपुद्गलो साथे बंधाय छे.

खरेखर अरूपी आत्माने रूपी पदार्थो साथे कांई संबंध नहि होवा छतां अरूपीने रूपी साथे संबंध होवानो व्यवहार पण विरोध पामतो नथी. ‘आत्मा मूर्तिक पदार्थने जाणे छे’ एम कहेवामां आवे छे त्यां परमार्थे अमूर्तिक आत्माने मूर्तिक पदार्थ साथे कांई संबंध नथी; आत्माने तो मात्र मूर्तिक पदार्थना आकारे थतुं जे ज्ञान तेनी साथे ज संबंध छे अने ते पदार्थाकार ज्ञान साथेना संबंधने लीधे ज ‘अमूर्तिक आत्मा मूर्तिक पदार्थने जाणे छे’ एवो अमूर्तिक -मूर्तिकना संबंधरूप व्यवहार सिद्ध थाय छे. एवी ज रीते, ‘अमुक आत्माने मूर्तिक कर्मपुद्गलो साथे बंध छे’ एम कहेवामां आवे छे त्यां परमार्थे अमूर्तिक आत्माने मूर्तिक कर्मपुद्गलो साथे कांई संबंध नथी; आत्माने तो कर्मपुद्गलो जेमां निमित्त छे एवा रागद्वेषादिभावो साथे ज संबंध (बंध) छे अने ते कर्मनिमित्तक रागद्वेषादिभावो साथे संबंध (बंध) होवाने लीधे ज ‘आ आत्माने मूर्तिक कर्मपुद्गलो साथे बंध छे’ एवो अमूर्तिक -मूर्तिकना बंधरूप व्यवहार सिद्ध थाय छे.

जोके मनुष्यने स्त्री -पुत्र -धनादिक साथे खरेखर कांई संबंध नथी, तेओ ते मनुष्यथी तद्दन भिन्न छे, तोपण स्त्री -पुत्र -धनादिक प्रत्ये राग करनारा मनुष्यने रागनुं बंधन होवाथी अने ते रागमां स्त्री -पुत्र -धनादिक निमित्त होवाथी ‘आ मनुष्यने स्त्री -पुत्र -धनादिकनुं बंधन छे’ एम व्यवहारथी जरूर कहेवामां आवे छे; तेवी ज रीते, जोके आत्माने कर्मपुद्गलो साथे खरेखर कांई संबंध नथी, तेओ आत्माथी तद्दन भिन्न छे, तोपण रागद्वेषादिभावो करनारा आत्माने रागद्वेषादिभावोनुं बंधन होवाथी अने ते भावोमां कर्मपुद्गलो निमित्त होवाथी ‘आ आत्माने कर्मपुद्गलोनुं बंधन छे’ एम व्यवहारथी जरूर कही शकाय छे. १७४.

हवे भावबंधनुं स्वरूप जणावे छेः

विधविध विषयो पामीने उपयोग -आत्मक जीव जे
प्रद्वेष -राग -विमोहभावे परिणमे, ते बंध छे. १७५.

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उपयोगमयो जीवो मुह्यति रज्यति वा प्रद्वेष्टि
प्राप्य विविधान् विषयान् यो हि पुनस्तैः स बन्धः ।।१७५।।

अयमात्मा सर्व एव तावत्सविकल्पनिर्विकल्पपरिच्छेदात्मकत्वादुपयोगमयः तत्र यो हि नाम नानाकारान् परिच्छेद्यानर्थानासाद्य मोहं वा रागं वा द्वेषं वा समुपैति स नाम तैः परप्रत्ययैरपि मोहरागद्वेषैरुपरक्तात्मस्वभावत्वान्नीलपीतरक्तोपाश्रयप्रत्ययनीलपीतरक्तत्वैरुपरक्त- स्वभावः स्फ टिकमणिरिव स्वयमेक एव तद्भावद्वितीयत्वाद्बन्धो भवति ।।१७५।। द्वितीया, तत्परिहाररूपेण तृतीया चेति गाथात्रयेण प्रथमस्थलं गतम् अथ रागद्वेषमोहलक्षणं भावबन्ध- स्वरूपमाख्यातिउवओगमओ जीवो उपयोगमयो जीवः, अयं जीवो निश्चयनयेन विशुद्धज्ञान- दर्शनोपयोगमयस्तावत्तथाभूतोऽप्यनादिबन्धवशात्सोपाधिस्फ टिकवत् परोपाधिभावेन परिणतः सन् किं करोति मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि मुह्यति रज्यति वा प्रद्वेष्टि द्वेषं करोति किं कृत्वा पूर्वं पप्पा प्राप्य कान् विविधे विसये निर्विषयपरमात्मस्वरूपभावनाविपक्षभूतान्विविधपञ्चेन्द्रियविषयान् जो हि पुणो यः पुनरित्थंभूतोऽस्ति जीवो हि स्फु टं, तेहिं संबंधो तैः संबद्धो भवति, तैः पूर्वोक्तराग- द्वेषमोहैः कर्तृभूतैर्मोहरागद्वेषरहितजीवस्य शुद्धपरिणामलक्षणं परमधर्ममलभमानः सन् स जीवो बद्धो भवतीति अत्र योऽसौ रागद्वेषमोहपरिणामः स एव भावबन्ध इत्यर्थः ।।१७५।। अथ भावबन्ध-

अन्वयार्थः[यः हि पुनः] जे [उपयोगमयः जीवः] उपयोगमय जीव [विविधान् विषयान्] विविध विषयो [प्राप्य] पामीने [मुह्यति] मोह करे छे, [रज्यति] राग करे छे [वा] अथवा [प्रद्वेष्टि] द्वेष करे छे, [सः] ते जीव [तैः] तेमना वडे (-मोहरागद्वेष वडे) [बन्धः] बंधरूप छे.

टीकाःप्रथम तो आ आत्मा आखोय उपयोगमय छे, कारण के ते सविकल्प अने निर्विकल्प प्रतिभासस्वरूप छे (अर्थात् ज्ञान अने दर्शनस्वरूप छे). तेमां जे आत्मा विविधाकार प्रतिभास्य (विविध आकारवाळा प्रतिभासवायोग्य) पदार्थोने पामीने मोह, राग अथवा द्वेष करे छे, ते आत्माकाळो, पीळो अने रातो आश्रय जेमनुं निमित्त छे एवा काळापणा, पीळापणा अने रातापणा वडे उपरक्त स्वभाववाळा स्फटिकमणिनी माफक पर जेमनुं निमित्त छे एवा मोह, राग अने द्वेष वडे उपरक्त आत्मस्वभाववाळो होवाथी, पोते एकलो ज बंध (-बंधरूप) छे, कारण के मोहरागद्वेषादिभाव तेनुं द्वितीय छे. १७५.

१. आश्रय = जेमां स्फटिकमणि मूकेलो होय ते वस्तु.
२. उपरक्त = विकारी; मलिन; कलुषित.
३. द्वितीय = बीजु. [‘बंध तो बे वच्चे होय, एकलो आत्मा बंधस्वरूप केम होई शके?’ एवा प्रश्ननो
उत्तर ए छे के, एक तो आत्मा अने बीजो मोहरागद्वेषादिभावएम होवाथी, मोहरागद्वेषादिभाव वडे मलिन स्वभाववाळो आत्मा पोते ज भावबंध छे.]


