समस्तमहामोहमूर्धाभिषिक्तस्कन्धावारस्यात्यन्तक्षये संभूतत्वान्मोहरागद्वेषरूपाणामुपरंजकानाम-
भावाच्चैतन्यविकारकारणतामनासादयन्ती नित्यमौदयिकी कार्यभूतस्य बन्धस्याकारणभूततया
कार्यभूतस्य मोक्षस्य कारणभूततया च क्षायिक्येव कथं हि नाम नानुमन्येत । अथानुमन्येत
चेत्तर्हि कर्मविपाकोऽपि न तेषां स्वभावविघाताय ।।४५।।
तत्त्वविपरीतकर्मोदयजनितत्वात्सर्वाप्यौदयिकी भवति हि स्फु टम् । मोहादीहिं विरहिदा निर्मोह-
शुद्धात्मतत्त्वप्रच्छादकममकाराहङ्कारोत्पादनसमर्थमोहादिविरहितत्वाद्यतः तम्हा सा खायग त्ति मदा तस्मात्
सा यद्यप्यौदयिकी तथापि निर्विकारशुद्धात्मतत्त्वस्य विक्रियामकुर्वती सती क्षायिकीति मता । अत्राह
शिष्यः ---‘औदयिका भावाः बन्धकारणम्’ इत्यागमवचनं तर्हि वृथा भवति । परिहारमाह --औदयिका
भावा बन्धकारणं भवन्ति, परं किंतु मोहोदयसहिताः । द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन
भावमोहेन न परिणमति तदा बंधो न भवति । यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तर्हि संसारिणां
सर्वदैव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात् सर्वदैव बन्ध एव, न मोक्ष इत्यभिप्रायः ।।४५।। अथ यथार्हतां
शुभाशुभपरिणामविकारो नास्ति तथैकान्तेन संसारिणामपि नास्तीति सांख्यमतानुसारिशिष्येण पूर्वपक्षे
१. उपरंजकों = उपराग -मलिनता करनेवाले (विकारीभाव) ।
७६प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
( – पुण्यके) उदयके प्रभावसे उत्पन्न होनेके कारण औदयिकी ही है । किन्तु ऐसी (पुण्यके
उदयसे होनेवाली) होने पर भी वह सदा औदयिकी क्रिया महामोहराजाकी समस्त सेनाके
सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होती है इसलिये मोहरागद्वेषरूपी १उपरंजकोंका अभाव होनेसे चैतन्यके
विकारका कारण नहीं होती इसलिये कार्यभूत बन्धकी अकारणभूततासे और कार्यभूत मोक्षकी
कारणभूततासे क्षायिकी ही क्यों न माननी चाहिये ? (अवश्य माननी चाहिये) और जब
क्षायिकी ही माने तब कर्मविपाक (-कर्मोदय) भी उनके (अरहन्तोंके) स्वभावविघातका
कारण नहीं होता (ऐसै निश्चित होता है ) ।
भावार्थ : — अरहन्तभगवानके जो दिव्यध्वनि, विहार आदि क्रियाएँ हैं वे निष्क्रिय
शुद्ध आत्मतत्त्वके प्रदेशपरिस्पंदमें निमित्तभूत पूर्वबद्ध कर्मोदयसे उत्पन्न होती हैं इसलिये
औदयिकी हैं । वे क्रियाएँ अरहन्तभगवानके चैतन्यविकाररूप भावकर्म उत्पन्न नहीं करतीं,
क्योंकि (उनके) निर्मोह शुद्ध आत्मतत्त्वके रागद्वेषमोहरूप विकारमें निमित्तभूत
मोहनीयकर्मका क्षय हो चुका है । और वे क्रियाएँ उन्हें, रागद्वेषमोहका अभाव हो जानेसे
नवीन बन्धमें कारणरूप नहीं होतीं, परन्तु वे पूर्वकर्मोंके क्षयमें कारणरूप हैं क्योंकि जिन
कर्मोंके उदयसे वे क्रियाएँ होती हैं वे कर्म अपना रस देकर खिर जाते हैं । इसप्रकार
मोहनीयकर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेसे और कर्मोंके क्षयमें कारणभूत होनेसे अरहंतभगवानकी
वह औदयिकी क्रिया क्षायिकी कहलाती है ।।४५।।