Pravachansar-Gujarati (Devanagari transliteration). Gatha: 17.

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अथ स्वायम्भुवस्यास्य शुद्धात्मस्वभावलाभस्यात्यन्तमनपायित्वं कथंचिदुत्पाद- व्ययध्रौव्ययुक्तत्वं चालोचयति भंगविहूणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि

विज्जदि तस्सेव पुणो ठिदिसंभवणाससमवाओ ।।१७।। केवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे यतो भिन्नकारकं नापेक्षते ततः स्वयंभूर्भवतीति भावार्थः ।।१६।। एवं सर्वज्ञमुख्यत्वेन प्रथमगाथा स्वयंभूमुख्यत्वेन द्वितीया चेति प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतम् ।। अथास्य भगवतो द्रव्यार्थिकनयेन नित्यत्वेऽपि पर्यायार्थिकनयेनानित्यत्वमुपदिशतिभंगविहूणो य भवो भङ्ग- विहीनश्च भवः जीवितमरणादिसमताभावलक्षणपरमोपेक्षासंयमरूपशुद्धोपयोगेनोत्पन्नो योऽसौ भवः केवलज्ञानोत्पादः स किंविशिष्टः भङ्गविहिनो विनाशरहितः संभवपरिवज्जिदो विणासो त्ति संभवपरिवर्जितो विनाश इति योऽसौ मिथ्यात्वरागादिसंसरणरूपसंसारपर्यायस्य विनाशः


मदद करी शकती नथी. माटे केवळज्ञान प्राप्त करवा इच्छनार आत्माए बाह्य सामग्रीनी अपेक्षा राखी परतंत्र थवुं निरर्थक छे. शुद्धोपयोगमां लीन आत्मा पोते ज छ कारकरूप थईने केवळज्ञान प्राप्त करे छे. ते आत्मा पोते अनंत शक्तिवाळा ज्ञायकस्वभाव वडे स्वतंत्र होवाथी पोते ज कर्ता छे; पोते अनंत शक्तिवाळा केवळज्ञानने प्राप्त करतो होवाथी केवळज्ञान कर्म छे, अथवा केवळज्ञानथी पोते अभिन्न होवाथी आत्मा पोते ज कर्म छे; पोताना अनंत शक्तिवाळा परिणमनस्वभावरूप उत्कृष्ट साधन वडे केवळज्ञान करतो होवाथी आत्मा पोते ज करण छे; पोताने ज केवळज्ञान देतो होवाथी आत्मा पोते ज संप्रदान छे; पोतानामांथी मति -श्रुतादि अपूर्ण ज्ञान दूर करीने केवळज्ञान करतो होवाथी अने पोते सहज ज्ञानस्वभाव वडे ध्रुव रहेतो होवाथी पोते ज अपादान छे; पोतानामां ज अर्थात् पोताना ज आधारे केवळज्ञान करतो होवाथी पोते ज अधिकरण छे. आ रीते स्वयं (पोते ज) छ कारकरूप थतो होवाथी ते ‘स्वयंभू’ कहेवाय छे. अथवा, अनादि काळथी अति द्रढ बंधायेलां (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय अने अंतरायरूप) द्रव्य तेम ज भाव घातिकर्मोने नष्ट करीने स्वयमेव आविर्भूत थयो अर्थात् कोईनी सहाय विना पोतानी मेळे ज पोते प्रगट थयो तेथी ते ‘स्वयंभू’ कहेवाय छे. १६.

हवे आ स्वयंभूने शुद्धात्मस्वभावनी प्राप्तिनुं अत्यंत अविनाशीपणुं अने कथंचित् (कोई प्रकारे) उत्पाद -व्यय -ध्रौव्ययुक्तपणुं विचारे छेः

व्ययहीन छे उत्पाद ने उत्पादहीन विनाश छे,
तेने ज वळी उत्पादध्रौव्यविनाशनो समवाय छे. १७.

२८प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-