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अथ भावबन्धयुक्तिं द्रव्यबन्धस्वरूपं च प्रज्ञापयति भावेण जेण जीवो पेच्छदि जाणादि आगदं विसये

रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो ।।१७६।।
भावेन येन जीवः पश्यति जानात्यागतं विषये
रज्यति तेनैव पुनर्बध्यते कर्मेत्युपदेशः ।।१७६।।

अयमात्मा साकारनिराकारपरिच्छेदात्मकत्वात्परिच्छेद्यतामापद्यमानमर्थजातं येनैव मोहरूपेण रागरूपेण द्वेषरूपेण वा भावेन पश्यति जानाति च तेनैवोपरज्यत एव योऽयमुपरागः स खलु स्निग्धरूक्षत्वस्थानीयो भावबन्धः अथ पुनस्तेनैव पौद्गलिकं कर्म युक्तिं द्रव्यबन्धस्वरूपं च प्रतिपादयतिभावेण जेण भावेन परिणामेन येन जीवो जीवः कर्ता पेच्छदि जाणादि निर्विकल्पदर्शनपरिणामेन पश्यति सविकल्पज्ञानपरिणामेन जानाति किं कर्मतापन्नं, आगदं विसये आगतं प्राप्तं किमपीष्टानिष्टं वस्तु पञ्चेन्द्रियविषये रज्जदि तेणेव पुणो रज्यते तेनैव पुनः आदिमध्यान्तवर्जितं रागादिदोषरहितं चिज्ज्योतिःस्वरूपं निजात्मद्रव्यमरोचमानस्तथैवाजानन् सन् समस्तरागादिविकल्पपरिहारेणाभावयंश्च तेनैव पूर्वोक्तज्ञानदर्शनोपयोगेन रज्यते रागं करोति इति भावबन्धयुक्तिः बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो तेन भावबन्धेन नवतरद्रव्यकर्म बध्नातीति

हवे भावबंधनी युक्ति अने द्रव्यबंधनुं स्वरूप कहे छेः

जे भावथी देखे अने जाणे विषयगत अर्थने,
तेनाथी छे उपरक्तता; वळी कर्मबंधन ते वडे.१७६.

अन्वयार्थः[जीवः] जीव [येन भावेन] जे भावथी [विषये आगतं] विषयमां आवेल पदार्थने [पश्यति जानाति] देखे छे अने जाणे छे, [तेन एव] तेनाथी ज [रज्यति] उपरक्त थाय छे; [पुनः] वळी तेनाथी ज [कर्म बध्यते] कर्म बंधाय छे;[इति] एम [उपदेशः] उपदेश छे.

टीकाःआ आत्मा साकार अने निराकार प्रतिभासस्वरूप (ज्ञान अने दर्शन- स्वरूप) होवाथी प्रतिभास्य (-प्रतिभासवायोग्य) पदार्थ समूहने जे मोहरूप, रागरूप के द्वेषरूप भावथी देखे छे अने जाणे छे, तेनाथी ज उपरक्त थाय छे. जे आ उपराग (-मलिनता, विकार) छे ते खरेखर *स्निग्ध -रूक्षत्वस्थानीय भावबंध छे. वळी तेनाथी ज

*स्निग्ध -रूक्षत्वस्थानीय = स्निग्धता अने रूक्षता समान. (जेम पुद्गलमां विशिष्ट स्निग्धता -रूक्षता
ते बंध छे, तेम जीवमां रागद्वेषरूप विकार ते भावबंध छे.)


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बध्यत एव इत्येष भावबन्धप्रत्ययो द्रव्यबन्धः ।।१७६।।

अथ पुद्गलजीवतदुभयबन्धस्वरूपं ज्ञापयति

फासेहिं पोग्गलाणं बंधो जीवस्स रागमादीहिं
अण्णोण्णमवगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो ।।१७७।।
स्पर्शैः पुद्गलानां बन्धो जीवस्य रागादिभिः
अन्योन्यमवगाहः पुद्गलजीवात्मको भणितः ।।१७७।।

यस्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षत्वस्पर्शविशेषैरेकत्वपरिणामः स केवलपुद्गलबन्धः यस्तु जीवस्यौपाधिकमोहरागद्वेषपर्यायैरेकत्वपरिणामः स केवलजीवबन्धः यः पुनः जीव- द्रव्यबन्धस्वरूपं चेत्युपदेशः ।।१७६।। एवं भावबन्धकथनमुख्यतया गाथाद्वयेन द्वितीयस्थलं गतम् अथ पूर्वनवतरपुद्गलद्रव्यकर्मणोः परस्परबन्धो, जीवस्य तु रागादिभावेन सह बन्धो, जीवस्यैव नवतर- द्रव्यकर्मणा सह चेति त्रिविधबन्धस्वरूपं प्रज्ञापयति ---फासेहिं पोग्गलाणं बंधो स्पर्शैः पुद्गलानां बन्धः पूर्वनवतरपुद्गलद्रव्यकर्मणोर्जीवगतरागादिभावनिमित्तेन स्वकीयस्निग्धरूक्षोपादानकारणेन च परस्पर- स्पर्शसंयोगेन योऽसौ बन्धः स पुद्गलबन्धः जीवस्स रागमादीहिं जीवस्य रागादिभिः निरुपराग- परमचैतन्यरूपनिजात्मतत्त्वभावनाच्युतस्य जीवस्य यद्रागादिभिः सह परिणमनं स जीवबन्ध इति अण्णोण्णमवगाहो पोग्गलजीवप्पगो भणिदो अन्योन्यस्यावगाहः पुद्गलजीवात्मको भणितः निर्विकार-


जरूर पौद्गलिक कर्म बंधाय छे. आम आ द्रव्यबंधनुं निमित्त भावबंध छे. १७६.

हवे पुद्गलबंधनुं स्वरूप, जीवबंधनुं स्वरूप अने ते बन्नेना बंधनुं स्वरूप जणावे छेः

रागादि सह आत्मा तणो, ने स्पर्श सह पुद्गल तणो,
अन्योन्य जे अवगाह तेने बंध उभयात्मक कह्यो.१७७.

अन्वयार्थः[स्पर्शैः] स्पर्शो साथे [पुद्गलानां बन्धः] पुद्गलोनो बंध, [रागादिभिः जीवस्य] रागादिक साथे जीवनो बंध अने [अन्योन्यम् अवगाह्ः] अन्योन्य अवगाह ते [पुद्गलजीवात्मकः भणितः] पुद्गलजीवात्मक बंध कहेवामां आव्यो छे.

टीकाःप्रथम तो अहीं, कर्मने जे स्निग्धता -रूक्षतारूप स्पर्शविशेषो (-खास स्पर्शो) साथे एकत्वपरिणाम ते केवळ पुद्गलबंध छे; अने जीवने जे औपाधिक मोह -राग- द्वेषरूप पर्यायो साथे एकत्वपरिणाम ते केवळ जीवबंध छे; वळी जीव अने कर्मपुद्गलने


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कर्मपुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टतरः परस्परमवगाहः स तदुभय- बन्धः ।।१७७।।

अथ द्रव्यबन्धस्य भावबन्धहेतुकत्वमुज्जीवयति
सपदेसो सो अप्पा तेसु पदेसेसु पोग्गला काया
पविसंति जहाजोग्गं चिट्ठंति य जंति बज्झंति ।।१७८।।
सप्रदेशः स आत्मा तेषु प्रदेशेषु पुद्गलाः कायाः
प्रविशन्ति यथायोग्यं तिष्ठन्ति च यान्ति बध्यन्ते ।।१७८।।

अयमात्मा लोकाकाशतुल्यासंख्येयप्रदेशत्वात्सप्रदेशः अथ तेषु तस्य प्रदेशेषु कायवाङ्मनोवर्गणालम्बनः परिस्पन्दो यथा भवति तथा कर्मपुद्गलकायाः स्वयमेव परिस्पन्द- स्वसंवेदनज्ञानरहितत्वेन स्निग्धरूक्षस्थानीयरागद्वेषपरिणतजीवस्य बन्धयोग्यस्निग्धरूक्षपरिणामपरिणत- पुद्गलस्य च योऽसौ परस्परावगाहलक्षणः स इत्थंभूतबन्धो जीवपुद्गलबन्ध इति त्रिविधबन्धलक्षणं ज्ञातव्यम् ।।१७७।। अथ ‘बन्धो जीवस्स रागमादीहिं’ पूर्वसूत्रे यदुक्तं तदेव रागत्वं द्रव्यबन्धस्य कारणमिति विशेषेण समर्थयतिसपदेसो सो अप्पा स प्रसिद्धात्मा लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेश- त्वात्तावत्सप्रदेशः तेसु पदेसेसु पोग्गला काया तेषु प्रदेशेषु कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलकायाः कर्तारः पविसंति प्रविशन्ति कथम् जहाजोग्गं मनोवचनकायवर्गणालम्बनवीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितात्मप्रदेशपरिस्पन्द-


जे परस्पर परिणामना निमित्तमात्रपणे विशिष्टतर परस्पर अवगाह ते उभयबंध छे [अर्थात् जीव अने कर्मपुद्गल एकबीजाने परिणाममां निमित्तमात्र थाय एवो (खास प्रकारनो) जे तेमनो एकक्षेत्रावगाहसंबंध ते पुद्गलजीवात्मक बंध छे]. १७७.

