दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा ।
स्तथा किंचिदूनचरमशरीराकारादिपर्यायैश्च संकरव्यतिकरपरिहाररूपजातिभेदेन भिन्नानामपि सर्वेषां सिद्धजीवानां ग्रहणं भवति, तथा ‘सर्वं सत्’ इत्युक्ते संग्रहनयेन सर्वपदार्थानां ग्रहणं भवति । अथवा सेनेयं वनमिदमित्युक्ते अश्वहस्त्यादिपदार्थानां निम्बाम्रादिवृक्षाणां स्वकीयस्वकीयजातिभेदभिन्नानां युगपद्ग्रहणं भवति, तथा सर्वं सदित्युक्ते सति सादृश्यसत्ताभिधानेन महासत्तारूपेण शुद्धसंग्रह- नयेन सर्वपदार्थानां स्वजात्यविरोधेन ग्रहणं भवतीत्यर्थः ।।९७।। अथ यथा द्रव्यं स्वभावसिद्धं तथा
भिन्न भिन्न होवाथी स्वरूप -अस्तित्वनी अपेक्षाए तेमनामां अनेकपणुं छे, परंतु सत्पणुं ( – होवापणुं, ‘छे’ एवो भाव) के जे सर्व द्रव्योनुं सामान्य लक्षण छे अने जे सर्व द्रव्योमां साद्रश्य बतावे छे तेनी अपेक्षाए सर्व द्रव्योमां एकपणुं छे; आ एकपणाने मुख्य करीए त्यारे अनेकपणुं गौण थाय छे. वळी आ प्रमाणे ज्यारे सामान्य सत्पणाने मुख्यपणे लक्षमां लेतां सर्व द्रव्योना एकत्वनी मुख्यता थवाथी अनेकत्व गौण थाय छे, त्यारे पण ते (समस्त द्रव्योनुं स्वरूप -अस्तित्वसंबंधी) अनेकत्व स्पष्टपणे प्रकाशमान ज रहे छे.]
(आ प्रमाणे साद्रश्य -अस्तित्वनुं निरूपण थयुं.) ९७. हवे द्रव्योथी द्रव्यांतरनी उत्पत्ति होवानुं अने द्रव्यथी सत्तानुं *अर्थांतरपणुं होवानुं खंडन करे छे (अर्थात् कोई द्रव्यथी अन्य द्रव्यनी उत्पत्ति थती नथी अने द्रव्यथी अस्तित्व कोई जुदो पदार्थ नथी एम नक्की करे छे)ः —
अन्वयार्थः — [द्रव्यं] द्रव्य [स्वभावसिद्धं] स्वभावथी सिद्ध अने [सत् इति] (स्वभावथी ज) ‘सत्’ छे एम [जिनाः] जिनोए [तत्त्वतः] तत्त्वतः [समाख्यातवन्तः] कह्युं छे; [तथा] ए प्रमाणे [आगमतः] आगम द्वारा [सिद्धं] सिद्ध छे; [यः] जे [न इच्छति] न माने [सः] ते [हि] खरेखर [परसमयः] परसमय छे.
१८२प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
*अर्थांतर = अन्य पदार्थ; जुदो पदार्थ.