Pravachansar-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 262 of 513
PDF/HTML Page 293 of 544

 

पर्यायत्वे शब्दस्य पृथिवीस्कन्धस्येव स्पर्शनादीन्द्रियविषयत्वम्; अपां घ्राणेन्द्रियाविषयत्वात्, ज्योतिषो घ्राणरसनेन्द्रियाविषयत्वात्, मरुतो घ्राणरसनचक्षुरिन्द्रियाविषयत्वाच्च न चागन्धा- गन्धरसागन्धरसवर्णाः एवमप्ज्योतिर्मारुतः, सर्वपुद्गलानां स्पर्शादिचतुष्कोपेतत्वाभ्युपगमात्; व्यक्तस्पर्शादिचतुष्कानां च चन्द्रकान्तारणियवानामारम्भकैरेव पुद्गलैरव्यक्तगन्धाव्यक्तगन्धरसा- व्यक्तगन्धरसवर्णानामप्ज्योतिरुदरमरुतामारम्भदर्शनात् न च क्वचित्कस्यचित् गुणस्य व्यक्ता- पौद्गलः यथा जीवस्य नरनारकादिविभावपर्यायाः तथायं शब्दः पुद्गलस्य विभावपर्यायो, न च गुणः कस्मात् गुणस्याविनश्वरत्वात्, अयं च विनश्वरो नैयायिकमतानुसारी कश्चिद्वदत्याकाश- गुणोऽयं शब्दः परिहारमाहआकाशगुणत्वे सत्यमूर्तो भवति अमूर्तश्च श्रवणेन्द्रियविषयो न भवति, दृश्यते च श्रवणेन्द्रियविषयत्वम् शेषेन्द्रियविषयः कस्मान्न भवतीति चेत्

वळी ‘जो शब्द पुद्गलनो पर्याय होय तो पृथ्वीस्कंधनी जेम ते स्पर्शनादिक इन्द्रियोनो विषय होवो जोईए अर्थात् जेम पृथ्वीस्कंधरूप पुद्गलपर्याय सर्व इन्द्रियोथी जणाय छे तेम शब्दरूप पुद्गलपर्याय पण सर्व इन्द्रियोथी जणावो जोईए’ (एम तर्क करवामां आवे तो) एम पण नथी; कारण के पाणी (पुद्गलपर्याय होवा छतां) घ्राणेंद्रियनो विषय नथी, अग्नि (पुद्गलपर्याय होवा छतां) घ्राणेंद्रिय तथा रसनेंद्रियनो विषय नथी अने पवन (पुद्गलपर्याय होवा छतां) घ्राणेंद्रिय, रसनेंद्रिय तथा चक्षु -इन्द्रियनो विषय नथी. वळी एम नथी के पाणी गंध विनानुं छे (तेथी नाकथी अग्राह्य छे), अग्नि गंध तथा रस विनानो छे (तेथी नाक तथा जीभथी अग्राह्य छे) अने पवन गंध, रस तथा वर्ण विनानो छे (तेथी नाक, जीभ तथा आंखथी अग्राह्य छे); कारण के सर्व पुद्गलो स्पर्शादि

चतुष्क सहित स्वीकारवामां आव्यां छे; केम के जेमने स्पर्शादि चतुष्क व्यक्त छे एवां

(१) चंद्रकांतने, (२) अरणिने अने (३) जवने जे पुद्गलो उत्पन्न करे छे ते ज पुद्गलो वडे (१) जेने गंध अव्यक्त छे एवा पाणीनी, (२) जेने गंध तथा रस अव्यक्त छे एवा अग्निनी अने (३) जेने गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त छे एवा उदरवायुनी उत्पत्ति थती जोवामां आवे छे.

* चतुष्क = चतुष्टय; चारनो समूह. [सर्व पुद्गलोमांपृथ्वी, पाणी, अग्नि, अने वायु ए बधांयमांस्पर्शादि चारे गुणो होय छे. मात्र फेर एटलो ज छे के पृथ्वीमां चारे गुणो व्यक्त छे, पाणीमां गंध अव्यक्त छे, अग्निमां गंध तथा रस अव्यक्त छे अने वायुमां गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त छे. आ वातनी सिद्धिने माटे युक्ति आ प्रमाणे छेः चंद्रकांतमणिरूप पृथ्वीमांथी पाणी झरे छे, अरणिना लाकडामांथी अग्नि थाय छे अने जव खावाथी पेटमां वायु थाय छे; माटे (१) चंद्रकांतमणिमां, (२) अरणिमां अने (३) जवमां रहेला चारे गुणो (१) पाणीमां, (२) अग्निमां अने (३) वायुमां होवा जोईए. मात्र फेर एटलो ज छे के ते गुणोमांथी केटलाक अप्रगटरूपे परिणम्या छे. वळी पाछा, पाणीमांथी मोतीरूप पृथ्वीकाय नीपजतां अथवा अग्निमांथी काजळरूप पृथ्वीकाय नीपजतां चारे गुणो प्रगट थता जोवामां आवे छे.

२६प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

*