हवे द्रव्यबंधनो हेतु भावबंध छे एम प्रगट करे छेः

सप्रदेश छे ते जीव, जीवप्रदेशमां आवे अने पुद्गलसमूह रहे यथोचित, जाय छे, बंधाय छे.१७८.

अन्वयार्थः[सः आत्मा] ते आत्मा [सप्रदेशः] सप्रदेश छे; [तेषु प्रदेशेषु] प्रदेशोमां [पुद्गलाः कायाः] पुद्गलसमुहो [प्रविशन्ति] प्रवेशे छे, [यथायोग्यं तिष्ठन्ति] यथायोग्य रहे छे, [यान्ति] जाय छे [च] अने [बध्यन्ते] बंधाय छे.

टीकाःआ आत्मा लोकाकाशतुल्य असंख्य प्रदेशवाळो होवाथी सप्रदेश छे. तेना ए प्रदेशोमां कायवर्गणा, वचनवर्गणा अने मनोवर्गणाना आलंबनवाळो परिस्पंद (कंप)


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वन्तः प्रविशन्त्यपि तिष्ठन्त्यपि गच्छन्त्यपि च अस्ति चेज्जीवस्य मोहरागद्वेषरूपो भावो बध्यन्तेऽपि च ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य भावबन्धो हेतुः ।।१७८।।

अथ द्रव्यबन्धहेतुत्वेन रागपरिणाममात्रस्य भावबन्धस्य निश्चयबन्धत्वं साधयति
रत्तो बंधदि कम्मं मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा
एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ।।१७९।।
रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते कर्मभी रागरहितात्मा
एष बन्धसमासो जीवानां जानीहि निश्चयतः ।।१७९।।

यतो रागपरिणत एवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा बध्यते, न वैराग्यपरिणतः; अभिनवेन लक्षणयोगानुसारेण यथायोग्यम् न केवलं प्रविशन्ति चिट्ठंति हि प्रवेशानन्तरं स्वकीयस्थितिकालपर्यन्तं तिष्ठन्ति हि स्फु टम् न केवलं तिष्ठन्ति जंति स्वकीयोदयकालं प्राप्य फलं दत्वा गच्छन्ति, बज्झंति केवलज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपमोक्षप्रतिपक्षभूतबन्धस्य कारणं रागादिकं लब्ध्वा पुनरपि द्रव्यबन्ध- रूपेण बध्यन्ते च अत एतदायातं रागादिपरिणाम एव द्रव्यबन्धकारणमिति अथवा द्वितीय- व्याख्यानम्प्रविशन्ति प्रदेशबन्धास्तिष्ठन्ति स्थितिबन्धाः फलं दत्वा गच्छन्त्यनुभागबन्धा बध्यन्ते प्रकृ तिबन्धा इति ।।१७८।। एवं त्रिविधबन्धमुख्यतया सूत्रद्वयेन तृतीयस्थलं गतम् अथ द्रव्य- बन्धकारणत्वान्निश्चयेन रागादिविकल्परूपो भावबन्ध एव बन्ध इति प्रज्ञापयतिरत्तो बंधदि कम्मं रक्तो


जे प्रकारे थाय छे, ते प्रकारे कर्मपुद्गलना समूहो स्वयमेव परिस्पंदवाळा वर्तता थका प्रवेशे पण छे, रहे पण छे अने जाय पण छे; अने जो जीवने मोह -राग -द्वेषरूप भाव होय तो बंधाय पण छे. माटे नक्की थाय छे के द्रव्यबंधनो हेतु भावबंध छे. १७८.

हवे, रागपरिणाममात्र एवो जे भावबंध ते द्रव्यबंधनो हेतु होवाथी ते ज निश्चयबंध छे एम सिद्ध करे छेः

जीव रक्त बांधे कर्म, राग रहित जीव मुकाय छे;

आ जीव केरा बंधनो संक्षेप निश्चय जाणजे.१७९.

अन्वयार्थः[रक्तः] रागी आत्मा [कर्म बध्नाति] कर्म बांधे छे, [रागरहितात्मा] राग रहित आत्मा [कर्मभिः मुच्यते] कर्मथी मुकाय छे;[एषः] आ, [जीवानां] जीवोना [बन्धसमासः] बंधनो संक्षेप [निश्चयतः] निश्चयथी [जानीहि] जाण.

टीकाःरागपरिणत जीव ज नवा द्रव्यकर्मथी बंधाय छे, वैराग्यपरिणत बंधातो प्र. ४३


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द्रव्यकर्मणा रागपरिणतो न मुच्यते, वैराग्यपरिणत एव; बध्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसञ्चितेन पुराणेन च न मुच्यते रागपरिणतः; मुच्यत एव संस्पृशतैवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसञ्चितेन पुराणेन च वैराग्यपरिणतो न बध्यते; ततोऽवधार्यते द्रव्यबन्धस्य साधकतमत्वाद्रागपरिणाम एव निश्चयेन बन्धः ।।१७९।।

अथ परिणामस्य द्रव्यबन्धसाधकतमरागविशिष्टत्वं सविशेषं प्रकटयति परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो

असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो ।।१८०।।
परिणामाद्बन्धः परिणामो रागद्वेषमोहयुतः
अशुभौ मोहप्रद्वेषौ शुभो वाशुभो भवति रागः ।।१८०।।

बध्नाति कर्म रक्त एव कर्म बध्नाति, न च वैराग्यपरिणतः मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा मुच्यते कर्मभ्यां रागरहितात्मा मुच्यत एव शुभाशुभकर्मभ्यां रागरहितात्मा, न च बध्यते एसो बंधसमासो एष प्रत्यक्षीभूतो बन्धसंक्षेपः जीवाणं जीवानां सम्बन्धी जाण णिच्छयदो जानीहि त्वं हे शिष्य, निश्चयतो निश्चयनयाभिप्रायेणेति एवं रागपरिणाम एव बन्धकारणं ज्ञात्वा समस्तरागादिविकल्पजालत्यागेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्त्वे निरन्तरं भावना कर्तव्येति ।।१७९।। अथ जीवपरिणामस्य


नथी; रागपरिणत जीव नवा द्रव्यकर्मथी मुकातो नथी, वैराग्यपरिणत ज मुकाय छे; राग- परिणत जीव संस्पर्श करता (-संबंधमां आवता) एवा नवा द्रव्यकर्मथी अने चिरसंचित (लांबा काळथी संचय पामेला) एवा जूना द्रव्यकर्मथी बंधाय ज छे, मुकातो नथी; वैराग्यपरिणत जीव संस्पर्श करता (-संबंधमां आवता) एवा नवा द्रव्यकर्मथी अने चिरसंचित एवा जूना द्रव्यकर्मथी मुकाय ज छे, बंधातो नथी; माटे नक्की थाय छे के द्रव्यबंधनो साधकतम (-उत्कृष्ट हेतु) होवाथी रागपरिणाम ज निश्चयथी बंध छे. १७९.

हवे परिणामनुं द्रव्यबंधना साधकतम रागथी विशिष्टपणुं सविशेष प्रगट करे छे (अर्थात् परिणाम द्रव्यबंधना उत्कृष्ट हेतुभूत रागथी विशेषतावाळो होय छे एम भेदो सहित प्रगट करे छे)ः

परिणामथी छे बंध, राग -विमोह -द्वेषथी युक्त जे;
छे मोह -द्वेष अशुभ, राग अशुभ वा शुभ होय छे. १८०.

