भावाच्चैतन्यविकारकारणतामनासादयन्ती नित्यमौदयिकी कार्यभूतस्य बन्धस्याकारणभूततया
कार्यभूतस्य मोक्षस्य कारणभूततया च क्षायिक्येव कथं हि नाम नानुमन्येत । अथानुमन्येत
सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होती है इसलिये मोहरागद्वेषरूपी १उपरंजकोंका अभाव होनेसे चैतन्यके
कारणभूततासे क्षायिकी ही क्यों न माननी चाहिये ? (अवश्य माननी चाहिये) और जब
क्षायिकी ही माने तब कर्मविपाक (-कर्मोदय) भी उनके (अरहन्तोंके) स्वभावविघातका
कारण नहीं होता (ऐसै निश्चित होता है ) ।
भावार्थ : — अरहन्तभगवानके जो दिव्यध्वनि, विहार आदि क्रियाएँ हैं वे निष्क्रिय शुद्ध आत्मतत्त्वके प्रदेशपरिस्पंदमें निमित्तभूत पूर्वबद्ध कर्मोदयसे उत्पन्न होती हैं इसलिये औदयिकी हैं । वे क्रियाएँ अरहन्तभगवानके चैतन्यविकाररूप भावकर्म उत्पन्न नहीं करतीं, क्योंकि (उनके) निर्मोह शुद्ध आत्मतत्त्वके रागद्वेषमोहरूप विकारमें निमित्तभूत मोहनीयकर्मका क्षय हो चुका है । और वे क्रियाएँ उन्हें, रागद्वेषमोहका अभाव हो जानेसे नवीन बन्धमें कारणरूप नहीं होतीं, परन्तु वे पूर्वकर्मोंके क्षयमें कारणरूप हैं क्योंकि जिन कर्मोंके उदयसे वे क्रियाएँ होती हैं वे कर्म अपना रस देकर खिर जाते हैं । इसप्रकार मोहनीयकर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेसे और कर्मोंके क्षयमें कारणभूत होनेसे अरहंतभगवानकी वह औदयिकी क्रिया क्षायिकी कहलाती है ।।४५।। १. उपरंजकों = उपराग -मलिनता करनेवाले (विकारीभाव) ।