अप्रदेश एव समयो द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वात् । न च तस्य पुद्गलस्येव पर्यायेणाप्य- नेकप्रदेशत्वं, यतस्तस्य निरन्तरं प्रस्तारविस्तृतप्रदेशमात्रासंख्येयद्रव्यत्वेऽपि परस्परसंपर्का- संभवादेकैकमाकाशप्रदेशमभिव्याप्य तस्थुषः प्रदेशमात्रस्य परमाणोस्तदभिव्याप्तमेकमाकाशप्रदेशं मन्दगत्या व्यतिपतत एव वृत्तिः ।।१३८।।
अथ कालपदार्थस्य द्रव्यपर्यायौ प्रज्ञापयति — परस्परबन्धो भवति तथाविधबन्धाभावात्पर्यायेणापि । अयमत्रार्थः — यस्मात्पुद्गलपरमाणोरेकप्रदेश- गमनपर्यन्तं सहकारित्वं क रोति न चाधिकं तस्मादेव ज्ञायते सोऽप्येकप्रदेश इति ।।१३८।। अथ पूर्वोक्तकालपदार्थस्य पर्यायस्वरूपं द्रव्यस्वरूपं च प्रतिपादयति — वदिवददो तस्य पूर्वसूत्रोदित-
टीकाः — काळ, द्रव्ये प्रदेशमात्र होवाथी, अप्रदेशी ज छे. वळी तेने पुद्गलनी माफक पर्याये पण अनेकप्रदेशीपणुं नथी; कारण के परस्पर अंतर विना १प्रस्ताररूप विस्तरेलां प्रदेशमात्र असंख्यात काळद्रव्यो होवा छतां परस्पर संपर्क नहि होवाथी एक एक आकाशप्रदेशने व्यापीने रहेला काळद्रव्यनी वृत्ति त्यारे ज थाय छे (अर्थात् काळाणुनी परिणति त्यारे ज निमित्तभूत थाय छे) के ज्यारे २प्रदेशमात्र परमाणु तेनाथी ( – ते काळाणुथी) व्याप्त एक आकाशप्रदेशने मंद गतिथी ओळंगतो होय.
भावार्थः — लोकाकाशना असंख्यात प्रदेशो छे. एक एक प्रदेशमां एक एक काळाणु रहेलो छे. ते काळाणुओ स्निग्ध -रूक्षगुणना अभावने लीधे रत्नराशिनी माफक छूटा छूटा ज रहे छे, पुद्गल -परमाणुओनी माफक परस्पर मळता नथी.
ज्यारे पुद्गलपरमाणु आकाशना एक प्रदेशने मंद गतिथी ओळंगे छे (अर्थात् एक प्रदेशथी बीजा अनंतर प्रदेशे मंद गतिथी जाय छे) त्यारे ते (ओळंगवामां आवता) प्रदेशे रहेलो काळाणु तेने निमित्तभूतपणे वर्ते छे. आ रीते दरेक काळाणु पुद्गलपरमाणुने एक प्रदेश सुधीना गमन पर्यंत ज सहकारीपणे वर्ते छे, वधारे नहि; तेथी स्पष्ट थाय छे के काळद्रव्य पर्याये पण अनेकप्रदेशी नथी. १३८.
हवे काळपदार्थनां द्रव्य अने पर्याय जणावे छेः — प्र. ३५
१. प्रस्तार = पथारो; फेलावो; विस्तार. (असंख्यात काळद्रव्यो आखा लोकाकाशमां पथरायेलां छे. तेमने परस्पर अंतर नथी, कारण के दरेक आकाशप्रदेशमां एक एक काळद्रव्य रहेलुं छे.)
२. प्रदेशमात्र = एकप्रदेशी. (एकप्रदेशी एवो परमाणु कोइ एक आकाशप्रदेशने मंद गतिथी ओळंगतो होय त्यारे ज ते आकाशप्रदेशे रहेला काळद्रव्यनी परिणति तेने निमित्तभूतपणे वर्ते छे.)