विशेषलक्षणं जीवस्य चेतनोपयोगमयत्वं; अजीवस्य पुनरचेतनत्वम् । तत्र यत्र स्वधर्मव्यापक- त्वात्स्वरूपत्वेन द्योतमानयानपायिन्या भगवत्या संवित्तिरूपया चेतनया, तत्परिणामलक्षणेन द्रव्यवृत्तिरूपेणोपयोगेन च निर्वृत्तत्वमवतीर्णं प्रतिभाति स जीवः । यत्र पुनरुपयोगसहचरिताया यथोदितलक्षणायाश्चेतनाया अभावाद्बहिरन्तश्चाचेतनत्वमवतीर्णं प्रतिभाति सोऽजीवः ।।१२७।।
उवओगमओ उपयोगमयः अखण्डैकप्रतिभासमयेन सर्वविशुद्धेन केवलज्ञानदर्शनलक्षणेनार्थग्रहणव्यापार-
रूपेण निश्चयनयेनेत्थंभूतशुद्धोपयोगेन, व्यवहारेण पुनर्मतिज्ञानाद्यशुद्धोपयोगेन च निर्वृत्तत्वान्निष्पन्न- त्वादुपयोगमयः । पोग्गलदव्वप्पमुहं अचेदणं हवदि अज्जीवं पुद्गलद्रव्यप्रमुखमचेतनं भवत्यजीवद्रव्यं; पुद्गलधर्माधर्माकाशकालसंज्ञं द्रव्यपञ्चकं पूर्वोक्तलक्षणचेतनाया उपयोगस्य चाभावादजीवमचेतनं
भेद छे. जीवनुं विशेषलक्षण चेतना -उपयोगमयपणुं (चेतनामयपणुं तथा उपयोगमयपणुं) छे; अने अजीवनुं (विशेषलक्षण) अचेतनपणुं छे. त्यां, (जीवना) स्वधर्मोमां व्यापनारी होवाथी (जीवना) स्वरूपपणे प्रकाशती, अविनाशिनी, भगवती, संवेदनरूप चेतना वडे तथा चेतनापरिणामलक्षण, *द्रव्यपरिणतिरूप उपयोग वडे निष्पन्नपणुं ( – रचायेलापणुं, बनेलापणुं) जेमां ऊतरेलुं प्रतिभासे छे, ते जीव छे; अने जेमां उपयोगनी साथे रहेनारी, प्रतिभासे छे, ते अजीव छे.
भावार्थः — द्रव्यपणारूप सामान्यनी अपेक्षाए द्रव्योमां एकपणुं छे तोपण विशेषलक्षणोनी अपेक्षाए तेमना जीव ने अजीव एवा बे भेद छे. जे (द्रव्य) भगवती चेतना वडे अने चेतनाना परिणामस्वरूप उपयोग वडे रचायेल छे ते जीव छे, अने जे (द्रव्य) चेतना रहित होवाथी अचेतन छे ते अजीव छे. जीवनो एक ज भेद छे; अजीवना पांच भेद छे. आ बधांनो विस्तार आगळ आवशे. १२७.
हवे (द्रव्यनो) लोक -अलोकपणारूप विशेष ( – भेद) नक्की करे छेः —
+यथोक्त लक्षणवाळी चेतनानो अभाव होवाथी बहार तेम ज अंदर अचेतनपणुं ऊतरेलुं
*चेतनाना परिणामस्वरूप उपयोग जीवद्रव्यनी परिणति छे.
+यथोक्त लक्षणवाळी = कह्या प्रमाणेना लक्षणवाळी. (चेतनानुं लक्षण उपर ज कहेवामां आव्युं छे.)