स्वयं जातत्वात्, समन्तत्वात्, अनन्तार्थविस्तृतत्वात्, विमलत्वात्, अवग्रहादि- रहितत्वाच्च प्रत्यक्षं ज्ञानं सुखमैकान्तिकमिति निश्चीयते, अनाकुलत्वैकलक्षणत्वात्सौख्यस्य । यतो हि परतो जायमानं पराधीनतया, असमंतमितरद्वारावरणेन, कतिपयार्थप्रवृत्तमितरार्थ- बुभुत्सया, समलमसम्यगवबोधेन, अवग्रहादिसहितं क्रमकृतार्थग्रहणखेदेन परोक्षं ज्ञानमत्यन्त- उत्पन्नम् । किं कर्तृ । णाणं केवलज्ञानम् । कथं जातम् । सयं स्वयमेव । पुनरपि किंविशिष्टम् । समंतं परिपूर्णम् । पुनरपि किंरूपम् । अणंतत्थवित्थडं अनन्तार्थविस्तीर्णम् । पुनः कीदृशम् । विमलं संशयादिमल-
अन्वयार्थ : — [स्वयं जातं ] अपने आप ही उत्पन्न [समंतं ] समंत (सर्व प्रदेशोंसे जानता हुआ) [अनन्तार्थविस्तृतं ] अनन्त पदार्थोंमें विस्तृत [विमलं ] विमल [तु ] और [अवग्रहादिभिः रहितं ] अवग्रहादिसे रहित — [ज्ञानं ] ऐसा ज्ञान [ऐकान्तिकं सुखं ] ऐकान्तिक सुख है [इति भणितं ] ऐसा (सर्वज्ञदेवने) कहा है ।।५९।।
टीका : — (१) ‘स्वयं उत्पन्न’ होनेसे, (२) ‘समंत’ होनेसे, (३) ‘अनन्त -पदार्थोंमें विस्तृत’ होनेसे, (४) ‘विमल’ होनेसे और (५) ‘अवग्रहादि रहित’ होनेसे, प्रत्यक्षज्ञान २ऐकान्तिक सुख है यह निश्चित होता है, क्योंकि एक मात्र अनाकुलता ही सुखका लक्षण है ।
द्वारोंके आवरणके कारण (३) ‘मात्र कुछ पदार्थोंमें प्रवर्तमान’ होता हुआ अन्य पदार्थोंको जाननेकी इच्छाके कारण, (४) ‘समल’ होनेसे असम्यक् अवबोधके कारण ( — कर्ममलयुक्त होनेसे संशय -विमोह -विभ्रम सहित जाननेके कारण), और (५) ‘अवग्रहादि सहित’ होनेसे क्रमशः होनेवाले ५पदार्थग्रहणके खेदके कारण (-इन कारणोंको लेकर), परोक्ष ज्ञान अत्यन्त १. समन्त = चारों ओर -सर्व भागोंमें वर्तमान; सर्व आत्मप्रदेशोंसे जानता हुआ; समस्त; सम्पूर्ण, अखण्ड । २. ऐकान्तिक = परिपूर्ण; अन्तिम, अकेला; सर्वथा । ३. परोक्ष ज्ञान खंडित है अर्थात् वह अमुक प्रदेशोंके द्वारा ही जानता है; जैसे -वर्ण आँख जितने प्रदेशोंके
द्वारा ही (इन्द्रियज्ञानसे) ज्ञात होता है; अन्य द्वार बन्द हैं । ४. इतर = दूसरे; अन्य; उसके सिवायके । ५. पदार्थग्रहण अर्थात् पदार्थका बोध एक ही साथ न होने पर अवग्रह, ईहा इत्यादि क्रमपूर्वक होनेसे खेद