इन्द्रियज्ञानं हि मूर्तोपलम्भकं मूर्तोपलभ्यं च । तद्वान् जीवः स्वयममूर्तोऽपि कथनमुख्यत्वेनैकगाथया द्वितीयस्थलं गतम् ।।५४।। अथ हेयभूतस्येन्द्रियसुखस्य कारणत्वादल्प- विषयत्वाच्चेन्द्रियज्ञानं हेयमित्युपदिशति ---जीवो सयं अमुत्तो जीवस्तावच्छक्तिरूपेण शुद्धद्रव्यार्थिक- सकता है ? (अर्थात् कोई नहीं रोक सकता ।) इसलिये वह (अतीन्द्रिय ज्ञान) उपादेय है ।।५४।।
अब, इन्द्रियसुखका साधनभूत (-कारणरूप) इन्द्रियज्ञान हेय है — इसप्रकार उसकी निन्दा करते हैं —
अन्वयार्थ : — [स्वयं अमूर्तः ] स्वयं अमूर्त ऐसा [जीवः ] जीव [मूर्तिगतः ] मूर्त शरीरको प्राप्त होता हुआ [तेन मूर्तेन ] उस मूर्त शरीरके द्वारा [योग्य मूर्तं ] योग्य मूर्त पदार्थको [अवग्रह्य ] १अवग्रह करके ( — इन्द्रियग्रहणयोग्य मूर्त पदार्थका अवग्रह करके) [तत् ] उसे [जानाति ] जानता है [वा न जानाति ] अथवा नहीं जानता ( — कभी जानता है और कभी नहीं जानता) ।।५५।।
टीका : — इन्द्रियज्ञानको २उपलम्भक भी मूर्त है और ३उपलभ्य भी मूर्त है । वह १. अवग्रह = मतिज्ञानसे किसी पदार्थको जाननेका प्रारम्भ होने पर पहले ही अवग्रह होता है क्योंकि मतिज्ञान
अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा — इस क्रमसे जानता है । २. उपलम्भक = बतानेवाला, जाननेमें निमित्तभूत । (इन्द्रियज्ञानको पदार्थोंके जाननेमें निमित्तभूत मूर्त
पंचेन्द्रियात्मक शरीर है) । ३. उपलभ्य = जनाने योग्य ।