इन्द्रियाणां हि स्पर्शरसगन्धवर्णप्रधानाः शब्दश्च ग्रहणयोग्याः पुद्गलाः । अथेन्द्रियैर्युग- कतंभूतम् । इन्द्रियग्रहणयोग्यइन्द्रियग्रहणयोग्यम् । जाणदि वा तं ण जाणादि स्वावरणक्षयोपशमयोग्यं किमपि स्थूलं जानाति, विशेषक्षयोपशमाभावात् सूक्ष्मं न जानातीति । अयमत्र भावार्थः — इन्द्रियज्ञानं यद्यपि व्यवहारेण प्रत्यक्षं भण्यते, तथापि निश्चयेन केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमेव । परोक्षं तु यावतांशेन सूक्ष्मार्थं न जानाति तावतांशेन चित्तखेदकारणं भवति । खेदश्च दुःखं, ततो दुःखजनकत्वादिन्द्रियज्ञानं हेयमिति ।।५५।। अथ चक्षुरादीन्द्रियज्ञानं रूपादिस्वविषयमपि युगपन्न जानाति तेन कारणेन हेयमिति है, अल्प शक्तिवान होनेसे खेद खिन्न है, परपदार्थोंको परिणमित करानेका अभिप्राय होने पर भी पद पद पर ठगा जाता है (क्योंकि पर पदार्थ आत्माके आधीन परिणमित नहीं होते) इसलिये परमार्थसे वह ज्ञान ‘अज्ञान’ नामके ही योग्य है । इसलिये वह हेय है ।।५५।।
अब, इन्द्रियाँ मात्र अपने विषयोंमें भी युगपत् प्रवृत्त नहीं होतीं, इसलिये इन्द्रियज्ञान हेय ही है, ऐसा निश्चय करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [स्पर्शः ] स्पर्श, [रसः च ] रस, [गंधः ] गंध, [वर्णः ] वर्ण [शब्दः च ] और शब्द [पुद्गलाः ] पुद्गल हैं, वे [अक्षाणां भवन्ति ] इन्द्रियोंके विषय हैं [तानि अक्षाणि ] (परन्तु ) वे इन्द्रियाँ [तान् ] उन्हें (भी) [युगपत् ] एक साथ [न एव गृह्णन्ति ] ग्रहण नहीं करतीं (नहीं जान सकतीं) ।।५६।।
टीका : — १मुख्य ऐसे स्पर्श -रस -गंध -वर्ण तथा शब्द — जो कि पुद्गल हैं वे — १.* स्पर्श, रस, गंध और वर्ण – यह पुद्गलके मुख्य गुण हैं ।
छे इन्द्रिविषयो, तेमनेय न इन्द्रियो युगपद ग्रहे. ५६.