ण चयदि जो दु ममत्तिं अहं ममेदं ति देहदविणेसु ।
सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं ।।१९०।।
जदीणं जितेन्द्रियत्वेन शुद्धात्मस्वरूपे यत्नपराणां गणधरदेवादियतीनाम् । ववहारो द्रव्यकर्मरूपव्यहारबन्धः
अण्णहा भणिदो निश्चयनयापेक्षयान्यथा व्यवहारनयेनेति भणितः । किंच रागादीनेवात्मा करोति तानेव
भुङ्क्ते चेति निश्चयनयलक्षणमिदम् । अयं तु निश्चयनयो द्रव्यकर्मबन्धप्रतिपादकासद्भूतव्यवहार-
नयापेक्षया शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको विवक्षितनिश्चयनयस्तथैवाशुद्धनिश्चयश्च भण्यते । द्रव्यकर्माण्यात्मा
(उत्कृष्ट साधक) होवाथी *
ग्रहण करवामां आव्यो छे; (कारण के) साध्य शुद्ध छे तेथी द्रव्यना शुद्धत्वनो द्योतक (प्रकाशक) होवाने लीधे निश्चयनय ज साधकतम छे, पण अशुद्धत्वनो द्योतक व्यवहारनय साधकतम नथी. १८९.
उत्तरः — ‘रागपरिणामनो करनार पण आत्मा ज छे अने वीतरागपरिणामनो करनार पण आत्मा ज छे, अज्ञानदशा पण आत्मा स्वतंत्रपणे करे छे अने ज्ञानदशा पण आत्मा स्वतंत्रपणे करे छे’ — आवा यथार्थ ज्ञाननी अंदर द्रव्यसामान्यनुं ज्ञान गर्भितपणे समाई ज जाय छे. जो विशेषोनुं बराबर यथार्थ ज्ञान होय तो ए विशेषो जेना विना होता नथी एवा सामान्यनुं ज्ञान होवुं ज जोईए. द्रव्यसामान्यना ज्ञान विना पर्यायोनुं यथार्थ ज्ञान होई शके ज नहि. माटे उपरोक्त निश्चयनयमां द्रव्यसामान्यनुं ज्ञान गर्भितपणे समाई ज जाय छे. जे जीव बंधमार्गरूप पर्यायमां तेम ज मोक्षमार्गरूप पर्यायमां आत्मा एकलो ज छे एम यथार्थपणे (द्रव्यसामान्यनी अपेक्षा सहित) जाणे छे, ते जीव परद्रव्य वडे संपृक्त थतो नथी अने द्रव्यसामान्यनी अंदर पर्यायोने डुबाडी दईने सुविशुद्ध होय छे. आ रीते पर्यायोना यथार्थ ज्ञानमां द्रव्यसामान्यनुं ज्ञान अपेक्षित होवाथी अने द्रव्य -पर्यायोना यथार्थ ज्ञानमां द्रव्यसामान्यना आलंबनरूप अभिप्राय अपेक्षित होवाथी उपरोक्त निश्चयनयने उपादेय कह्यो छे. [विशेष माटे १२६मी गाथानी टीका जुओ.]
*निश्चयनय उपादेय छे अने व्यवहारनय हेय छे.
प्रश्नः — द्रव्यसामान्यनुं आलंबन ज उपादेय होवा छतां, अहीं रागपरिणामना ग्रहणत्यागरूप