अन्वयार्थः[परिणामात् बन्धः] परिणामथी बंध छे, [परिणामः रागद्वेषमोहयुतः] (जे) परिणाम राग -द्वेष -मोहयुक्त छे. [मोहप्रद्वेषौ अशुभौ] (तेमां) मोह अने द्वेष अशुभ


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द्रव्यबन्धोऽस्ति तावद्विशिष्टपरिणामात् विशिष्टत्वं तु परिणामस्य रागद्वेषमोहमय- त्वेन तच्च शुभाशुभत्वेन द्वैतानुवर्ति तत्र मोहद्वेषमयत्वेनाशुभत्वं, रागमयत्वेन तु शुभत्वं चाशुभत्वं च विशुद्धिसंक्लेशाङ्गत्वेन रागस्य द्वैविध्यात् भवति ।।१८०।।

अथ विशिष्टपरिणामविशेषमविशिष्टपरिणामं च कारणे कार्यमुपचर्य कार्यत्वेन निर्दिशति सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भणिदमण्णेसु

परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ।।१८१।। द्रव्यबन्धसाधकं रागाद्युपाधिजनितभेदं दर्शयतिपरिणामादो बंधो परिणामात्सकाशाद्बन्धो भवति स च परिणामः किंविशिष्टः परिणामो रागदोसमोहजुदो वीतरागपरमात्मनो विलक्षणत्वेन परिणामो रागद्वेष- मोहोपाधित्रयेण संयुक्तः असुहो मोहपदोसो अशुभौ मोहप्रद्वेषौ परोपाधिजनितपरिणामत्रयमध्ये मोह- प्रद्वेषद्वयमशुभम् सुहो व असुहो हवदि रागो शुभोऽशुभो वा भवति रागः पञ्चपरमेष्ठयादिभक्तिरूपः शुभराग उच्यते, विषयकषायरूपश्चाशुभ इति अयं परिणामः सर्वोऽपि सोपाधित्वात् बन्धहेतुरिति ज्ञात्वाबन्धे शुभाशुभसमस्तरागद्वेषविनाशार्थं समस्तरागाद्युपाधिरहिते सहजानन्दैकलक्षणसुखामृतस्वभावे निजात्मद्रव्ये भावना कर्तव्येति तात्पर्यम् ।।१८०।। अथ द्रव्यरूपपुण्यपापबन्धकारणत्वाच्छुभाशुभपरिणामयोः पुण्यपापसंज्ञां शुभाशुभरहितशुद्धोपयोगपरिणामस्य मोक्षकारणत्वं च कथयतिसुहपरिणामो पुण्णं छे, [रागः] राग [शुभः वा अशुभः] शुभ अथवा अशुभ [भवति] होय छे.

टीकाःप्रथम तो द्रव्यबंध विशिष्ट परिणामथी होय छे. परिणामनुं विशिष्टपणुं राग -द्वेष -मोहमयपणाने लीधे छे. ते शुभ अने अशुभपणाने लीधे द्वैतने अनुसरे छे. त्यां, मोह -द्वेषमयपणा वडे अशुभपणुं होय छे, अने रागमयपणा वडे शुभपणुं तेम ज अशुभपणुं होय छे कारण के राग विशुद्धि तेम ज संक्लेशवाळो होवाथी द्विविध होय छे. १८०.

हवे विशिष्ट परिणामना भेदने तथा अविशिष्ट परिणामने, कारणमां कार्यनो उपचार करीने कार्यपणे दर्शावे छेः

पर मांही शुभ परिणाम पुण्य, अशुभ परमां पाप छे;
निजद्रव्यगत परिणाम समये दुःखक्षयनो हेतु छे.१८१.

१. मोहमय परिणाम तेम ज द्वेषमय परिणाम अशुभ छे.
२. धर्मानुराग विशुद्धिवाळो होवाथी धर्मानुरागमय परिणाम शुभ छे; विषयानुराग संकलेशवाळो होवाथी
विषयानुरागमय परिणाम अशुभ छे.


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शुभपरिणामः पुण्यमशुभः पापमिति भणितमन्येषु
परिणामोऽनन्यगतो दुःखक्षयकारणं समये ।।१८१।।

द्विविधस्तावत्परिणामः, परद्रव्यप्रवृत्तः स्वद्रव्यप्रवृत्तश्च तत्र परद्रव्यप्रवृत्तः परोप- रक्तत्वाद्विशिष्टपरिणामः, स्वद्रव्यप्रवृत्तस्तु परानुपरक्तत्वादविशिष्टपरिणामः तत्रोक्तौ द्वौ विशिष्टपरिणामस्य विशेषौ, शुभपरिणामोऽशुभपरिणामश्च तत्र पुण्यपुद्गलबन्धकारणात्वात् शुभपरिणामः पुण्यं, पापपुद्गलबन्धकारणत्वादशुभपरिणामः पापम् अविशिष्टपरिणामस्य तु शुद्धत्वेनैकत्वान्नास्ति विशेषः स काले संसारदुःखहेतुकर्मपुद्गलक्षयकारणत्वात्संसार- दुःखहेतुकर्मपुद्गलक्षयात्मको मोक्ष एव ।।१८१।। द्रव्यपुण्यबन्धकारणत्वाच्छुभपरिणामः पुण्यं भण्यते असुहो पावं ति भणिदं द्रव्यपापबन्धकारणत्वाद- शुभपरिणामः पापं भण्यते केषु विषयेषु योऽसौ शुभाशुभपरिणामः अण्णेसु निजशुद्धात्मनः सकाशादन्येषु शुभाशुभबहिर्द्रव्येषु परिणामो णण्णगदो परिणामो नान्यगतोऽनन्यगतः स्वस्वरूपस्थ इत्यर्थंः स इत्थंभूतः शुद्धपयोगलक्षणः परिणामः दुक्खक्खयकारणं दुःखक्षयकारणं दुःखक्षयाभिधान- मोक्षस्य कारणं भणिदो भणितः क्व भणितः समये परमागमे लब्धिकाले वा किंच, मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभपरिणामो भवतीति पूर्वं भणितमास्ते, अविरत- देशविरतप्रमत्तसंयतसंज्ञगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभपरिणामश्च भणितः, अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुण- स्थानेषु तारतम्येन शुद्धोपयोगोऽपि भणितः नयविवक्षायां मिथ्यादृष्टयादिक्षीणक षायान्तगुणस्थानेषु

अन्वयार्थः[अन्येषु] पर प्रत्ये [शुभपरिणामः] शुभ परिणाम [पुण्यम्] पुण्य छे अने [अशुभः] (पर प्रत्ये) अशुभ परिणाम [पापम्] पाप छे [इति भणितम्] एम कह्युं छे; [अनन्यगतः परिणामः] पर प्रत्ये नहि प्रवर्ततो एवो परिणाम [समये] समये [दुःखक्षयकारणम्] दुःखक्षयनुं कारण छे.

टीकाःप्रथम तो परिणाम द्विविध छेपरद्रव्यप्रवृत्त (परद्रव्य प्रत्ये प्रवर्ततो) अने स्वद्रव्यप्रवृत्त. तेमां परद्रव्यप्रवृत्त परिणाम पर वडे उपरक्त (-परना निमित्ते विकारी) होवाथी विशिष्ट परिणाम छे अने स्वद्रव्यप्रवृत्त परिणाम पर वडे उपरक्त नहि होवाथी अविशिष्ट परिणाम छे. त्यां विशिष्ट परिणामना पूर्वोक्त बे भेद छेः शुभ परिणाम अने अशुभ परिणाम. तेमां, पुण्यरूप पुद्गलना बंधनुं कारण होवाथी शुभ परिणाम पुण्य छे अने पापरूप पुद्गलना बंधनुं कारण होवाथी अशुभ परिणाम पाप छे. अविशिष्ट परिणाम तो शुद्ध होवाथी एक छे तेथी तेना भेद नथी. ते (अविशिष्ट परिणाम), काळे संसारदुःखना हेतुभूत कर्मपुद्गलना क्षयनुं कारण होवाथी, संसार -दुःखना हेतुभूत कर्मपुद्गलना क्षयस्वरूप मोक्ष ज छे.


