अन्तरंगस्वरूपकारणत्वेनोपादाय प्रवर्तते; प्रवर्तमानं च सप्रदेशमेवाध्यवस्यति स्थूलोपलम्भक-
त्वान्नाप्रदेशम्; मूर्तमेवावगच्छति तथाविधविषयनिबन्धनसद्भावान्नामूर्तम्; वर्तमानमेव परिच्छि-
नत्ति विषयविषयिसन्निपातसद्भावान्न तु वृत्तं वर्त्स्यच्च । यत्तु पुनरनावरणमतीन्द्रियं ज्ञानं तस्य
समिद्धधूमध्वजस्येवानेकप्रकारतालिंगितं दाह्यं दाह्यतानतिक्रमाद्दाह्यमेव यथा तथात्मनः अप्रदेशं
सप्रदेशं मूर्तममूर्तमजातमतिवाहितं च पर्यायजातं ज्ञेयतानतिक्रमात्परिच्छेद्यमेव भवतीति ।।४१।।
अथातीन्द्रियज्ञानमतीतानागतसूक्ष्मादिपदार्थान् जानातीत्युपदिशति ---अपदेसं अप्रदेशं कालाणुपरमाण्वादि
सपदेसं शुद्धजीवास्तिकायादिपञ्चास्तिकायस्वरूपं मुत्तं मूर्तं पुद्गलद्रव्यं अमुत्तं च अमूर्तं च
शुद्धजीवद्रव्यादि पज्जयमजादं पलयं गदं च पर्यायमजातं भाविनं प्रलयं गतं चातीतमेतत्सर्वं पूर्वोक्तं ज्ञेयं
वस्तु जाणदि जानाति यद्ज्ञानं कर्तृ तं णाणमदिंदियं भणियं तद्ज्ञानमतीन्द्रियं भणितं, तेनैव सर्वज्ञो
भवति । तत एव च पूर्वगाथोदितमिन्द्रियज्ञानं मानसज्ञानं च त्यक्त्वा ये निर्विकल्पसमाधि-
रूपस्वसंवेदनज्ञाने समस्तविभावपरिणामत्यागेन रतिं कुर्वन्ति त एव परमाह्लादैकलक्षणसुखस्वभावं
सर्वज्ञपदं लभन्ते इत्यभिप्रायः ।।४१।। एवमतीतानागतपर्याया वर्तमानज्ञाने प्रत्यक्षा न भवन्तीति
१. विरूप = ज्ञानके स्वरूपसे भिन्न स्वरूपवाले । (उपदेश, मन और इन्द्रियाँ पौद्गलिक होनेसे उनका रूप
ज्ञानके स्वरूपसे भिन्न है । वे इन्द्रियज्ञानमें बहिरंग कारण हैं ।)
२. उपलब्धि = ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमके निमित्तसे पदार्थोंको जाननेकी शक्ति. (यह ‘लब्ध’ शक्ति
जब ‘उपयुक्त’ होती हैं तभी पदार्थ जाननेमें आते है ।)
३. संस्कार = भूतकालमें जाने हुये पदार्थोंकी धारणा ।
७०प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
१विरूप - कारणतासे (ग्रहण करके) और २उपलब्धि (-क्षयोपशम), ३संस्कार इत्यादिको
अंतरङ्ग स्वरूप -कारणतासे ग्रहण करके प्रवृत्त होता है; और वह प्रवृत्त होता हुआ सप्रदेशको
ही जानता है क्योंकि वह स्थूलको जाननेवाला है, अप्रदेशको नहीं जानता, (क्योंकि वह
सूक्ष्मको जाननेवाला नहीं है ); वह मूर्तको ही जानता है क्योंकि वैसे (मूर्तिक) विषयके
साथ उसका सम्बन्ध है, वह अमूर्तको नहीं जानता (क्योंकि अमूर्तिक विषयके साथ
इन्द्रियज्ञानका सम्बन्ध नहीं है ); वह वर्तमानको ही जानता है, क्योंकि विषय -विषयीके
सन्निपात सद्भाव है, वह प्रवर्तित हो चुकनेवालेको और भविष्यमें प्रवृत्त होनेवालेको नहीं
जानता (क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षका अभाव है )
।
परन्तु जो अनावरण अतीन्द्रिय ज्ञान है उसे अपने अप्रदेश, सप्रदेश, मूर्त और अमूर्त
(पदार्थ मात्र) तथा अनुत्पन्न एवं व्यतीत पर्यायमात्र, ज्ञेयताका अतिक्रमण न करनेसे ज्ञेय
ही है — जैसे प्रज्वलित अग्निको अनेक प्रकारका ईंधन, दाह्यताका अतिक्रमण न करनेसे
दाह्य ही है । (जैसे प्रदीप्त अग्नि दाह्यमात्रको — ईंधनमात्रको — जला देती है, उसीप्रकार
निरावरण ज्ञान ज्ञेयमात्रको — द्रव्यपर्यायमात्रको — जानता है ) ।।४१।।