Pravachansar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 229.

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
४२१
अथ युक्ताहारस्वरूपं विस्तरेणोपदिशति

एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ।।२२९।।

एकः खलु स भक्तः अप्रतिपूर्णोदरो यथालब्धः
भैक्षाचरणेन दिवा न रसापेक्षो न मधुमांसः ।।२२९।।

एककाल एवाहारो युक्ताहारः, तावतैव श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरस्य धारण- त्वात् अनेककालस्तु शरीरानुरागसेव्यमानत्वेन प्रसह्य हिंसायतनीक्रियमाणो न युक्तः, देहेऽपि ममत्वरहितस्तथैव तं देहं तपसा योजयति स नियमेन युक्ताहारविहारो भवतीति ।।२२८।। अथ युक्ताहारत्वं विस्तरेणाख्यातिएक्कं खलु तं भत्तं एककाल एव खलु हि स्फु टं स भक्त आहारो युक्ताहारः कस्मात् एकभक्तेनैव निर्विकल्पसमाधिसहकारिकारणभूतशरीरस्थितिसंभवात् स च कथंभूतः अप्पडिपुण्णोदरं यथाशक्त्या न्यूनोदरः जहालद्धं यथालब्धो, न च स्वेच्छालब्धः चरणं भिक्खेण

भावार्थःश्रमण बे प्रकारे युक्ताहारी सिद्ध थाय छेः (१) शरीर पर ममत्व नहि होवाथी तेने उचित ज आहार होय छे तेथी ते युक्ताहारी अर्थात् उचित आहारवाळो छे. वळी (२) ‘आहारग्रहण आत्मानो स्वभाव नथी’ एवा परिणामस्वरूप योग श्रमणने वर्ततो होवाथी ते श्रमण युक्त अर्थात् योगी छे अने तेथी तेनो आहार युक्ताहार अर्थात् योगीनो आहार छे. २२८.

हवे युक्ताहारनुं स्वरूप विस्तारथी उपदेशे छेः

आहार ते एक ज, ऊणोदर ने यथा -उपलब्ध छे,
भिक्षा वडे, दिवसे, रसेच्छाहीन, वण -मधुमांस छे. २२९.

अन्वयार्थः[खलु] खरेखर [सः भक्तः] ते आहार (युक्ताहार) [एकः] एक वखत, [अप्रतिपूर्णोदरः] ऊणोदर, [यथालब्धः] यथालब्ध (जेवो मळे तेवो), [भैक्षाचरणेन] भिक्षाचरणथी, [दिवा] दिवसे, [न रसापेक्षः] रसनी अपेक्षा विनानो अने [न मधुमांसः] मध- मांस रहित होय छे.

टीकाःएक वखत आहार ते ज युक्ताहार छे, कारण के तेटलाथी ज श्रामण्य- पर्यायना सहकारी कारणभूत शरीर टके छे. [एकथी वधारे वखत आहार ते युक्ताहार नथी एम नीचे प्रमाणे बे प्रकारे सिद्ध थाय छेः] (१) अनेक वखत आहार तो शरीरना अनुरागथी सेववामां आवतो होवाथी अत्यंतपणे हिंसायतन करवामां आवतो थको युक्त

१. हिंसायतन = हिंसानुं स्थान. [एकथी वधारे वखत आहार करवामां शरीरनो अनुराग होय छे तेथी ते आहार अत्यंतपणे हिंसानुं स्थान बने छे, कारण के शरीरनो अनुराग ते ज स्व -हिंसा छे.]