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अथ जीवस्य स्वपरद्रव्यप्रवृत्तिनिवृत्तिसिद्धये स्वपरविभागं दर्शयति भणिदा पुढविप्पमुहा जीवणिकायाध थावरा य तसा

अण्णा ते जीवादो जीवो वि य तेहिंदो अण्णो ।।१८२।।
भणिताः पृथिवीप्रमुखा जीवनिकाया अथ स्थावराश्च त्रसाः
अन्ये ते जीवाज्जीवोऽपि च तेभ्योऽन्यः ।।१८२।।

पुनरशुद्धनिश्चयनयो भवत्येव तत्राशुद्धनिश्चयमध्ये शुद्धोपयोगः कथं लभ्यत इति शिष्येण पूर्वपक्षे कृते सति प्रत्युत्तरं ददातिवस्त्वेकदेशपरीक्षा तावन्नयलक्षणं, शुभाशुभशुद्धद्रव्यावलम्बनमुपयोग- लक्षणं चेति; तेन कारणेनाशुद्धनिश्चयमध्येऽपि शुद्धात्मावलम्बनत्वात् शुद्धध्येयत्वात् शुद्धसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगपरिणामो लभ्यत इति नयलक्षणमुपयोगलक्षणं च यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यम् अत्र योऽसौ रागादिविकल्पोपाधिरहितसमाधिलक्षणशुद्धोपयोगो मुक्तिकारणं भणितः स तु शुद्धात्मद्रव्य- लक्षणाद्धयेयभूताच्छुद्धपारिणामिकभावादभेदप्रधानद्रव्यार्थिकनयेनाभिन्नोऽपि भेदप्रधानपर्यायार्थिकनयेन भिन्नः कस्मादिति चेत् अयमेकदेशनिरावरणत्वेन क्षायोपशमिकखण्डज्ञानव्यक्तिरूपः, स च पारिणामिकः सकलावरणरहितत्वेनाखण्डज्ञानव्यक्तिरूपः; अयं तु सादिसान्तत्वेन विनश्वरः, स च अनाद्यनन्तत्वेनाविनश्वरः यदि पुनरेकान्तेनाभेदो भवति तर्हि घटोत्पत्तौ मृत्पिण्डविनाशवत् ध्यानपर्यायविनाशे मोक्षे जाते सति ध्येयरूपपारिणामिकस्यापि विनाशो भवतीत्यर्थः तत एव ज्ञायते शुद्धपारिणामिकभावो ध्येयरूपो भवति, ध्यानभावनारूपो न भवति कस्मात् ध्यानस्य विनश्वरत्वादिति ।।१८१।। एवं द्रव्यबन्धकारणत्वात् मिथ्यात्वरागादिविकल्परूपो भावबन्ध एव निश्चयेन

भावार्थःपर प्रत्ये प्रवर्ततो एवो शुभ परिणाम ते पुण्यनुं कारण छे अने अशुभ परिणाम ते पापनुं कारण छे तेथी, कारणमां कार्यनो उपचार करीए तो, शुभ परिणाम ते पुण्य छे अने अशुभ परिणाम ते पाप छे. स्वात्मद्रव्यमां प्रवर्ततो एवो शुद्ध परिणाम ते मोक्षनुं कारण छे तेथी, कारणमां कार्यनो उपचार करीए तो, शुद्ध परिणाम ते मोक्ष छे. १८१.

हवे जीवने स्वद्रव्यमां प्रवृत्ति अने परद्रव्यथी निवृत्तिनी सिद्धिने माटे स्वपरनो विभाग दर्शावे छेः

स्थावर अने त्रस पृथ्वीआदिक जीवकाय कहेल जे,
ते जीवथी छे अन्य तेम ज जीव तेथी अन्य छे.१८२.

अन्वयार्थः[अथ] हवे [स्थावराः च त्रसाः] स्थावर अने त्रस एवा जे [पृथिवीप्रमुखाः] पृथ्वीआदिक [जीवनिकायाः] जीवनिकायो [भणिताः] कहेवामां आव्या छे, [ते] ते [जीवात् अन्ये] जीवथी अन्य छे [च] अने [जीवः अपि] जीव पण [तेभ्यः अन्यः] तेमनाथी अन्य छे.


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य एते पृथिवीप्रभृतयः षड्जीवनिकायास्त्रसस्थावरभेदेनाभ्युपगम्यन्ते ते खल्व- चेतनत्वादन्ये जीवात्, जीवोऽपि च चेतनत्वादन्यस्तेभ्यः अत्र षड्जीवनिकाया आत्मनः परद्रव्यमेक एवात्मा स्वद्रव्यम् ।।१८२।।

अथ जीवस्य स्वपरद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तत्वेन स्वपरविभागज्ञानाज्ञाने अवधारयति

जो णवि जाणदि एवं परमप्पाणं सहावमासेज्ज
कीरदि अज्झवसाणं अहं ममेदं ति मोहादो ।।१८३।।
यो नैव जानात्येवं परमात्मानं स्वभावमासाद्य
कुरुतेऽध्यवसानमहं ममेदमिति मोहात् ।।१८३।।

बन्ध इति कथनमुख्यतया गाथात्रयेण चतुर्थस्थलं गतम् अथ जीवस्य स्वद्रव्यप्रवृत्तिपरद्रव्य- निवृत्तिनिमित्तं षड्जीवनिकायैः सह भेदविज्ञानं दर्शयति --भणिदा पुढविप्पमुहा भणिताः परमागमे कथिताः पृथिवीप्रमुखाः ते के जीवणिकाया जीवसमूहाः अध अथ कथंभूताः थावरा य तसा स्थावराश्च त्रसाः ते च किंविशिष्टाः अण्णा ते अन्ये भिन्नास्ते कस्मात् जीवादो शुद्धबुद्धैकजीवस्वभावात् जीवो वि य तेहिंदो अण्णो जीवोऽपि च तेभ्योऽन्य इति तथाहिटङ्कोत्कीर्णज्ञायकैक स्वभावपरमात्म- तत्त्वभावनारहितेन जीवेन यदुपार्जितं त्रसस्थावरनामकर्म तदुदयजनितत्वादचेतनत्वाच्च त्रसस्थावर- जीवनिकायाः शुद्धचैतन्यस्वभावजीवाद्भिन्नाः जीवोऽपि च तेभ्यो विलक्षणत्वाद्भिन्न इति अत्रैवं भेदविज्ञाने जाते सति मोक्षार्थी जीवः स्वद्रव्ये प्रवृत्तिं परद्रव्ये निवृत्तिं च करोतीति भावार्थः ।।१८२।।

टीकाःजे आ पृथ्वी वगेरे षट् जीवनिकायो त्रस अने स्थावर एवा भेदपूर्वक मानवामां आवे छे, ते खरेखर अचेतनपणाने लीधे जीवथी अन्य छे अने जीव पण चेतनपणाने लीधे तेमनाथी अन्य छे. अहीं (एम कह्युं के), षट् जीवनिकाय आत्माने परद्रव्य छे, आत्मा एक ज स्वद्रव्य छे. १८२.

हवे जीवने स्वद्रव्यमां प्रवृत्तिनुं निमित्त स्वपरना विभागनुं ज्ञान छे अने परद्रव्यमां प्रवृत्तिनुं निमित्त स्व -परना विभागनुं अज्ञान छे एम नक्की करे छेः

परने स्वने नहि जाणतो ए रीत पामी स्वभावने,
ते ‘आ हुं, आ मुज’ एम अध्यवसान मोह थकी करे.१८३.

अन्वयार्थः[यः] जे [एवं] ए रीते [स्वभावम् आसाद्य] स्वभावने पामीने (जीवपुद्गलना स्वभावने नक्की करीने) [परम् आत्मानं] परने अने स्वने [न एव जानाति] जाणतो नथी, [मोहात्] ते मोहथी ‘[अहम्] आ हुं छुं, [इदं मम] आ मारुं छे’ [इति] एम [अध्यवसानं] अध्यवसान [कुरुते] करे छे.


