Pravachansar (Hindi).

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શ્રી દિગંબર જૈન સ્વાધ્યાયમંદિર ટ્રસ્ટ, સોનગઢ - ૩૬૪૨૫૦
माकुलं भवति ततो न तत् परमार्थतः सौख्यम् इदं तु पुनरनादिज्ञानसामान्य-
स्वभावस्योपरि महाविकाशेनाभिव्याप्य स्वत एव व्यवस्थितत्वात्स्वयं जायमानमात्माधीनतया,
समन्तात्मप्रदेशान् परमसमक्षज्ञानोपयोगीभूयाभिव्याप्य व्यवस्थितत्वात्समन्तम् अशेषद्वारा-
पावरणेन, प्रसभं निपीतसमस्तवस्तुज्ञेयाकारं परमं वैश्वरूप्यमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वादनन्तार्थ-
विस्तृतं समस्तार्थाबुभुत्सया, सकलशक्तिप्रतिबन्धककर्मसामान्यनिष्क्रान्ततया परिस्पष्ट-
प्रकाशभास्वरं स्वभावमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वाद्विमलं सम्यगवबोधेन, युगपत्समर्पित-
त्रैसमयिकात्मस्वरूपं लोकालोकमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वादवग्रहादिरहितं क्रमकृतार्थग्रहण-
खेदाभावेन प्रत्यक्षं ज्ञानमनाकुलं भवति
ततस्तत्पारमार्थिकं खलु सौख्यम् ।।५९।।
रहितम् पुनरपि कीदृक् रहियं तु ओग्गहादिहिं अवग्रहादिरहितं चेति एवं पञ्चविशेषणविशिष्टं
यत्केवलज्ञानं सुहं ति एगंतियं भणिदं तत्सुखं भणितम् कथंभूतम् ऐकान्तिकं नियमेनेति तथाहि
परनिरपेक्षत्वेन चिदानन्दैकस्वभावं निजशुद्धात्मानमुपादानकारणं कृत्वा समुत्पद्यमानत्वात्स्वयं जायमानं
१. समक्ष = प्रत्यक्ष
२. परमविविधता = समस्त पदार्थसमूह जो कि अनन्त विविधतामय है
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
१०३
आकुल है; इसलिये वह परमार्थसे सुख नहीं है
और यह प्रत्यक्ष ज्ञान तो अनाकुल है, क्योंकि(१) अनादि ज्ञानसामान्यरूप
स्वभाव पर महा विकाससे व्याप्त होकर स्वतः ही रहनेसे ‘स्वयं उत्पन्न होता है,’ इसलिये
आत्माधीन है, (और आत्माधीन होनेसे आकुलता नहीं होती); (२) समस्त आत्मप्रदेशोंमें
परम
समक्ष ज्ञानोपयोगरूप होकर, व्याप्त होनेसे ‘समंत है’, इसलिये अशेष द्वार खुले हुए
हैं (और इसप्रकार कोई द्वार बन्द न होनेसे आकुलता नहीं होती); (३) समस्त वस्तुओंके
ज्ञेयाकारोंको सर्वथा पी जानेसे
परम विविधतामें व्याप्त होकर रहनेसे ‘अनन्त पदार्थोंमें विस्तृत
है,’ इसलिये सर्व पदार्थोंको जाननेकी इच्छाका अभाव है (और इसप्रकार किसी पदार्थको
जाननेकी इच्छा न होनेसे आकुलता नहीं होती); (४) सकल शक्तिको रोकनेवाला
कर्मसामान्य (ज्ञानमेंसे) निकल जानेसे (ज्ञान) अत्यन्त स्पष्ट प्रकाशके द्वारा प्रकाशमान
(-तेजस्वी) स्वभावमें व्याप्त होकर रहनेसे ‘विमल है’ इसलिये सम्यक्रूपसे (-बराबर)
जानता है (और इसप्रकार संशयादि रहिततासे जाननेके कारण आकुलता नहीं होती); तथा
(५) जिनने त्रिकालका अपना स्वरूप युगपत् समर्पित किया है (-एक ही समय बताया
है) ऐसे लोकालोकमें व्याप्त होकर रहनेसे ‘अवग्रहादि रहित है’ इसलिये क्रमशः होनेवाले
पदार्थ ग्रहणके खेदका अभाव है
इसप्रकार (उपरोक्त पाँच कारणोंसे) प्रत्यक्ष ज्ञान
अनाकुल है इसलिये वास्तवमें वह पारमार्थिक सुख है