Pravachansar (Hindi). Gatha: 47.

< Previous Page   Next Page >


Page 78 of 513
PDF/HTML Page 111 of 546

 

७८प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
परिणामधर्मत्वेन स्फ टिकस्य जपातापिच्छरागस्वभावत्ववत् शुभाशुभस्वभावत्वद्योतनात् ।।४६।।
अथ पुनरपि प्रकृतमनुसृत्यातीन्द्रियज्ञानं सर्वज्ञत्वेनाभिनन्दति
जं तक्कालियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं
अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं ।।४७।।
यत्तात्कालिकमितरं जानाति युगपत्समन्ततः सर्वम्
अर्थं विचित्रविषमं तत् ज्ञानं क्षायिकं भणितम् ।।४७।।
सांख्यानां दूषणं न भवति, भूषणमेव नैवम् संसाराभावो हि मोक्षो भण्यते, स च संसारिजीवानां
न दृश्यते, प्रत्यक्षविरोधादिति भावार्थः ।।४६।। एवं रागादयो बन्धकारणं, न च ज्ञानमित्यादि-
व्याख्यानमुख्यत्वेन षष्ठस्थले गाथापञ्चकं गतम् अथ प्रथमं तावत् केवलज्ञानमेव सर्वज्ञस्वरूपं,
जायेंगे अर्थात् नित्यमुक्त सिद्ध होवेंगे ! किन्तु ऐसा स्वीकार नहीं किया जा सकता; क्योंकि
आत्मा परिणामधर्मवाला होनेसे, जैसे स्फ टिकमणि, जपाकुसुम और तमालपुष्पके रंग -रूप
स्वभावयुक्ततासे प्रकाशित होता है उसीप्रकार, उसे (आत्माके) शुभाशुभ -स्वभावयुक्तता
प्रकाशित होती है
(जैसे स्फ टिकमणि लाल और काले फू लके निमित्तसे लाल और काले
स्वभावमें परिणमित दिखाई देता है उसीप्रकार आत्मा कर्मोपाधिके निमित्तसे शुभाशुभ
स्वभावरूप परिणमित होता हुआ दिखाई देता है)

भावार्थ :जैसे शुद्धनयसे कोई जीव शुभाशुभ भावरूप परिणमित नहीं होता उसीप्रकार यदि अशुद्धनयसे भी परिणमित न होता हो तो व्यवहारनयसे भी समस्त जीवोंके संसारका अभाव हो जाये और सभी जीव सदा मुक्त ही सिद्ध होजावें ! किन्तु यह तो प्रत्यक्ष विरुद्ध है इसलिये जैसे केवलीभगवानके शुभाशुभ परिणामोंका अभाव है उसीप्रकार सभी जीवोंके सर्वथा शुभाशुभ परिणामोंका अभाव नहीं समझना चाहिये ।।४६।।

अब, पुनः प्रकृतका (चालु विषयका) अनुसरण करके अतीन्द्रिय ज्ञानको सर्वज्ञरूपसे अभिनन्दन करते हैं (अर्थात् अतीन्द्रिय ज्ञान सबका ज्ञाता है ऐसी उसकी प्रशंसा करते हैं )

अन्वयार्थ :[यत् ] जो [युगपद् ] एक ही साथ [समन्ततः ] सर्वतः (सर्व आत्मप्रदेशोंसे) [तात्कालिकं ] तात्कालिक [इतरं ] या अतात्कालिक, [विचित्रविषमं ]

सौ वर्तमानअवर्तमान, विचित्र, विषम पदार्थने
युगपद सरवतः जाणतुं, ते ज्ञान क्षायिक जिन कहे . ४७.