येषां जीवदवस्थानि हतकानीन्द्रियाणि, न नाम तेषामुपाधिप्रत्ययं दुःखम्, किंतु
स्वाभाविकमेव, विषयेषु रतेरवलोकनात् । अवलोक्यते हि तेषां स्तम्बेरमस्य करेणुकुट्टनीगात्र-
स्पर्श इव, सफ रस्य बडिशामिषस्वाद इव, इन्दिरस्य संकोचसंमुखारविन्दामोद इव, पतंगस्य
प्रदीपार्चीरूप इव, कुरंगस्य मृगयुगेयस्वर इव, दुर्निवारेन्द्रियवेदनावशीकृतानामासन्ननिपातेष्वपि
विषयेष्वभिपातः । यदि पुनर्न तेषां दुःखं स्वाभाविकमभ्युपगम्येत तदोपशान्तशीतज्वरस्य
संस्वेदनमिव, प्रहीणदाहज्वरस्यारनालपरिषेक इव, निवृत्तनेत्रसंरम्भस्य च वटाचूर्णावचूर्णनमिव,
विनष्टकर्णशूलस्य बस्तमूत्रपूरणमिव, रूढव्रणस्यालेपनदानमिव, विषयव्यापारो न दृश्येत । दृश्यते
चासौ । ततः स्वभावभूतदुःखयोगिन एव जीवदिन्द्रियाः परोक्षज्ञानिनः ।।६४।।
कस्मादिति चेत् । पञ्चेन्द्रियविषयेषु रतेरवलोकनात् । जइ तं ण सब्भावं यदि तद्दुःखं स्वभावेन नास्ति
हि स्फु टं वावारो णत्थि विसयत्थं तर्हि विषयार्थं व्यापारो नास्ति न घटते । व्याधिस्थानामौषधेष्विव
११२प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
टीका : — जिनकी हत (निकृष्ट, निंद्य) इन्द्रियाँ जीवित (-विद्यमान) हैं, उन्हें
उपाधिके कारण (बाह्य संयोगोंके कारण, औपाधिक) दुःख नहीं है किन्तु स्वाभाविक ही
है, क्योंकि उनकी विषयोंमें रति देखी जाती है । जैसे – हाथी हथिनीरूपी कुट्टनीके शरीर-
स्पर्शकी ओर, मछली बंसीमें फँसे हुए मांसके स्वादकी ओर, भ्रमर बन्द हो जानेवाले
कमलके गंधकी ओर, पतंगा दीपककी ज्योतिके रूपकी ओर और हिरन शिकारीके संगीतके
स्वरकी ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं उसीप्रकार – दुर्निवार इन्द्रियवेदनाके वशीभूत होते हुए
वे यद्यपि विषयोंका नाश अति निकट है (अर्थात् विषय क्षणिक हैं) तथापि, विषयोंकी
ओर दौड़ते दिखाई देते हैं । और यदि ‘उनका दुःख स्वाभाविक है’ ऐसा स्वीकार न किया
जाये तो जैसे — जिसका शीतज्वर उपशांत हो गया है, वह पसीना आनेके लिये उपचार
करता तथा जिसका दाहज्वर उतर गया है वह काँजीसे शरीरके तापको उतारता तथा जिसकी
आँखोंका दुःख दूर हो गया है वह वटाचूर्ण (-शंख इत्यादिका चूर्ण) आँजता तथा जिसका
कर्णशूल नष्ट हो गया हो वह कानमें फि र बकरेका मूत्र डालता दिखाई नहीं देता और
जिसका घाव भर जाता है वह फि र लेप करता दिखाई नहीं देता — इसीप्रकार उनके विषय
व्यापार देखनेमें नहीं आना चाहिये; किन्तु उनके वह (विषयप्रवृत्ति) तो देखी जाती है ।
इससे (सिद्ध हुआ कि) जिनके इन्द्रियाँ जीवित हैं ऐसे परोक्षज्ञानियोंके दुःख स्वाभाविक
ही है ।
भावार्थ : — परोक्षज्ञानियोंके स्वभावसे ही दुःख है, क्योंकि उनके विषयोंमें रति
वर्तती है; कभी -कभी तो वे, असह्य तृष्णाकी दाहसे (-तीव्र इच्छारूपी दुःखके कारण)