९६प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
पंचेन्द्रियात्मकं शरीरं मूर्तमुपागतस्तेन ज्ञप्तिनिष्पत्तौ बलाधाननिमित्ततयोपलम्भकेन मूर्तेन मूर्तं
स्पर्शादिप्रधानं वस्तूपलभ्यतामुपागतं योग्यमवगृह्य कदाचित्तदुपर्युपरि शुद्धिसंभवादवगच्छति,
कदाचित्तदसंभवान्नावगच्छति, परोक्षत्वात् । परोक्षं हि ज्ञानमतिदृढतराज्ञानतमोग्रन्थिगुण्ठ-
स्पर्शादिप्रधानं वस्तूपलभ्यतामुपागतं योग्यमवगृह्य कदाचित्तदुपर्युपरि शुद्धिसंभवादवगच्छति,
कदाचित्तदसंभवान्नावगच्छति, परोक्षत्वात् । परोक्षं हि ज्ञानमतिदृढतराज्ञानतमोग्रन्थिगुण्ठ-
नान्निमीलितस्यानादिसिद्धचैतन्यसामान्यसंबन्धस्याप्यात्मनः स्वयं परिच्छेत्तुमर्थमसमर्थस्यो-
पात्तानुपात्तपरप्रत्ययसामग्रीमार्गणव्यग्रतयात्यन्तविसंष्ठुलत्वमवलम्बमानमनन्तायाः शक्तेः परि-
स्खलनान्नितान्तविक्लवीभूतं महामोहमल्लस्य जीवदवस्थत्वात् परपरिणतिप्रवर्तिताभिप्रायमपि
पात्तानुपात्तपरप्रत्ययसामग्रीमार्गणव्यग्रतयात्यन्तविसंष्ठुलत्वमवलम्बमानमनन्तायाः शक्तेः परि-
स्खलनान्नितान्तविक्लवीभूतं महामोहमल्लस्य जीवदवस्थत्वात् परपरिणतिप्रवर्तिताभिप्रायमपि
पदे पदे प्राप्तविप्रलम्भमनुपलंभसंभावनामेव परमार्थतोऽर्हति । अतस्तद्धेयम् ।।५५।।
नयेनामूर्तातीन्द्रियज्ञानसुखस्वभावः, पश्चादनादिबन्धवशात् व्यवहारनयेन मुत्तिगदो मूर्तशरीरगतो
मूर्तशरीरपरिणतो भवति । तेण मुत्तिणा तेन मूर्तशरीरेण मूर्तशरीराधारोत्पन्नमूर्तद्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियाधारेण
मुत्तं मूर्तं वस्तु ओगेण्हित्ता अवग्रहादिकेन क्रमकरणव्यवधानरूपं कृत्वा जोग्गं तत्स्पर्शादिमूर्तं वस्तु ।
इन्द्रियज्ञानवाला जीव स्वयं अमूर्त होने पर भी मूर्त -पंचेन्द्रियात्मक शरीरको प्राप्त होता हुआ,
ज्ञप्ति उत्पन्न करनेमें बल -धारणका निमित्त होनेसे जो उपलम्भक है ऐसे उस मूर्त (शरीर) के
द्वारा मूर्त ऐसी १स्पर्शादिप्रधान वस्तुको — जो कि योग्य हो अर्थात् जो (इन्द्रियोंके द्वारा)
ज्ञप्ति उत्पन्न करनेमें बल -धारणका निमित्त होनेसे जो उपलम्भक है ऐसे उस मूर्त (शरीर) के
द्वारा मूर्त ऐसी १स्पर्शादिप्रधान वस्तुको — जो कि योग्य हो अर्थात् जो (इन्द्रियोंके द्वारा)
उपलभ्य हो उसे — अवग्रह करके, कदाचित उससे आगे – आगेकी शुद्धिके सद्भावके कारण उसे
जानता है और कदाचित अवग्रहसे आगे आगेकी शुद्धिके असद्भावके कारण नहीं जानता,
क्योंकि वह (इन्द्रिय ज्ञान) परोक्ष है । परोक्षज्ञान, चैतन्यसामान्यके साथ (आत्माका)
क्योंकि वह (इन्द्रिय ज्ञान) परोक्ष है । परोक्षज्ञान, चैतन्यसामान्यके साथ (आत्माका)
अनादिसिद्ध सम्बन्ध होने पर भी जो अति दृढ़तर अज्ञानरूप तमोग्रन्थि (अन्धकारसमूह) द्वारा
आवृत हो गया है, ऐसा आत्मा पदार्थको स्वयं जाननेके लिये असमर्थ होनेसे २उपात्त और
आवृत हो गया है, ऐसा आत्मा पदार्थको स्वयं जाननेके लिये असमर्थ होनेसे २उपात्त और
३अनुपात्त परपदार्थरूप सामग्रीको ढूँढ़नेकी व्यग्रतासे अत्यन्त चंचल -तरल -अस्थिर वर्तता हुआ,
अनन्तशक्तिसे च्युत होनेसे अत्यन्त ४विक्लव वर्तता हुआ, महामोह -मल्लके जीवित होनेसे
परपरिणतिका (-परको परिणमित करनेका) अभिप्राय करने पर भी पद पद पर ठगाता हुआ,
परमार्थतः अज्ञानमें गिने जाने योग्य है । इसलिये वह हेय है ।
परमार्थतः अज्ञानमें गिने जाने योग्य है । इसलिये वह हेय है ।
भावार्थ : — इन्द्रियज्ञान इन्द्रियोंके निमित्तसे मूर्त स्थूल इन्द्रियगोचर पदार्थोंको ही क्षायोपशमिक ज्ञानके अनुसार जान सकता है । परोक्षभूत वह इन्द्रिय ज्ञान इन्द्रिय, प्रकाश, आदि बाह्य सामग्रीको ढूँढ़नेकी व्यग्रताके (-अस्थिरताके) कारण अतिशय चंचल -क्षुब्ध १. स्पर्शादिप्रधान = जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण मुख्य हैं , ऐसी । २. उपात्त = प्राप्त (इन्द्रिय, मन इत्यादि उपात्त पर पदार्थ हैं ) ३. अनुपात्त = अप्राप्त (प्रकाश इत्यादि अनुपात्त पर पदार्थ हैं ) ४. विक्लव = खिन्न; दुःखी, घबराया हुआ
।