Pravachansar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 193.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन
३५७
अथाध्रुवत्वादात्मनोऽन्यन्नोपलभनीयमित्युपदिशति

देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा वाध सत्तुमित्तजणा जीवस्स ण संति धुवा धुवोवओगप्पगो अप्पा ।।१९३।।

देहा वा द्रविणानि वा सुखदुःखे वाथ शत्रुमित्रजनाः
जीवस्य न सन्ति ध्रुवा ध्रुव उपयोगात्मक आत्मा ।।१९३।।

आत्मनो हि परद्रव्याविभागेन परद्रव्योपरज्यमानस्वधर्मविभागेन चाशुद्धत्वनिबन्धनं न किञ्चनाप्यन्यदसद्धेतुमत्त्वेनाद्यन्तवत्त्वात्परतः सिद्धत्वाच्च ध्रुवमस्ति ध्रुव उपयोगात्मा शुद्ध आत्मैव अतोऽध्रुवं शरीरादिकमुपलभ्यमानमपि नोपलभे, शुद्धात्मानमुपलभे ध्रुवम् ।।१९३।। ध्रुवत्वान्न भावनीयमित्याख्यातिण संति धुवा ध्रुवा अविनश्वरा नित्या न सन्ति कस्य जीवस्स जीवस्य के ते देहा वा दविणा वा देहा वा द्रव्याणि वा, सर्वप्रकारशुचिभूताद्देहरहितात्परमात्मनो

हवे, अध्रुवपणाने लीधे आत्मा सिवाय बीजुं कांई उपलब्ध करवायोग्य नथी एम उपदेशे छेः

लक्ष्मी, शरीर, सुखदुःख अथवा शत्रुमित्र जनो अरे!
जीवने नथी कंई ध्रुव, ध्रुव उपयोग -आत्मक जीव छे.१९३.

अन्वयार्थः[देहाः वा] शरीरो, [द्रविणानि वा] धन, [सुखदुःखे] सुखदुःख [वा अथ] अथवा [शत्रुमित्रजनाः] शत्रुमित्रजनोए कांई [जीवस्य] जीवने [ध्रुवाः न सन्ति] ध्रुव नथी, [ध्रुवः] ध्रुव तो [उपयोगात्मकः आत्मा] उपयोगात्मक आत्मा छे.

टीकाःआत्माने, जे परद्रव्यथी अभिन्न होवाने लीधे अने परद्रव्य वडे उपरक्त थता स्वधर्मथी भिन्न होवाने लीधे अशुद्धपणानुं कारण छे एवुं (आत्मा सिवायनुं) बीजुं कांई पण ध्रुव नथी, कारण के ते असत् अने हेतुवाळुं होवाने लीधे आदिअंतवाळुं अने परतःसिद्ध छे; ध्रुव तो उपयोगात्मक शुद्ध आत्मा ज छे. आम होवाथी हुं अध्रुव एवां शरीरादिकनेतेओ उपलब्ध थतां होवा छतां पणउपलब्ध करतो नथी, ध्रुव एवा शुद्ध आत्माने उपलब्ध करुं छुं. १९३.

१. उपरक्त = मलिन; विकारी. [परद्रव्यना निमित्ते आत्मानो स्वधर्म उपरक्त थाय छे.]
२. असत्
= हयात न होय एवुं; अस्तित्व विनानुं (अर्थात् अनित्य). [देह -धनादिक पुद्गलपर्यायो होवाने लीधे असत् छे तेथी आदि -अंतवाळां छे.]

३. हेतुवाळुं = सहेतुक; जेनी उत्पत्तिमां कंई पण निमित्त होय एवुं. [देह -धनादिकनी उत्पत्तिमां कंई पण निमित्त होय छे तेथी तेओ परतःसिद्ध (परथी सिद्ध) छे, स्वतःसिद्ध नथी.]