अथैवं सति तीर्थकृतां पुण्यविपाकोऽकिंचित्कर एवेत्यवधारयति —
पुण्णफला अरहंता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया ।
मोहादीहिं विरहिदा तम्हा सा खाइग त्ति मदा ।।४५।।
पुण्यफला अर्हन्तस्तेषां क्रिया पुनर्हि औदयिकी ।
मोहादिभिः विरहिता तस्मात् सा क्षायिकीति मता ।।४५।।
अर्हन्तः खलु सकलसम्यक्परिपक्वपुण्यकल्पपादपफला एव भवन्ति । क्रिया तु तेषां
या काचन सा सर्वापि तदुदयानुभावसंभावितात्मसंभूतितया किलौदयिक्येव । अथैवंभूतापि सा
प्रयत्नाभावेऽपि श्रीविहारादयः प्रवर्तन्ते । मेघानां स्थानगमनगर्जनजलवर्षणादिवद्वा । ततः स्थितमेतत्
मोहाद्यभावात् क्रियाविशेषा अपि बन्धकारणं न भवन्तीति ।।४४।। अथ पूर्वं यदुक्तं रागादि-
रहितकर्मोदयो बन्धकारणं न भवति विहारादिक्रिया च, तमेवार्थं प्रकारान्तरेण दृढयति ---पुण्णफला
अरहंता पञ्चमहाकल्याणपूजाजनकं त्रैलोक्यविजयकरं यत्तीर्थकरनाम पुण्यकर्म तत्फलभूता अर्हन्तो
भवन्ति । तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया तेषां या दिव्यध्वनिरूपवचनव्यापारादिक्रिया सा निःक्रियशुद्धात्म-
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
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अघातिकर्मके निमित्तसे सहज ही होती है । उसमें केवली भगवानकी किंचित् मात्र इच्छा नहीं
होती, क्योंकि जहाँ मोहनीय -कर्मका सर्वथा क्षय हो गया है वहाँ उसकी कार्यभूत इच्छा कहाँसे
होगी ? इसप्रकार इच्छाके बिना ही — मोह -राग -द्वेषके बिना ही — होनेसे केवली -भगवानके
लिये वे क्रियाएँ बन्धका कारण नहीं होतीं ।।४४।।
इसप्रकार होनेसे तीर्थंकरोंके पुण्यका विपाक अकिंचित्कर ही है (-कुछ करता नहीं
है, स्वभावका किंचित् घात नहीं करता) ऐसा अब निश्चित करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [अर्हन्तः ] अरहन्तभगवान [पुण्यफलाः ] पुण्यफलवाले हैं [पुनः हि ]
और [तेषां क्रिया ] उनकी क्रिया [औदयिकी ] औदयिकी है; [मोहादिभिः विरहिता ]
मोहादिसे रहित है [तस्मात् ] इसलिये [सा ] वह [क्षायिकी ] क्षायिकी [इति मता ] मानी गई
है ।।४५।।
टीका : — अरहन्तभगवान जिनके वास्तवमें पुण्यरूपी कल्पवृक्षके समस्त फल
भलीभाँति परिपक्व हुए हैं ऐसे ही हैं, और उनकी जो भी क्रिया है वह सब उसके
छे पुण्यफल अर्हंत, ने अर्हंतकिरिया उदयिकी;
मोहादिथी विरहित तेथी ते क्रिया क्षायिक गणी .४५.