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यो हि नाम नैवं प्रतिनियतचेतनाचेतनत्वस्वभावेन जीवपुद्गलयोः स्वपरविभागं पश्यति स एवाहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन परद्रव्यमध्यवस्यति मोहान्नान्यः अतो जीवस्य परद्रव्य- प्रवृत्तिनिमित्तं स्वपरपरिच्छेदाभावमात्रमेव, सामर्थ्यात्स्वद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तं तदभावः ।।१८३।।

अथात्मनः किं कर्मेति निरूपयति कुव्वं सभावमादा हवदि हि कत्ता सगस्स भावस्स पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।।१८४।।

कुर्वन् स्वभावमात्मा भवति हि कर्ता स्वकस्य भावस्य
पुद्गलद्रव्यमयानां न तु कर्ता सर्वभावानाम् ।।१८४।।

अथैतदेव भेदविज्ञानं प्रकारान्तरेण द्रढयतिजो णवि जाणदि एवं यः कर्ता नैव जानात्येवं पूर्वोक्तप्रकारेण कम् परं षड्जीवनिकायादिपरद्रव्यं, अप्पाणं निर्दोषिपरमात्मद्रव्यरूपं निजात्मानम् किं कृत्वा सहावमासेज्ज शुद्धोपयोगलक्षणनिजशुद्धस्वभावमाश्रित्य कीरदि अज्झवसाणं स पुरुषः करोत्यध्यवसानं परिणामम् केन रूपेण अहं ममेदं ति अहं ममेदमिति ममकाराहंकारादिरहित- परमात्मभावनाच्युतो भूत्वा परद्रव्यं रागादिकमहमिति देहादिकं ममेतिरूपेण कस्मात् मोहादो मोहाधीनत्वादिति ततः स्थितमेतत्स्वपरभेदविज्ञानबलेन स्वसंवेदनज्ञानी जीवः स्वद्रव्ये रतिं परद्रव्ये

टीकाःजे आत्मा ए रीते जीव अने पुद्गलना (पोतपोताना) निश्चित चेतनत्व अने अचेतनत्वरूप स्वभाव वडे स्व -परनो विभाग देखतो नथी, ते ज आत्मा ‘आ हुं छुं, आ मारुं छे’ एम मोहथी परद्रव्यमां पोतापणानुं अध्यवसान करे छे, बीजो नहि. आथी (एम नक्की थयुं के) जीवने परद्रव्यमां प्रवृत्तिनुं निमित्त स्वपरना ज्ञाननो अभावमात्र ज छे अने (कह्या विना पण) सामर्थ्यथी (एम नक्की थयुं के) स्वद्रव्यमां प्रवृत्तिनुं निमित्त *तेनो अभाव छे.

भावार्थःजेने स्वपरनुं भेदविज्ञान नथी ते ज परद्रव्यमां अहंकार ममकार करे छे, भेदविज्ञानी नहि. माटे परद्रव्यमां प्रवृत्तिनुं कारण भेदविज्ञाननो अभाव ज छे अने स्वद्रव्यमां प्रवृत्तिनुं कारण भेदविज्ञान ज छे. १८३.

हवे आत्मानुं कर्म शुं छे तेनुं निरूपण करे छेः

निज भाव करतो जीव छे कर्ता खरे निज भावनो;
पण ते नथी कर्ता सकल पुद्गलदरवमय भावनो. १८४.

*तेनो अभाव = स्व -परना ज्ञानना अभावनो अभाव; स्व -परना ज्ञाननो सद्भाव.


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आत्मा हि तावत्स्वं भावं करोति, तस्य स्वधर्मत्वादात्मनस्तथाभवनशक्ति- सम्भवेनावश्यमेव कार्यत्वात् स तं च स्वतन्त्रः कुर्वाणस्तस्य कर्तावश्यं स्यात्, क्रियमाण- श्चात्मना स्वो भावस्तेनाप्यत्वात्तस्य कर्मावश्यं स्यात् एवमात्मनः स्वपरिणामः कर्म त्वात्मा पुद्गलस्य भावान् करोति, तेषां परधर्मत्वादात्मनस्तथाभवनशक्त्यसम्भवेना- कार्यत्वात् स तानकुर्वाणो न तेषां कर्ता स्यात्, अक्रियमाणाश्चात्मना ते न तस्य कर्म स्युः एवमात्मनः पुद्गलपरिणामो न कर्म ।।१८४।।

अथ कथमात्मनः पुद्गलपरिणामो न कर्म स्यादिति सन्देहमपनुदति

गेण्हदि णेव ण मुंचदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि
जीवो पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु ।।१८५।।

निवृत्तिं करोतीति ।।१८३।। एवं भेदभावनाकथनमुख्यतया सूत्रद्वयेन पञ्चमस्थलं गतम् अथात्मनो निश्चयेन रागादिस्वपरिणाम एव कर्म, न च द्रव्यकर्मेति प्ररूपयतिकुव्वं सभावं कुर्वन्स्वभावम् अत्र स्वभावशब्देन यद्यपि शुद्धनिश्चयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावो भण्यते, तथापि कर्मबन्धप्रस्तावे रागादि- परिणामोऽप्यशुद्धनिश्चयेन स्वभावो भण्यते तं स्वभावं कुर्वन् स कः आदा आत्मा हवदि हि कत्ता कर्ता भवति हि स्फु टम् कस्य सगस्स भावस्स स्वकीयचिद्रूपस्वभावस्य रागादिपरिणामस्य तदेव तस्य

अन्वयार्थः[स्वभावं कुर्वन्] पोताना भावने करतो थको [आत्मा] आत्मा [हि] खरेखर [स्वकस्य भावस्य] पोताना भावनो [कर्ता भवति] कर्ता छे; [तु] परंतु [पुद्गलद्रव्यमयानां सर्वभावानां] पुद्गलद्रव्यमय सर्व भावोनो [कर्ता न] कर्ता नथी.

टीकाःप्रथम तो आत्मा खरेखर स्व भावने करे छे कारण के ते (भाव) तेनो स्व धर्म होवाथी आत्माने ते -रूपे थवानी (परिणमवानी) शक्तिनो संभव होवाने लीधे ते (भाव) अवश्यमेव आत्मानुं कार्य छे. (आम) ते (आत्मा) तेने (-स्व भावने) स्वतंत्रपणे करतो थको तेनो कर्ता अवश्य छे अने स्व भाव आत्मा वडे करातो थको आत्मा वडे प्राप्य होवाथी आत्मानुं कर्म अवश्य छे. आ रीते स्व परिणाम आत्मानुं कर्म छे.

परंतु, आत्मा पुद्गलना भावोने करतो नथी कारण के तेओ परना धर्मो होवाथी आत्माने ते -रूपे थवानी शक्तिनो असंभव होवाने लीधे तेओ आत्मानुं कार्य नथी. (आम) ते (आत्मा) तेमने नहि करतो थको तेमनो कर्ता नथी अने तेओ आत्मा वडे नहि कराता थका तेओ तेनुं कर्म नथी. आ रीते पुद्गलपरिणाम आत्मानुं कर्म नथी. १८४.

हवे, ‘पुद्गलपरिणाम आत्मानुं कर्म केम नथी’एवा संदेहने दूर करे छेः

जीव सर्व काळे पुद्गलोनी मध्यमां वर्ते भले,
पण नव ग्रहे, न तजे, करे नहि जीव पुद्गलकर्मने.१८५.

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गृह्नाति नैव न मुञ्चति करोति न हि पुद्गलानि कर्माणि
जीवः पुद्गलमध्ये वर्तमानोऽपि सर्वकालेषु ।।१८५।।

न खल्वात्मनः पुद्गलपरिणामः कर्म, परद्रव्योपादानहानशून्यत्वात् यो हि यस्य परिणमयिता दृष्टः स न तदुपादानहानशून्यो दृष्टः, यथाग्निरयःपिण्डस्य आत्मा तु तुल्यक्षेत्रवर्तित्वेऽपि परद्रव्योपादानहानशून्य एव ततो न स पुद्गलानां कर्मभावेन परिणमयिता स्यात् ।।१८५।।

अथात्मनः कुतस्तर्हि पुद्गलकर्मभिरुपादानं हानं चेति निरूपयति
स इदाणिं कत्ता सं सगपरिणामस्स दव्वजादस्स
आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलीहिं ।।१८६।।

रागादिपरिणामरूपं निश्चयेन भावकर्म भण्यते कस्मात् तत्पायःपिण्डवत्तेनात्मना प्राप्यत्वाद्व्या- प्यत्वादिति पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं चिद्रूपात्मनो विलक्षणानां पुद्गलद्रव्यमयानां न तु कर्ता सर्वभावानां ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मपर्यायाणामिति ततो ज्ञायते जीवस्य रागादिस्वपरिणाम एव कर्म, तस्यैव स कर्तेति ।।१८४।। अथात्मनः कथं द्रव्यकर्मरूपपरिणामः कर्म न स्यादिति प्रश्ने समाधानं ददातिगेण्हदि णेव ण मुंचदि क रेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि जीवो यथा निर्विकल्पसमाधिरतः परममुनिः

अन्वयार्थः[जीवः] जीव [सर्वकालेषु] सर्व काळे [पुद्गलमध्ये वर्तमानः अपि] पुद्गलनी मध्यमां रहेतो होवा छतां पण [पुद्गलानि कर्माणि] पौद्गलिक कर्मोने [हि] खरेखर [गृह्णाति न एव] ग्रहतो नथी, [मुञ्चति न] छोडतो नथी, [करोति न] करतो नथी.

