Pravachansar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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३७प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
शुद्धस्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि, तथापि त्वां तावदासीदामि यावत् त्वत्प्रसादात्
शुद्धमात्मानमुपलभे अहो समस्तेतराचारप्रवर्तकस्वशक्त्यनिगूहनलक्षणवीर्याचार, न शुद्ध-
स्यात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि, तथापि त्वां तावदासीदामि यावत्त्वत्प्रसादात् शुद्धमा-
त्मानमुपलभे एवं ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारमासीदति च ।।२०२।।
पश्चात्तपश्चरणं करोमि तस्य प्रचुरेण तपश्चरणमेव नास्ति, कथमपि तपश्चरणे गृहीतेऽपि यदि गोत्रादि-
ममत्वं करोति तदा तपोधन एव न भवति
तथाचोक्त म्‘‘जो सकलणयररज्जं पुव्वं चइऊण कुणइ
य ममत्तिं सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो’’ ।।२०२।। अथ जिनदीक्षार्थी भव्यो जैनाचार्य-
माश्रयतिसमणं निन्दाप्रशंसादिसमचित्तत्वेन पूर्वसूत्रोदितनिश्चयव्यवहारपञ्चाचारस्याचरणाचारण-
प्रवीणत्वात् श्रमणम् गुणड्ढं चतुरशीतिलक्षगुणाष्टादशसहस्रशीलसहकारिकारणोत्तमनिजशुद्धात्मानुभूति-
गुणेनाढयं भृतं परिपूर्णत्वाद्गुणाढयम् कुलरूववयोविसिट्ठं लोकदुगुंच्छारहितत्वेन जिनदीक्षायोग्यं कुलं
विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान अने व्युत्सर्ग-
स्वरूप तपाचार! शुद्ध आत्मानो तुं नथी एम निश्चयथी हुं जाणुं छुं, तोपण त्यां सुधी तने
अंगीकार करुं छुं के ज्यां सुधीमां तारा प्रसादथी शुद्ध आत्माने उपलब्ध करुं. अहो समस्त
*इतर आचारमां प्रवर्तावनारी स्वशक्तिना अगोपनस्वरूप वीर्याचार! शुद्ध आत्मानो तुं नथी
एम निश्चयथी हुं जाणुं छुं, तोपण त्यां सुधी तने अंगीकार करुं छुं के ज्यां सुधीमां तारा
प्रसादथी शुद्ध आत्माने उपलब्ध करुं.
आ रीते ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार,
तपाचार तथा वीर्याचारने अंगीकार करे छे.

(सम्यग्द्रष्टि जीव पोताना स्वरूपने जाणे छेअनुभवे छे, अन्य समस्त व्यवहारभावोथी पोताने भिन्न जाणे छे. ज्यारथी तेने स्व -परना विवेकरूप भेदविज्ञान प्रगट थयुं हतुं त्यारथी ज ते सकल विभावभावोनो त्याग करी चूक्यो छे अने त्यारथी ज एणे टंकोत्कीर्ण निजभाव अंगीकार कर्यो छे. तेथी तेने नथी कांई त्यागवानुं रह्युं के नथी कांई ग्रहवानुंअंगीकार करवानुं रह्युं. स्वभावद्रष्टिनी अपेक्षाए आम होवा छतां, पर्यायमां ते पूर्वबद्ध कर्मोना उदयना निमित्ते अनेक प्रकारना विभावभावोरूपे परिणमे छे. ए विभावपरिणति नहि छूटती देखीने ते आकुळव्याकुळ पण थतो नथी तेम ज समस्त विभावपरिणतिने टाळवानो पुरुषार्थ कर्या विना पण रहेतो नथी. सकल विभावपरिणति रहित स्वभावद्रष्टिना जोररूप पुरुषार्थथी गुणस्थानोनी परिपाटीना सामान्य क्रम अनुसार तेने पहेलां अशुभ परिणतिनी हानि थाय छे अने पछी धीमे धीमे शुभ परिणति पण छूटती जाय छे. आम होवाथी ते शुभ रागना उदयनी भूमिकामां गृहवासनो अने कुटुंबनो त्यागी थई व्यवहाररत्नत्रयरूप पंचाचारोने अंगीकार करे छे. जोके ज्ञानभावथी ते समस्त शुभाशुभ क्रियाओनो त्यागी छे तोपण पर्यायमां शुभ राग नहि छूटतो होवाथी ते पूर्वोक्त रीते पंचाचारने ग्रहण करे छे.) २०२. *इतर = अन्य; वीर्याचार सिवायना बीजा.