पुनः किंतु सत्तायाः सकाशादन्यद्भिन्नं भवति पश्चात्सत्तासमवायात्सद्भवति । आचार्याः परिहारमाहुः —
सत्तासमवायात्पूर्वं द्रव्यं सदसद्वा, यदि सत्तदा सत्तासमवायो वृथा, पूर्वमेवास्तित्वं तिष्ठति; अथासत्तर्हि
पृथक् होय तो सत्ता सिवाय पण पोते टकतुं ( – हयात रहेतुं) थकुं, १एटलुं ज मात्र जेनुं
प्रयोजन छे एवी सत्ताने ज अस्त करे.
परंतु जो द्रव्य स्वरूपथी ज सत् होय तो — (१) ध्रौव्यना सद्भावने लीधे पोतेटकतुं थकुं, द्रव्य उदित थाय छे (अर्थात् सिद्ध थाय छे); अने (२) सत्ताथी अपृथक् रहीनेपोते टकतुं ( – हयात रहेतुं) थकुं, एटलुं ज मात्र जेनुं प्रयोजन छे एवी सत्ताने उदित करेछे (अर्थात् सिद्ध करे छे).
माटे द्रव्य पोते ज सत्त्व (सत्ता) छे एम स्वीकारवुं, कारण के भाव अने२भाववाननुं अपृथक्पणा वडे अनन्यपणुं छे. १०५.१. सत्तानुं कार्य एटलुं ज छे के ते द्रव्यने हयात राखे. जो द्रव्य सत्ताथी भिन्न रहीने पण हयात
रहे – टके, तो पछी सत्तानुं प्रयोजन ज रहेतुं नथी अर्थात् सत्ताना अभावनो प्रसंग आवे छे.२. भाववान = भाववाळुं. [द्रव्य भाववाळुं छे अने सत्ता तेनो भाव छे. तेओ अपृथक् छे ( – पृथक्
नथी) ते अपेक्षाए अनन्य छे ( – अन्य नथी). पृथक्त्व अने अन्यत्वनो भेद जे अपेक्षाए छे
ते अपेक्षा लईने तेमना खास (जुदा) अर्थो हवेनी गाथामां कहेशे ते अर्थो अहीं लागु न पाडवा. अहीं तो अनन्यपणाने अपृथक्पणाना अर्थमां ज समजवुं.]