टीकाःखरेखर पुद्गलपरिणाम आत्मानुं कर्म नथी, कारण के ते परद्रव्यनां ग्रहणत्याग विनानो छे; जे जेनो परिणमावनार जोवामां आवे छे, तेजेम अग्नि लोखंडना गोळानां ग्रहणत्याग विनानो छे तेमतेनां ग्रहणत्याग विनानो जोवामां आवतो नथी. आत्मा तो तुल्य क्षेत्रे वर्ततो होवा छतां पण (परद्रव्य साथे एकक्षेत्रावगाही होवा छतां पण) परद्रव्यनां ग्रहणत्याग विनानो ज छे. तेथी ते पुद्गलोने कर्मभावे परिणमावनार नथी. १८५.

त्यारे (जो आत्मा पुद्गलोने कर्मपणे परिणमावतो नथी तो पछी) आत्मा कई रीते पुद्गलकर्मो वडे ग्रहाय छे अने मुकाय छे तेनुं हवे निरूपण करे छेः

ते हाल द्रव्यजनित निज परिणामनो कर्ता बने,
तेथी ग्रहाय अने कदापि मुकाय छे कर्मो वडे.१८६.
प्र. ४४

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स इदानीं कर्ता सन् स्वकपरिणामस्य द्रव्यजातस्य
आदीयते कदाचिद्विमुच्यते कर्मधूलिभिः ।।१८६।।

सोऽयमात्मा परद्रव्योपादानहानशून्योऽपि साम्प्रतं संसारावस्थायां निमित्तमात्रीकृत- परद्रव्यपरिणामस्य स्वपरिणाममात्रस्य द्रव्यत्वभूतत्वात्केवलस्य कलयन् कर्तृत्वं, तदेव तस्य स्वपरिणामं निमित्तमात्रीकृत्योपात्तकर्मपरिणामाभिः पुद्गलधूलीभिर्विशिष्टावगाहरूपेणोपादीयते कदाचिन्मुच्यते च ।।१८६।। परभावं न गृह्णाति न मुञ्चति न च करोत्युपादानरूपेण लोहपिण्डो वाग्निं तथायमात्मा न च गृह्णाति न च मुञ्चति न च करोत्युपादानरूपेण पुद्गलकर्माणीति किं कुर्वन्नपि पोग्गलमज्झे वट्टण्णवि सव्वकालेसु क्षीरनीरन्यायेन पुद्गलमध्ये वर्त्तमानोऽपि सर्वकालेषु अनेन कि मुक्तं भवति यथा सिद्धो भगवान् पुद्गलमध्ये वर्त्तमानोऽपि परद्रव्यग्रहणमोचनकरणरहितस्तथा शुद्धनिश्चयेन शक्तिरूपेण संसारी जीवोऽपीति भावार्थः ।।१८५।। अथ यद्ययमात्मा पुद्गलकर्म न करोति न च मुञ्चति तर्हि बन्धः कथं, तर्हि मोक्षोऽपि कथमिति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति --स इदाणिं कत्ता सं स इदानीं कर्ता सन् स पूर्वोक्तलक्षण आत्मा, इदानीं कोऽर्थः एवं पूर्वोक्त नयविभागेन, कर्ता सन् कस्य सगपरिणामस्स निर्विकारनित्या-

अन्वयार्थः[सः] ते [इदानीं] हमणां (संसारावस्थामां) [द्रव्यजातस्य] द्रव्यथी (आत्मद्रव्यथी) उत्पन्न थता [स्वकपरिणामस्य] (अशुद्ध) स्वपरिणामनो [कर्ता सन्] कर्ता थतो थको [कर्मधूलिभिः] कर्मरज वडे [आदीयते] ग्रहाय छे अने [कदाचित् विमुच्यते] कदाचित् मुकाय छे.

टीकाःते आ आत्मा परद्रव्यनां ग्रहणत्याग विनानो होवा छतां पण हमणां संसार -अवस्थामां, परद्रव्यपरिणामने निमित्तमात्र करता एवा केवळ स्वपरिणाममात्रनुं ते स्वपरिणाम द्रव्यत्वभूत होवाथीकर्तापणुं अनुभवतो थको, तेना ए ज स्वपरिणामने निमित्तमात्र करीने कर्मपरिणामने पामती एवी पुद्गलरज वडे विशिष्ट अवगाहरूपे ग्रहाय छे अने कदाचित् मुकाय छे.

भावार्थःहमणां संसारदशामां जीव पौद्गलिक कर्मपरिणामने निमित्तमात्र करीने पोताना अशुद्ध परिणामनो ज कर्ता थाय छे (कारण के ते अशुद्ध परिणाम स्वद्रव्यथी उत्पन्न थाय छे), परद्रव्यनो कर्ता थतो नथी. आम जीव पोताना अशुद्ध परिणामनो कर्ता थतां, जीवना ते ज अशुद्ध परिणामने निमित्तमात्र करीने कर्मरूपे परिणमती पुद्गलरज खास अवगाहरूपे जीवने *ग्रहे छे अने क्यारेक (स्थिति अनुसार रहीने अथवा जीवना शुद्ध परिणामने निमित्तमात्र करीने) छोडे छे. १८६.

*कर्मपरिणत पुद्गलोनुं जीव साथे खास अवगाहरूपे रहेवुं तेने ज अहीं कर्मपुद्गलो वडे जीवनुं
‘ग्रहावुं’ कह्युं छे.


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अथ किं कृ तं पुद्गलक र्मणां वैचित्र्यमिति निरूपयति

परिणमदि जदा अप्पा सुहम्हि असुहम्हि रागदोसजुदो तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहिं ।।१८७।।

परिणमति यदात्मा शुभेऽशुभे रागद्वेषयुतः
तं प्रविशति कर्मरजो ज्ञानावरणादिभावैः ।।१८७।।

अस्ति खल्वात्मनः शुभाशुभपरिणामकाले स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यकर्मपुद्गलपरिणामः, नवघनाम्बुनो भूमिसंयोगपरिणामकाले समुपात्तवैचित्र्यान्यपुद्गलपरिणामवत् तथाहियथा यदा नवघनाम्बु भूमिसंयोगेन परिणमति तदान्ये पुद्गलाः स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यैः नन्दैकलक्षणपरमसुखामृतव्यक्तिरूपकार्यसमयसारसाधकनिश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसारविलक्षणस्य मिथ्यात्वरागादिविभावरूपस्य स्वकीयपरिणामस्य पुनरपि किंविशिष्टस्य दव्वजादस्स स्वकीयात्म- द्रव्योपादानकारणजातस्य आदीयदे कदाई कम्मधूलीहिं आदीयते बध्यते काभिः कर्मधूलीभिः कर्तृ- भूताभिः कदाचित्पूर्वोक्तविभावपरिणामकाले न केवलमादीयते, विमुच्चदे विशेषेण मुच्यते त्यज्यते ताभिः कर्मधूलीभिः कदाचित्पूर्वोक्तकारणसमयसारपरिणतिकाले एतावता किमुक्तं भवति अशुद्ध- परिणामेन बध्यते शुद्धपरिणामेन मुच्यत इति ।।१८६।। अथ यथा द्रव्यकर्माणि निश्चयेन स्वयमेवोत्पद्यन्ते तथा ज्ञानावरणादिविचित्रभेदरूपेणापि स्वयमेव परिणमन्तीति कथयति ---परिणमदि जदा अप्पा परिणमति यदात्मा समस्तशुभाशुभपरद्रव्यविषये परमोपेक्षालक्षणं शुद्धोपयोगपरिणामं मुक्त्वा यदायमात्मा परिणमति क्व सुहम्हि असुहम्हि शुभेऽशुभे वा परिणामे कथंभूतः सन् रागदोसजुदो

हवे पुद्गलकर्मोना वैचित्र्यने (ज्ञानावरण, दर्शनावरण इत्यादि अनेकप्रकारताने) कोण करे छे तेनुं निरूपण करे छेः

जीव रागद्वेषथी युक्त ज्यारे परिणमे शुभ -अशुभमां,
ज्ञानावरणइत्यादिभावे कर्मधूलि प्रवेश त्यां. १८७.

