Pravachansar (Hindi).

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स्वपरविकल्पान्तःपाति प्रेक्षत एव तस्य खल्वमूर्तेषु धर्माधर्मादिषु, मूर्तेष्वप्यतीन्द्रियेषु
परमाण्वादिषु, द्रव्यप्रच्छन्नेषु कालादिषु, क्षेत्रप्रच्छन्नेष्वलोकाकाशप्रदेशादिषु, कालप्रच्छन्नेष्व-
सांप्रतिकपर्यायेषु, भावप्रच्छन्नेषु स्थूलपर्यायान्तर्लीनसूक्ष्मपर्यायेषु सर्वेष्वपि स्वपरव्यवस्था-
व्यवस्थितेष्वस्ति द्रष्टृत्वं, प्रत्यक्षत्वात
प्रत्यक्षं हि ज्ञानमुद्भिन्नानन्तशुद्धिसन्निधानमनादि-
सिद्धचैतन्यसामान्यसंबन्धमेकमेवाक्षनामानमात्मानं प्रति नियतमितरां सामग्रीममृगयमाण-
मनन्तशक्तिसद्भावतोऽनन्ततामुपगतं दहनस्येव दाह्याकाराणां ज्ञानस्य ज्ञेयाकाराणामन-
र्भूताः प्रतिसमयप्रवर्तमानषट्प्रकारप्रवृद्धिहानिरूपा अर्थपर्याया भावप्रच्छन्ना भण्यन्ते सयलं तत्पूर्वोक्तं
समस्तं ज्ञेयं द्विधा भवति कथमिति चेत् सगं च इदरं किमपि यथासंभवं स्वद्रव्यगतं इतरत्परद्रव्यगतं
तदुभयं यतः कारणाज्जानाति तेन कारणेन तं णाणं तत्पूर्वोक्तज्ञानं हवदि भवति कथंभूतम् पच्चक्खं
प्रत्यक्षमिति अत्राहं शिष्यःज्ञानप्रपञ्चाधिकारः पूर्वमेव गतः, अस्मिन् सुखप्रपञ्चाधिकारे सुखमेव
कथनीयमिति परिहारमाहयदतीन्द्रियं ज्ञानं पूर्वं भणितं तदेवाभेदनयेन सुखं भवतीति ज्ञापनार्थं,
अथवा ज्ञानस्य मुख्यवृत्त्या तत्र हेयोपादेयचिन्ता नास्तीति ज्ञापनार्थं वा एवमतीन्द्रियज्ञानमुपादेयमिति
१. असांप्रतिक = अतात्कालिक ; वर्तमानकालीन नहि ऐसा; अतीतअनागत.
२. अन्तर्लीन = अन्दर लीन हुए; अन्तर्मग्न
३. अक्ष = आत्माका नाम ‘अक्ष’ भी है (इन्द्रियज्ञान अक्ष = अर्थात् इन्द्रियोंके द्वारा जानता है; अतीन्द्रिय
प्रत्यक्ष ज्ञान अक्ष अर्थात् आत्माके द्वारा ही जानता है )
४. ज्ञेयाकार ज्ञानको पार नहीं कर सकतेज्ञानकी हद बाहर जा नहीं सकते, ज्ञानमें जान ही लेते है
९४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
है अमूर्त धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय इत्यादि, मूर्त पदार्थोंमें भी अतीन्द्रिय परमाणु इत्यादि,
तथा द्रव्यमें प्रच्छन्न काल इत्यादि (-द्रव्य अपेक्षासे गुप्त ऐसे जो काल धर्मास्तिकाय वगैरह),
क्षेत्रमें प्रच्छन्न अलोकाकाशके प्रदेश इत्यादि, कालमें प्रच्छन्न
असाम्प्रतिक (अतीत -अनागत)
पर्यायें तथा भाव -प्रच्छन्न स्थूल पर्यायोंमें अन्तर्लीन सूक्ष्म पर्यायें हैं, उन सबकाजो कि स्व
और परके भेदसे विभक्त हैं उनका वास्तवमें उस अतीन्द्रिय ज्ञानके दृष्टापन है; (अर्थात् उन
सबको वह अतीन्द्रिय ज्ञान देखता है) क्योंकि वह (अतीन्द्रिय ज्ञान) प्रत्यक्ष है
जिसे अनन्त
शुद्धिका सद्भाव प्रगट हुआ है, ऐसे चैतन्यसामान्यके साथ अनादिसिद्ध सम्बन्धवाले एक ही
‘अक्ष’ नामक आत्माके प्रति जो नियत है (अर्थात् जो ज्ञान आत्माके साथ ही लगा हुआ है
आत्माके द्वारा सीधा प्रवृत्ति करता है), जो (इन्द्रियादिक) अन्य सामग्रीको नहीं ढूँढता और जो
अनन्तशक्तिके सद्भावके कारण अनन्तताको (-बेहदताको) प्राप्त है, ऐसे उस प्रत्यक्ष ज्ञानको
जैसे दाह्याकार दहनका अतिक्रमण नहीं करते उसीप्रकार ज्ञेयाकार ज्ञानका अतिक्रम (उल्लंघन)
न करनेसेयथोक्त प्रभावका अनुभव करते हुए (-उपर्युक्त पदार्थोंको जानते हुए) कौन रोक