समन्तात्मप्रदेशान् परमसमक्षज्ञानोपयोगीभूयाभिव्याप्य व्यवस्थितत्वात्समन्तम् अशेषद्वारा-
पावरणेन, प्रसभं निपीतसमस्तवस्तुज्ञेयाकारं परमं वैश्वरूप्यमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वादनन्तार्थ-
विस्तृतं समस्तार्थाबुभुत्सया, सकलशक्तिप्रतिबन्धककर्मसामान्यनिष्क्रान्ततया परिस्पष्ट-
प्रकाशभास्वरं स्वभावमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वाद्विमलं सम्यगवबोधेन, युगपत्समर्पित-
त्रैसमयिकात्मस्वरूपं लोकालोकमभिव्याप्य व्यवस्थितत्वादवग्रहादिरहितं क्रमकृतार्थग्रहण-
खेदाभावेन प्रत्यक्षं ज्ञानमनाकुलं भवति । ततस्तत्पारमार्थिकं खलु सौख्यम् ।।५९।।
और यह प्रत्यक्ष ज्ञान तो अनाकुल है, क्योंकि — (१) अनादि ज्ञानसामान्यरूप स्वभाव पर महा विकाससे व्याप्त होकर स्वतः ही रहनेसे ‘स्वयं उत्पन्न होता है,’ इसलिये आत्माधीन है, (और आत्माधीन होनेसे आकुलता नहीं होती); (२) समस्त आत्मप्रदेशोंमें परम १समक्ष ज्ञानोपयोगरूप होकर, व्याप्त होनेसे ‘समंत है’, इसलिये अशेष द्वार खुले हुए हैं (और इसप्रकार कोई द्वार बन्द न होनेसे आकुलता नहीं होती); (३) समस्त वस्तुओंके ज्ञेयाकारोंको सर्वथा पी जानेसे २परम विविधतामें व्याप्त होकर रहनेसे ‘अनन्त पदार्थोंमें विस्तृत है,’ इसलिये सर्व पदार्थोंको जाननेकी इच्छाका अभाव है (और इसप्रकार किसी पदार्थको जाननेकी इच्छा न होनेसे आकुलता नहीं होती); (४) सकल शक्तिको रोकनेवाला कर्मसामान्य (ज्ञानमेंसे) निकल जानेसे (ज्ञान) अत्यन्त स्पष्ट प्रकाशके द्वारा प्रकाशमान (-तेजस्वी) स्वभावमें व्याप्त होकर रहनेसे ‘विमल है’ इसलिये सम्यक्रूपसे (-बराबर) जानता है (और इसप्रकार संशयादि रहिततासे जाननेके कारण आकुलता नहीं होती); तथा (५) जिनने त्रिकालका अपना स्वरूप युगपत् समर्पित किया है (-एक ही समय बताया है) ऐसे लोकालोकमें व्याप्त होकर रहनेसे ‘अवग्रहादि रहित है’ इसलिये क्रमशः होनेवाले पदार्थ ग्रहणके खेदका अभाव है । — इसप्रकार (उपरोक्त पाँच कारणोंसे) प्रत्यक्ष ज्ञान अनाकुल है । इसलिये वास्तवमें वह पारमार्थिक सुख है । १. समक्ष = प्रत्यक्ष २. परमविविधता = समस्त पदार्थसमूह जो कि अनन्त विविधतामय है