अन्वयार्थः[यदा] ज्यारे [आत्मा] आत्मा [रागद्वेषयुतः] रागद्वेषयुक्त थयो थको [शुभे अशुभे] शुभ अने अशुभमां [परिणमति] परिणमे छे, त्यारे [कर्मरजः] कर्मरज [ज्ञानावरणादिभावैः] ज्ञानावरणादिभावे [तं] तेनामां [प्रविशति] प्रवेशे छे.

टीकाःजेम नवा मेघजळना भूमिसंयोगरूप परिणामना काळे स्वयमेव वैचित्र्यने पामेला अन्यपुद्गलपरिणाम (अन्य पुद्गलना परिणाम) होय छे, तेम आत्माना शुभाशुभ परिणामना काळे स्वयमेव वैचित्र्यने पामेला कर्मपुद्गलपरिणाम (कर्मपुद्गलना परिणाम) खरेखर होय छे. ते आ प्रमाणेः जेम ज्यारे नवुं मेघजळ भूमिसंयोगरूपे


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शाद्वलशिलीन्ध्रशक्रगोपादिभावैः परिणमन्ते, तथा यदायमात्मा रागद्वेषवशीकृतः शुभाशुभ- भावेन परिणमति तदा अन्ये योगद्वारेण प्रविशन्तः कर्मपुद्गलाः स्वयमेव समुपात्तवैचित्र्यै- र्ज्ञानावरणादिभावैः परिणमन्ते अतः स्वभावकृतं कर्मणां वैचित्र्यं, न पुनरात्मकृतम् ।।१८७।।

अथैक एव आत्मा बन्ध इति विभावयति
सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहिं
कम्मरएहिं सिलिट्ठो बंधो त्ति परूविदो समये ।।१८८।।
सप्रदेशः स आत्मा कषायितो मोहरागद्वेषैः
कर्मरजोभिः श्लिष्टो बन्ध इति प्ररूपितः समये ।।१८८।।
रागद्वेषयुक्तः परिणत इत्यर्थः तं पविसदि कम्मरयं तदा काले तत्प्रसिद्धं कर्मरजः प्रविशति कैः कृत्वा
णाणावरणादिभावेहिं भूमेर्मेघजलसंयोगे सति यथाऽन्ये पुद्गलाः स्वयमेव हरितपल्लवादिभावैः परिणमन्ति

तथा स्वयमेव नानाभेदपरिणतैर्मूलोत्तरप्रकृतिरूपज्ञानावरणादिभावैः पर्यायैरिति ततो ज्ञायते यथा ज्ञानावरणादिकर्मणामुत्पत्तिः स्वयंकृता तथा मूलोत्तरप्रकृतिरूपवैचित्र्यमपि, न च जीवकृतमिति ।।१८७।।


परिणमे छे त्यारे अन्य पुद्गलो स्वयमेव वैचित्र्यने पामेला शाद्वल -शिलींध्र- इंद्रगोपादिभावे परिणमे छे, तेम ज्यारे आ आत्मा रागद्वेषने वशीभूत थयो थको शुभा- शुभभावे परिणमे छे, त्यारे बीजां, योगद्वार वडे प्रवेशतां कर्मपुद्गलो स्वयमेव वैचित्र्यने पामेला ज्ञानावरणादिभावे परिणमे छे.

आथी (एम नक्की थयुं के) कर्मोनुं वैचित्र्य स्वभावकृत छे, परंतु आत्मकृत नथी. १८७.

हवे एकलो ज आत्मा बंध छे एम समजावे छेः

सप्रदेश जीव समये कषायित मोहरागादि वडे,
संबंध पामी कर्मरजनो, बंधरूप कथाय छे.१८८.

अन्वयार्थः[सप्रदेशः] सप्रदेश एवो [सः आत्मा] ते आत्मा [समये] समये [मोहरागद्वेषैः] मोह -राग -द्वेष वडे [कषायितः] कषायित थवाथी [कर्मरजोभिः श्लिष्टः] कर्मरज वडे श्लिष्ट थयो थको (अर्थात् जेने कर्मरज वळगी छे एवो थयो थको) [बन्धः इति प्ररूपितः] ‘बंध’ कहेवामां आव्यो छे.

१. शाद्वल = लीलुं मेदान २. शिलींध्र = टोप; बिलाडीनो टोप.
३. इंद्रगोप = चोमासामां थतुं एक जीवडुं
४. स्वभावकृत = कर्मोना पोताना स्वभावथी करायेलुं


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यथात्र सप्रदेशत्वे सति लोध्रादिभिः कषायितत्वात् मञ्जिष्ठरङ्गादिभिरुपश्लिष्टमेकं रक्तं दृष्टं वासः, तथात्मापि सप्रदेशत्वे सति काले मोहरागद्वेषैः कषायितत्वात् कर्मरजोभि- रुपश्लिष्ट एको बन्धो दृष्टव्यः, शुद्धद्रव्यविषयत्वान्निश्चयस्य ।।१८८।।

अथ निश्चयव्यवहाराविरोधं दर्शयति
एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिद्दिट्ठो
अरहंतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ।।१८९।।

अथ पूर्वोक्तज्ञानावरणादिप्रकृतीनां जघन्योत्कृष्टानुभागस्वरूपं प्रतिपादयति

सुहपयडीण विसोही तिव्वो असुहाण संकिलेसम्मि
विवरीदो दु जहण्णो अणुभागो सव्वपयडीणं ।।१३।।

अणुभागो अनुभागः फलदानशक्तिविशेषः भवतीति क्रियाध्याहारः कथम्भूतो भवति तिव्वो तीव्रः प्रकृष्टः परमामृतसमानः कासां संबन्धी सुहपयडीणं सद्वेद्यादिशुभप्रकृतीनाम् कया कारण- भूतया विसोही तीव्रधर्मानुरागरूपविशुद्धया असुहाण संकिलेसम्मि असद्वेद्याद्यशुभप्रकृतीनां तु मिथ्या- त्वादिरूपतीव्रसंक्लेशे सति तीव्रो हालाहलविषसदृशो भवति विवरीदो दु जहण्णो विपरीतस्तु जघन्यो गुडनिम्बरूपो भवति जघन्यविशुद्धया जघन्यसंक्लेशेन च मध्यमविशुद्धया मध्यमसंक्लेशेन तु शुभा- शुभप्रकृतीनां खण्डशर्करारूपः काञ्जीरविषरूपश्चेति एवंविधो जघन्यमध्यमोत्कृष्टरूपोऽनुभागः कासां संबन्धी भवति सव्वपयडीणं मूलोत्तरप्रकृतिरहितनिजपरमानन्दैकस्वभावलक्षणसर्वप्रकारोपादेयभूतपरमात्म- द्रव्याद्भिन्नानां हेयभूतानां सर्वमूलोत्तरकर्मप्रकृतीनामिति कर्मशक्तिस्वरूपं ज्ञातव्यम् ।।“ “ “ “ “

१३।। अथाभेद-

नयेन बन्धकारणभूतरागादिपरिणतात्मैव बन्धो भण्यत इत्यावेदयतिसपदेसो लोकाकाशप्रमितासंख्येय- प्रदेशत्वात्सप्रदेशस्तावद्भवति सो अप्पा स पूर्वोक्तलक्षण आत्मा पुनरपि किंविशिष्टः कसायिदो

टीकाःजेम जगतमां वस्त्र सप्रदेश होतां लोधर वगेरे वडे कषायित थवाथी मजीठ वगेरेना रंग वडे श्लिष्ट थयुं थकुं एकलुं ज रंगित जोवामां आवे छे, तेम आत्मा पण सप्रदेश होतां काळे मोह -राग -द्वेष वडे *कषायित थवाथी कर्मरज वडे श्लिष्ट थयो थको एकलो ज बंध छे एम देखवुं (-मानवुं), कारण के निश्चयनो विषय शुद्ध द्रव्य छे. १८८.

हवे निश्चय अने व्यवहारनो अविरोध दर्शावे छेः

आ जीव केरा बंधनो संक्षेप निश्चय भाखियो
अर्हंतदेवे योगीने; व्यवहार अन्य रीते कह्यो.१८९.

*कषायित = उपरक्त; रंगायेलो; मलिन.