ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो ।
यद्यपि पर्यायार्थिकनयेन परमात्मद्रव्यं परिणतं, तथापि द्रव्यार्थिकनयेन सत्तालक्षणमेव भवति ।
त्रिलक्षणमपि सत्सत्तालक्षणं कथं भण्यत इति चेत् ‘‘उत्पादव्ययध्
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परमात्मद्रव्यमेकसमयेनोत्पादव्ययध्रौव्यैः परिणतमेव सत्तालक्षणं भण्यते तता सर्वद्रव्याणीत्यर्थः ।।९९।। एवं स्वरूपसत्तारूपेण प्रथमगाथा, महासत्तारूपेण द्वितीया, यथा द्रव्यं स्वतःसिद्धं तथा सत्तागुणोऽपीति कथनेन तृतीया, उत्पादव्ययध्रौव्यत्वेऽपि सत्तैव द्रव्यं भण्यत इति कथनेन चतुर्थीति गाथाचतुष्टयेन
भावार्थः — दरेक द्रव्य सदाय स्वभावमां रहे छे तेथी ‘सत्’ छे. ते स्वभाव उत्पादव्ययध्रौव्यस्वरूप परिणाम छे. जेम द्रव्यना विस्तारनो नानामां नानो अंश ते प्रदेश छे, तेम द्रव्यना प्रवाहनो नानामां नानो अंश ते परिणाम छे. दरेक परिणाम स्व -काळमां पोताना रूपे ऊपजे छे, पूर्व रूपथी नाश पामे छे अने सर्व परिणामोमां एकप्रवाहपणुं होवाथी दरेक परिणाम उत्पाद -विनाश विनानो एकरूप – ध्रुव रहे छे. वळी उत्पाद -व्यय- ध्रौव्यमां समयभेद नथी, त्रणेय एक ज समये छे. आवा उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यात्मक परिणामोनी परंपरामां द्रव्य स्वभावथी ज सदाय रहेतुं होवाथी द्रव्य पोते पण, मोतीना हारनी माफक, उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यात्मक छे. ९९.
हवे उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्यनो परस्पर १अविनाभाव द्रढ करे छेः —
अन्वयार्थः — [भवः] उत्पाद [भङ्गविहीनः] २भंग विनानो [न] होतो नथी [वा] अने [भङ्गः] भंग [संभवविहीनः] उत्पाद विनानो [नास्ति] होतो नथी; [उत्पादः] उत्पाद [अपि च] तेम ज [भङ्गः] भंग [ध्रौव्येण अर्थेन विना] ध्रौव्य पदार्थ विना [न] होता नथी.
१. अविनाभाव = एक विना बीजानुं नहीं होवुं ते; एकबीजा विना होई ज न शके एवो भाव.
२. भंग = व्यय; नाश.