Pravachansar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 61.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन
१०७
अथ पुनरपि केवलस्य सुखस्वरूपतां निरूपयन्नुपसंहरति
णाणं अत्थंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी
णट्ठमणिट्ठं सव्वं इट्ठं पुण जं तु तं लद्धं ।।६१।।
ज्ञानमर्थान्तगतं लोकालोकेषु विस्तृता दृष्टिः
नष्टमनिष्टं सर्वमिष्टं पुनर्यत्तु तल्लब्धम् ।।६१।।

स्वभावप्रतिघाताभावहेतुकं हि सौख्यम् आत्मनो हि दृशिज्ञप्ती स्वभावः, तयोर्लोका- लोकविस्तृतत्वेनार्थान्तगतत्वेन च स्वच्छन्दविजृम्भितत्वाद्भवति प्रतिघाताभावः ततस्तद्धेतुकं सौख्यमभेदविवक्षायां केवलस्य स्वरूपम् किंच केवलं सौख्यमेव; सर्वानिष्टप्रहाणात्, दिट्ठी लोकालोकयोर्विस्तृता दृष्टिः केवलदर्शनम् णट्ठमणिट्ठं सव्वं अनिष्टं दुःखमज्ञानं च तत्सर्वं नष्टं इट्ठं पुण जं हि तं लद्धं इष्टं पुनर्यद् ज्ञानं सुखं च हि स्फु टं तत्सर्वं लब्धमिति तद्यथास्वभावप्रतिघाताभाव- हेतुकं सुखं भवति स्वभावो हि केवलज्ञानदर्शनद्वयं, तयोः प्रतिघात आवरणद्वयं, तस्याभावः केवलिनां, ततः कारणात्स्वभावप्रतिघाताभावहेतुकमक्षयानन्तसुखं भवति यतश्च परमानन्दैकलक्षण-

हवे फरीने पण ‘केवळ (अर्थात् केवळज्ञान) सुखस्वरूप छे’ एम निरूपण करतां उपसंहार करे छेः

अर्थान्तगत छे ज्ञान, लोकालोकविस्तृत द्रष्टि छे;
छे नष्ट सर्व अनिष्ट ने जे इष्ट ते सौ प्राप्त छे. ६१.

अन्वयार्थः[ज्ञानं] ज्ञान [अर्थान्तगतं] पदार्थोना पारने पामेलुं छे [दृष्टिः] अने दर्शन [लोकालोकेषु विस्तृता] लोकालोकमां विस्तृत छे; [सर्वं अनिष्टं] सर्व अनिष्ट [नष्टं] नाश पाम्युं छे [पुनः] अने [यत् तु] जे [इष्टं] इष्ट छे [तत्] ते सर्व [लब्धं] प्राप्त थयुं छे. (तेथी केवळ अर्थात् केवळज्ञान सुखस्वरूप छे.)

टीकाःसुखनुं कारण स्वभावप्रतिघातनो अभाव छे. आत्मानो स्वभाव दर्शन- ज्ञान छे; (केवळदशामां) तेमना (दर्शनज्ञानना) प्रतिघातनो अभाव छे, कारण के दर्शन लोकालोकमां विस्तृत होवाथी अने ज्ञान पदार्थोना पारने पामेलुं होवाथी तेओ (दर्शन -ज्ञान) स्वच्छंदपणे (स्वतंत्रताथी, अंकुश वगर, कोईथी दबाया विना) खीलेलां छे. (आम दर्शनज्ञानरूप स्वभावना प्रतिघातनो अभाव छे) तेथी स्वभावना प्रतिघातनो अभाव जेनुं कारण छे एवुं सुख अभेदविवक्षामां केवळनुं स्वरूप छे.